05 दिसंबर, 2017

 नीलोत्पल की कविताएं

नीलोत्पल

कविताएं

पहाड़ किसको हराते हैं, नदियां किससे जीतती हैं 


एक
               
एक असत्य पंक्ति उठाकर उछाल दी
तुम चाहो इसे काट दो
या हटा दो किसी आईने के सामने से
ऐसा करते हुए हरगिज़ नहीं टोकूंगा तुम्हें
क्योंकि वह जड़ होने जा रही
एक धारणा है

मैंने कहा मैं एक खिलाड़ी हूं
और मैदान मेरा घर
यक़ीनन यह पराजित करने के भाव से 
उत्पन्न पंक्ति नहीं है
खेल मेरा उद्देश्य नहीं 
वह कौशल भर है
मैं तो मैदानों में हरी घासों के लिए 
वह सूख चुका जीवाश्म हूं ओस की बूंदों का

हरेपन में विलुप्त 
मैं ही दौड़ लगाता हूं चारों ओर
कोई नियम मुझे बांधता नहीं
क्योंकि यहां खेल नहीं
अपने ही नियमों में बंध जाने की असमाप्त प्रक्रियाएं हैं 
निरंतर गिरने और सूखने का भाव हमें बदलता है 
००




 दो

क्या यहां कोई हार-जीत चल रही है

क्या मैं सच में एक खिलाड़ी हूं

लेकिन मैं न हारता हूं, न जीतता 

खेल तो दूसरे की प्रकृति के विपरीत ही होता है

हम कौन-सा खेल खेलते हैं ?

पहाड़ किसको हराते हैं
नदियां किससे जीतती हैं
हवाओं न कब किसे पीछे छोड़ा

क्या तुम किसी पराजित करने वाली बारिश को जानते हो?

दरअसल खेल के कई अर्थ हैं
सबके लिए भिन्न हो सकते हैं

मेरे लिए खेल युद्ध नहीं
बल्कि युद्ध से बाहर जहां कोई युद्ध नहीं
असामान्य अर्थो में 
मैं अपना कौशल रखता हूं
००

दो


सभी के बीच हत्याएं होती हैं


सभी के बीच हत्याएं होती हैं
ख़ूबसूरत शहर इसी तर्ज़ पर बनते हैं

हम उन्हीं आंखों से देखते हैं
जो उन्माद और संयम से भरी हों

विचार एक प्रक्रिया है जो पेड़ों
और समुद्र में सबसे ज़्यादा चलती है 

अधूरे सवाल शहर की दुर्गति में शामिल रहते हैं
मक्खियां भंग करती हैं अपनी एकाग्रता

उनमें कोई आदर्श नहीं होता 
फिर भी वे क़रीब से जानती हैं 
परित्यक्त चीज़ों को 

शहर को जानना चाहिए 
मक्खियों के बारे में 
जब वे भिनभिनाती हैं
और ख़ाली हाथ फटकते हैं
अपनी अहिंसा छोड़कर 
००


अवधेश वाजपेई


तीन


शब्द ज़ख़्मी हैं तो तुम्हारी ज़िद के कारण
महमूद दरवेश के लिए

पुकारता हूँ
तुम्हारी कविता के ज़रिए...

यह एक उजाले वाली शाम...
मेरी साँसों की गिरफ़्त में 
एक छटपटाता हुुआ स्वर
समुंदर किनारे, रेत के धँसाव में
एक आवाज़
चीख़ती हमारे दरमियान 

कोई लो 
कोई रखो उसे अपनी जीभ पर
महसूस करो 
हाँ, महसूस करो 
वह घुल रहा हमारे रक्त में,
उन झुकी दूबों में 
जिन पर पैर रख निकले हो तुम,
उन दहकती आँखों में
जहां गिर रही है तुम्हारे शब्दों की बर्फ़ 

तुम्हारे गीत सरहद चीरते
चिड़ियाओं की मानिंद
बैख़ौफ़ आ धमकते हैं हमारे दिलों में

आख़िर हम नाराज़ हों तो किस बात पर
हमारी नाराज़गियों में भी चहेते हो तुम 

नदिया, दरख़्त, बादल, पहाड़, आसमान
पता पूछते हैं तुमसे मिलने के लिए
तुम्हारा पता हवाओं-सा
हर कहीं मौजूद

अंगूर की धार-सा तीखा और तेज़
तुम्हारा आज़ादी और मुक्ति का सपना
देख रही है यह दुनिया
किस तरह निसार तुम
मुल्क और अपने लोगों पर
तुम्हें सलाम!

