24 मार्च, 2018

राष्ट्रवाद, प्रसाद और स्पृहणीय अवज्ञा की अवधारणा

डा. ललिता यादव         
                                                       

आजादी के लम्बें अंतराल के बाद ‘राष्ट्रवाद‘ एक व्यापक बहस का विषय बना हुआ है। तमाम राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियां, अखबारों के संपादकीय और पत्र- पत्रिकाओं के आलेख इस मुहिम में शामिल हैं। ‘प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीय स्वर’ विषयक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी को राष्ट्रवादी बहस की श्रृखंला की एक कड़ी के रूप में देखते हुए, प्रसाद के नाट्य साहित्य के पृष्ठों को पलटने के क्रम में कुछ ऐसे सूत्र हाथ लगे कि वर्तमान संदर्भों में प्रसाद के नाटकों में निहित राष्ट्रवाद की प्रासंगिकता का विश्लेषण एवं विवेचन एक जरूरी विमर्श प्रतीत होने लगा। ‘‘राष्ट्रनीति दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है।

डॉ. ललिता यादव


इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठोर होती है।‘‘1 इस सूत्र वाक्य के रचयिता जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों में देश प्रेम अथवा राष्ट्रवाद की धारा अविरल रूप से प्रवाहित है। न कोई शोर गुल, न रुदन। जिस शाइस्तगी से प्रसाद राष्ट्र के मुद्दों पर अपनी बात कहते हैं, आज के गलाकाट भौंपू राष्ट्रीयता के दौर में अर्थपूर्ण एवं प्रासंगिक हो उठती है। हालांकि यह भी सच है कि प्रसाद के नाटक पराधीनता की जिस कालावधि ;1907-1933द्ध में लिखे गए, उस समय  राष्ट्रवाद की परिकल्पना आज के प्रचलित अर्थों में नहीं थी। फिर भी वह अपने नाटकों में  इतिहास के माध्यम से आधुनिक युग की समस्याएं, राष्ट्रीय चिंतन एवं स्वातऩ्त्र्य के प्रश्नों को गम्भीरता से उठाती हैं। ’‘धार्मिक मतवाद, जाति- उपजातियों के झगड़े, सांप्रदायिक समस्याएं, धर्मोन्माद, देश के छोटे- छोटे टुकड़ों में विभाजन की प्रवृतियों के बहुपक्षीय समाधान नाटकों में खोजने  का प्रयत्न उनकी विशेषता है।’’2 आपने लिखा है-‘‘ इतिहास में प्रायः घटनाओं की पुनरावृत्ति होते देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसमें कोई नयी घटना होती ही नहीं किन्तु असाधारण नयी घटना भी भविष्यत में फिर होने की आशा रखती है।‘‘3 प्रसाद के समय का भारत विषम सांस्कृतिक राजनीतिक संकट का काल था। आज उसके विपरीत भारत सांस्कृतिक राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की जद्दोजहद के दौर में है।


डा. मंजुला दास कहती हैं- ’’वैचारिक क्रांति की सतत जागरूकता उनके नाटकों की अंतश्चेतना कही जाने योग्य है, जो क्रांति के तत्व का अग्रभाव है।’’4 हजारीप्रसाद द्विवेदी अनुसार ‘‘प्रसाद के नाटकों से भारतवर्ष की अंतश्चेतना के दर्शन का सिंहद्वार अनावृत हो गया है।’’ इस दृष्टि से वर्तमान संदर्भों में प्रसाद का मार्गदर्शन अवश्य कुछ मार्ग प्रशस्त करता है।

