12 मई, 2018

मैं क्यों लिखता हूं


तुहिन देब
                               



         “To Write is thus to disclose the world and to offer it as a taste to the generosity of the reader. **Why Write**

आलेख में जों पॉल सात्र द्वारा लिखित ये पंक्तियां कि इस प्रकार लिखना कि दुनिया को उजागर किया जाये तथा इसे पाठक कि सदाशयता पर छोड़ा जाय कि वह इस कार्य को अपने हाथ में ले । ये पंक्ति मुझे बहुत प्रिय हैं। जों पॉल सात्र के साथ ही मेरे जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले लेखकगण मैक्सिम, गोर्की, प्रेमचंद, लू शून तथा माणिक बंदोपाध्याय हैं। जैसा कि माणिक बंदोपाध्याय ने लिखा है कि  ’’अपनी लेखनी के अलावा जो बातें मैं किसी और माध्यम से बता नहीं पाता हूं उन बातां को बताने के लिए ही लिखता हूं।’’ यधपि लिखने के लिए ही लिखने पर उनका विश्वास नहीं था। ’’जीवन को मै जिस तरह और जैसा अहसास करता हूं, दूसरों को उसका क्षुद्र अंश बांटने के लिए ही मै लिखता हूं।’’

   



तुहिन देब


 मैं उपरोक्त सारे महान लेखक जो प्रगतिवादी धारा के लेखक और मार्क्सवादी जीवन दर्शन से प्रभावित थे, से प्रेरित होने के बावजूद एक लेखक नहीं बन पाया हूं। न तो मैं एक कहानीकार हूं न ही कवि या नाटककार। मैं वस्तुतः एक राजनैतिक सामाजिक- सांस्कृतिक कर्मी हूं जो समतावादी / साम्यवादी विचारधारा के प्रचार -प्रसार  करने, आम जनता को उसके इर्द गिर्द जागरूक करने तथा इस शोषणकारी समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के लिए अपने राजनैतिक- सांस्कृतिक कार्य के पूरक के रूप में लिखता हूं। सोच कर लिखें या बिना सोचे लिखें एक समाज सचेतन इमानदार लेखक की रचनाओं मे आवश्यक रूप से उनका अपना जीवन अनुभव, जीवन दृष्टि और उनका विश्व दृष्टिकोण उभर कर आएगा ही। चाहे वो शासक वर्ग की सोच हो या शासित वर्ग की हो, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लेखक के लेखन अन्तर्वस्तु व रूप में यह उभर कर आयेगा ही। अगर  यथार्थवादी साहित्य व कला, केवल कला के लिए न होकर जनता की सेवा करे तो उससे मेरा अभिप्राय क्या हैघ् यह  यथार्थवाद अनिवार्य रूप से आई थी एक विशेष काल में। वह कालखण्ड क्या थाघ् हेमिंग्स के ’द एज ऑफ रियलिज्म’ ग्रंथ में काल की इस प्रकार  व्याख्या की गई है, -
*The age of realism was in short  the age of George Stephenson, Marconi, Darwin, Cecil Rhodes and Karl Marx, it was the ninetieth century* .

सच है कि औधोगिक कं्राति के उद्भव, जैविक विकास और मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष (विशेषकर कार्ल मार्क्स की 200 वीं जयंती पर उनको याद करते हुए) की रोशनी में यथाथर्वाद, विश्व की जनता के सामने आया। उन्नीसवीं शताब्दी का यथार्थवाद मुख्य रूप से बाल्जाक, गोगोल, पुशकिन, टॉलस्टॉय, दोस्तोव्स्की, जोला आदि के कथा साहित्य में प्रवाहित होकर बीसवीं शताब्दी में गोर्की, ऑस्त्रोवस्की, लू शून,  प्रेमचंद, कृश्नचंदर, माणिक बंदोपाध्याय.....  और फिर इक्कीसवीं शताब्दी में प्रगतिवादी धारा के रचनाकारों के माध्यम से अनवरत प्रवाहित होती जा रही है।
लेखकों को क्या लिखना चाहिए इस पर मैक्सिम गोर्की ने कहा है ’’ साहित्यकार अपने देश अपने वर्ग की अनुभूति उनका कान, आंख और ह्नदय- अपने युग की आवाज होता है.....।