घेरेबंदी जारी है हर कहीं
लेकिन हम जानते हैं 
तुम्हारे जूझते-टूटते आदमी को
अगर शब्द ज़ख़्मी हैं तो
वह लगातार तुम्हारे संघर्श की ज़िद के कारण
तुम्हारी ज़िद 
कब्ज़ा कर चुकी है कई-कई दिलों पर

हमारे गालों पर ठहरे जमे आँसू
तुम्हारे जज़्बातों की गर्मी से 
पिघलने लगे हैं
हम फिर से सपने देखते हैं 
हम तुम्हारी “उम्मीदवाली बीमारी से ग्रस्त” हैं

धरती चूम रही तुम्हारा माथा
सुनो, सुनो उसका जाना
मिट्टी के भीतर 
जड़ों में
००

चार

हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा ज़िंदगी की हार पर

जीवन नहीं रहा उस तरह 
जिस तरह एक आवाज़ के साथ
होती थीं कई-कई आवाज़ें

बैलों के खुरों में होती थी गति 
खेतों के विस्तार की
वे चाव से हल खींचते 
और हम नाप लेते 
जीवन के छुटे हुए कोनों में 
मिट्टी का साथ

हम सुख-दुख का पीछा नहीं करते थे 
धूल हमें प्यारी थी
पत्थरों पर कई गीत लिखे 
जो मिटाये नहीं जा सके 
न्याय के लिए अदालतें नहीं
गवाही भीतर होती थी
जिसे सच मान लिया जाता 
बिना शक़ और सवाल के 

हम अक्सर अपनी ग़लतियों पर 
क्षमा मांगते थे
होता यूं कि हम छोटा करते खुद को
और आजादी और अपनेपन को 
रखते हमेशा उठाकर

कोरे शब्द नहीं रहे कभी हमारे पास 
उनमें सच्चाइयाँ थीं हमारे ख़ून की 
हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा 
ज़िंदगी की हार पर

जंगल से जब भी लकड़ियां लीं 
भींगे  हुए थे हम
हम भरे थे प्यार और करुणा से
जब भी हमने गले लगाया एक-दूसरे को

हम काम से लौटते 
और रिश्तों के ताने-बाने में उलझकर 
एक सुआ इस तरह टाँकते कि
ज़रूरत ही नहीं पड़ती गठान की 

जीवन नहीं उस तरह 
जिस तरह सच आज खड़ा है बाज़ार में
सौदे और बोलियों के बीच 
देख रहा है वह चुके हुए इंसान की तरह
अपने उदास और दुखी मन की 
स्वीकारोक्ति पर 
उठते-गिरते सवालों की नूरा-कुश्ती

तमाशों का दौर जारी है...
००


पांच

रस्सियां


रस्सियां आत्मकेन्द्रीत होती हैं
उन्हें खोलने का ज़ोखिम नहीं लिया जा सकता
सिर्फ़ बाँस के बम्बू जानते हैं
रस्सियां उन्हें जोड़ती या मिलाती नहीं
बिना किसी दर्शन के टिकी रहती हैं हवाओं में

परछाईयां झूलती हैं, अटकती हैं
तरह-तरह के फंदे सौदा करते हैं
हवा और पानी की निश्चित धुरी पर 
जहाज़ लंगर डालता है
ज़मीन की हलचल मुक्त रखती है रस्सियों को
प्रेम के अनुभव से 

हर कहीं एक ज़रूरी गाँठ  
विचारों की नई भंगिमा बनाते हैं 
तकिए कपास की बेहद मुलायम गांछें हैं
दोनों सिरों पर एक अनुभवहीन आज़ादी
हर तंतु भाप पर सख़्ती से लपेटा
अदृश्य होती लहरों में 

उफनने लगता है समुद्र
लहरें समुद्र की रस्सियां हैं 
जिसके दोनों सिरों उमड़ता है बचपन

