01 जून, 2018

कम्युनिस्ट घोषणापत्र के 170 वर्ष

तुहिन देब


आज से एक सौ सत्तर वर्ष पूर्व यूरोप को एक भूत आंतकित कर रहा था। कम्युनिज्म का भूत। कम्यूनिज्म के भूत को हमेशा- हमेशा के लिए, भगाने के लिए उसी समय बूढ़े यूरोप के सभी रंगों की प्रतिक्रियाशील ताकतों ने (पोप और जार, आस्ट्रियाई साम्राज्य के चांसलर मेटर्निख और फ्रांसीसी मंत्री गीजो, फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन खुफिया पुलिस) गठबंधन कर लिया था। और प्रतिक्रियावादियों की मिली जुली ताकत के रूबरू खड़े होकर कम्युनिस्टों ने जिस दस्तावेज में खुलेआम अपने विचारों तथा उद्देश्यों को ऐलान किया था- वह कम्युनिस्ट घोषणापत्र ही था।

तुहिन


मार्क्स  तथा एंगेल्स अलग- अलग देशों के विभिन्न  प्रकार  ट्रेड  यूनियन संगठनों द्वारा गठित प्रथम वर्किंगमेन एसोसियेशन (कामगार संघ जिसे पहले कम्युनिस्ट लीेग कहा जाता था) में सक्रिय थे। उन्होंने जर्मन वर्कर्स एसोसियेशन का गठन किया (हालांकि वे उस समय बेल्जियम में रह रहे थे)। कम्युनिस्ट लीग की ओर से ही मार्क्स  और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा था। इस प्रकार उन्होंने सर्वप्रथम सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत  को व्यवहार में लागू किया था। जिसे उन्होंने पूंजीवादी   राष्ट्रवाद के विरोध में प्रतिपादित किया था।

पिछले 170 वर्षों में कम्युनिज्म का वही भूत यूरोप से सारी दुनिया में फैल चुका है। पूूंजीवादी समाज के कर्णधारों ने लगातार इस विचारधारा को खत्म करने की कोशिश की है। कोशिश की है कम्युनिस्टों की कुचल देने की। कभी- कभी ऐसा भी लगने लगा था कि मानो सचमुच ही उनका खात्मा हो गया है। मगर अगले ही क्षण यूनानी मिथक फीनीक्स पक्षी की तरह भस्म होने के बावजूद भी राख में से धूल झाड़ते- झाड़ते सर उठा कर मृत्युंजयी कम्युनिस्ट वर्गसंघर्ष की अग्रिम पंक्ति में खड़े हुए।
   