‘‘भारत की राष्ट्रीयता उदार भावों से युक्त रही है तथा विदेशी आक्रान्ताओं की संस्कृति के सद्गुणों को भी इसने प्रारम्भ से ही ग्रहण किया है। यह गर्व की बात है कि आधुनिक युग में आकर भी भारतीय राष्ट्रीयता का यह रूप विकृत नहीं हुआ है।’’5  विगत कुछ वर्षो में यह परम्परा विछिन्न हुई दिखती है। ‘‘आज राष्ट्रवाद का प्रश्न नए सिरे से बहस के केन्द्र में है। राष्ट्र की पहचान के विविध रूपों में से केवल राष्ट्र के प्रतीकात्मक रूपों को चुन कर उस पर बहस हो रही है। जो लोग इन प्रतीकों से बाहर के दायरे में आते हैं उन्हें राष्ट्र की परिसीमा से बाहर माने जाने पर जोर दिया जा रहा है।‘‘6 प्रतीक पूजा के इस दौर में राष्ट्रवाद का अर्थ संकुचित होता जा रहा है। वस्तुतः राष्ट्र की संकल्पना राष्ट्र की जनता के लगाव पर आधारित होती है। ‘जिस मानवतावाद का शाश्वत आदर्श’ प्रसाद के नाटक प्रस्तुत करते हैं आज के समय में भी हमारी चेतना का हिस्सा नहीं बन सका है। ‘भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुधंरा इसके प्रेम-पाश में आबद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है।’ ऐसी विराट, उदात्त और भव्य कल्पना हमारे संकुचित राष्ट्रवाद में अटती नहीं दिखती।                     
‘‘यूनानी इतिहास में चन्द्रगुप्त को शूद्र समझने की भूल का निराकरण पहली बार प्रसाद करते हैं। उन्होंने सबल प्रमाणों द्वारा नन्द को शूद्र और चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय सिद्ध किया है।‘‘7 वस्तुतः प्रसाद ‘इतिहास के गौरवशाली खंड़ों की ऐतिहासिकता को नकारने वाली इस मान्यता को लेकर बहुत दुखी थे कि ‘भारतियों का कोई राजनैतिक या सांस्कृतिक इतिहास नहीं है बस किस्से कहानियां ही हैं।’ वह भारतीय वैभव और वीरत्व से ओत- प्रोत इतिहास के कालखंड़ों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की पुनप्रर्तिष्ठा करना चाहते थे। वह सबल प्रमाणों के द्वारा चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय और नन्द को शूद्र सिद्ध करते हैं। यद्यपि प्रसाद का यह प्रयास ‘जन्मना जायते शूद्रः/संस्कारात् भवेत द्विजः।‘ जैसी महत उक्ति के संदर्भ में अर्थपूर्ण नहीं रह जाता है। बचाव में भारतीय नाट्य शास्त्र की नायक विषयक रूढ़ि के निर्वाह का प्रश्न भी उठाया जा सकता है।  वर्तमान समय में हम अस्तित्ववादी विमर्शों के स्वर्णिम दौर में है, इसके विपरीत आज भी प्रत्येक महत चरित्र के संदर्भ में कुलीनता सिद्धि की यह प्रवृति देखी जा सकती है। किन्तु इस तरह की धारणाओं के खंडन मंडन में प्रसाद जिस तरह तर्को का सहारा लेते हैं, गहन शोध और अन्वेषण करते हैं, आज के समय के वाक्वीरों और लट्ठवीरों के लिए प्रेरणास्पद है।
’‘राज्य किसी का नहीं! सुशासन का है।‘‘ वे हम भारतीयों के ही युद्ध थे, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषक- स्वच्छन्दता से हल चलाता था।  आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी यदि कर्ज और कंगाली से बड़ी संख्या में अन्नदाता किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, तब हमें सोचने की जरूरत अवश्य है कि क्यों हम उनके हित संरक्षित नहीं कर सके। ‘‘अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों ..विलास के लिए उनके पास पुष्कल धन है और द्ररिद्रों के लिए नहीं?‘‘8 गरीबी, बेरोजगारी तो है ही, भारत में भुखमरी की स्थिति भी अत्यन्त गंभीर है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य अनुसंधान संस्थान के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 100वें स्थान पर पहुंच गया है। वर्ष 2016 में भारत की रैंकिंग 97वें स्थान पर थी। इस स्थिति में आजादी से पहले और बाद के भारत का क्या अर्थ रह जाता है?  कौन से ‘राष्ट्रोदय’ की तैयारी में हम निमग्न हैं? ‘सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हैं’ फिर ‘जनता की आर्तत्राण परायण’ आवाजें क्यों सुनाई पड़ रहीं हैं। ‘‘ ब्राह्मण न किसी के राज्य  में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है। स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है।‘‘ स्वराज्य ही काफी नहीं है, स्वराज्य में विचरने का संकल्प भी अहम है। ब्राह्मण अर्थात प्रबुद्ध वर्ग के संदर्भ में यह संकल्प विचारने और अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता के अलावा और क्या है? ‘‘मौजूदा लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की अवधारणा निरंतर छीजती चली जा रही है, जबकि सशक्त प्रतिपक्ष जनतंत्र की प्राथमिक शर्त है।’’9 सत्ताधारी दल  बौद्धिक और मजे हुए प्रतिपक्ष को खत्म करने में सारी ऊर्जा लगा देते हैं। प्रतिपक्षी होना देशद्रोह की श्रेणी में ला दिया गया है। सरकार की कार्यप्रणाली पर प्रश्न करने वाले लोग चाहे वे पत्रकार, देश के नागरिक अथवा विद्यार्थी कोई भी हो सकते हैं, देश के दुश्मन हैं, ऐसा प्रमाद फैलाया जा रहा है।


