12 फ़रवरी, 2018

पल्लवी मुखर्जी की कविताएँ



पल्लवी मुखर्जी




एक 

मुस्कुराओं तुम
छोटी सी नहीं
बड़ी सी
चाहो तो
खिलखिलाकर हँस दो
खुलकर....
ज़रा देखों,
तुम्हारा अपना
पिघलाता है खुद को
तुम्हारे लिये
धूप में
बारिश में
भरी सर्दी में
पतझड़ में
आंधियों में
तुम जड़वत मत रहो
झर जाओं उस पर
हरसिंगार की तरह
और अपनी गर्म हथेली
रखो उसके हाथ में
ताकि वो लोहे को भी
गला दे....
तुम्हारे लिये
सिर्फ तुम्हारे लिये






दो 
एक दिन मरा हुआ शरीर
पड़ा हुआ मिलेगा
जिसमें हड्डियाँ चमड़े से
लगी हुई होंगी
आँखे खुली और विभत्स होंगे
उससे पहले....
जब मेंरी आँखें हैं
बेहद सुंदर
देख सकती. हैं
समुद्र की...
अथाह गहराई,
आकाश में छिटकें तारें
सूरज की लालिमा
जगमग करते जुगनु
सुन रहे है कान...
गायों का रंभाना
चिड़ियों की चहचहाहट
समेट लेती हूँ बांहों में
जीवन को
और तुम्हें देती हूँ
अपना निश्छल प्रेम...
ताकि तुम भी दे सको उसे
जो मुँह ढाँपे सोया है
खुले आकाश के नीचे
भरी सर्दियों में




तीन 
वो एक घसियारिन
हँसिए की धार
पर है उसका जीवन
खोंसती है हँसिए को जूड़े में
जैसे गेंदे का गुच्छा लटका हो
च़द पलों में
काट लेती है
पकी बालियों को
बालियों की खुशबू
वो जानती है
जानती है वो
गर्म भात से
उठता हुआँ
धुआं.....
धुआं उठता है
गीली लकड़ियों से भी
धुआं उसके अंदर भी है
काला धुआँ
दम घोंटता हुआ
अंत नहीं है इसका
अंत हो जाती है
एक पीढ़ी
एक सदी
एक युग




चार 

नदी धड़कती है
निरंतर
नदी बोलती है
अट्टहास करती है
नदी को सुनों
मौन होकर
नदी के शब्द
तुम तक पहुंचेंगे
फिर नदी
ले चलेगी
वहां....
जहाँ तुमनें
देखा था
सरसों के फूलों को
हँसते हुए








पांच 
ये तुम हो?
हल्दी-मिर्ची से
सनीं तुम्हारीं साड़ी
रूखे -सूखे बालों में
उलझती लटों में तुम
बालों की खुशबूं
जो उड़ती थी हवा में
वो कहाँ है?
तुम्हारी खूशबू से
महकता था मैं
तुम्हारी सुबह होती थी
मेंरी सुबह
तुम्हें पसंद थी
कच्ची अमिया
चटकारे लेकर
खाती थी तुम
तुम्हारे गालों पर
पड़ती सुबह की धूप
कितनी भली होती थी
अब इन रतनारी आँखो
के नीचे की कालिमा
हटा नहीं पाउंगा
तुम्हें लौटना होगा
उस सुबह में
जब तुमनें
उस ओंस की बूंद को
मचलते हुए
अपनी ऊंगली में लिया था








 छः 
.माँ
तुम्हारा चाँद तुम्हारी खिड़की पर
तुम मेंरी खिड़की पर आ जाओ
फिर  चलेंगें हम दोनों
पहाड़ पर
तुम्हारे पहाड़ पर
फिर सुनाना मुझे
वे सारी कविताएं
जो लिखी है तुमनें
माँ पर







सात 
बिटिया
होती ही है समझदार
बिटिया जानती है
गर्म दूध के उबाल को
छलकने से रोकना
बिटिया को पता है
पिता के दूध की मिठास
बाजार में गिरते-उठते
सब्जी का भाव
बिटिया की समझदारी से
बिखरते घर
टूटते नहीं है
बिटिया माँ की पुरानी साड़ी को
सितारों से भर सकती है
बिटिया अपने हिस्से का दूध भी
भाई के लिये बचाना जानती है
बिटिया के कारण ही
खड़ा रहता है
एक मकान
जिसे लोग घर कहते है
जहाँ एक चूल्हा होता है
जिसमें पकती है रोटी
खुशियों की




आठ 
बूढ़ा आदमी
कांखता है
थूंकता है
यहां-वहां
बूढ़ा आदमी
बिना मतलब के
बैठा रहता है एक जगह
बूढ़ा आदमी
तांकता रहता है
शून्य को
अनवरत
बूढ़ा आदमी
आवाज़ देता है
पानी के लिए
बूढ़ा आदमी
की आवाज़
पानी तक नहीं पहुंचती
वापस लौट आती हैं उसकी आवाज़
बूढ़ा आदमी का नहीं होता
अपना आकाश







नौ 
.ठंडी पड़ी चुल्हे की राख को
टकटकी लगा के देख रही थी वो,
बिरसा माँझी लौटा नहीं अभी
मछली के साथ आयेगा वो जब,
तभी सुलगेगी...
राख के अंदर दबी हुई आग,
कोने में पड़ी ढिबरी में
डलेगा तेल
भर उठेगी खोली....रोशनी से
सोचते ही ,उसकी..
खिलखिलाती हँसी ने
तोड़ दी थी
एक लम्बी चुप्पी
उस खोली की




दस 

उसका सख्त लोहे सा हाथ
और साँसें धौंकनी की तरह चलती है
उसकी शिराओं में रक्त नहीं लावा बहता है
उसके हिस्से के आकाश में
तुम बुन रहे हो सतरंगी सपनें
और तुम्हारें सपनें,
उसका पूरा वजूद मिटाने के लिए काफी है
वो एक अभागा मजदूर
तुम्हारें सपनों के नीचे दफ्न है
उसकी कब्र पर ताजमहल बना कर
अकड़ते हो
लानत है तुम्हारें सपनों का
लौटा दो उसके हिस्से का आकाश


पल्लवी मुखर्जी

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कविताएँ। बहुत संवेदनशील मन की अनुभूतियाँ हैं इनमें पल्लवी जी। आपको बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ।

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  2. बेहतरीन कविताएँ। बहुत संवेदनशील मन की अनुभूतियाँ हैं इनमें पल्लवी जी। आपको बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ।

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