04 दिसंबर, 2017

अंजनी कुमार की कविताएं


अंजनी कुमार: छात्र आंदोलन और राजनीति में कार्यकर्ता की जिंदगी शुरू करने के साथ औपचारिक पढ़ाई को अलविदा कह चुके थे, मगर कविता, कहानी इनके साथ बने रहे थे। फिर इन्हें  किताब और जिंदगी के बीच का रिश्ता सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सक्रियता की ओर ले गया।

अंजनी कुमार

स्वतंत्र लेखन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लेखन जारी रहा, मगर यहां कहानी ,कविता कुछ बरस पीछे छूट गए। आपने  ‘जनप्रतिरोध’ पत्रिका के सहसंपादक के तौर पर काम किया। फिर साहित्यिक, सांस्कृतिक पत्रिका ‘भोर’ का चार अंक का संपादक किया।  सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रियता बढ़ने से पिछले कुछ बरसों  कहानी-कविता लिखने का सिलसिला बंद सा हो गया था। लेकिन अब  एक बार फिर कहानी-कविता लेखन की और लौटने हैं । आज बिजूका के मित्रों के समक्ष अंजनी कुमार  कविताएं प्रस्तुत है।



कविताएं

एक

यहां नरसंहार करने वाला
हत्या न करने का उपदेश दे रहा है
दंगाई दंगा जड़ से उखाड़ देने का नारा दे रहा है
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा आदमी
बारिश में न भीगने का संसद में व्यंग कस रहा है
यह भी खूब है-
खून ओ खुरेज में डूबा हुआ आदमी
खून की शिनाख्त में इंसान का गरेबां पकड़ रहा है,
और यह सब कुछ हो रहा है
चल रहा है
चलता ही जा रहा है, ...
दो जून की रोटी की उस उम्मीद पर
यह लोकतंत्र
या इसे जो भी नाम दे सकें
पर जो है, जाता ही जा रहा है
न जाने कहां,
तुम्हें फिक्र है इसकी तो करो
तुम्हें कहना है इसे फासीवाद तो कहो
इतना और भी कहो
अब नहीं, हां अब नहीं।।

4 अपै्रल 2017, दिल्ली
००

अवधेश वाजपेई


दो

जब उन्हेें पता चला
वे भेड़ियों की तरह यहां वहां सूंघते हुए
सिर उठाकर हवा से इंसानी बू को झिंझोड़ते हुए
गोलबंद होने लगे, वे उस रास्ते की ओर बढ़ रहे थे
जिधर से मुसलमान गुजर रहे थे, अपने लोगों से दूर
ये तिजारत से दो रोटी कमाकर
भूख को मात देने उस सड़क से गुजर रहे थे
जिस पर काबिज थे भेड़ियों के सरदार,
ये गूगल पर उन्हें असल लोकेशन दे रहे थे
और झुंड बनाकर बढ़ते जा रहे थे।
वे भेड़िये नहीं थे, वे भेड़ियों की कमान में थे
वे इंसानी शक्ल में थे हमारी तुम्हारी तरह, और
बीसवीं सदी में पैदा हुए इक्कसवीं सदी के हिन्दू थे,
वे एक बहुत बड़ा संकट टालने की खातिर
वे मारने निकले थेे दुश्मन
वे सिर्फ हत्यारे नहीं थे, और
उनके नेता इसी नारे तक सीमित नहीं थे,
वे जो भेड़ियों की तरह सूंघ रहे थे मुसलमानों का खून
वे अमेरीकी नहीं थे
वे अपने देश के प्रधानमंत्री नहीं थे
वे यहीं अपने मुहल्लों, गांवों, शहरों के बाशिंदे थे, और
आदिवासियों के कत्ल में देख रहे थे देश का विकास
वे गृहमंत्रालय की हां में हां थे, और
प्रधानमंत्री की ना में ना थे
वे मौत थे और मृतक भी
वे नाटक के शुरू थे और त्रासद अंत भी
बात इतनी ही हो तो लिखी जा सकती है
नये युग का महाकाव्य, लेकिन
वे सिर्फ हत्यारे नहीं थे
उनकी आंखों में राजनीति का पूरा नक्शा था।।

