08 मार्च, 2018

8 मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष: 

आधी दुनिया का जटिल यथार्थ

डॉ. कविश्री जायसवाल



‘‘परम्पराएं कभी बुरी नहीं और नवीनताएं कभी अच्छी नहीं।’’
स्त्री-पुरूष की दैहिक संरचना ही भिन्न-भिन्न नहीं होती, बल्कि भावनात्मक संरचना भी अलग-अलग है। स्त्री का प्रेम-पुरूष के प्रेम से बिल्कुल पृथक होता है घृणा भी एकदम पृथक
। जिसे स्त्री ही समझ सकती है, पुरूष नहीं। दोनों के प्र्रेम और घृणा का स्तर और मानक अलग होते हैं जिसे शब्दों के तराजू पर नहीं तोला जा सकता। यह पूर्णतः अनुभूति का विषय है।

डॉ कवि श्री जायसवाल

पुरूष प्रधान इस भारतीय समाज में नारियों को भी पुरूष के समान अधिकार प्राप्त है लेकिन वे अधिकारो का उपयोग कितनी स्वतंत्रता पूर्वक कर सकती है, यह एक जलता हुआ प्रश्न है .......। आज स्त्री की स्थिति में परिवर्तन हो रहा है। स्त्री घर छोड़कर बाहर काम कर रही है। अपनी क्षमता के बल पर कामकाजी स्त्री अपने कैरियर में सफलता की सीढ़िया चढ़ रही है, लेकिन समाज ने भले ही उसे घर से बाहर निकालकर आर्थिक जिम्मेदारी पूर्ण करने की स्वतंत्रता दी है पर पारिवारिक जिम्मेदारी से कहीं कोई छूट नहीं मिली है। अपने कार्यक्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के साथ-साथ उसे घर में अलग-अलग तरह का जीवन जीना पड़ता है। सांमती मिजाज धारण किया हुआ पुरूष चाहता है कि स्त्री बाहर सुशिक्षित, चतुर, चुस्त, व्यवहार-कुशल बनी रहे, मगर घर में वह केवल गूंगी पत्नी बनकर रहे, जो गूँगी तो हो ही, साथ ही साथ समय पड़ने पर अंधी और बहरी भी हो जाये। वह स्त्री के बढ़ते हुए कदमों को अपने व्यक्तित्व से ऊँचा नहीं उठने देना चाहता है। इस तरह घर और बारह दोनों स्तरो पर अलग-अलग मांगो को पूर्ण करते हुए स्त्री का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है। उसे दोहरा जीवन व्यतीत कर मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है।
बहुचर्चित नारीवादी लेखिका ‘प्रभा खेतान’ का मानना है कि एक जमाने में भारतीय स्त्री के लिए पत्नी और माँ की भूमिका ही सर्वश्रेष्ठ भूमिका थी और हर स्त्री इसे निभाने में ही अपने जीवन का चरम आदर्श मानती थी। किन्तु आज की स्त्री को इन भूमिकाओं में भी कुछ कमियां नजर आती है। वह पत्नी और माँ होने के साथ-साथ बाहरी जगत में एक कर्मठ नागरिक होना चाहती है वह अपने बारे में निर्णय लेती है कि उसे किस दिशा में आगे बढ़ना है। अपने विवाहित जीवन के साथ-साथ बाहरी जीवन को अन्य अपेक्षाओं यानी कैरियर का, कामकाज का कैसा समन्वय किया जाये, इस पर चिंतन करती है।
लेकिन ब्रह्मांड से लेकर धरती तक खुद को प्रमाणित करने के बावजूद लगता है कि वह कुछ भी नहीं हे, सिर्फ एक देह के सिवा। वहीं देह जो 18 सावन की देहरी पार करने से पहले ही किसी की आंखों में खुद को विक्षत देख सिमट जाती है -वहीं देह जो अपनी स्वच्छदंता में गंदी नजरों को अंदर तक घुसपैठ करता पाती है -- वहीं देह जो बाजार में मैले मन की छुअन को खून के घूंट की तरह पीकर सहमते हुए आगे बढ़ जाती है और फिर किसी की अमानत से किसी की सम्पत्ति बन अपना कर्त्तव्य निभाती है वही देह जो सृजन कर नन्हें शिशु को पोषित करती है।
आज के इस भूमण्डलीकरण में स्त्री ने एक नई स्त्री को जन्म तो दिया जिसे ‘पावर वूमन’ कहा गया किन्तु अफसोस कि वही स्त्री एक नए पुरूष को जन्म नहीं दे पाई। जो स्त्री के मन को समझे। यौन इच्छा एक नैसर्गिक क्रिया है जो स्त्री और पुरूष दोनों में होती है। ‘‘लडके हैं उनसे गलती हो जाती है’’ कहकर उन्हें माफ कर दिया जाता है तो फिर लडकियों को क्यां नहीं माफ किया जाता है ? उन्हें क्यों चरित्रहीन समझा जाता है आज भी लड़की का पूरा चरित्र उसके द्वारा किये गये कार्य पर नहीं बल्कि उसके पेट के नीचे के दो इंच के हिस्से पर टिका है बगैर यह सोचे, बगैर यह जाने कि मन जैसा भी कुछ होता है स्त्री के पास जो केवल सुनता या देखता ही नहीं महसूस भी करता है।



