28 जून, 2018


यात्रा संस्मरण: अथ औली यात्रा कथा 


      
ठण्ड की तलाश में

रचना त्यागी


रचना त्यागी


20 जून, 2018 की रात को पहाड़ी पर्यटन स्थल 'औली' (उत्तराखण्ड) के लिए निकलना तय हुआ था। इंटरनेट की जानकारी के अनुसार दिल्ली से औली का 18 घण्टे का सफ़र था। यूँ तो पहले कई बार पहाड़ी स्थलों का भ्रमण किया है, लेकिन साल-दर-साल पहाड़ों पर बढ़ती गर्मी, वहाँ की भीड़-भाड़ और गन्दगी, लम्बी सड़क-यात्रा में होने वाली दिक़्क़त (ट्रैवल सिक्नेस) के चलते पहाड़ी यात्राओं में एक लम्बा अंतराल आ चुका था। इस बार भी ठंडक, प्राकृतिक सौन्दर्य आदि जैसे बिंदुओं के मद्दे-नज़र बहुत सोच-विचार के बाद यह स्थान तय हुआ था। हम कुल 10 यात्री थे, जो एक ही परिवार के थे, अतः आने-जाने में एक साथ समय बिताने, बोलने-बतियाने और लम्बी, पहाड़ी चढ़ाई पर ख़ुद ड्राइव करने से बचने के लिए टैम्पो-ट्रैवलर का साधन चुना गया। 20 जून की रात ठीक एक बजे (21 जून) हमने प्रस्थान किया। बीच-बीच में चाय के बहाने गाड़ी को और ख़ुद को विराम देते हुए जब तक हरिद्वार, ऋषिकेश पहुँचे, अँधेरे की चादर को छीजते हुए भोर का उजाला फैलने लगा था। सूरज की आमद दिखाई दे रही थी, पर सूरज अभी नटखट बालक की मानिंद शरारत करने पर तुला हुआ लुका-छिपी खेल रहा था, सो बहुत देर बाद नज़र की ज़द में आया।




हरिद्वार में विश्व विख्यात 'पतजंलि'  के कई एकड़ में फैले आश्रम के दर्शन हुए। साथ ही बाबा रामदेव की व्यावसायिकता के विषय में सहयात्रियों के कटु उद्गार प्रकट हुए।







 कुछ आगे जाने पर हरिद्वार में पुराने ढंग के बने हुए मकानों को देखकर एक मीठा-सा अहसास हुआ। रंग-बिरंगे मकान दूर से खिलौने जैसे प्रतीत होते थे। उनमें एक ही दीवार में दरवाज़ा और खिड़की निकाली हुई थी और खिड़कियाँ लोहे की सलाखों और बिना छज्जे वाली थीं।  उन्हें देखकर ऐसा लगा कि कई साल पहले इस तरह का मकानों में लोग रहते होंगे।  साथ ही पुराने समय की कई कहानियाँ मस्तिष्क में साकार हो उठीं, मानो उनके पात्र उन्हीं मकानों में रह चुके हों। बहरहाल, वहाँ दिनचर्या शुरु होने के लक्षण दिखाई दे रहे थे - कोई पिता अपने पुत्र के साथ छत पर खड़ा दातुन कर रहा था, कोई चिड़ियों, कबूतरों के लिए दाना डाल रहा था, कहीं इलाक़े के नल से बाल्टी में पानी भरा जा रहा था। जब कोई वस्तु या व्यक्ति हमारी कल्पना के क़रीब होता है, तो पहली बार दिखने या मिलने पर भी जाना-पहचाना लगता है। इसी भावना के अन्तर्गत महानगरीय भोर से अलहदा यह भोर बहुत सुहावनी और चिर-परिचित लगी। सच कहूँ, तो तीव्र इच्छा हुई कि गाड़ी से अपना सामान लेकर उतर जाऊँ और मन भरने तक इसी जीवन का हिस्सा बनी रहूँ।  ज़िंदगी बहुत सीमित है ... और अभिलाषाएँ असीमित ! ऐसे में यदि सारी में से कुछ आकांक्षाएँ भी इस तरह के पड़ावों के ज़रिये पूरी होती रहें, तो जीवन में तृप्ति की सम्भावना बढ़ जाती है।

         
 हर यात्रा दोतरफ़ा होती है - 

एक अंतर्मन की और दूसरी बाह्य जगत की। इस लिहाज़ से यह यात्रा मन के भीतर चल रही थी... और बाहर का आलम यह था कि सुदूर पर्वत दिखाई देने से मंज़िल के नज़दीक़ आते जाने की उम्मीद बढ़ती जा रही थी और रोमांच भी। रास्ते में फ़ाइबर के बने हुए चल शौचालयों (सुलभ शौचालयों) से भी भेंट हुई, जो बाहर से दिखने में काफी साफ़ और सुंदर थे, पर अंदर से गंदे और पानी की कमी से बेहाल। पूछने पर पता चला कि उनका किराया 10 रूपये प्रति व्यक्ति है, लेकिन यह किराया वसूल करने के लिए वहाँ कोई उपलब्ध नहीं था। अगर होता, तो शायद यह बदहाली न होती।

   
रास्ते में गंगा की अठखेलियों और उदासीनता के अलग-अलग रूप देखते हुए हम घुमावदार पर्वतीय रास्तों पर बढ़ते रहे। जैसे -जैसे ऊँचाई पर चढ़ते जा रहे थे, बच्चे दूर से दिखने वाली पर्वत श्रृंखला की यत्र-तत्र सफ़ेद चमकदार चोटियों को देखकर उत्साहित होते जा रहे थे। जबकि हरिद्वार पार करने तक भी तापमान में कोई कमी महसूस न होने से निराशा भी हो रही थी। कई स्थानों पर देखा कि पहाड़ी रास्तों को चौड़ा करने के लिए काम चल रहा था। रास्ते में सिख धर्म स्थल 'हेमकुण्ठ' के लिए बाइक पर जाते केसरिया पगड़ी बाँधे सिख नौजवान और पैदल जाते वृद्ध प्रचुरता में देखने को मिले। जगह-जगह इनके स्वयंसेवकों ने मीठे पानी व भोजन की व्यवस्था कर रखी थी और आते-जाते यात्रियों को विनम्र आग्रह कर खाने-पीने के लिए सेवा का अवसर प्राप्त करने के अभिलाषी थे। यह दृश्य देखकर एक बार फिर मेरी यह धारणा पुष्ट हुई कि निःस्वार्थ सेवा-भाव में सिख धर्म सबसे अग्रणी है।