4 अपै्रल 2017, दिल्ली
 ००


तीन

उसने कब सोचा था
उस पर लिखी जायेगी कविता
और कुछ शब्द
जाया होंगे यूं ही,
मैंने भी नहीं सोचा इस बीच
इतनी शिद््दत से।
गुजरात नरसंहार पर लिखते हुए कविता
मैं राम का अवतरण लिख रहा था
एक हिंसा से लबरेज
कलयुग में जयश्रीराम का अवतरण,
मैं गर्भ में मार दिये गये बच्चे की बंद आंख में
अखलाक की चीख और
रोहित वेमुला की मौत देख रहा था
एक अनजीये दुनिया की रंगीनिया
विलापते हुए खोज रही
अभिव्यक्ति का आश्रय
शायद कविता
शायद ट्रिगर पर टिकी हुई ऊंगली, ...
तब कहां सोचा था
इस बार प्रधानमंत्री
विश्वबैंक की कोख से नहीं
गुजरात से निकलेगा
एक मॉडल
कविता की भाषा में एक शिल्प
प्रधानमंत्री एक शिल्प की तरह विकसित हुआ है,
कविता लिखते हुए कई बार लगता है
शब्द पत्थरों में क्यों नहीं ढ़लते
मैं कश्मीर क्यों नहीं हो जाता
किसान चलती हुई बंदूक क्यों नहीं हो जाता,
मैंने कब सोचा था
एक पुरानी कविता मुझे ही खोजते हुए
मुझ तक आयेगी, और मैं चिढ़ रहा होऊंगा
अपनी ही कविता से
मैं अब भी लिख रहा हूं कविता
शब्द नाराज हो छिटक गये हैं मुझसे दूर दूर दूर ...
किसके बारे में लिख रहा हूं कविता।।।

5 अगस्त 2017, दिल्ली
००


चार

मैं जानता हूं कविता नींद नहीं लाती
फिर भी लिख रहा हूं
मसलों को खबर से मुक्त कर
लय में ला रहा हूं उन्हें
राग में उतार कर देखना चाहता हूं
स्वरों के रंग
ऐसे भी कहां आती है शोर में नींद ।।।

6 अगस्त 2017, दिल्ली
००


अवधेश वाजपेई



पांच

खबर बिकता है
इसीलिए अखबार बिकता है
अब मिडिया चैनल
दृश्य बेच रहा है
आप कहेंगे किताब भी बिकती है
मार्क्स की पूंजी
प्रेमचंद का उपन्यास बिकता है
मैं भी कहूंगा
हां, भोजन बिकता है
दवा बिकती है
गाने की किताब बिकती है
आठ घंटे, बारह घंटे, चौबीस घंटे, ...
इंसान का श्रम बिकता
मां से फोन पर बात करने का
समय बिकता है
और तुम तक यह कविता पहुंचे
उसका माध्यम बिकता है
तर्क के इस गोल घेरे से
बाहर है राजसत्ता
हम बाजार की पहेलियां बुझा रहे हैं।।।

6 अगस्त 2017, दिल्ली
००


सात

पिता नहीं चाहते
बच्चे खेल के मैदान में हों
मां नहीं चाहती
बच्चे पार्क में जायें
वे चाहते हैं किताबों की सीढ़ीयों से
रोजगार के स्वर्ग में उतरें
बचे हुए अरमानों पर खड़े हो
फिर से रचें मां और पिता होना,
मैं न मां हूं न पिता
मुझे कुछ नहीं चाहिए बच्चों से,
मां इसी बात से गुमसुम है
हर बार पूछती है
कब तक रहोगे यूं ही अकेले
जिंदगी ऐसे नहीं कटती है,
मैं देख रहा हूं मां की बेचैनी
झुर्रियों से उलझते हुए गिर रहे आंसू
पकड़ना चाहते हैं मेरे भीतर की जिंदगी
गोया मैं कट गया हूं जिंदगी से यूं ही ।।।