रस्सियां नृत्य की कामना है
००

छः

सुख उसके लिए रिक्त स्थान की तरह रहा

बचपन से 
मैं उसे सुखिया मौसी कहता आया हूँ
पड़ोस की दुकान पर वह अनाज साफ़ करने आती है
माँ के पास वह अक्सर आती रोटी सब्ज़ी और पानी लेने
गेहूँ बीनते फटकारते बतियाती रहती 
घर-गृहस्थी के अंतहीन दुखों के बारे में

मेरे लिए यह उबाऊ था उन दिनों 
वह यदा-कदा झिड़कती हमारे क्रिकेट खेलने पर

आज वह ख़ामोश बैठी है 
विदा की बेटियों के लौट आने पर

उसके भीतर कुछ है 
जो कुतर रहा है 
बाक़ी बचे दिनों को 

उसकी उदासी घायल समुद्र की तरह
भीतर हमला करती है 
और वह बेसुध दुख के मुहाने की ओर
अकेली चलती चली जाती है 

पीछे देखने पर 
नज़र नहीं आते वे निशान 
जो वह छोड़कर आ रही थी

देखते-देखते 
सदी कई फाँक में बँट गई थी
और वह हर फाँक के साथ थोड़ा-थोड़ा

अलग हुए बेटों के साथ 
जीने की उम्मीदें
विदा की बेटियों की जगह 
रह गए घर के ख़ाली कोने 
थे उसके हिस्से में
सुख जैसे उसके लिए रिक्त स्थान की तरह रहा
जिसे वह कभी नहीं भर पाई 

मुझे दिखाई नहीं दिया 
अनाज बीनते एक स्त्री 
किस तरह ख़ारिज़ कंकड़ों में बटोर रही है
अपनी गृहस्थी का सामान
जैसे कोई नंगे पाँव दौड़ रहा हो धरती पर 
बिना कहीं ठहर बिना कुछ पाए

जैसे यहीं वह अपनी पृथ्वी लेकर आई 
यहीं उसने दुखों के साथ समझौता किया
यहीं वक़्त उस पर नमक और मरहम दोनों रगड़ता रहा

आँखों के नीचे की परछाइयाँ चुप थीं 
लेकिन उसके हाथ तेज़ी से 
चुनते रहे कंकर

जैसे गर्म लहरों का उफान 
उठ रहा था किनारों की ओर 
मैं था उस जगह 
जहाँ धरती दौड़ रही थी
स्त्री के पैरों की गति से
००


अवधेश वाजपेई

सात


मेरे सीने पर चाक चलता है

हम सब घर में बैठे है व्यस्त 
मुझे अच्छी लगती है यह व्यस्तता
लेकिन जैसे ही बाहर आता हूं
नुकीले पत्थर, गुर्राती आवाजें
डूबते अरमान फैंकती कुछ महीन चीज़ें
दरों से टकराती है मेरी दबी आवाज में
मैं घिर जाता हूं
बाहर के असमंजस से

मेरे सीने पर चाक चलता है
मैं घंटों, महीनों, सालों 
कुछ नहीं गढ़ पाता 
जैसे एक बेआवाज चिड़िया 
गाती है बारीश में 
पत्तों से टपकता है द्रव
सब कुछ बाहर आता है साफ-चमकदार
लेकिन दूर तक एक तन्द्रा, एक खौफ
एक दौड़ एक सरसराती बैचेनी
निगल लेती है ऋतुओं की गीली सांसे

मैं कुछ नहीं गढ़ पाता 
जहां खेतों में आलुओं के निकाले जाने की गंध है
जहां रेशा-रेशा मक्का के दानों भरा 
टपकता है दूध हमारी धूजती जबान पर
जहां आसमान के फैलाव के इतने क्षितिज है
कि एक समय में लौटना आसान नहीं

मैं घिरा हूं, भटका हूं
मैं हर सुबह देखता हूं
एक फटा नक्शा, एक चींथा नक्शा
लगातार टूटने की आवाजों से 
घिरा है शब्द-शब्द
बस हर बार सुबह
मैं कहता हूं
कोई प्रार्थना नहीं, किसी के लिए अनुनय 
या शुभकामना भी नहीं
ये मेरी रंगत या हैसियत नहीं
बस अपने हलके जी में चाहता हूं
कहीं कोई फरमान 