   
21 जून की शाम छः बजे के क़रीब हम 'औली नेचर रिज़ॉर्ट' पहुँचे, जहाँ यात्रा से ही पूर्व नैट के ज़रिये जानकारी लेकर और मैनेजर से फोन पर बात करके रुकने योग्य जगह समझकर हमारी तलाश समाप्त हुई थी। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि वह स्थान 'जोशीमठ' है, जो औली से छः किमी नीचे है। हालाँकि वहाँ प्रवास के दौरान यह पाया कि उसका दाम, सर्विस के मुक़ाबले बहुत अधिक है, पर नई जगह होने के कारण इस तरह के अनुभव होना आम बात है। उस तथाकथित 'रिज़ॉर्ट' का रिसेप्शन हमेशा खाली रहता था, सो बात करके कुछ तय करने के लिए कोई उपलब्ध नहीं था। स्टाफ़ के नाम पर तीन-चार लड़के थे, जो ज़ोर से आवाज़ लगाने पर दृष्टिगोचर होते थे।  वे रात को ही नाश्ते के बारे में पूछकर सुबह-सुबह बनाकर रख देते और बाक़ी दिन बैडमिंटन खेलने या अन्य गतिविधियों में बिताते। पानी मिली दाल और कच्ची सब्ज़ी में कोई स्वाद न होते हुए भी खाना लाचारी थी। हालाँकि थोड़ा सख़्ती से टोकने के बाद खाने की गुणवत्ता में थोड़ा सुधार हुआ। लेकिन खाने की कमी पर वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य हावी रहा। हालाँकि जिस ठण्ड की तलाश में हम इतनी दूर गए थे, उसका कहीं अता-पता न था। पर वहाँ प्रकृति की गोद में बने झोंपड़ीनुमा कमरों ने हमें बहुत लुभाया। कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरकर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कमरे बने हुए थे, जिनकी छत झोंपड़ी की तरह ढलवाँ थी। चारों ओर खाई और विशाल पर्वत थे। हर कमरे के बाहर छत से लटकती नीली रौशनी वाली लालटेन, जो दरअस्ल मच्छरों को आकर्षित करने के लिए एक ख़ूबसूरत प्रलोभन थी, उस सौंदर्य को और बढ़ा रही थी। बड़े-बड़े हेलीकॉप्टर की शक़्ल के मच्छर मौक़ा पाते ही कमरे में घुसने को बेताब रहते थे। पता चला कि ये  'हेलीकॉप्टर' नामक जीव केवल मई-जून के ही दो महीनों में यहाँ नज़र आते हैं। बाक़ी के दस महीने कहीं छिपकर विश्राम करते हैं।




हमारे कमरों के ठीक सामने हाथी के आकार का एक विशाल पर्वत था, जिसका नाम ही 'हाथी पर्वत' पड़ गया था। शायद किसी ज़माने में किसी ऋषि के श्राप ने उसे वहाँ इस रूप में स्थापित कर दिया होगा।

                                   हाथी पर्वत

अगली सुबह, जैसा कि एक गाईड से पूर्व -निर्धारित था, हम लोग अपने साथ लाई गाड़ी में औली के लिए निकल गए। छः किमी के चढ़ाई वाले रास्ता तय करके हम 'स्की रिज़ॉर्ट' के पार्किंग क्षेत्र में पहुँचे, जहाँ से लोहे की सीढियाँ पार कर हमें 'एयर चेयर' ( ट्रॉली ) के ज़रिये हवा में उड़ते हुए औली पहुँचना था। ट्रॉली में बैठकर नीचे खाईयों की गहराई को देखना दिल दहलाने वाला अनुभव था। एक-एक क्षण जान की सलामती की दुआ माँगते हुए वे सात मिनट कैसे बीते, यह समझा जा सकता है। यह ट्रॉली एक बार में चार व्यक्तियों को बैठा सकती है और आने-जाने का टिकट 300 रूपये / व्यक्ति है, जबकि एक ओर के सफ़र में डेढ़ गुना कम ख़र्च है। मसलन- अगले दिन वापसी में हमें केवल औली से वापिस स्की रिज़ॉर्ट की पार्किंग तक पहुँचकर अपनी गाड़ी में सवार होना था, तो नौ लोगों के टिकट की बजाय पाँच लोगों की टिकट लगी, क्योंकि यह यात्रा एकतरफ़ा थी।



ट्रॉली ने जैसे ही हमें  औली  की वादियों में उतारा, ऐसा लगा कि हम दूसरी दुनिया में पहुँच गए हैं।  नज़र की हद तक पर्वत ही पर्वत ! कुछ पर बर्फ़ की चमक झलक रही थी। गाईड हमें पैदल चलाते हुए उबड़ -खाबड़ पहाड़ी रास्तों पर ले चला। चारों ओर चट्टानों पर देवदार और चीड़ के पेड़ ढलान से बेख़बर सीधे तने हुए खड़े थे। लगभग 50 -60 फ़ीट की ऊँचाई पर सघन वन थे, जिनमें जंगली पशुओं का वास था। ट्रैकिंग के रास्ते में काली गायों और बछड़ों के झुण्ड निश्चिंचतता से हरियाली चरते हुए दीखे। उनके गले में बंधी घण्टियों की खनखनाहट उन वादियों में गूँजने वाली एकमात्र ध्वनि थी। पता चला कि ये गायें पहाड़ों में खेती करने वालों की हैं।  जिन महीनों में खेती नहीं होती, उन महीनों में ये खेतिहर इन्हें प्रकृति के हवाले छोड़ देते हैं और खेती का समय आने पर इन्हें वापिस ले जाते हैं। इसके अलावा जो गायें दूध देना बन्द कर देती हैं, उन्हें भी यूँ ही बेसहारा छोड़ दिया जाता है। इनमें से कई पशु ठण्ड अथवा जंगली जानवरों का शिकार हो जाते हैं। इस मानवीय प्रवृत्ति को देखकर उन मासूम बेज़ुबान पशुओं के प्रति मन भर आया ! 'इस्तेमाल करके छोड़ देना' वाली फ़ितरत इंसान को कितना नीचे गिरा देती है!

                                      ट्रैकिंग

बहरहाल, गाईड के पीछे-पीछे चलते हुए एक खुले मैदान में पहुँचकर हम थमे, जहाँ उसने हमें कुछ पर्वतों के नाम और पौराणिक सन्दर्भों से अवगत कराया। उसने हमें 'ब्रह्म कमल' नामक एक पर्वत शृंखला दिखाई, जिसके शिखर कमल की खिली पंखुड़ियों के आकार में थे। उनकी रंगत कमल की तरह गुलाबी न होकर बर्फ़-सी सफ़ेद थी।

                     
                                   ब्रह्म कमल


दूसरी ओर संकेत करके गाईड ने हमें 'नन्दा देवी पर्वत' दिखाते हुए बताया कि इस पर्वत पर आज तक कोई नहीं चढ़ पाया है, क्योंकि इसे नन्दा देवी का 'मस्तक' माना जाता है, अतः इस पर कोई पैर नहीं रख सकता। उसके साथ ही उसने वह पर्वत भी दिखाया, जहाँ से हनुमान जी लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लेकर आये थे और दूसरी ओर संकेत करके वह स्थान दिखाया, जहाँ उन्होंने संजीवनी एक हाथ में थामे हुए विश्राम के लिए एक पैर धरती पर टिकाया था। यद्यपि वह स्थान वहाँ से दूर था और हम हनुमान जी के पैर का चिह्न नहीं देख पाए, न ही जान पाए  कि ऐसा कोई चिह्न है भी, या नहीं। वहाँ  नीचे देखने पर सैनिकों के लिए बने 'इग्लू हाउस' भी दिखे, जो सफ़ेद रंग के इग्लू जैसे दीख रहे थे।


सैनिकों के 'इग्लू हाऊसिज़

           

उस विशाल मैदान में तेज़ धूप कारण टिकना मुश्किल था, क्योंकि ऊँचाई के साथ -साथ धूप तीख़ी हो जाती है। हमें मौसम विभाग की उस भविष्यवाणी के सच होने का इंतज़ार था कि उस दिन औली में बरसात होने वाली है। तभी जैसे सूरज ने हमारी सुन ली और तीख़ी धूप की पीली चादर को समेट कर गहरी सलेटी रंग की चादर उन वादियों के आकाश पर बिछा दी। एकदम से मौसम बदल गया और ठण्डी -ठण्डी  हवा बहने लगी। बच्चों को यह देखकर इतना आनंद आया कि उन्होंने तेज़ आवाज़ में संगीत लगा दिया और नाचने लगे। गाईड, जो कि हमें घुमाकर अपनी दिहाड़ी पूरी कर अगले यात्रियों तक पहुँचने की  जल्दी में था, बच्चों की ज़िद देख मन मारकर वहीं बैठ गया। कुछ ही देर में हल्की बूंदा-बांदी भी शुरु हो गई और हमें न चाहते हुए भी अपने साथ गए बुज़ुर्ग परिवारजनों का ख़्याल कर वहाँ से कूच करना पड़ा, क्योंकि बरसात में पहाड़ी रास्तों पर फ़िसलन का डर रहता है।