मौजूदा परिस्थिति में अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन एक संकट के घेरे में है। एक समय समाजवादी रहे सोवियत यूनियन, चीन, क्यूबा, वियतनाम, उत्तर कोरिया तथा पूर्वी यूरोप के वारसा संधि वाले देश आज पंूजीवाद के रास्ते पर चल रहे हैं और एकध्रुवीय दुनिया के रंगमंच पर अमेरिकी साम्राज्यवाद तथा उसके संगीसाथी तांडव नृत्य कर रहे हैं। उनके द्वारा निर्देशित भूमंडलीकरण/उदारीकरण की पृष्ठभूमि में चारों ओर कम्युनिस्ट विरोधी भांति- भांति के रंग - बिरंगे दर्शन सर उठा रहे हैं। साम्राज्यवाद दम्भ से दुनिया में यह घोषणा कर रहा है कि अब इतिहास का अंत हो चुका है तथा पंूजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका, और दक्षिणी अमेरिका के भूतपूर्व उपनिवेश एवं अर्धउपनिवेशों को साम्राज्यवादियों ने बढ़ते जनसंघर्षों के कारण दिखावे के लिए तथाकथित स्वतंत्रता तो दी मगर पुराने तरीके के उपनिवेशवाद की जगह इन देशों को गुलाम बनाए रखने के लिए नवउपनिवेशवादी नीतियों को लागू किया। जो कि पुराने तरीके के उपनिवेशवाद से भी घृणित, मक्कारीपूर्ण तथा अनिष्टकारी है। जिसमें साम्राज्यवाद वित्तीय पूंजी , अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हमले तथा इन देशों में अपने पैरोकारों के जरिए नवउपनिवेशवादी शासन तथा शोषण को चलाता है। ऐसी चरम प्रतिकूल परिस्थिति में पूंजीवाद के शिंकजे में जकड़ा मेहनतकशवर्ग आज भी धैर्यपूवर्क उन मरकर भी जिंदा रहने वाले कम्युनिस्टों के वापस लौटकर आने का इंतजार कर रहा है और इस चाहत के पीछे की वास्तविकता में ही निहित है कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रासंगिकता। घोषणापत्र की शुरूआत जिस वाक्य से हुई है वो है ’’अभी तक आविर्भूत समस्त समाज का लिपिबद्ध इतिहास वर्गसंघर्षों का इतिहास रहा है’’। परंतु हो यही रहा है कि घोषित तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ, मेहनतकशों की अपेक्षाओं पर पानी फेरकर वर्गसंघर्ष की अनिवार्यता को या तो भूल गई हैं या भूल रही हैं और शासक वर्ग की इस या उस पार्टी की पिछलग्गू बनकर मेहनतकश वर्ग को भ्रमित कर रही हैं।
सोवियत यूनियन सहित जिन देशों में एक समय समाजवाद की स्थापना हुई थी व बुर्जुुआवर्ग (पूूंजीपतिवर्ग) को सत्ता से बेदखल कर सर्वहारावर्ग ने सत्ता दखल किया था, वहाँ असल में राजसत्ता, सरकार या उत्पादन के साधनों पर व्यापक  मेहनतकश जनता का नियंत्रण स्थापित नहीं हुआ था। बल्कि मेहनतकश जनता के प्रतिनिधि के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं का नियंत्रण स्थापित हुआ था। उनके हाथ से व्यापक मेहनतकश जनता के हाथों में प्रत्यक्ष रूप से सत्ता का हस्तांतरण ही उस स्तर पर क्रांति को तथा वर्गसंघर्ष को लगातार आगे ले जाने की प्रकिया का एक आवश्यक कार्यक्रम था। यह तथ्य है कि इस कार्यक्रम को अमल में नहीं लाया जा सका। फलस्वरूप सोवियत संघ में 1953 में स्टालिन की मृत्यु पश्चात् 1956 में निकिता ख्रुश्चेव के नेतृत्व में पार्टी के अंदर छुपे हुए पतन के गर्त मे गिरे हुए पूंजीवादी राहियों के हाथों सत्ता केंद्रित हो गई थी। उत्पादन के साथ व्यापक मेहनतकश जनता के अलगाव की प्रकिया तेज होनी शुरू हो गई थी और इसके परिणाम स्वरूप उन देशों में पूूंजीवाद की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ था। पूर्वी यूरोप के देशों के इस नकारात्मक अनुभव से सीख लेकर ही माओ त्से तुंग ने चीन में 1966 में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति का शंखनाद किया था। सांस्कृतिक कं्राति के मर्म में था कम्युनिस्ट घोषणापत्र का वही विस्मृत नारा कि ’’वर्गसंघर्ष को कभी मत भूलो’’। मगर चीन में भी अंत तक इस  प्रक्रिया को आगे ले जाना संभव नही हो पाया। वहाँ 1976 में माओ त्से तुंग की मृत्यु के बाद तेंग सियाओ पिंग के नेतृत्व में वर्ग संघर्ष के सिंद्धात का परित्याग कर दिया गया और इसी की परिणिति मे वस्तुतः चीन आज बाजार केंद्रित समाजवाद के साइनबोर्ड वाला एक पंूजीवादी -साम्राज्यवादी देश बन गया है। जिसे हमारे देश के सरकारी कम्युनिस्ट, (जो आज बंगाल, त्रिपुरा को खो कर केरल में सिमट कर रह गए हैं) समाजवाद के गौरवशाली और विकसित माॅडल के रूप में पेश करते हैं।
भारत सरीखे विकासशील या गरीब देशों में वर्ग संघर्ष का सिद्धांत एक अन्य परिप्रेक्ष्य में विस्मृत हुआ है। वैसे तो
पूंजीवादी  देशों में बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के बीच मध्यमवर्गियों का एक मध्यवर्ती स्तर रहता है और एन्तोनिओ ग्रामची (इटली के कम्युनिस्ट नेता जिनकी फासिस्ट मुसोलिनी के जेल में मृत्यु हुई थी)  ने दिखाया है कि पंूजीवादी व्यवस्था को वंचित सर्वहारा वर्ग के लिए स्वीकार योग्य बनाने के मामले में मूल भूमिका इन मध्यमवर्गीयों कीे ही रहती है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में इनका प्रभाव व व्यापकता बहुत ज्यादा होने के कारण बुर्जुआ और सर्वहारा के बीच के वर्ग विभाजन को गड्डमगड्ड करने में इनकी भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण और क्रियात्मक हो जाती है। ये लोग वैसे तो क्रांति की वाणी का प्रचार करते हैं, सिविल सोसाइटी के विभिन्न क्रियाकलापों में अगुआई करते हैं। ठीक वैसे ही कथनी और करनी के बीच के सामंजस्य को पूर्णरूपेण तिलाजंली देकर एक हाथ में प्रगति के झंडे को ऊंचा उठाए रखते हैं और दूसरे हाथ से सांईबाबा, बाबा तारकनाथ या कोई और स्वयंभू भगवान/बाबा की पूजा में व्यस्त रहते हैं। वे ही व्यक्तिवादी सोच, क्षुद्र स्वार्थ और ऊपर उठने की चूहादौड़ में शामिल रहते हैं। आज के भूमंडलीकरण की विशिष्टता पूर्ण दुनिया में विभिन्न देशों में उन्नत प्रौद्योगिकी के व्यापक इस्तेमाल की पृष्ठभूमि में वे अपने स्वार्थ को साधने में तत्पर हंै और भोगवाद के सागर मंे गोते लगा रहे हंै।