कोई पंचायत
छिन तो नहीं रहा
किसी की आजादी
किसी का प्रेम
किसी के सपने
००

नौ

रास्ते वहां भी हैं

रास्ते वहां भी हैं
जहां खुदाई की नहीं

क्या तुम तैयार हो
क्या तुमने अपना दिमाग और हाथ 
साथ लिए हैं

यदि कुछ भुल रहे हो तो
उस अंधेरे कमरे में जाओं
जहां तुम्हारा सामान रखा है

क्या तुम जानते हो 
तुम्हारी छिली इुई पेंसिलें कहां रखी है। 
क्या तुम्हारे हाथ दीवारों पर हैं

क्या तुम थककर बैठ गए हो
अच्छा है अब तुम कुछ नहीं सोचोगे

नहीं सोचना भी
चीज़ों को यथावत् रखता है
और अहसान भी ख़ुद के उपर

जब तुम जागो तो
उस ओर मत जाना
जहां सोए थे
उस ओर भी मत जाना 
जहां तुम्हें कोई बुला रहा हो

उस ओर जाना 
जिधर दिखाई नहीं देता समुद्र

यदि तुम नहीं दिखे समुद्र की तलाश में हो तो
खुदाई शुरू करो

समुद्र तुम्हें तमाम रास्तों के बारे में 
अपने अनुभव बताएगा

यह एक अच्छी शुरूआत हो सकती है
००


 दस

मेरी छाती धड़कती है निर्वस्त्र मन को छूने पर

वे अनियमितताएं और असभ्यता पसंद हैं मुझे
जहां रखना नहीं होता ख़ुद को इस तरह
कि तख़्ती लगाकर घूमना पड़े अपने चरित्र की
छोड़ना पड़े अपना बनाया हुआ आकाश
जहां साधु और तंत्र चरितार्थ नहीं होते

ये एक समय की बानगी है कि
कोई भी ढंग, बेढंगा कहा जा सकता है

मेरे पास वे शब्द भी हैं
जिन्हें निर्लज्जता से छूता हूं
वे जीवन जिनकी धरती नहीं
उनमें रखता हूं कदम

मेरी छाती धड़कती है 
निर्वस्त्र मन को छूने पर
यहां नहीं होता किसी तरह का मान या अपमान

बस यह घूमती पृथ्वी 
और उनमें घोले हुए हमारे रंग
जिनकी सूरतें दिखती हैं आईने के पार भी

मैं जिस सूरज को देखता हूं
वह आज भी रोशनी डालता है 
उन अंधेरी जगहों में
जहां नैतिकता और सच नहीं पहुंचते

जब भी यह बात ध्यान आती है
कि जीवन में कवि होने का अर्थ ही
चढ़ा दिया जाना है अपने बनाए सलीब पर
तब दर्द हमारे भीतर आता है इस तरह
जैसे हम उतार रहे हों उलझी पतंगंे पेड़ों से

अंततः हम सफल नहीं होते

क्योंकि हम सफल होने नहीं आए हैं
हम लौट जाते हैं अपने बनाए जंगलों में
जहां हम शुरुआत करते हैं पत्थरों से
और पत्थर कहीं से भी अनैतिक और असभ्य नहीं ।
००



अनगिनत ज़िंदगियां
  
     - 1 -

ज़िंदगी वहां भी थी
जहां मैं खोज नहीं रहा था
हर जगह, हर कदम, हर सांस में
वह घुल रही थी
जैसे हमने ख़ुद को देखा हो
और चौंककर घबराने लगे
अरे, यह कौन है
जो मेरी तरह आवाज़ बनाता है
लेकिन जब चुप होता है तो
भूल जाता हूं कि पेड़ के नीचे गिरे 
सारे पत्ते मेरे हैं
और मैं उन्हें विदा कर देता हूं
जैसे सारी ज़िंदगियां छिप रही हों
मेरी ओट में

