28 मई, 2018

निर्मला तोदी की कविताएं



मैं क्यों लिखती हूँ

लिखना मुझे एनर्जी देता है ,ध्यान में जाने की यात्रा जैसा | अगर मैं लिखने पढ़ने न बैठूँ ,अपनी लिखने की टेबल पर ना बैठूँ तो मुझे बेचैनी होने  लगती है | अपने आप को जीवाए रखने के लिए मुझे लिखना ही होता है |



निर्मला तोदी

कविताएं


कान ! तुम ही कहो

आज मुझे अच्छा लग रहा है
बहुत –बहुत अच्छा
मैंने अपने कान से बातें की
जिनसे आजतक कभी नहीं की

मैंने कहा-
सुनो, तुम मेरे हो
आज मेरी सुनो
दुनिया भर की सुनते हो
आज मेरी सुनो

जो मैं सुनना चाहती हूँ
वही सुना करो
सामने तरह-तरह के भोजन पड़े हो
मेरा स्वाद वही खाता है
जो खाना चाहता है
अगर कुछ और खाना पड़ भी जाए तो
दवा की तरह गटक जाता है

मेरा नाक कचरे के ढेर से
दूर रहना जानता है
तुम क्यों कचरे का डब्बा बन बैठे हो
सुन लेते हो सबकुछ

तुम्हें मालूम है
तुम्हारा सुना –मेरी कोशिकाओं में
मेरी ग्रंथियों में जम जाता है
फिर दुखता है
बहुत दुखता है
बार-बार दुखता है
पिघल कर बह नहीं जाता
आंसुओं के साथ भी नहीं

मत पहुंचाया करो उसे भीतर तक
प्लीज़...

डरावना और विभत्स देखकर
आँखें बंद हो जाती है ना
अपने आप
क्या आग को उठा लेते हैं हाथ
हाथों में

फिर तुम क्यों सुन लेते हो सबकुछ

जो बोलता है
अपनी जुबान से बोलता है
अपनी बातें
अपनी मनपसंद बातें
अपनी सोच से बोलता है
ठीक है ज़्यादातर बिना सोचे ही बोलता है

तुम क्यों नहीं सिर्फ वही सुनते
जो तुम्हें पसंद है
सबका बोला सबकुछ क्यों सुन लेते हो
कहो आज तुम ही कुछ कहो
और मैं सुनुं |
००

दो


रात भर घूमी हूँ मैं

धूप की एक तिरछी सी लकीर
पर्दों के बीच से झांककर
जगा गाई

पर्दा सरकाकर देखा
कुछ भी नहीं बदला
वही आसमान है रोज वाला
वही पेड़ पंछी
वहीं पर

मैं न जाने कौन सी यात्रा से लौटी हूँ
नयी-नयी रंग-बिरंगी पृथ्वी की यात्रा
हरे-हरे आसमान की यात्रा
चाँद से बातें कर आई हूँ
सूरज से खेलकर
हरे-हरे तोते उड़ रहे थे वहाँ

समुन्द्र के पास गाई थी पानी पीने
उसने नदी का मीठा पानी पिलाया मुझे
जामुन के पेड़ से जामुन तोड़कर
खिलाये थे बतखों को
सब याद है मुझे
रात भर घूमी हूँ मैं

वे सब वहीं हैं
मैं यहाँ इस कमरे में
यह सुबह रोज वाली
वही आसमान रोज वाला |
००








तीन

मेरे विशेषण

मैं चुप रही
जब उसने मेरे सामने सवाल जवाब किए
अपनी उदारता का नाम देकर

मैं चुप रही
उस समय जब मुझे बोलना चाहिए था
बदलते जमाने को देखकर

मैं वहाँ नहीं गयी
जहां मुझे जाना था
उसी में अपनी अक्लमंदी समझकर

उसके कटु-वचनों को सुनकर
मैं चुप रही
अपनी सहनशीलता पर अभिमान कर

मैंने अपनी जुबान खोली
शब्दों को तोल-मोलकर दो शब्द कह भी डाले
अपनी व्यवहारिकता पर संतुष्ट होकर

मैंने उसे माफ किया
और चारा भी क्या था
मैंने अपनी कमजोरी को बड्डपन का नाम दिया
००

    2

मैं चुप रही
अपनी कमजोरियों को मैंने
समझदारी उदारता सहिष्णुता बड्डपन
व्यवहारिकता अक्लमंदी
समय के साथ चलना आदि आदि
कई विशेषणों से नवाजा

अब आप ही बताए
जब मैं घर में चुप हूँ
तो...
परिवार पड़ोस समाज देश के लिए
कुछ भी कैसे कहूँ ?