इसी विषय पर प्रेमचंद का कहना था ’’ यों कहिये कि वह (साहित्यकार ) मानवता ,दिव्यता और भद्रता का बाना बांधे होता है। जो दलित है, पीड़ित है वंचित है- चाहे वो व्यक्ति हो या  समूह- उसकी हिमायत और वकालत करना उसका फर्ज है..............। ’’

 गोर्की के  ’एक पाठक’ कहानी का नायक लेखक के समुख साहित्य की अपनी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहता है कि ’’शायद मेरी बात से तुम सहमत होंगे, अगर मैं कहूं कि साहित्य का उद्देश्य है- खुद अपने को जानने में मानव की मदद करना, उसके  आत्मविश्वास को दृढ़ बनाना और सत्य का पता लगाने की उसकी कोशिशों का समर्थन करना, लोगो के ह्नदयों में शर्म, गुस्से और साहस की चिंगारी जगाना, ऊंचे उद्देश्यों के लिए शक्ति बटोरने में उनकी मदद करना और सौन्दर्य की पवित्र भावना से उनके जीवन को शुभ बनाना..... तुम किस प्रकार उसमें (मानव में) जीवन की चाह जगा सकते हो, जब खुद भी बुदबुदाने और भुनभुनाने  और रोने - झींकने या उसके पतन की एक निष्क्रिय तस्वीर खींचने  के सिवा  और कुछ नहीं करते घ् ह्नास की गंध  धरती को घेरे है लोगों के ह्नदयों में कायरता और दासता समा गयी है, काहिली की नरम जंजीरों ने उनके दिमागों और हाथों को  जकड़ लिया है- और इस घिनौने जंजाल को तोड़ने  के लिये तुम- क्या करते हो घ्’’
ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि गोर्की व प्रेमचंद लेखक से क्या अपेक्षा करते थे। आज हम भारत को अंधकार युग में ले जा रहे धुर दक्षिणपंथी शासक वर्ग जो कि एक तरफ तो कॉर्पोरेट कायम करने के माध्यम से तमाम मेहनतकश वर्ग, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय समेत मध्यमवर्ग को तबाह कर रहा है। और  यह  सब वो अति अमीरों के मुनाफे के पहाड़ को और ऊंचा बनाने के लिए कर रहा है। दूसरी ओर कॉर्पोरेट शोषण अत्याचार के बुलडोजर से लोगो का ध्यान बंटाने के लिए सांप्रदायिक फासिस्ट हथकंडे अपना रहा। ऐसे माहौल मे लोगों के ह्नदयों से समा गई कायरता और दासता की भावना को निकालने के लिए जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि  लेखक अपने व्यक्तिवादी घेरे से बाहर  निकलें, रोने झींकने और मानव पतन की निष्क्रिय तस्वीर न खींचकर ऊंचे उद्देश्यों के लिए शक्ति बटोरने में आम जनता की मदद करें। ठीक यही काम किया था लेखक किस्टोफर कॉडवेल, मुल्कराज आंनद, व लोर्का ने (स्पेनं में फासिस्ट ताकतों के खिलाफ का्रंतिकारी जन युद्ध मेंं), सज्जाद जहीर, प्रेमचंद, सुकांत , माणिक बंदोपाध्याय, फैज अहमद फैज, मंटो, कलबुर्गी, पन्सारे, दाभोलकर, गौरी लंकेश और कईयों ने। प्रतिक्रिया के खिलाफ लड़ाई में प्रगतिवादी एक्टीविस्ट लेखक - लेखिकाओं की कतार काफी लंबी है। मैं तो खुद को एक लेखक नहीं मानकर एक एक्टीविस्ट संस्कृति  कर्मी मानता हूं तथा प्रगतिवादी साहित्यकर्म का एक प्रशिक्षु हूं। मेरे जैसा एक एक्टीविस्ट संस्कृति कर्मी, सहित्य के समाजापेक्षी होने, उसे जीवन को बेहतर और सुदंर बनाने के एक अस्त्र के रूप मे उपयोग करने की आवश्यकता को समझते हुए सभी जनपक्षीय साहित्यकारों से अपेक्षा और अनुरोध करता हूं  कि वे खुद को अपनी जनता और युग के सम्मुख जवाबदेह मानें । क्योंकि यही सच्चे मानवतावाद की परम्परा है।
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तुहिन देब का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/200-5-1818-5-200-1848-170-2018-2017-150.html


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