उन्नत प्रौद्योगिकी युक्त आधुनिक समाज में मानसिक श्रम के व्यापक शोषण की तीव्रता बढ़ जाती है और मध्यमवर्गीयों का बहुसंख्यक हिस्सा, वर्गीय शोषण की चक्की में पिस रहा है। यह प्रक्रिया वर्ग विभाजन की अनिवार्यता को प्रकट कर वर्गसंघर्ष के अटल सिंद्धात को ही नये रूप में स्थापित कर रही है। मगर मध्यमवर्गीय ढूलमूलपन और आत्म प्रतिष्ठा की आंकाक्षा, वर्ग संघर्ष के इस निर्मम वास्तविकता को ही ढाकने की कोशिश करते रहती है। आज की सरकारी कम्युनिस्ट पार्टीयाँ सामाजिक जनवादी पार्टी के स्तर पर पहुंच चुकी हंै। इनका मध्यमवर्गी चरित्र वाला नेतृत्व इसी प्रक्रिया का अंग बनकर वर्गसंघर्ष को भूला देने के षड़यंत्र में शामिल हो चुका है। इसलिए वे मुंहजबानी साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण- या नवउदारवादी नीतियों का विरोध करते हैं। मगर बंगाल, केरल या त्रिपुरा में जहां भी इनको सरकार बनाने का मौका मिलता है, वे नवउदारवादी नीतियों का कोई विकल्प नहीं है (There is no alternative )कहकर उन्हीं जन विरोधी नीतियों को लागू करते रहते हैं।

कम्युनिस्ट घोषणापत्र के अनुसार ’’कम्युनिस्ट अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। वे खुलेआम ऐलान करते हंै कि उनके लक्ष्य पूरी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बलपूर्वक उखाड़ फेंकनेेेेे से ही सिद्ध किये जा सकते हैं। कम्युनिस्ट  क्रान्ति करे।   सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए सारी दुनिया है। दूनिया के मजदूर एक हो’’। कम्युनिस्ट घोषणापत्र की 170 वीं वर्षगाठ पर इसलिए शासक वर्ग के फैलाए सारे मोहजाल को तोड़कर नये रूप में और ऊंची आवाज में पुनः घोषणा करने की जरूरत है कि वर्ग संघर्ष को कभी मत भूलो।
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संपर्क -  तुहिन                       
मो.न.- 95899-57708                   
ईमेल- tuhin_dev@yahoo.com



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