‘‘विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव ये तो वे ही कर सकते हैं जिनके हाथ में अधिकार हो- जिनका स्वार्थ समुद्र से भी विशाल और सुमेरु से भी कठोर हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयं वाल्हीक तक...........’’10  अभी हाल में देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थियों के संदर्भ में सिंहरण की इन पंक्तियों को पढ़ना पीड़क आन्नद से भर देता है। तक्षशिला गुरुकुल के छात्र के रूप में गर्व से परिचय देने वाला सिंहरण राजकुमार आंभीक को दुर्विनीत लगता है। राजकुमार आंभीक के कु्रद्ध होने पर अलका कह उठती है - ‘‘वन्य निर्झ्रर के समान स्वच्छ और स्वछन्द हृदय में कितना बलवान वेग है। यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।‘‘  गांधी जी की सविनय अवज्ञा से हमारा साक्षात्कार पुराना है पर यह ‘स्पृहणीय अवज्ञा’ क्या चीज है? राज्य या प्रधान अधिकारी की किसी ऐसी व्यवस्था या आज्ञा को न मानना जो अन्याय मूलक प्रतीत हो अवज्ञा है। जब यह न मानना भद्रतापूर्वक हो तो सविनय और इसका विपरीत या इतर पक्ष ही स्पृहणीय अवज्ञा है। स्पृहणीय अवज्ञा हंसी में उड़ा देने वाली बात नहीं हुआ करतीं, हम ऐसी स्पृहणीय अवज्ञाओं का संज्ञान अब जरूरत से ज्यादा लेने लगे हैं।  गत वर्ष एक ऐसी ही स्पृहणीय अवज्ञा का आनंद देश के तमाम लोगों ने अवश्य लिया, जब चर्चित छात्र नेता के भाषणों को सुना होगा। उद्धत, राष्ट्र हित में कुछ भी करने को तत्पर उत्साही वीर युवकों के साथ प्रसाद दायित्व एवं दिशाविहीन युवक युवतियों के चित्र भी प्रस्तुत करते हैं। ज्योतिषी मुद्गल कहता है ‘‘जहां देखो वही ये प्रश्न होता है; मुझे उन बातों को सुनने में भी संकोच होता है-मुझसे रूठे हुए हैं? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है? वह सुन्दरी कब मिलेगी? मिलेगी या नहीं?-इस देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरुजी से पाठ में पढ़ा है। अभिसार के लिए मुहूर्त पूछे जाते हैं।’’ जगत गति से असमपृक्त देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों के समानान्तर जब देश की समस्याओं के प्रति जागरूक प्रतिक्रियाशील युवाओं को रखते हैं तब स्पृहणीय अवज्ञा का महत्व स्पष्ट होता है। ‘जड़ता में आछन्न, निर्मम उदासीनता में किसी तरह की बौद्धिक उत्तेजना को देखकर’ किसे प्रसन्नता नहीं होगी? आत्म सम्मान के लिए मर मिटने वाले, स्वावलम्बी, कर्मण्य वीर जो दिन रात ‘युद्धस्व विगतज्वरः’ का शंखनाद सुना करते हैं, प्रसाद की श्रद्धा के पात्र हैं। जिस देश में ऐसे वीर युवक हों उसका पतन असम्भव है। दूसरी ओर नीच, दुरात्मा, निराली धज वाले विलास के नारकीय कीड़े जो कुल वधुओं का अपमान देखकर भी अकड़ कर चलते हों के संदर्भ में कह उठते हैं- ’’जिस देश के नव युवक ऐसे हों उसे अवश्य दूसरे के अधिकार में जाना चाहिए।’’ किसी ‘राष्ट्र के लिए जैसे नृशंसता स्पृहणीय नहीं वैसे ही कायरता भी अभीष्ट नहीं हो सकती।‘ प्रसाद जी अपने नाटकों में उग्र युवाओं की क्षमताओं का जैसा उपयोग देशोत्थान में करते दिखते हैं श्लाघनीय और अनुकरणीय अवश्य है।
‘‘जिसका जो मार्ग है उस पर वह चलेगा। ............. देखती हूं प्रायः मनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, और अपना चलना बंद कर देता है।‘’ कब वह दुर्दन्त, पशु से भी बर्बर और पत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकास हृदय वाला हो जाएगा, नहीं जाना जा सकता।‘‘ अथवा ‘‘क्या इसी लिए राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था!‘‘‘ विद्या और परिष्कृत विचारो’ की आवश्यकता आज भी राष्ट्र की प्राथमिकता नहीं। ‘राजकोष का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को शिक्षित करने में लगता है या उसका सदुपयोग होता है।‘ आज भी हम इसका निर्णय कैसे हो ? जैसे प्रश्न से हम जूझ रहे हैं। प्रतिउत्तर में कोई राक्षस कह उठता है- ‘‘केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए र्प्याप्त है।‘‘ उच्च शिक्षा की दुर्दशा इसका प्रमाण है। ‘प्रचंड शासन‘ के इस दौर में भयभीत ‘मूर्ख जनता धर्म की ओट में’ एक बार फिर नचायी जा रही है। धर्मान्धता से प्रेरित राजनीति आंधी की तरह चल रही है। धर्मान्धता में प्राण ले लेना आम बात हो चली है। ‘जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले लेने की स्पर्धा’। ‘‘लूट के लोभ से हत्या व्यवसायियों को एकत्र करके उन्हें वीर सेना कहना, रणकला का उपहास करना है।‘‘ क्या ये बातें किसी सुदूर अतीत के ऐतिहासिक नाटक के संवाद मात्र हैं?