 वहाँ से ट्रैकिंग करते हुए हम फिर से ट्रॉली स्टेशन पहुँचे, तो रास्ते में नीचे बने हुए एक सुन्दर रिज़ॉर्ट पर नज़र पड़ी। वहाँ ऊँचाई के कारण मौसम तो ठण्डा था ही, चारों और भरपूर पहाड़ी इलाका, सामने बनी छोटी सी कृत्रिम झील, घने हरे जंगल, पशुओं के झुंड और उनके गले में बँधी घण्टियों की मधुर ध्वनि हमें भरपूर मोह रही थीं।  वैसे भी हम जोशीमठ वाले 'औली नेचर रिज़ॉर्ट' के ख़राब रख-रखाव और वहाँ की अपेक्षाकृत गर्मी के कारण पड़ाव बदलना चाहते ही थे। सो तय हुआ कि उन हसीन वादियों और ठण्ड से घिरे इस रिज़ॉर्ट के विषय में जानकारी ली जाये। हम दो लोग जाकर उस रिज़ॉर्ट में कमरे देखकर,अगले दिन के लिए उनकी उपलब्धता और किराये आदि जानने के बाद फ़ोन पर मैनेजर से बात तय करके उत्साहित होकर ट्रॉली स्टेशन के पास आ गए, जहाँ चाय की छोटी-छोटी काठ की ढाबेनुमा दूकानें बनी हुई थीं। पहाड़ी ढाबों की मैगी प्रसिद्ध है। हमने वहाँ चाय-मैगी का लुत्फ़ लिया और वापिस ट्रॉली में बैठकर दूसरे सिरे पर उतरे और गाड़ी से अपने पुराने ठिकाने पर आ गए। उस शाम वहाँ भी मौसम ठण्डा और ख़ुशनुमा हो चला था। हमने उस शाम आग जलाकर नृत्य -संगीत का आयोजन किया। देर रात तक उन पर्वतों और खाईयों के बीच संगीत की लहरियाँ गूँजती रहीं। 'हाथी पर्वत' ख़ामोशी से हमारा आनन्दोत्सव देख रहा था। वह तो न जाने ऐसे कितने ही उत्सवों और हादसों का साक्षी रह चुका होगा ! काश..... कि वह बोल या लिख पाता, तो उससे वे सारी गाथाएँ सुनती। क़ुदरत मानवीय कृत्यों का वह मूक संग्रहालय है, जो संग्रह तो करती है, पर हर संग्रह को दिखा नहीं पाती।

अगले दिन बहुत उत्साहित होकर हमने वह जगह खाली की और अपने नए पड़ाव 'नंदा देवी रिज़ॉर्ट्स' की ओर निकल पड़े। यहाँ एक बड़ी चूक हमसे हुई। पिछले दिन जब हम औली में इस रिज़ॉर्ट के बारे में बात करने गए  थे, उस समय वहाँ का मैनेजर जोशीमठ गया हुआ था। अतः उसकी अनुस्पस्थिति में वहाँ स्थानीय कर्मियों से ही बात हो पाई थी। हालाँकि वहाँ ठहरने के बाबत मैनजेर से ही फ़ोन पर बात हुई थी, पर वहाँ पहुँचने के रास्ते के बारे में दो-तीन अलग-अलग उपाय हमें बताये गए थे।  एक कर्मी, जिसका नाम प्रकाश है, उसने बताया कि वहाँ आने के रास्ते में ऊँची चढ़ाई है और बरसात में मिट्टी धँस जाने का ख़तरा है, इसलिए गाड़ी नीचे छोड़कर हमें वहाँ चलने वाली 'सूमो' से आना सुरक्षित रहेगा।  एक अन्य ने सुझाव दिया कि केवल एक दिन का सामान ( क्योंकि वहाँ हमें एक ही रात ठहरना था ) लेकर ट्रॉली से आना और जाना बेहतर है। लेकिन जब हमने पिछले रिज़ॉर्ट को छोड़ने से पहले भावी ठिकाने 'नंदा देवी रिज़ॉर्ट'  के मैनेजर से फ़ोन पर बात करके अपनी गाड़ी से आने के विषय में सलाह माँगी, तो उन्होंने बेहिचक हमें अपने टैम्पो ट्रैवलर से आने को हरी झण्डी दिखा दी। चूँकि वह क्षेत्र 'भारत-तिब्बत सीमा'  के निकट है, इसलिए हर वाहन को सेना से इज़ाज़त लेकर ही आगे जाने दिया जाता है।  इस बाबत मैनेजर ने फ़ोन पर सेना कर्मियों से बात करवाकर हमारी गाड़ी को आने की इज़ाज़त दिलवाने का दिलासा दिया। हम बेफ़िक़्र होकर अपनी गाड़ी में लदकर निकल पड़े। सेना छावनी पर हमें रोककर पहचान पत्र आदि देखा गया, पूछताछ हुई और 'नंदा देवी  रिज़ॉर्ट'  के मैनेजर से फ़ोन पर बात होने के बाद, सेना अफ़सर की संतुष्टि के बाद आगे जाने की अनुमति मिल गई। इस दौरान वहाँ अपने देश के रण बाँकुरों को हमारी रक्षा के लिए शूटिंग का अभ्यास करते देख उनके प्रति एक अकथनीय गर्व और आदर का अहसास हुआ।

यहाँ तक रास्ता बहुत कठिन नहीं था, लेकिन इसके आगे कच्चा, तंग और खड़ा रास्ता देखकर हमारे होश फ़ाख्ता हो गए। हर क्षण ऐसा लगा, कि गाड़ी अब गयी और तब गयी। उस समय जीवनदान की याचना हर चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी, और पछतावा भी ... अपनी गाड़ी का मोह छोड़, ट्रॉली से न जाने का। ड्राइवर अपनी जगह परेशान था, कि यदि बरसात हो गई , तो गाड़ी मिट्टी में धँस जाएगी। सामने से कोई कोई गाड़ी आ जाती, तो उसे या हमें पीछे हटने के लिए उस खड़ी चढ़ाई और बेहद तंग कच्चे रास्ते पर कोई जगह नहीं थी। गाड़ी के हर हिचकोले पर प्राण मुँह को आते थे। उस 10,000 फ़ीट की ऊँचाई पर मैं नीचे की गहराई भाँपते हुए किसी हादसे की सम्भावना में अपने शरीर का हश्र सोच रही थी।


