01 दिसंबर, 2017

कविता गुप्ता की कविताएँ

कविता गुप्ता: बिजूका समूह की लगभग चार बरस पुरानी व ज़िम्मेदार साथी है। बहुत शांत रहती है और दुनिया भर में घुमती है। हालांकि इनका घुमना अपने व्यवसाय की वजह से ही ज्यादा होता है, मगर काम-धंधा के बाद अपनी घुमक्कड़ी भी कर लेती है। जहां जाती है। वहां के जन-जीवन , भूगोल, संस्कृति आदि को भी यथासंभव जानने समझने की कोशिश करती है। जाने-समझे को अपने संस्मरण, कविता और कहानी में कहने की कोशिश करती है। इनका काव्य संग्रह- " यूँही नहीं रोती माँ"  शीर्षक से प्रकाशित है।

कविता गुप्ता

कविता गुप्ता का गद्य भी बहुत सहजता से भरा और समृद्धि प्रदान करने वाला होता है। कविता ने बहुत सहज और बोली बणी में कविताएं कही है। मगर कविता की  कविताएं अपनी सहजता में बहुत गहरी और ख़ास बात छुपाए रहती है। इनकी कविताएं पढ़ते वक़्त मिश्री की तरह मन में घुल जाती है और मीठी स्मृति का हिस्सा बन जाती है। यह कुछ महिने पहले या शायद साल भर पहले की बात है।     एक दिन मैंने कविता की ' तिब्बत' कविता का एक हिस्सा पढ़ा था, जोकि मुझे एकदम अलहदा आस्वाद से समृद्ध कर गया था और तिब्बत के बारे और ज्यादा पढ़ने की लालसा जगा गया था। तभी से मैं तिब्बत कविता को पूरी पढ़ना और बिजूका के मित्रों को पढ़ाना चाह रहा था। अब पूरी कविता हाथ लगी है, तो आपसे भी साझा कर रहा हूं। यह कतई ज़रूरी नहीं है कि कविताएं आपको भी उतनी ही पसंद आए जितनी मुझे पसंद आती है। आपकी पसंद मुझे
भी कम ज्यादा पसंद आ सकती है। मगर पसंद, ना पसंद तो बाद की बात है। पहले ' तिब्बत ' से रूबरू तो हो लिजिए । तो आइए कविता गुप्ता की कविताओं से रूबरू हो लीजिए।


तिब्बत कुछ कविताएँ

एक


तिब्बत से मेरी पहली मुलाक़ात

उस लड़की के रूप में हुई

जिसकी दुकान से

मैंने पानी की बोतल ख़रीदी

मेरे भारतीय चेहरे को देख

उसने हाथ जोड़ कहा “नमस्ते”

टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बात शुरू की

‘यू जगर’ ( तिब्बती में भारतीय)

समझ न पाकर

मैंने कहा-इंदू’(चीनी में भारतीय)

उसने पूछा -

‘फ़र्स्ट टाइम तिब्बेत?’

उसके गालों के गड्ढे देख

सम्मोहित-सी थी मैं

ख़ूबसूरती की निशानी हैं

गालों के गड्ढे

सामने बोर्ड पर लगे

किसी नाटक के

इश्तहार की तरफ़ इशारा किया मैंने-

‘दिस शो’

