16 मार्च, 2018


विमलेश शर्मा की कविताएं



विमलेश शर्मा 

कविताएँ

दुश्वारियाँ


जब उदासी घर करे तो
आसमां भर खिलखिलाना
झरना फूल भर निःशब्द!

मतवाली बेल सी
दीवारों पर रेंगना
बेतरतीब

सड़कों पर बतियाना
कुछ अपने से लग रहे
अजनबी चेहरों से

और फिर बिखर जाना
बादलों की स्याह चूनर ओढ़
किसी चुप लगी
झील पर यूँ

जैसे कोई सदियों से प्रतीक्षारत था
एक छुअनभर की गर्माहट को!




आत्मा के घाव

खण्डहरों में थे
कल-कल बहते
ख़ुशी के तिलस्मी झरने
और यूँ थी ताले में कैद ख़ुद चाबी
आँखों ने कभी यह चुप राज सुना था!

सदियों की घुमक्कड़ी से
किसी दरवेश ने जाना था
जहाँ कोई टूट कर बिखरता है
वहीं पाक नमाजें पढ़ी जाती हैं
वहीं कोई शक्ति,पीठ बन उभरती है
और ठीक वहीं दुआओं का रतजगा होता है।

दुनियाँ महलों में ढूँढ रही थी जिसे
वो चट्टानों से बूँद-बूँद रिसती भीतर की जवानी थी
बाहर के सफ़र पर भारी यूँ
मन के सिंकदर की अय्यारी थी!

कोई टूटकर बिखरता है
कोई चुपचाप सँवरता है
बिखरना, फिर सँवरना, घरोंदों की बुत सच्चाई है
किसी रूह को नहीं होती चारागर की तलाश
उसे पता है मर्ज़, चोट और घाव की गहराई
अपना इलाज़ वो खुद करती है।







संज्ञाओं के भूलावे बीच

मन की सात्विक फाँक
नदी सी निश्छल होती है
वहाँ तैरते हैं राग-विराग
किसी देवता को चढ़ाए जाने वाले
ताजा फूलों की तरह

पर अक्षत-दूर्वा से ये भाव
अकसर ठहर जाते हैं
भव की ठेलमपेल पर!
वे क्रूर अर्थों से भय खाते हैं
जैसे कि ऐसे शब्दों के प्रयोग मात्र से
किनारे की दीवारों पर खूँ उतर आएगा

कुत्सित भाव,अभावों से इतर
कोमल मन सहेजता है
कोंपल-कोंपल अचरज़ को
आशीष और रहस्यों की
माथे पर ठहरी अदृश्य बंदनवार को

ना! अपने लिए नहीं !

सहेजता चलता है वह थाती रूप में
उन्हें संतति के लिए
ताकि बचा रहे विश्वास
सद्-असद् के बीच
आस्था और अनास्था के बीच
देह की उस चौखट पर
जो मानव को मानव होने का दर्ज़ा देती है!



 सन्नाटों में दीपते रतजगे
1
रतजगें थीं स्मृतियाँ
और चित्रमयी लिपियाँ
इंतज़ार!

आस ख्वाब बुने
काजल आँखों ने
चाँद,सूरज सगुन पाखी

मन जलता रहा
तन सुलगता रहा
फिर भी कोई जाने क्यूँ

धूप खुशबू बन महकता रहा!



सन्नाटों में दीपते रतजगे
2
दाब था
एक घुटन थी

चेतना को उर्ध्व पाकर
काजल जला था रात भर

और यूँही बेबात
बुझी आँखों को
कजरारे हैं नैन तुम्हारे

उसने कहा था.....!



सन्नाटों में दीपते रतजगे
3
रात के तीसरे पहर तक
आँखें खोजती रहती हैं वो पल
कि निमिष भर पलक कपाट भिड़ जाएँ
पर एक शोर कौंधता रहता है रात की निस्तब्धता चीर
जिसकी चोट कनपटी पर फड़क बन उभरती है!

क्रमिक शोर,आहटों,पदचापों के बीच कोई बुदबुदाता है

कि तुम्हें यूँ नहीं लौटना था!
कि तुम्हें यहाँ होना था!
कि तुम्हें जीने का सलीका सीखना था!
कि तुम्हें प्रतिरोध करना था!
कि तुम्हें तुम्हारा मान रखना था!

इन प्रतिध्वनियों के कंपन में
हथेली को अपनी ही छुअन भली लगती है
दोनो जुड़ती हैं और फिर एक खोज़ शुरू होती है
किसी छुअन के जीवाश्म की
जो घड़ी भर ही सही इन सपाट पगडंडियों पर
डबरे सा ठहरा तो था!

