सुकुमार
चौधुरी की कविताएं
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद: मीता दास
कविताएँ
भोर
हमारे
छोटे और मधुर घर के बरामदे में
एक
वक़्त था जब
उस
बरामदे में लोटती थी
भोर की उजास
और गौरैया , मैना आकर फुदकते रहते थे
माँ
स्नान कर भीगी साड़ी पहन
पूजा
के फूल चुनती
कामिन
दीदी झाड़ू हाथ में लिए
नलघर
का रुख करती
मोहल्ले
की बहु - बेटियों के ढेंकी में
पोहा
कूटने के शब्द भी एक वक़्त थम जाता
मैं
सोये हुए ही यह सब देखता
देखते
- देखते ही कब सो भी जाता
मेरे
जीवन में सब ओर अंधकार है
रात
की ही तरह ।
कामिन दीदी
सुबह सवेरे काम पर आने में प्रायः
कामिन दीदी को देर हो ही जाती है
उसके पैरों में गोखरू की गुठलियाँ और
हजारों प्रलेप
काफी दूरी तयकर पैदल आकर
थकन से चूर उसके बनते बिगड़ते चेहरे का स्वेद और
जब बरामदे पर बैठ दीदी ऐश के संग
बीड़ी सुलगती ,
बीड़ी का नाम है सुधा
और उधर माँ बड़बड़ाती , भला बुरा कहती
और उधर दस बजे का भात रांधने में माँ को
हमेशा की तरह ही देर हो जाती ।
चादर
गीली मिटटी की गंध से मेरी नीद उड़
जाती है
पानी इस तरह चूता हमारी टूटी
छतों से
जैसे पानी चलनी से छन रहा हो
सीलन भरे फर्श के एक कोने
में
माँ की गोद में दुबके चुपचाप बैठे रहते
मूसलाधार वर्षा होती हर
दूसरे दिन
ठंडी बयार छू
जाती हमें
हमारी छाती को
माँ कहानियां सुनाती
छोड़ आये उन सुनहरे दिनों की
हम भी अवाक् हो सुनते -
ताकते
थोड़ा
गर्वित माँ के मुख की ओर
कभी अनजाने में माँ की
कहानियां
हो उठती हमारे बदन की गर्म
चादर |
प्रतिदिन
चोरों की तरह चोरी किये
सामान से मै
ले आता था जी आर के टूटे गेहूं के कण
कनकी और बाजरे के टूटे दाने
लंगर खाने के सामने की लम्बी
कतार
छोटे भाई को कड़ी धूप में खड़ा देखकर
भीषण जी करता है
धर दूं उसके नन्हे हाथों में
रंगीन मीठी गोलियां ,
सस्ते चाकलेट
पर खाली जेब में हाथ डाले
लज्जित होता रहता मै
धीमी आग की तरह सुलगता रहता
अपमान बोध
शाम को जब माँ हमें टूटे टीन
के कटोरों में धर देती
धुंआ उगलता गरम - गरम गेहूं
का
खीर
और हम चाटते - चाटते
मै और मेरे भाई- बहन
बड़े हो जाते , प्रति दिन , थोड़ा - थोड़ा सा |
भूख
झुके हुए गरम छप्पर के नीचे
सर झुकाकर हम लिफाफे बनाते
थे
लिफाफों का ढेर , पहाड़ सा बन जाता
हम थक जाते
बीच - बीच में माँ हमें गुड
की चाय पिला देती
चाय पीते - पीते कभी - कभी
मेरी आँखें धुंधला जाती
मै अपनी भूख की तरह बेअकल
बड़ा सा पहाड़
देख पाता आँखों के सामने
खाली लिफाफे की तरह
पिचकता जा रहा मेरे भाई -
बहनों का पेट
मेरी माँ कह उठती , अचानक
जल्दी -जल्दी हाथ चलाओ
बच्चों ,
दुकान बंद हो जाएगी
..............