‘‘राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं होती है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व मानव के साथ व्यापक से संबंध है।’’11 नीति की बात कौन करे, जब राजसत्ता के लिए सुव्यवस्था नहीं- हत्या, रक्तपात और अग्निकाण्ड जैसे उपकरण जुटाने में राजनेताओं को आनन्द आता हो। कर्म में प्रगाढ़ आस्था के कारण ही वह बौद्ध धर्म की करुणा को गृहीत करते हुए भी प्रवज्या का विरोध करते हैं। बौद्ध भिक्षुणी इरावती के संदर्भ में एक सैनिक कहता है-‘‘यह किस क्रूर कर्मा का विधान है जिसे उषा की उल्लसित लालिमा में विकसित होना चाहिए, उसे तुम- नहीं तुम्हारे धर्म- दम्भ ने दिनान्त की सन्ध्या के पीलेपन में डूबने की आज्ञा दी है।‘‘ वह जीवन के सहज विकास की बात करते हैं। ‘संघ की मृत्यु शीतल छाया‘ हो या ‘वह धर्म जिसके आचरण के लिए पुष्कल स्वर्ण चाहिए जन- साधारण की सम्पत्ति नहीं हो सकता।’ धर्म के आड़बर पर कहते हैं-‘‘जो पारस्य देश की मूल्यवान मदिरा रात में पी सकता है, वह धार्मिक बने रहने के लिए प्रभात में एक गो- निष्क्रिय  भी कर सकता है। ‘धर्म को बचाने के लिए किसी राज्य शक्ति की आवश्यकता नहीं’ है। धर्म इतना निर्बल नहीं कि वह पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा। एक युद्ध करने वाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित होकर अधर्म करने एवं धर्माचरण की दुन्दुभी बजाने वालों से कहते हैं- ’’हम लोग व्यर्थ आपस में झगड़ते हैं और आत्तायियों को देखकर घर में घुस जाते हैं। हूणों ;विदेशी आक्रान्ताओंद्ध के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्यों नहीं अड़ जाते?’’ ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में चाणक्य कहता है- ‘‘परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है।’’ प्रजातांत्रिक व्यवस्था में यह आम नागरिकों पर भारी है। ‘श्रेय के लिए सबकुछ त्याग की दरकार भी आम आदमी से।