किसी तरह दूर रिज़ॉर्ट दिखाई देना शुरु हुआ, तो उम्मीद बँधी। हालाँकि जितना नज़दीक़ वह दिखाई दे रहा था, उससे कहीं दूर, और चढ़ाई पर था। ख़ैर ! इस सफ़र के लिए तो ड्राईवर को जितना सराहा जाये, कम है ! एक तरह से उसने हमें दो बार जीवनदान दिया। रिज़ॉर्ट थोड़ी चढ़ाई पर था, सो हमें सामान समेत चढ़ाई को ख़ुद ही तय करना था। किया। वहाँ पहुँचकर जहाँ एक ओर सुंदर वादियों में एक दिन बिताने का उल्लास था, वहीं उस उल्लास के रंग को फ़ीका करते अन्य बिंदु , यथा कमरों में 'हेलिकॉप्टर्स' का डेरा, सफ़ाई न होना, पानी न होना, मनचाहे कमरे ( जिनकी पिछले दिन बात तय हुई थी ) न मिलना, और सबसे बड़ा - 'आग जलाने की अनुमति न मिलना'  थे। जिस कर्मी 'प्रकाश' से पिछले दिन हमारी मुलाक़ात और बात हुई थी, वह पानी का प्रबंध करने में इधर-उधर मारा-मारा फिर रहा था और मैनेजर आज भी नहीं दीख रहा था। पता चला कि यह सरकारी रिज़ॉर्ट है और यहाँ अधिकांश कर्मी  दैनिक वेतन पर हैं। मैनेजर 'किशोर डिमरी' बर्फ़ गिरने के सीज़न में 'स्की इंस्ट्रक्टर' का काम करता है और इन दिनों में रिज़ॉर्ट का प्रबंधन संभालता है। बच्चों की 'बॉनफ़ायर' की बहुत ज़िद करने पर बताया गया कि डिप्टी मैनेजर कोई बहुत सख़्त महिला हैं, जिन्होंने रिज़ॉर्ट में जगह-जगह सीसीटीवी कमरा लगा रखे हैं और अपने सख़्त मिज़ाज़ के चलते दो महीने से अधिक कहीं टिक नहीं पातीं।  यहाँ छः महीने टिकने का रिकॉर्ड बना चुकी हैं। ऐसे में  'बॉनफ़ायर' की बात सोचना भी फ़िज़ूल है। इसके अलावा वन-विभाग के अधिकारी गश्त पर रहते हैं और लकड़ी जलाने पर 25,000 रुपये का चालान है। मन मसोसकर बच्चों ने वादियों में ही घूमना तय किया और रिज़ॉर्ट के आसपास ही ट्रैकिंग, घुड़सवारी, फ़ोटोग्राफ़ी आदि करते रहे।

                  नंदा देवी रिज़ॉर्ट’ और कृत्रिम झील

 नीचे कृत्रिम झील के पास एक छोटा सा मंदिर था 'नाग देवता' का, जिसमें एक नाग की मूर्ति बनी हुई है। कुछ-कुछ दूरी पर 2 -3  चाय की दूकानें थीं। शाम 5.30 बजे के क़रीब ठण्ड काफ़ी बढ़ गयी थी और स्वेटर और शॉल के बावजूद कंपकंपी छूट रही थी। प्रकृति का श्रृंगार अपने चरम पर था।  सामने विशाल पर्वतों पर सूरज ने किरणों का हल्का पीला बुरादा छिड़क दिया था, जो समय के साथ -साथ रंगत खोता जा रहा था। बादल और ऊँचाई आपस में साँठगाँठ कर पर्वत शिखरों पर सूरज की रंगोली के रंग मिटाकर अपना स्लेटी रंग भरने को आमादा थे। बहुत मनोहारी मंज़र था। ऐसे में अनेक तरह के भाव मन में आ रहे थे - वैराग, एकांकीपन, जीवन की निरर्थकता, संबंधों का सत्य और न जाने क्या-क्या !





                            नाग देवता' का मंदिर


अगली सुबह तय किया गया कि यहाँ आते समय जो ग़लती  हुई, उसे न दोहराते हुए सामान को गाड़ी में छोड़कर हमें ट्रॉली से जाना चाहिए। हालाँकि ऐसे में भी ड्राईवर के लिए ख़तरे की फ़िक़्र थी, लेकिन इस बार दो बातें ख़तरे को कम करती थीं - गाड़ी में वज़न कम होना और चढ़ाई की बजाय उतराई का रास्ता होना। एक अच्छी बात यह थी कि ड्राईवर पहाड़ का रहने वाला था और पहाड़ी इलाक़ों में गाड़ी चलाने का उसे अच्छा तज़ुर्बा था। लेकिन यह बात गाड़ी नहीं समझती। उसकी भाषा हमें ही समझनी पड़ती है, चालक कैसा भी हो, कोई भी हो। तो हुआ यह , कि ट्रॉली से उतरकर हम लोग नीचे आए और गाड़ी में बैठे। वह सफ़र की शुरुआत से ही कुछ कहना चाह रही थी, जिसे हम नहीं समझ पा रहे थे। शायद चालक समझता था, पर उसकी आवाज़ अनसुनी करता रहा। फलतः नाराज़ होकर गाड़ी रूठ गई।  और फिर वह हुआ, जिस मौक़े के लिए यह चौपाई लिखी गयी है -'होइ है वही, जो राम रची राखा ....'

दूसरे ही दिन से जब हमने देखा कि दिल्ली से औली का सफ़र बहुत लम्बा है और हमारे साथ-साथ चालक और गाड़ी के लिए इतना लम्बा सफ़र एकमुश्त तय करना ठीक नहीं है, तो रास्ते में पड़ाव का उपाय हमारे मन में तैरने लगा था।  इस पड़ाव के लिए रास्ते का मध्य होने के नाते और नदी में नहाने का आनंद उठाने के नाते हरिद्वार / ऋषिकेश से  बेहतर पड़ाव कोई हो ही नहीं सकता था। लेकिन पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को बदलकर बीच में रुकना जेब और समय, दोनों की योजना में घात लगाने वाली बात थी , सो बच्चों की बहुत मिन्नतों के बावजूद अस्वीकृत कर दी गई। अंदाज़ा लगाया गया कि देर रात या भोर  तक हम दिल्ली पहुँच जाएँगे। आते समय ड्राईवर महोदय की नींद पिछली तीन रातों से पूरी नहीं हुई थी और वे नींद के झोंकों को भगा-भगाकर गाड़ी चला रहे थे, यह राज़ भी बहुत बाद में खुला। सो, ज़िंदगी के बचे हुए अधूरे कामों और जीवन से मोह के मद्दे -नज़र वापसी में उन्हें दो घण्टे विश्राम देने का समय भी वक़्त के बजट में जोड़ लिया गया था। लेकिन .... जैसा कि पहले बताया, होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। गाड़ी अपनी आवाज़ अनसुनी करने से नाराज़ होकर ऐंठ गई और बीच रास्ते शिवपुरी में ( जहाँ बच्चों ने रुकने की इच्छा ज़ाहिर की थी ), बैठ गई। रात के 10 बजे, दूर दूर तक कोई मैकेनिक नहीं ! इक्का -दुक्का खाने -पीने की दूकानें थीं, वे भी अपना शटर गिराने को तैयार, सो आने वाली स्थिति को भाँपकर हमने दौड़कर खाने-पीने का कुछ सूखा सामान लिया और एक ढाबे को खुला देखकर तुरन्त बच्चों के लिए खाना मँगवाया। यह निश्चित था कि गाड़ी अब बिना पूजा करवाए चलने वाली नहीं, तो हम रात बिताने के लिए इधर-उधर होटल के कमरे ढूँढने की क़वायद करने लगे। इस बीच कुछ स्थानीय लोगों ने मदद करने की मंशा से मैकेनिक को फ़ोन पर सम्पर्क करने की कोशिश की, लेकिन मैकेनिक गाड़ी तक आने की बजाय गाड़ी ही वहाँ बुलवा रहा था,जोकि कोप भवन में रूठी पड़ी थी। कुछ पर्यटक लड़कों ने धक्के लगवाकर गाड़ी को चालू करवाने का विफल प्रयास किया।