अब तक सुना था कि
भावनाओं का ज्वार दीवारों पर उलटता है
पर दीवार पर टँगी घड़ी की टिक-टिक
जाने कब दिल में धड़कने लगती है
डरती हूँ, सुनती हूँ और फिर सहलाती हूँ उस थाप को चुपचाप

जाग दवा थी कि नींद,यह एक पहेली ही रही
ऐन्टीडोट देती रही दोनों को दागदर समझ

फिर दाव लगे
दोनों जीते
और आँखें हार
बुत बनी खड़ी रही!
दिमाग में एक शोर था
दिल में एक गुबार
साँसें रेंगने लगी
धड़कनें कम हुई ...लगा कि रात होने को है

ठीक तभी एक चिडिया खिड़की पर चहचहा उठी!







हाशिया

कोई पगडंडी
उभरती है स्वप्न में

जाग से उड़ती है धूल
पगडंडी मद्धम हो खो जाती है
किसी टूटते तारे की छूटी हुई  लकीर की तरह

बिणजारा यादों के बीच
रेगिस्तान के पारावार में खुद को पाती हूँ

आदिम धुन पर
रोमा जिप्सियों सी नाचती हूँ

देर तक चलने के बाद
धोरों में गुल हो चुके समुद्र के
वज़ूद तलाशती हूँ

धूल के गुबार के बीच कोई दूर रावणहत्थे पर गुनगुनाता है

चिह्ना सत्ता को जाता है
पगडंडियों का कोई इतिहास नहीं होता!




 थिर-अथिर

जगह, धरा, आसमां
थिर रहते हैं
बदलते हैं तो बस मौसम
जिनमें कोई मिलता है,बिछड़ता है
पर उनमें भी थिर होती हैं मौसमों में टँगी स्मृतियाँ !

थिर रहते हैं प्रेम, आत्मा और  शब्द
बदलती है तो देह और भाव
जिसे किसी क्षण मैंने
तो कभी तुमने जिया था.......!




खुदसफरी

दुनिया उथली अधिक है
गहरी बनिस्बत कम
उनींदी नींद में यही ख़्याल करवट ले  रहा था!

दूर शफ़क शबाब पर था
सामने एक वृक्ष
और उससे झरते पत्ते अनगिनत!

कुछ राहगीर गुज़र गए
राह पर गिरते फूलों को देख ,अदेखा कर
कुछ बैठे रहे उस तने पर
पीठ सटाए देर तलक!

एक शख़्स की गोद में मुट्ठी भर अक्षर थे
हाथों में रोशनाई!
वह टूटता वीराना समेट चुप था
झरने में खिलने को देख
रोते हुए मुस्करा रहा था

दूर आसमान  से कोई आवाज़ आ रही थी
झरने में खिलने को देखना ही
गहराई है!








ख़ुदसफ़री
2

एक दिन हम लौट जाएँगे
किसी नामालूम पते पर,
फिर कभी ना लौटने के लिए!

ठिठक कर रह जाएंँगे यहीं
कुछ अधबुने ख़्वाब
दीवार पर चुप टँगी एक मुस्कराती तस्वीर
आँखों में बिंधे मोती
चंद सिहरती साँसें, बिछोहिनी आत्मा के ही रंग सी
या कि शायद नहीं!

एक सृष्टि भीतर
कितने जहान बसा करते हैं यहाँ
अलग-अलग.. निर्लिप्त!
फिर भी, कहलाने भर को अपनी अन्विति में एक

कितनी सरहदें हैं ना यहाँ
और उन पर जड़े कितने अदृश्य ताले
जो अगर खुल जाते
तो बन सकती थी
दुनिया भीतर एक दुनिया

जहाँ हाथ छुअन से नेह को पकड़ सकता था
मुस्कराहटें अधरों को
और दिलासे उन कंधों को
जो थक कर झुक गए हैं
किसी आस के अनथक इंतजार में।




विमलेश शर्मा

27 जुलाई 1982 में जन्म। अजमेर ,राजस्थान में निवास।
आलोचना के क्षेत्र में सतत लेखन। हिन्दी साहित्य,समाजशास्त्र में एम.ए.। हिन्दी साहित्य में एम.फिल.,पी-एच.डी,नेट,सेट। हिन्दी  की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं  में कविताएँ व लेख प्रकाशित।

कृतियाँ-
कमलेश्वर के कथा-साहित्य में मध्यवर्ग

सम्प्रति- 
सहायक आचार्य,हिन्दी साहित्य

सम्पर्क सूत्र
9414777259
Vimlesh27@gmail.com

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