मैं हर बार सोचता रहता हूं
ये जहाज, मोटर गाडियां, कैंचियां 
पलंग, कंचे, काग़ज़ और रोशनी 
किस तरह ज़रुरतों में खदबदाते हैं
और मैं उन्हें छोड़ देता हूं पके आलुओं के स्वाद में

जिंदगी एक पुकार, एक दुख है
वह धक्का देती है
मैं गिरता हूं
अपनी ही छांह में 

मेरे भीतर का संगीत बजता है
मैं चिड़ियाएं देखता हूं
और वह पुल जिसे पार करता हूं रोजाना 
एक दिन गिर जाता है

सारी चींटियां जिन्हें मैं नाम से नहीं जानता
बच जाती हैं 
उन्हें मालूम है
मिट्टी से किस तरह उगा और बचा जाता है

      



    - 2 -

मैं दबे पांव नहीं हूं
मैं छिप नहीं सकता ख़ुद से
मुझे पसंद है कि ज़िंदगी की तरह
हर जगह खोदा जाऊं एक नये शब्द के लिए
उन पुराने खोए पत्थरों के लिए
जो हमारी स्मृति में रहे बरसों

ज़िंदगी में बहुत-सी बातें
ऐसी भी सच थीं जिन्हें हम नहीं जानते

मैं उनके लिए अपने घर की दीवारें 
खोल देता हूं

मुझे नहीं मालूम किन मरुस्थलों से
हवाएं लाती हैं हमारी यात्रा के पड़ावों का संदेश 
लेकिन वे बनी रहती हैं गुज़र जाने के बाद भी

अनेक हाथों और पैरों के दरमिय़ान 
हम बनाते हैं एक बोगदा 
सीलन, कश्ती और धुंध भरा
वे चाय के खाली प्याले 
जिनमें हमने डूबोया विचारों को
और बाहर आए अपनी काहिली से

         - 3 -

हम सारी उम्र यात्री रहे

हम बचे रहते हैं तमाम की गई अनैतिकताओं के बाद भी

हम बूढ़ों के शब्दों में भीगते हैं
पार करते हैं स्मृतियों का समुद्र

हम बार-बार घटनाओं को दोहरातेे 
टांकते रहते हैं अपने रंग और शब्द 
उन अधूरी तस्वीरों पर जो टंगी गुमनाम पहाड़ों पर

हम देखते हैं अपनी आत्माओं का कच्चापन


हमने ज़िंदगी के तमाम वनवासों को काटा
हमने रास्ते खोजे, जंगल देखे
हम वहां ठहरे जहां दरवाजे नहीं थे

यात्राओं में हम जहां-जहां डूबे
ख़ुद को अनजान तटों पर पाया

हमने आग, फूल, पत्तियों को रंग और नाम दिए

ज़िंदगी को हमने वहां पाया
जहां दुकानेें, सम्बन्ध, मठ, मंदिर और गिरिजाघर नहीं थे
हम उन पुराने बैरकों से लौटते रहे


हमारे सच हमारी भूलों के कारण थे
जिन्हें या तो देर से पाया या उन्हें कभी नहीं जान सके

हम या तो डूबते हैं या डूबते रहने का 
शानदार अभिनय करते हैं

आख़िर ज़िंदगी में मूल्यवान चीज़ें काम न आईं 
और वे सारी प्रार्थनाएं
जिनके केन्द्र में था ईश्वर
लेकिन उसका कोई बीज रंग नहीं 
वह जीवन से बाहर
हवाओं में घुमाया घन है
जिसके छूटते ही डर जाते हैं दाना चुग रहे पंछी 
००


नीलोत्पल की कविताओं पर नीचे लिंक पर प्रमोद कुमार की टिप्पणी पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.in/2017/12/blog-post_7.html?m=1


4 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर कविताएँ हैं। नीलोत्पल की कविताओं में एक खुशबू होती है बिम्बों के नएपन की।उनकी कविताओं की पंक्तियां अपने आप में भी कविताएँ होती हैं। लगता है आप कविता के भीतर कविता पढ़ रहे हैं।

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    उत्तर
    1. बहुत शुक्रिया प्रमोद जी.
      आपकी संक्षिप्त टिप्पणी महत्वपूर्ण है. कविता पर भरोसा मूल्यवान है.

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