सिंहरण और अलका, ’मालव’ और ‘तक्षशिला’ से ऊपर उठ ंकर ‘आर्यावर्त’ के बालक बालिका के रूप में एक दूसरे को चीन्हते हैं। प्रसाद अनार्य कन्या कार्नेलिया को आर्यावर्त की साम्राज्ञी सहज रूप में स्वीकारते कहते हैं- ‘‘दो बालुकापूर्ण कगारों के बीच में एक निर्मल-स्रोतस्विनी का रहना आवश्यक है।’’ लव जिहाद, हॉरर किलिंग और वेलेन्टाइन वीक की गुत्थियों में उलझे हम अपने बच्चों के ‘प्रणय के साथ अत्याचार’ करते, उन्हें भारत के बालक- बालिका के रूप में देखने की तमीज विकसित नहीं कर सके। मालव और मगध को भूल कर केवल ‘आर्यावर्त‘ का नाम लेने की बात है वहां प्रान्तीयता को भूल कर अखंड भारत के हित की कामना है। देश की मर्यादा के साथ प्रसाद जी कोई समझोता नहीं करते। सिकंदर से ‘भूपालों का- सा व्यवहार‘ मांगने वाले कुलीन, बहुप्रशंसित पर्वतेश्वर या पोरस को वह खल पात्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। प्रसाद राष्ट्रीयता तक ही नहीं रुके रहते वह विश्व प्रेम तक पहुंचते हैं।
पुष्यमित्र के प्रश्न के उत्तर में पतंजलि कहते हैं-‘‘यही तो संसार सबसे बड़ा प्रश्न है। मैं क्या करूं? इस पर विचार और कर्म से पहले मनुष्य अपना शरीर, मन और वाणी शुद्ध कर ले।’’12 चाणक्य कहता- ‘‘भाषा ठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूं।’’ मनुष्य के ठीक होने पर भाषा का ठीक हो जाना कठिन कार्य नहीं।देश में सार्वजनिक संवाद की हालत इतनी दयनीय हो गई है कि शीर्ष राजनेताओं तक के उपचार के लिए किसी चाणक्य की आवश्यकता है। कौन करेगा ये उपचार ? जब प्रबुद्ध वर्ग को ‘लोहे और सोने के सामने सिर झुकाने में ही जीवन का चरम सुख प्राप्त हो रहा है। लोभ से, सम्मान से या भय से किसी के पास न जाने वाले दाण्ड्यायन अदृश्य हैं। आज की अलकाएं राजभवनों से भयभीत नहीं दिखती। ‘कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतन्त्र्ता का विसर्जन’ और ‘मानसिक कारावास’ घाटे का सौदा नहीं रहा। ‘‘राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए।’’ राक्षस की यह उक्ति आज भी आत्म सजग, स्वतन्त्र, चेतना संपन्न स्त्रियां को राजनीति के खेल में हिस्सेदारी से रोक लेती है। राजनीति में महिलाओं को हिस्सेदारी देने के नाम पर चुनावी रणनीति का हिस्सा बन चुका ‘संसद में 33 फीसदी आरक्षण विधेयक’ सालों से लटका पड़ा है।