 आटा कंगाली में ही गीला होता है। ऐसे में आसपास के किसी होटल में कमरा खाली न मिला। इंटरनेट पर एक महँगा होटल उपलब्ध दिखाई दिया। मजबूरी का नाम ...... !  सो बाल-बच्चों और महिलाओं समेत हमारे समूह को उसी होटल की शरण लेनी पड़ी। यह तो ग़नीमत थी कि हरिद्वार में किसी पड़ाव पर रुकने की उम्मीद में हमने अपना पूरा सामान गाड़ी के ऊपर बाँधकर ज़रूरत भर का एक-एक बैग साथ में रख लिया था। रात के अँधेरे में टॉर्च और मोबाइल की रौशनी में चढ़ाई रास्ते पर अपना सामान घसीटते हुए, अँधेरे मोड़ों पर भारी और तेज़ गति के वाहनों से बचते-बचाते हम होटल तक पहुँचे।  साथ में हमारे रक्षक थे वे चार कुत्ते, जिन्हें हमने अपने साथ खाना खिलाया था। होटल पहुँचकर हमारी साँस में साँस आई ,क्योंकि फोन पर बात करने के बावजूद मन में यह फ़िक़्र थी कि कमरे मिलेंगे, या नहीं।  जीवन के ही अनुभवों ने सिखाया है कि मुसीबत अकेले नहीं आती। ख़ैर  ....... बच्चों की जिस इच्छा को अनुसना किया गया था- वहाँ रुकने की, वह इच्छा तो पूरी हुई, पर उस तरह नहीं, जैसे वे चाहते थे - नदी किनारे अठखेलियाँ करते हुए। बल्कि एक मजबूरी के रूप में। उस होटल में रातभर रुककर, सुबह नाश्ता करके कम्पनी द्वारा भेजी गई एक दूसरी गाड़ी में हम निकले, तब तक पता चला कि ड्राइवर ने पिछली गाड़ी ठीक करवा ली थी। यह बात बहुत अजीब लगी कि लम्बी यात्रा के लिए गाड़ी उपलब्ध करवाने वाली बड़ी कंपनियों के पास ऐसे आपातकाल के लिए कोई प्रबंध नहीं था ! जबकि आजकल व्यक्तिगत वाहन चलाने वाला हर व्यक्ति ऐसी परेशानियों से बचने के लिए 'रेस' और  ‘क्रॉसरोड' जैसी निजी सेवाओं की सदस्यता ज़रूरी तौर पर रखता है, जो उसे पंक्चर से लेकर बड़ी से बड़ी परेशानी में कहीं भी, कभी भी मदद कर सकती हैं। और कुछ नहीं, तो कम-अज-कम चालक को ही मैकेनिक का अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण देना चाहिए ऐसे नाज़ुक समय के लिए।


 गाड़ी ठीक होने पर हमने राहत की साँस ली और अब बाक़ी बची यात्रा की कुशलता की कामना लिए घर की ओर अग्रसर हुए। निकलते ही कुछ दूरी पर सिख स्वयंसेवक ने बहुत विनम्रता से रोककर हमें लंगर में कुछ ग्रहण करने का अनुरोध किया। मना करने पर उन्होंने केवल प्रसाद का हलवा लेने का आग्रह किया, जो मना करते नहीं बना। उस प्रसाद को ग्रहण करने के उपरांत हमने गाड़ी रवाना की और बीच में भोजन व चाय के लिए दो बार व यातायात पुलिस की सेवा के लिए मुरादनगर में एक बार रुकने के उपरान्त रात के पौने दस बजे अपने घर पहुँचे।


                                       लंगर


 


रचना त्यागी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

http://bizooka2009.blogspot.com/2017/10/blog-post_81.html?m=1



कहानी

कैसी हो मम्मी ? 


सपना सिंह

भाई का फोन था। मम्मी की तबियत खराब है। ज्यादा खराब है। हाई ब्लड प्रेशर और शुगर! मैं आश्चर्य में थी.... पर क्यों आष्चर्य में थी? मम्मी भी तो इंसान थीं। उनकी भी तो तबियत खराब हो सकती थी। पर मम्मी और बीमारी कितनी बिपरीत सी बात। याद नही पड़ता कभी बुखार, सिरदर्द या बदन दर्द की भी शिकायत की हो उन्होनें।

सपना सिंह

हम सब भाई-बहन तो हमेशा पापा और उनकी सेहत को लेकर ही चिन्तित रहते आए। विवाह के बाद भी मेरी ये चिन्ता छूटी नहीं। चिट्ठियों में, फोन पर सिर्फ पापा की पूछताछ। पापा कैसे हैं? उनका ब्लडप्रेशर नार्मल है न। सिगरेट कम किये या नहीं। पत्र पत्रिकाओं के स्वास्थ्य पेजों की कटिंग उन्हे भेजती मौसम। के अनुसार उनकी दिनचर्या तय करती। पापा के स्वास्थ्य की फिक्र में मैने अच्छी खासी जानकारी इक्कट्ठी कर ली थी। हेल्दी डाइट और एक्सरसाइज की। पापा चेन स्मोकर हैं इसलिए अपनी डाइट में विटामिन सी जरूर शामिल करें! पपा सब्जियाँ, सलाद नही खाते, दूध, मलाई, रबड़ी और खूब घी वाला हलुआ पसंद....है। इसके लिए पापा से कितनी बहसे हुई..... है। वैसे पापा उतना ही स्वास्थ्यवर्धक वस्तुएं भी खाते, दूध, फल, मैने उनकी रूटीन की डायट में शामिल थे।
मम्मी कितना भी रच-रच कर सब्जी बनाती वो भिनक कर ही खाते। दूध,दही से उनका खाना पूरा होता। उक्त रक्त चाप की वजह से उनके ब्रेन में क्लाटिंग हो गयी थी, जिसका दो ऑपरेशन वो झेल चुके थे। उसके बाद पूरा परिवार उनकी सेहत को लेकर अतिरिक्त संवेदनशील हो गया था। पापा ने अगर थोड़ा भी सिर भन्नाने की शिकायत की तो हमारा दिल धुकपुकाने लगता था। पता नहीं चिंता की वजह पापा के ऊपर हमारी निर्भरता थी या उनके प्रति हमारा प्रेम। हमारी सारी चिंताओं के केन्द्र में वही थे। मम्मी की सोच के केन्द्र में तो वो थे ही। पापा को बिखरा घर नापसंद है तो उनके आने के पहले फटाफट बिखरा घर समेटना शुरू होता। जो चीज जहां होती वही पर उसे रक्खा जाता। मम्मी पापा के लिए जैसा सोचतीं जैसा करतीं  हम भी अनजाने ही वही अनुषरण करने लगे थे। सुबह से लेकर रात तक  सबकुछ पापा के हिसाब से संचालित होता।

पापा, मम्मी दोनो  को खूब सुबह उठने की आदत थी। पापा तो उठकर नित्यकर्म से निवृत्त हो बिस्तर पर ही अधलेटे होकर, पत्र पत्रिकायें खोल लेते, और रिटायरमेंट के बाद  तो उनका एक शगल और हो गया था, सुबह पांच बजे से ही टी.वी. पर प्रवचन सुनना। हम बहने जब कभी मायके जातीं, सब पापा-मम्मी के कमरे में ही सोते जमीन पर बिस्तर लगाकर। एक तो ये कमरा और कमरों से बड़ा था उसपर ए.सी. भी कमरे में था। इधर के कुछ वर्षों में सबकी  आदत खराब हो चुकी थी...... किसी को भी ए.सी. के बिना नींद नहीं आती थी।