    3

मैं चुप रही
ढेरों बचे शब्द कुलबुलाते हैं भीतर
मैं उन्हें उड़ा देना चाहती हूँ पक्षी बनाकर
ऐसा भी कर नहीं पाती
वे कुलबुलाते हैं भीतर

मैं उन्हें नींद की गोलियां खिला देती हूँ
और मैं भी सो जाती हूँ
एक ऐसी गहरी नींद में
जहां सपने नहीं होते |
००

चार

मेरे भीतर ‘वह’ भी है

एक स्त्री मेरे भीतर
और भी है
चाहती है कुछ करना
कर नहीं पाती

बताना भी चाहती है
बता नहीं पाती
कभी मेरे साथ होती है
कभी दूर चली जाती है

पास आकर चुप हो जाती है
दूर जाकर मुस्कुराती है
मैं रोती हूँ
वह खिलखिलाती है

नजदीक आकर फुसफुसाती है
सपने दिखाती है
चिकोटी काटकर जगाती है

कमरे में
मैं रहती हूँ
एक स्त्री मेरे भीतर और भी है |

००

पांच

मेरी रसोई

रसोई में
सवेरे सवेरे
सबसे पहले
चायपत्ती और चीनी का डब्बा
मेरे स्पर्श से
मेरी मनःस्थिति को भाँप लेते हैं

मेरी कड़ाही करछी भी
मेरे हाथ की गति से
मेरे मन की लय को पकड़ लेती है
मेरी बेलन को आदत हो गयी है मेरी
समझती है वह सबकुछ

मैं बनाना चाहती हूँ
स्वादिष्ट भोजन
मेरी रसोई के मसालों की महक में
घुली-मिली है मेरी महक
और
नमक भी
मेरे मूड के हिसाब से काम करता है |
००







छः

पैर को भेजो अब

वह स्ट्रेचर पर आई थी
एक पैर ऊपर तकिये पर

टी-शर्ट और घूटने तक का जींस
खूले बाल चमकती पैरों की नेलपॉलिश
प्यारी सी लड़की

एक्स-रे केबिन का दरवाजा खुला
अंदर से आवाज आई

पैर को भेजो अब
वहाँ लड़की कहीं नहीं
थी
सिर्फ एक पैर पड़ा था स्ट्रेचर पर
जिसे दो हाथ ठेलकर  ले जा रहे थे अंदर |
००


सात

आज सिनेमा हौल में

मीनू की माँ
आज 'उनके' साथ
सिनेमा देखने आई है

मीनू की माँ
अब केवल मीनू की माँ नहीं है
घर पोते-पोतियों नवासियों से हरा-भरा है

वह
चौबीस घंटों में
अड़तालीस घंटे उनके साथ व्यस्त रहती है

सिनेमा की सीडियाँ चढ़ते समय
दोनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा है

उसके मन में लड्डू फूट रहे हैं
वह पोपकोर्न खा रही है

अंधेरे में
मीनू के पिता ने उसके कंधे पर हाथ रखा
आज वह
वैसा ही महसूस कर रही है
जैसा
आज से ठीक तीस साल पहले की थी
आज, बहुत दिनों के बाद
मीनू की माँ बहोत -बहोत खुश है |

००

आठ

बड़ों का साथ

बड़ों का सिर पर हाथ हो
बहुत कुछ संभल जाता है
अपने आप

बड़ों की खड़ाऊ
संभाल लेती है राज-पाट |
००


नो

ढूंढ लेना

सूखी जमीन से
ढूंढ कर पानी
कुआं खोद लेते हैं

गहरे समुन्द्र में
गोता लगाकर
मोती निकाल लेते हैं

पृथ्वी के भीतर
खदाने बना
हीरा निकाल लेते हैं

यह सब आसान है

सबसे कठिन है
अपने भीतर उतरना
उसके कोनो-अन्तरों को ढूंदना
अगर मिल जाए तो पहचानना
फिर पहचानकर मानना
स्वीकारना |
००







दस

उनके जाने के बाद

उनके जाने के बाद
बहुत सी जगह खाली हो गई

जो जगह उनकी थी
उसके अतिरिक्त
इधर-उधर पड़ी थी
उनकी बहुत सी जगह
दिखलाई पड़ी
उनके जाने के बाद

सन्नाटों में भी कुछ आवाजें थी
जो कम हो गई
सन्नाटों की आवाजें बढ़ गई
उनके जाने के बाद

उनका न बोलना अब समझ में आता है
उनका बोला हुआ भी
अब समझ में आता है
सुबह की सबसे पहली नल की आवाज़
शाम के कूकर की पहली सीटी
अब चुप है
वो किस किस आवाज़ में थी
यह भी मालूम हुआ
उनके जाने के बाद

रसोई से
उनका पानी का लोटा गुम है
तनी पर सूखते कपड़ों में
सफ़ेद रंग कम है
लगातार हाथ में घूमती माला
बैठी है चुपचाप
सब चीज़ें कहाँ थी
मालूम हुई उनके जाने के बाद
वो खाली जगह भर जाएगी
खाली हुआ समय भी भर जाएगा
समय के साथ

वो पूजा की घंटी में थी
तुलसी के साथ भोग की थाली में थी
अनुशासन में थी
आश्वासन में थी
मंजूरी में थी
नामंजूरी में थी
तौर-तरीकों नियमों में थी
आज्ञा में थी
अंदर पनपती उन आज्ञाओं की अवज्ञाओं में थी
बड़े-बड़े फैसलों
छोटी-छोटी बातों में थी
वो अपने कमरे में रहती थी
वो हर जगह थी
यह सब मालूम हुआ
उनके जाने के बाद

उनका खाली कमरा
उनके नाम से ही रहेगा कुछ समय तक
फिर एक नए नाम के साथ रहेगा
उसी जगह |

००


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