वह बोली-

‘वी नोट सी

दिस चाइनीज़

चाइनीज़ कल्चर

नो टिबेटन सी ‘

इन शब्दों में

झलक रहे थे

गहरे गड्ढे

समूचे तिब्बत के दिल के।
००

गूगल


दो


ल्हासा से ले जा रही हूँ

सहमे सिकुड़े कुछ पत्थर

जिनपर कभी उगी थी घास


कुछ सूखी मिट्टी

बुझे दिल से जो

बाजरा पैदा करने का

फ़र्ज़ अब भी निबाह रही है


मन किया

पहुँचा दूँ थोड़ी-सी मिट्टी

धर्मशाला और बीजिंग भी


या अपने बच्चों को सुँघा दूँ

जिससे समझ पाए वे क़ीमत

आज़ाद धरती पर जनमने की ।
००



तीन


पहन लिया है

तिब्बती पहनावा

‘छुबा’ कहते हैं जिसे

तिब्बती लोग मुस्कुराते है मुझे देख


बुज़ुर्गों की आँखों में

झलकता है स्नेह जल

जवान आँखों में

तैरते हैं सवाल

जवाब जिनके नहीं हैं

मेरे पास


बस महसूस होता है

मानो जवान मुस्कुराती आँखे

भेदती हुई कह रही हैं


तुमने भी तो भोगा है यही दर्द

फिर भी

‘छुबा’ पहनकर भी

नहीं पहुँच सकती तुम

‘छुबा’ में छुपी

हमारी घायल आत्मा तक।
००
अवधेश वाजपेई



चार


कुछ वर्षों पहले-सा

कुछ भी नहीं है ल्हासा में

कुछ वर्ष बाद

अब सरीखा भी

नहीं बचेगा कुछ यहाँ


बाँटा गया है शहर

नए और पुराने

दो हिस्सों में


नए में जारी है

सारी टीम टाम

और चिन्हित है वह चौक

जोखाँग मंदिर का

जिसमें युगों-युगों की

संस्कृति के

शव सजाए जा रहे हैं


ऐसे ही और बहुत से

चौकौं की तरह

बन जाएगा पर्यटक फ़ैक्टरी



सरकार कहलाएगी

संस्कृति रक्षक दूरदर्शी

संसार भर में

मनुष्यता और संस्कृति की

ममियाँ बनाए रखने के

अपने अनूठे कौशल पर ।
००
गूगल से



पांच


अनंत झुर्रियाँ

अब भी बैठती हैं एक साथ

चारों तरफ़

बिखरी रंग-बिरंगी रौशनियाँ

पर उनकी बेरंग और

पथरायी पुतलियाँ

कहाँ कुछ देख पाती हैं ?


शोर बरपा है बाज़ार में

जबकि इन कानों को

इंतज़ार है

किन्हीं ख़ास आवाज़ों का


ख़ामोश हैं सभी

कोई बतिया नहीं रहा

एक वक़्त था

गोधूली बेला में

चौपालों में

सुनाए जाते थे

रुहानी अनुभव

कैसे उसकी प्रार्थना में

चले आए शाक्य मुनि

क्या आभा उनके मुखमंडल की !