 मुझे आश्चर्य होता था, कभी कूलर में भी हमें ठण्ड लगती थी। सुबह-सुबह के इस अध्यात्मिक प्रोग्राम से देर तक सोने वाली बहनों को खूब परेशानी होती। छोटी वाली अरे पापा.......’’ कहकर झल्लाती पर पापा बेअसर रहते। वैसे भी पापा जी को करना होता करते। उन्हे कभी किसी की सुविधा असुविधा से खास सरोकार नहीं होता। अगर  उन्हे रात में बारह बजे चाय पीने का मन होता तो चाय पीते ही। कई बार देर रात लौटने पर मम्मी उनसे पूछती ’खाना लगे न .....।’’

नाही..... थोड़ा रूकके लगईह , पहले चाय पीयब।

 कहां मम्मी सोंचती कि खाना वाना खिलाकर चौका समेटें .... पर वो चाय का लस्तगा लगा देते। चाय और सिगरेट। दोपहर ग्यारह, बारह बजे तक पापा इसे में बिताते। रिटायरमेंट के बाद कई वर्षों तक यही चला। जबतक वो नाश्ता नहीं  करते मम्मी भी बैठी रहतीं।

पापा के नौकरी में रहते मम्मी को खासा आराम था। कई चपरासी मिलते थे। उन दिनों के चपरासी घर के काम करने में अपनी हेकड़ी नही मानते थे। आटा, मसाला, सब्जी काटना, दाल, चावल धोकर चूल्हे पर चढ़ा  देना ,वक्त बेवक्त की चाय बनाना ......सभी कुछ करते थे। मम्मी तो सिर्फ सब्जियां  बनाती या रोटी सेंकती पर , मम्मी हमेशा  पापा के अधीनस्थों की बहूजी ही बनी रहीं , मेमसाहब नहीं बन पाईं।

 बैठे - बैठे स्वेटर बुनते या कोई पत्रिका हाथ में लिए वह चपरासियों से बतियाती भी जातीं। सबके घर, खानदान कामकाज, परिवार, बच्चों की जानकारी उन्हे होती। और भी कर्मचारी घर आते थे। उन्ही में एक दर्षन चाचाजी भी थे। हमारे गांव के तरफ के थे। इस पछाहीं कस्बे में अपनी तरफ और अपनी ही बिरादरी का कोई मिल गया तो आत्मीय बन ही गया। चाचाजी भी पापा को बड़े भाई जैसा आदर देते। अक्सर घर आते। कभी कोई फाइल लेने या और कुछ काम से । मम्मी से औपचारिक बातचीत करते हुए वो कब अनौपचारिक होकर घर के सदस्य सरीखे हो गये किसी को खबर नहीं हुई। कुछ घटनाएं इतनी चुपचाप घटती है कि पता भी नहीं चलता। चाचाजी अकेले ही रहते थे। उनका परिवार गांव में रहता था। मम्मी जब तब उनसे कहती इस बार परिवार लेकर आइयेगा। चाचाजी हंस कर टाल जाते। जमाने से इन्हे अकेले रहने की आदत थी। परिवार रखना झंझटिया लगता। पर मम्मी भी पीछे पड़ी रहतीं..... हार न मानतीं । मम्मी की बात रखने के लिए ही वो गर्मियों की छुट्टियों में परिवार साथ ले आये ।हम लोग तो छुट्टियों में कहीं जाते नहीं थे। हमारी सारी छुट्टियां वहीं बीततीं...... वर्ष में एक बार चार दिन के लिए गांव जाने का नियम था सपरिवार पापा का। मम्मी वर्षों तक मायके नहीं जा पाती सिवाय शादी ब्याह के अवसरों पर।







इस बार हमारे मजे थे। चाचाजी का परिवार जो आ गया था। चाचीजी को पहली बार देख कर हम सनाका खा गये थे। गॉंँव की शुद्ध देहातन चाचीजी , चाचाजी से अंगुल भर ऊँची थीं। दुबली काठी कुछ-कुछ मर्दाना शरीर वाली। चाचाजी एक कमरे में रहते थे वहीं ऑफिस के बगल में। वह मुहल्ला भी ठीक नहीं था अंत रोज सुबह ऑफिस जाने से पहले वो परिवार हमारे यहा छोड़ जाते.... और शाम को ले जाते। दिनभर चाचीजी और बच्चे हमारे यहां रहते। चाचाजी घूंघट काढ़ रहती। पापा से जेठ जैसा पर्दा करतीं। मम्मी के कई छोटे मोटे काम निपटा देंती। हम बच्चे  आपस में मस्त रहते। छुट्टियां खत्म होने को आई पर अब मम्मी ने चाचीजी को तैयार कर रक्खा था। चाचाजी के के बदनामी के कई झूठे सच्चे किस्से जो उन्होने भी चपरासियों से सुने थे उन्हें सुना डाले। अब चाचीजी जाने का नहीं तैयार। चाचाजी बहुत कसमसाये पर चाचीजी की तरफ से मम्मी मोर्चा खोले थीं। आखिरकार चाचाजी ने एक दूसरा घर खोजा और वहां षिफ्ट हो गये, बच्चों का एडमिषन भी करा दिया। और इस तरह उनकी गृहस्थी की शुरूआत हुई। जिन्दगी भर मम्मी के लिए चाचीजी कृतज्ञ बनी रही वर्ना तो वह गॉंँव में ही सड़ती हुई बुढ़ा जाती।

एक और घर बसाने को मम्मी ने अपना योगदान दिया। हमारे ट्यूशन मास्टर आचार्य जी का। वो सरस्वती स्कूल के अध्यापक थे इसलिए हम उन्हे ’अचार जी’’ कहते थे। लम्बे ऊंचे धोती कुर्ता और बास्कट धारी ’अचार जी ’ बिल्कुल ’देष प्रेमी’ के अमिताभ बच्चन जैसा लगते। मुझे और भाई को अंग्रेजी और गणित पढ़ाते थे। अनके पढ़ाने के बीच में ही मम्मी चाय लेकर आतीं और दोनो कमरों को जोड़ने चाले दरवाजे के बीच खड़ी हो जाती। बातचीत की शुरूआत यकीनन हमारी पढ़ाई लिखाई की प्रगति जानने को लेकर ही हुई होगी पर फिर उसमें राजनीति, समाजषास्त्र और मेरी तेरी उनकी बात सब शामिल होते रहे। इंदिरा गांधी , संजय गांधी, मेनका गांधी, ये नाम हमारे कानों में पड़ते। उसी दौरान कभी भुट्टो को फांसी दी गयी थी। अचार जी ठहरे आर.एस.एस. वाले। पाकिस्तानियों और मुस्लिमों के घोर विरोधी। मम्मी थीं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान सारिका जैसी पत्रिकायें नियमित पढ़ने वाली समाजवादी विचारधारा की। लिहाजा दोनो में खूब बहस होती। ’अचार जी ’ की भी फैमली गांव में रहती थी। पत्नी और दो बेटे। मम्मी उनके भी पीछे पड़ी रहती... आखिर गांव में क्यों रक्खे हैं? यहां ले आइये, आपके खाने पीने की भी सुविधा रहेगी।..... बच्चे भी आपके ही स्कूल में पढ़ेगें । दूसरे के बच्चों को पढ़ाते हैं, अपने बच्चों को गांव में छोड़े हैं। ’अचार’ जी पर भी मम्मी की बातों का असर पड़ा और भी गांव से अपनी पत्नी को ले आये। मम्मी से मिलाने भी लाये थे। ये भी एक बेमेल जोड़ा था।