‘‘पाखी’’ जनवरी 2012 के अपने सम्पादकीय आलेख ‘हाशिए पर हर्फ’ में ‘‘प्रेम भारद्वाज’’ भी लिखते हैं --’’हमें पेट भर भोजन इसलिए दिया जाता है ताकि पेट के निचले हिस्से में पुरूष को जगह दे सकें। वहां वह धंसकर, शरीर पर सवार होकर वह हमारी ही इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं को किसी बुल्डोजर की मानिंद रौंद सके। हमारी पूरी जिंदगी पेट के भूगोल में ही सिमट कर रह जाती है। मर्द पेट के नीचे जाते हैं ऊपर दिल तक नहीं। नाभि से एक बीता नीचे मर्दो की दुनिया केंन्द्रित है नाभि से एक बीता ऊपर ही दिल है हमारा। उसकी फ्रिक किसी को नहीं। दिल रोता है। टूटता है। बिलखता है। कई बार उसे भरमाया भी जाता है। दिल के रास्ते जो कथित प्रेम की यात्रा शुरू होती है, वह भी नाभि के एक बीता नीचे के सुरंग में जाकर ही दम तोड़ देती है।’’
कहने को तो सारा जहाँ उसका है स्त्री और पुरूष इस दुनिया के दो हिस्से है किन्तु अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए स्त्री यानी कि आधी दुनिया को धक्के खाने पड़ते हैं और धक्के देकर आगे निकलना पड़ता है। इतना ही आसान होता तो इस आधी दुनिया का उत्थान-विकास तो इतनी जद्दो जहद क्यों होती ? स्त्री मुक्ति आंदोलन आदि सब व्यर्थ लगते हैं सब आयातित है। शब्द पश्चिम से लपक लिए जाते है और हवा में उछाले और खेले जाते हैं। बस और कुछ नहीं।
दरअसल स्त्री को मुक्त होने की आवश्यकता ही नहीं है पुरूष-मुक्ति आंदोलन चलना चाहिए। पुरूष अहं से मुक्त हो, अपने विकारों से मुक्त हो, स्त्री को मात्र देह न समझे; बस स्त्री मुक्त हो लेगी समस्याओं से ! उसे बस  या ट्रेन में किसी पुरूष को उठाकर अपने लिये सीट नहीं चाहिये वह चाहती है कि पुरूष अपनी नजरो को भी अपने पास रखे जो उसके वक्षस्थल के भीतर झांकने की कोशिश कर रही है। उसके सीने के उभारों को सांसो के उखड़ने के कारण गिरते उठते देख रही है।
निःसंदेह मुक्त होना है नारी को पर यह मुक्ति अपने अंदर की संकीर्णता, अशिक्षा, और अपने शोषण से है। सम्पूर्ण पुरूष-समाज शोषण के लिए जिम्मेदार नहीं है। कुछ लोग, कुछ कुत्सित मानसिकता के साथ इस कृत्य से जुडे़ हैं। स्त्री कोht उन्हें ही चिहिंत करना है और क्रांति का बिगुल बजाना है।
००

कविश्री का एक लेख नीचे लिंक पर पढ़िए

बलात्कार: स्त्री और समाज

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/blog-post_43.html?m=1


असि० प्रोफेसर (हिन्दी)
एन.ए.एस.कॉलिज, मेरठ
मो०नं०-9412365513
Email -kavishrijaiswal  01 @gmail.com

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