दर्शन मात्र से तर गया

काश ! हो पाता मैं

सौवाँ अंश भर भी उनका


कोई बुज़ुर्ग कहता

पद्मसंभव ने उसके हाथों से ले लिया था

एक पूरा का पूरा सेब स्वप्न में

जिसे उसने धोया था

अपनी प्रार्थनाओं के अश्रुओं से

की गई थी प्रार्थना

पूरी फ़सल बह जाने के दुःख में


किसी ने यह भी कहा होगा

आज धर्मा ने माला फेरती

उसकी उँगलियों को

छुआ था अपनी उँगलियों से

छूअन मात्र से

भर गई थी पूर्ण शांति

तन-मन में


अपनी-अपनी बातों में

कितनी भी दुनियादारी ले आते

पर मंत्रों के सामूहिक उच्चार से ही

होता अंत इन सभाओं का


परंतु अब

घुमा रहे हैं सब

प्रार्थना चक्र चुपचाप

ख़ामोशी से उचारते

मंत्र मनक़ों पर


लज़िम है अब चुप्पी ही

कह नहीं सकते

जिगर के कितने टुकड़े

किसके, कहाँ ग़ायब हैं

होंठ सिल लिए हैं

बची आस औलाद की ख़ातिर


अब तो बस

उनकी सलामत वापसी की प्रार्थनाएँ ही

सबकी प्रार्थनाओं में हैं शामिल

वे प्रार्थनाएँ

जिन्हें अनसुना कर रखा है सदियों से

मज़लूमों के भगवानों ने ।
००


गूगल से


छः


दूषित नहीं है हवा

कम में गुज़ारा कर लेते हैं

हृदय शांति से परिपूर्ण हैं

ख़ुद को जला कर भी

सूरज के क़रीब रह लेते हैं


पहाड़ों का पथरीला सीना

हमारे पसीने से सब्ज़ है

हरियाली कम हो

तो प्रार्थनाएँ और ज़्यादा कर लेते हैं


विकास पखेरू की पाँखों पर

सुखाते नहीं नदियाँ

कलकल , छलछल की

राह नहीं काटते

ठिकाने अपने बदल लेते हैं


तुम गटक गए हमारी नदियाँ

सटक गए पेड़-पौधें

निगल गए हमारी संतानें


फट पड़े हमारी तिब्बत की धरती

उससे पहले हमें छोड़ दो

हवा,मिट्टी और धूप के साथ

यूँ हीं


हमारा क्या है

शांति के उपासक

अपने भीतर ही खोज लेंगे

हर हाल में शांति ।
००


सात


यूँ तो पहचाने जाते हैं

चेहरे-मोहरों से भी

मगर कुछ नई पहचानें और बनी हैं

तिब्बतियों की तिब्बत में ही


जिन कंकालों से

बर्फ़, धूप बरसात में

उनकी अपनी ही क़ब्रों पर

उठवायी जाती हों

मीनारें, सड़कें,पुल

और चमचमाती इमारतें


दिन भर की भूखी-सूखी

निचुडी उधड़ी अँतड़ियाँ

रिक्शा खींच रहीं हो

धंसी हुई जो बूढ़ी आँखें

टैक्सी ड्राइवर बन भटकें

रोटी की डूबी आस में

ऊँची दुकानों के

पट बंद होने के बाद

सड़कों पर चमकते

साईन बोर्ड की रोशनियों में

कुछ मुरझाए चेहरे

बाज़ार लगाए बैठे हों

अंधी रातों में


जिन्हें नहीं मिल सका

लाइसेंस ऊँची दुकानों का

दिन में भी रोज़ी कमाने का

वे भूखी भटकती आत्माएँ

काफ़ी हैं पहचानी जाने के लिए

वे मिल ही जाएँगी

इन सबके बावजूद

समस्त विश्व के लिए

शांति मंत्र उच्चारती

घनघोर बियाबाँ रातों में।
००


आठ


साफ़ नीले आसमान में

रंग-बिरंगी प्रार्थना ध्वजाओं पर

पहले भी

मंडराए थे काले बादल

और बरसकर चले गए थे

फिर छा गयी थीं

गगनचुंबी मुस्कुरहटें


अबकि जो

तने हुए काले बादल हैं

उगल रहे हैं आग, धुआँ

सहम गयी हैं

फ़सलें भी

जिन्होंने प्रार्थना चक्र घुमाते

झुर्रियों भरे हाथों को

कर दिया है यंत्रवत


यूँ तो

मंत्र बुदबुदाते होंठों पर

प्रार्थना है सरसों के फूलने की



लेकिन थके डरे इन पावों को

कम ही भरोसा है

सरसों तक पहुँच पाने का

अंधियाँ चुकी बूढ़ी आँखों को

शायद ही अब दीख पाए

नीला स्वच्छ आकाश तिब्बत का ।
००

गूगल से



नौ


ल्हासा का जोखाँग मंदिर

बहुत पुराना

परिक्रमा करते लोग

बुदबुदाते मंत्र

दंडवत होकर भी

अपने-अपने दुखों के

निवारण की प्रार्थनाओं में

शामिल है अब एक

सामूहिक प्रार्थना भी

तिब्बत की पहाड़ी ठंड ने

तिब्बत का ख़ून

बिलकुल जमा दिया ?


यही सच है

दुखी मन ही

जाता है कर्मकांड कि शरण


परिक्रमा करते लोगों को देख

शामिल हो गयी हूँ मैं भी

यह सोचते हुए

कि महाकाल की शवयात्रा में शामिल हूँ

हालाँकि

मेरी निगाहें टिकी हैं पहाड़ों की

उन्नत चोटियों पर।
००

संपर्क:
कविता गुप्ता, मुंबई
Kgkavi@gmail.com

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कविताएँ हैं।

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  2. अदभुत चित्रण । गजब की कविताएँ ।
    संवेदना की पराकाष्ठा .....
    नमन सलाम प्रणाम.....

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  3. अदिति गुप्ता02 दिसंबर, 2017 19:39

    तिब्बत अौर वहां के लोगों को आपकी आंखों से देखना चाहिए।

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  4. टीकम शेखावत03 दिसंबर, 2017 18:41

    शानदार कविताएं

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