इस प्रकार के छोटे-मोटे परोपकार मम्मी के हाथों होते रहते । पापा जहां भी ट्रांस्फर होकर जाते। मातहत, कर्मचारियों , चपरासियों के परिवार जनों से मम्मी का आत्मीय नाता जुड़ जाता कभी किसी चपरासी या उनके बच्चों के लिए मम्मी स्वेटर बुनती रहती। कभी किसी पड़ोसिन के साथ मिलकर साड़ी पर बेल बूटे काट़ती तो कभी चादरों पर पेंट करतीं। हाथ का खुलापन उन्हें अपने मायके से मिला था। उनके बाबा मुख्तार थे और पिता जाने माने वकील। मम्मी की स्मृति में अभाव का नामोनिशान  नहीं। उनकी स्मृति में तो देवरियां के न्यूकालोनी में बना सन् 51 का उनका मकान था। किसी शादी ब्याह में जब वो बिजली के लट्टुओं झालरों से सजता तो किताबों में देखे रोषनी से झिलमिलाते ’मैसूर महल’  की तस्वीर आंखो के आगे सजीव हो जाती। मम्मी अक्सर अपने पुराने दिनों को याद करतीं। कितने तो कपड़े थे उनके पास। जूते चप्पलों की तो भरमार थी।
बाबा की खांचांजी थीं वो । उनका रूपया पैसा नही सहेजतीं।

पापा का बचपन अलग था, मम्मी के समृद्धि शहराती यादों से अलग उनकी यादों में गांव था, गांव का मिडिल स्कूल जहां जाड़ो की रात को वो लोग रजाई भी लेकर जाते और लालटेन की रोशनी में पढ़ते। मास्साब लोग भी पाठ की तैयारी करवाने के लिए स्कूल में ही रहते। पापा बताते कि थककर सारे बच्चे और मास्सान वहीं पुआल के बिस्तर में सो जाते।

पापा और मम्मी दो बिल्कुल अलग ध्रुवों के व्यक्ति। दोनो की स्मृतियां भी अलग। हम पापा के इर्द गिर्द बैठे जब पापा की संघर्ष कथायें सुन रहे होते , वो पास बैठे कोई स्वेटर का पैर्टन बिन रही होतीं। हमारी आराम देह जिन्दगी में पापा की कथायें कौतूहल तो खूब पैदा करतीं पर हम उनसे जरा भी रिलेट न कर पाते।

कभी-कभी मम्मी भी अपने स्कूल के किस्सों की पिटारी खोलतीं। अपने स्कूल पर उन्हें बड़ा गर्व था। ’कस्तूरबा इन्टर कालेज’ उस जिले का नामी स्कूल था। अपने परिवार में सिर्फ मम्मी ही वहां पढ़ी। उनकी सारी बहनें , बड़ी बहनों की लड़कियां, भाइयो की लड़कियां तो घर के पास वाले मारवाड़ी स्कूल में पढ़ती थीं..... जो बस्स ऐसे ही था। उनके संगीत के मास्टर साहब थे। अंधे । जो उन्हें घर पर संगीत सिखाने आते और नियम से दो रसगुल्ले खाकर जाते। ये बातें मम्मी ने कई-कई बार हमें बताइंर् थीं। दरअसल ये उनकी सबसे सुन्दर स्मृतियां  थीं ।

उनके हारमानियम और तबले की तो हमें भी स्मृति है। अक्सर पापा ही मौज में आकर तबले पर थाप देते और हम सब भाई बहन उनके इर्द गिर्द बैठ जाते। हममें से ही कोई हारमोनियम पर बेसुरे स्वर निकालने की कोषिष करता। बहुत बाद में हारमोनियम में चूहों ने अपना स्थायी निवास बना लिया और तबला भी, बार-बार का स्थानान्तरण और  ठोक पीट व सह पाने के कारण फूट फाट गया। मम्मी का संगीत हम बहनों को दसवीं और बारहवीं में संगीत दिलाकर और पटिदारी के शादी मुण्डन, बरहों के गीत गाकर ही सतुंष्ट था।






आज मम्मी से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात याद आती ही चली जा रही है। मम्मी के लिए आज से पहले कभी इस तरह तो सोचा ही नहीं। इस तरह क्या, किसी तरह भी नहीं सोचा। मम्मी के बारे में किसी तरह सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी।। हां पापा के लिए सोचा। सोचते ही रहे। पापा न रहे तो? इस तरह कितनी  ही बार तो सोचा। सोच सोच दहलते रहे। पर मम्मी न रहीं तो? ऐसा कभी न सोच पाये। पापा ही धूरी रहे परिवार के। बहुत पहले, किसी पत्रिका में सदाबहार अभिनेता अषोक कुमार ने अपने सक्षात्कार में अपने नाष्चे का जिक्र किया था। एक मुट्ठी अंकुरित मूंग, चार बादाम, एक चम्मच भिगोयी हुई मैथी और दो तीन छोटी इलायची। अशोक कुमार का कहना था कि इस नाश्ते को लेने के बाद दोपहर में लंच नहीं लेते। सीधे शाम को डिनर । पापा ने भी अपने  नाश्ते 
का मेन्यू वही बना लिया। मम्मी भुनभुनातीं इत्ते से कैसे होगा सारा दिन। पर, पापा को दादामुनि पर अटल विश्वास। आखिर नब्बे से ऊपर  जीकर गये थे वो और अंत समय तक एक्टीव थे।
वैसी उम्र और सेहत कौन न पाना चाहे। उनका ये दादामुनि वाला नाष्ता तैयार करने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। मैं बड़े मनोयोग से ये काम करती। मूंग भिगोना और ये ध्यान रखना कि वो लसलसाने न पाये या बदबू न उठे। समय से उसका पानी निथार कर अंकुरित करना। जब कभी इसमें व्यवधान पड़ता, मन में अपराधबोध जागता। अरे, आज बादाम तो भिगोया ही नहीं, या मूंग में अंकुर नहीं निकला। कभी याद भी नहीं पड़ता मम्मी ने ये सब मुंह में धरा भी हो। दूध दही, फल मेवे उन्हे नही सुहाते थे। गद्दर अमरूद के अलावा कोई फल पसंद नहीं थे। अक्सर सरकारी मकानों को बगीचों में एक दो अमरूद के पेड़ होते ही  थे।
हमेशा  मस्त , व्यस्त रहने वाली मम्मी बीमार हैं। भाई ने जैसा बताया उस हिसाब से तो ज्यादा बीमार हैं। अभी डेढ़ वर्ष पहले ही तो मैं मिली थी। वैसी ही थीं, हमेशा की तरह! वही रूटीन उनका सुबह नहा धोकर पूजा पाठ से निवृति हो चौक में घुसना। खाना चाहे दो बजे खाया जाय पर उनकी सब्जी दाल नौ बजे तक बन जाते। शाम आठ से उनका सीरियल आता वह वहीं बेड़ पर पापा के सिरहाने बैठे उनके सिर पर तेल ठोकतीं और अपने सीरीयल देखती। हर पन्द्रहियन मम्मी पापा की एक झड़प अनिवार्य थी। रिटायरमेंट के बाद पापा भी अजीब से होते जा रहे थे। कुछ भी बात हो कहीं की भी बात हो। सारी भड़ास मम्मी पर उतरती। टची इतने हो गये थे कि अगर एक बार में उनकी बात नही सुनों तो फिर कहर ही बरपा देते थे। मिजाज वही शहाना। खुद  रिटायर हो गये पर मम्मी को सोलह साल की ही समझते। दिनभर मम्मी दौड़ती कभी पानी लाओ कभी चाय दो। दवा दो और फिर ढेरों काम। खुद उठकर कुछ न करते। सिगरेट खत्म हो तो भरी दोपहर में नुक्कड़ की दुकान तक भी मम्मी ही जायें। मम्मी की भी उम्र हो गई है, पहले जैसा जांगर कहां से लाये? पर इस तरह से कोई सोचता ही नहीं था। खुद मम्मी भी तो कहां कुछ कहती। बीमारी या थकान का कोई जिक्र ही नहीं । उन्हे भी गृहस्थी स ेअब रिटायर हो जाना चाहिए, उन्हे भी आराम करना चाहिए, या उन्हे भी दूध ,फल कैल्शियम, विटामिन्स की जरूरत है, इस बात का ख्याल ही कभी किसी को नहीं आया। पापा अब भी घर के केन्द्र बिन्दु थे। भाई अभी भी पापा का ’बाबू’ ही था। न उसने केन्द्र में आने की कोशिश की और न शायद पापा ने उसे इसके लायक समझा। उसकी प्राइवेट जॉब  एक तरह से उसका कवच ही बन गयी थी। घर की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखने वाली। सुबह नौ बजे का निकला वह रात देर में लौटता और बाकी का समय मोबाइल और लेपटॉप। पापा, भाई की नौकरी से हमेषा असंतुष्ट रहे। खुद सरकारी नौकरी में, दामाद सरकारी नौकरी में, भाई की प्रॉयवेट नौकरी उन्हे कुंठा से भर देती और इस कुंठा से उपजे उनके कुट वचनों का शिकार होतीं मम्मी।