6 अगस्त 2017, दिल्ली
००

गूगल से


आठ

तुम भी इंसान हो
मैं भी, वह भी, इंसान के शक्ल में सभी
यह फर्क और बराबरी की बात
इंसान के शिनाख्त की बात किसने की
किसकी पेशकश थी ईश्वर के बरक्स
इंसान बराबर है, और फिर
राजा आया, जमींदार आया
पंच आया, पुलिस आई, संविधान आया
न्याय के काठ का कटघरा आया
संसद, विधान सभा और राज्यपाल आया
और इस सबके लिए गढ़ी गई भाषा
शब्द बन गये देव,
कौन लाया यह सब
कौन लाया इंसान होने का अथाह सब्र
मेरे शरीर का एक एक अंग
इस इंसानी शक्ल से टूट रहे हैं
खोज रहे हैं एक चिंगारी
आदिम आग
जहां से शुरू हो सके इंसान की जिंदगी।।।

7 अगस्त 2017, दिल्ली
 ००


नौ

मैं लाइब्रेरी में तलाश रहा हूं
नक्सलबाड़ी पर लिखी किताबें
मोटी धूल की परत हटाते हुए
देख रहा हूं पीले, जर्जर पन्नों पर
पुरानी प्रिंट से निकले शब्द,
इस किताब को छपे चालीस साल हुए
कुछ की उम्र तीस साल है
कुछ छपी हैं पिछले पांच सालों में
कुल जमा सत्रह किताबें
मैंने रख दिया है इन्हें
लाईब्रेरी की मेज पर
मैं जानता हूं
नक्सलबाड़ी सिर्फ एक गांव का नाम नहीं है
फिर भी शहर में उतरी हुई
गवईं झुंड सी दिख रही है किताबें,
लाइब्रेरी इतना ही जानता है इसे।।।

8 अगस्त 2017, दिल्ली
००

दस

मुझे अभी तक याद नहीं आया है उस पेड़ का नाम
जिस पर ढेर सारे नीले फूल थे
कुछ गिलहरियां, कुछ पक्षी और कुछ तितलियां
जो मचल रही थीं यहां से वहां,
तुमने भी नहीं बताया अब तक उस पेड़ का नाम
महीने बीतते गये हैं चुपचाप और अब
यह वसंत के अंतिम दिन हैं
तपमान 40 डीग्री सेल्सियस से ऊपर जा रहा है,
जानता हूं यह चुप्पी
जेठ की दुपहरी की तरह खतरनाक है,
मुझे उम्मीद है हम खोज ही लेंगे उस पेड़ का नाम
और शुरू हो सकेगा हमारी बात का सिलसिला।।

29 अप्रैल 2014 दिल्ली
००

ग्यारह

हम अक्सर चाय के साथ
एक सिगरेट का साथ लेते हैं
और बात का सिलसिला
हमारी जिंदगी की बिहड़ों से होता हुआ
पतली पगडंडी के सहारे
वहीं पहुंच जाता है जहां आदमी
गुरिल्ला बन गया है और जीवन
भविष्य का एक स्पर्षनीय सपना;
हम यहीं चुप हो जाते हैं
अपने शहर लौट आते हैं
भागदौड़ में मशगूल हो जाते हैं
और प्यार एक गुरिल्ला जीवन तरह
हमारी वापसी के कल का इंतजार करता है।।

18 अप्रैल 2014 दिल्ली

3 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे समय के जटिल यथार्थ को अभिव्यक्त करने की जैसी क्षमता ,जैसी मारकता अंजनी की कविता में है वैसा कम ही कवियों के यहाँ है । समकालीन हिन्दी कविता का यह कवि मुकाबले अपने समकालीनों के लगातार बेहतर कर रहा हैं । इसमें कोई दो राय नहीं कि वे आगे के दिनो में प्रतिनिधि कवियों में शुमार किये जाएं ।

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  2. हमारे समय के जटिल यथार्थ को अभिव्यक्त करने की जैसी क्षमता ,जैसी मारकता अंजनी की कविता में है वैसा कम ही कवियों के यहाँ है । समकालीन हिन्दी कविता का यह कवि मुकाबले अपने समकालीनों के लगातार बेहतर कर रहा हैं । इसमें कोई दो राय नहीं कि वे आगे के दिनो में प्रतिनिधि कवियों में शुमार किये जाएं ।

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