भ्रष्टाचार और बेरोजगारी झेलते, निकम्मे और नाकारा होते बच्चे के जीवन का सहज विकास अवरुद्ध है। नागरिकों के ‘जीवन के सहज विकास को रोकने वाले नियम राष्ट्र की उन्नति को भी रोकते हैं।’ बच्चे, बड़े और युवकों को देश की भलाई में प्रस्तुत करने की क्षमता विकसित करने में अक्षम हम, उन्हें स्वच्छता का ककहरा पढ़ाने में ऐसे जुते हैं कि देश की ज्वलन्त समस्याएं हमें अधीर नहीं करतीं। ‘हम देश की प्रत्येक गली को झाड़ू देकर ही इतना स्वच्छ कर‘ दे रहे हैं कि उस पर चलने वाले राजमार्ग का सुख पाएं। ‘‘चाणक्य सिद्धि देखता है साधन चाहे कैसे ही हों।‘‘  चाणक्य की सिद्धि का लक्ष्य बड़ा था। आज सत्ता में बने रहना के समीकरण साध लेना ही अंतिम लक्ष्य दिखता है।
ऐसे विकट समय में प्रसाद के नाटकों में निहित राष्ट्रवाद पर चर्चा की अत्यन्त आवश्कता है ताकि राष्ट्रवाद की संकीर्ण धारणाओं से राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध होने से बचाया जा सके।
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सन्दर्भ सूची :
1- ‘स्कन्दगुप्त‘ ’प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी’ सम्पा0 सत्य प्रकाश मिश्र‘ पृ0 462 लोक भारती     
    प्रकाशन, इलाहाबाद
2- प्राक्कथन, सत्य प्रकाश मिश्र ’प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी’, पृ0 462 लोक भारती     
    प्रकाशन, इलाहाबाद
3- अजातशत्रु कथा-प्रसंग पृ0 199
4- प्रसाद के नाटक और भारतीय अस्मिता, संपादक सुरेशचन्द्र गुप्त, पृ0 71  पराग प्रकाशन दिल्ली, 1990
5- वही, पृ0 67
6- सुधा सिंह, ‘राजनीतिः समावेशी राष्ट्रवाद बनाम प्रतीकवाद’, ‘जनसत्ता‘ 14 मार्च 2016
7- गिरीश रस्तोगी, ‘हिन्दी नाटक का आत्मसंघर्ष’, पृ0 31 लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद
8- ‘स्कन्दगुप्त‘ पृ0 545
9- ‘अमर उजाला’ दैनिक पत्र संपादकीय 13 दिसम्बर 2016
10- ‘चन्द्रगुप्त’, पृ0 622
11- वही, ‘धुवस्वामिनी’ पृ0 76
12- वही, ‘अग्निमि़त्र’ पृ0 790
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परिचय

डा०० ललिता यादव
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी
नानकचंद ऐंग्लो संस्कृत महाविद्यालय, मेरठ में 2001 से अध्यापन एवं शोध निर्देशन
'समकालीन लेखिकाओं के उपन्यासों में स्त्री विमर्श' विषय पर शोध कार्य
परिकथा, कथाक्रम, समावर्तन, समालोचन आदि विविध पत्र पत्रिकाओं में शोध आलेख एवं कहानियां प्रकाशित
ईमेल lalita.yadav09@gmail.com
मो०न० 9897410300

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