हंडिया
उठाकर रखे चूल्हे की आंच पर चड - चड करता पकता
है
एक मुट्ठी चांवल
लुढ़के आंसुओं के दाग सोते हुए भाई की आँखों से
खदबदाते हंडिया को घेर कर बैठे रहते हम कुछ
और माँ के धूसर चहरे की हंसी गायब है
तष्णा भरी आँखों से हम ताकते रहते
हमारी आँखों की पलकें नहीं झपकती
गरम भात की गंध से उड़ जाती है दोनों आँखों की
नींद
खदबदाते हंडिया को घेर
इस तरह ही कट जाता है मेरा शैशव ।
रूमा
बड़े दिनों बाद मुलाकात हुई रुमा नाम की उस लड़की
से
मरुन रंग की साड़ी , गाढ़े नीले रंग का कार्डिगन , रक्तिम स्लीपर
ढलती शाम की धूप में अनार के फूल की तरह
लग रहा था वह मुखड़ा |
उसके उड़ते बालों के झील में खेल रही थी विदा
लेते दिन की लालिमा
आदि दिगंत जैसी भौहों की संधि पर यह मोहक बिंदी
कितने दिनों के बाद छू लेने
की इच्छा हुई
जबकि सैकड़ों आलोकित वर्ष कट जाने के बाद यह
चेहरा देख
अनेक स्वप्न भरे द्वीप में चक्कर लगाते - लगाते
आखिर ख़त्म हुआ
अंध पर्यटन
फिर भी अंजलि भर उठा ही ली शिल्प कला
खुद को भिखारी सा महसूसा और लगा दृष्टि हीन भी
हूँ ,
जैसे मैंने कुछ देखा ही नहीं इतना रूप इतना
अपार
ऐसा ही अगम्य वह शिल्प मुखड़ा , इतना गंभीर
जैसे समुद्र पठार इस नीले आँखों में बह गया
मेरी बुद्धि भी |
दिवाकर
एक डाकिया आकर बदल सकता था
मेरा जीवन
जबकि मेरे जीवन में किसी अलौकिक
डाकिये की कहानी
नहीं है
जब भी मुझे समय मिलता है मैं उस
बिन देखे डाकिये
की बात सोचता हूँ
उसकी तस्वीर बनता
हूँ
शीर्ण देह , खाकी पतलून
काँधे पर के झोले में न जाने कितने वर्णमय अनुभूतियाँ
सुसाइड झील के करीब से वह आएगा
साइकल पर सवार
और घंटी बज उठेगी टून - टन
ठण्ड की बयार छेड़ेगी उसके रूखे बालों को
कौपी के पन्नो पर कट्ट्स - पट्टस काटता
कुछ इसी तरह की छवि
और अविकल कौपी के पन्नो जैसे
उठ कर आता है सुबह
का अखबार वाल
मैं उसे शीर्ण देख - देख फटा पतलून
उसके बाद हेड लाइनों पर आँखे फेरते - फेरते
एक वक़्त कड़वे मुंह
से बोल उठता
क्या तुम्हे एक डाकिया बनने
की इच्छा नहीं
कराती दिवाकर |
आदिम
अन्धकार रात और देह की सिहरन में महुआ फूल की
बास
भरभराई आँखों में बिखरी प्रीत
छेड़ा कब देहाती गीत
दोनों हाथों को दबोच लेने पर गर्म हो उठा श्वास
रक्त की तरह उठा है ललकार की तरंग
नशे में उन्मत्त कर दे ऐसा तुम्हारा चेहरा
सीने के अन्दर छोऊ नाच एवं मांदल
इस तरह रातों में हम दोनों पत्तों में घिरे
जमीन पर
अंगारे की तरह बिखर जायेंगे
लपलपाकर जंगल को ही निगल जाऊंगा
नशेड़ी दोनों जायेंगे स्वर्ग आजू बाजू लेटकर |
दिन लिपि
वोट की आग क्रमशःबुझती जाती
है ,
चारों तरफ इंदिरा का जय गान
क्रमशः सोचने पर मजबूर करता
है ठन्डे मनुष्यों को
चित्तो {१} कुछ प्रिय मनुष्य आकर जीत के
उल्लास को पोंछ देते
बस स्टॉप पर ही प्रिय {२} का शिविर
रात के आठ बजे मैं लौट रहा
अकेला ही घर
ठण्ड का धुआँसा फैला हुआ है
चारों ओर
पान की गुमटियां एक -एक कर
हो रही है बंद
राख के ढेर पर कुंडली मार कर
बैठा रहता मरियल कुत्ता
तुलसी के चौरे के नीचे जलती
रूमाँ के घर का म्लान दीपक
बहुत दिनों से रूमा को नहीं
देखा
मरून रंग की साड़ी गाढ़े नीले
रंग का कार्डिगन , ताम्बिया बदन
रुमा तुम कहाँ चली गई
किस घने देवदारु के द्वीप पर
बस गई हो जाकर
गृहस्थ घर से फूट निकलती
रेडिओ का अंतर्नाद
स्टेशन वाले मोहल्ले की तरफ
तीन आदमी चले जा रहे है कथड़ियाँ लपेटे
सिगरेट फैंक मैं भी घुस जाता
अपने ठिकाने पर
हठात डस्ट बीन से बांग दे
उठता किसीका
आवारा मुर्गा |
{१} ... चितरंजन महतो . {२} ... प्रिय रंजन दास मुंशी
इंतजार
खाली बूथों पर बैठा आदमी गप्पों में मशगूल हो
उठेगा फिर
रैली नहीं जुलूस ,
स्लोगन नहीं , झंडा नहीं , प्रचार भी नहीं
मनुष्य सिर्फ विगत वोटों के आधार पर
आलोचना
करेंगे इस बार
कोई कहेगा वहां मनुष्य नहीं
रुपयों से जीत गया आखिर कार
कोई कहेगा वहां डर से , कोई कहेगा क्षमता से
अमुक पार्टी जीत गई उस जगह से
बीड़ी का कश लेता हुआ कोई कह ही उठेगा
और हम इंतजार करेंगे
खड़े रहेंगे हम अनंत काल तक
और एक मनुष्य उठ खड़ा होगा भीड़ से
कह उठेगा वहां से जीत गया है एक आदमी
जिसके पास धन नहीं , क्षमता नहीं , पार्टी भी नहीं
सिर्फ मुहब्बत छोड़ उसके पास और कोई भी हथियार
नहीं था भी नहीं कभी ।
परिचय
सुकुमार चौधरी
सुकुमार चौधरी
अनुवादक: जबलपुर में जन्मी मीता दास जी चर्चित लेखिका है। आप हिन्दी और बांग्ला में समान रूप से रचनाएं लिखती हैं। दोनों भाषाओं में आपकी पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप कुशल अनुवादक व संपादक हैं। छत्तीसगढ़ में रहती है।
संपर्क: mita.dasroy@gmail.com
मीता दास |