अगर मम्मी को कुछ हो गया तब? तब क्या होगा..... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस ’तब’ के आगे मैं सोच भी नहीं पा रही थी। मम्मी के सम्बन्ध में कभी इस तरह सोचा भी ते नहीं। अगर पापा को कुछ हो गया तब? इस तरह बहुत बार सोच है अब तक सोचती ही रही हूँ।  पापा को जरा सा कुछ हो जाता है तो सारा दिन , सारी रात यही सोचते बीत जाती है। हताषा, असुरक्षा तो है ही, इस सोच के पीछे...  प्रेम  भी है। तो क्या मम्मी से हमें प्रेम नहीं है। वो सिर्फ सुविधाजनक मषीन मात्र हैं हमारे लिए। नहीं ऐसा कैसे। दरअसल मम्मी  हमारे जीवन में दूध, पानी जैसी धुली हुई है और ऐसी कि उनको कुछ हो भी सकता है, उनके बिना क्या कैसे.... हमने इसकी कल्पना भी नहीं की। मेरी आँंखें ऑंँसुओ से धुधली हुई जा रहीं है। भाई ने फोन पर बताया है मम्मी की  स्थिति स्थिर है। मुझे हड़बड़ा कर आने ही जरूरत नहीं इतमिनान से आंँऊ। मम्मी घर आ गयीं हैं, लो मम्मी से बात करो।

’’हल़्लो’’। मम्मी की कमजोर कांपती आवाज। मेरे कान मम्मी की ऐसी आवाज सुनने के अभ्यस्त नहीं। हमेशा से मम्मी से फोन पर बात होती थी। अक्सर, जब पापा घर पर नहीं होते मम्मी खटाखट हम बहनों को फोन लगाकर बातें करती। दुनिया भर की बातें....... जो वो पापा के घर में रहते नहीं कर पाती थीं। पापा तो उनके फोन पर बतियाने से भी चिढ़ने लगे थे। उनकी बातों में....... भाई की नौकरी , भाभी का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार, पापा का क्रोध, मौसियों के घरेलू मसले, पड़ोसियों की खोज, खबर सब शामिल रहता। हम भी सबके बारे में खोद खोद कर पूछते.... पर आज से पहले कभी तो आवाज रूआंसी होकर भर्राई नहीं थी।
आज से पहले कभी पूछा भी तो नहीं, ’’कैसी हो मम्मी!’’
००

सपना सिंह की एक रचना और नीचे लिंक पर पढ़िए

नींद की गोली है- लिखना

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_6.html?m=1

सपना सिहं
द्वारा- संजय सिंह परिहार,
म.न. 10/1259ए ’आला’ के
बगल में , अरूण मार्ग
अरूण नगर, रीवा (म.प्र.) 486001
मो. 9425533707


कुमार मंगलम की कविताएं



कुमार मंगलम



अविचलित

सर्जक अपने सृजन में
रचते हैं, गढ़ते हैं प्रतिमाएं कई

नीचताएँ, कटुताएँ और तिक्तताएँ
धरी की धरी रह जाती हैं
कोई कडुआहट नहीं बचती
एक सहज सुंदर प्रेम बचता है अंततः

धोखेबाज शब्द भी धोखा नहीं देते
भाषा के अनंत आकाश में
अचरज से विचरते हैं अभी तक

एक शुद्ध सृजन
और बहुत भव्य भाव लिए बचे रहते हैं

जबकि जो नियम बनाते हैं
वे नहीं चाहते कोई उच्चारित करे
एक भी शब्द उनके खिलाफ
उनके नियमों में वे गायब कर दिए जाते हैं

एक हताश रचनाकार भी
गायब होते पृष्ठ की तरह अविचल
फड़फड़ाता रहता है

रचनाकार जिद्दी आदमी है
जो सदियों से खड़ा है
अपने एक टांग पर
भाषा के गह्वर में नजर गड़ाये
दूसरे टांग से अनभिज्ञ ।




इंतज़ार

तुम्हारे जाने के बाद
याद आती रही एक संगीतमय महफ़िल
और उसकी उत्तेजना

अंतहीन बहसों का
किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना

भोर की मद्धम आवाज
और सूर्योदय से पहले की विदाई
मैंने सोचा था
तुम वापस आओगे
रास्तों से परे
आसमान के विस्तार जैसा किया इंतज़ार

लौटते वक्त जब हम
आलिंगन में बद्ध होते
क्षितिज पर या किसी पहाड़ी की चोटी पर
मिलते निर्वस्त्र और अशरीरी ।




माटी

हमारे दादा परदादा
हमारे पूर्वज
जब कभी कहीं गए
अपने साथ ले गए माटी
और
माटी के गीत

जब माँ आई नानी के घर से
ले आई नानी के घर की माटी
और वहां के गीत

जब मेरी बेटी हुई विदा
ले गयी माटी मेरे घर की

माटियों से बना एक देश
मैं बनजारा
मुझे कोई एक माटी नहीं
समूचा देस मिला ।









राजन जय हो
(कवि श्रीकांत वर्मा को समर्पित)

राजन जय हो
विजयी हुए आप
विरोधी परास्त हुए

मंत्री जी का सुझाव है
आप विश्व भ्रमण कीजिये ।

2.
राजन जय हो
आपकी प्रजा आपको राजा मान चुकी है
किंतु एक भय है
वह सोचती है
वह सोच सकती है
आपके अच्छे दिन के बरक्स
अंधेरे में धकेल दिए जाने की योजनाओं के बारे में...

आप आश्वस्त रहें
प्रजा के एक बड़े वर्ग के दिमाग में भांग भरा जा चुका है

मंत्री जी का सुझाव है
पहला हमला सोचने वाले निकाय पर हो ।

3
राजन जय हो
आपके इच्छा के अनुसार
इतिहास बदलने का समय आ गया है
किंतु एक भय है
इस देश का इतिहास लिखित नहीं वाचिक भी है

मंत्री जी का सुझाव है
आप जोर जोर से चिल्लाते रहिये ।

4
राजन जय हो
आपके साम्रज्य को सुरक्षित किया जा रहा है ।
आने वाले वोटरों को
मंत्री जी के अतिविशिष्ट उपाय द्वारा
उन्हें भ्रमित किया जा चुका है ।
उनके दिमाग में भूसा भरा जा चुका है
लेकिन एक गड़बड़ी है
कुछ युवा नौकरी-नौकरी चिल्ला रहे हैं

मंत्री जी का सुझाव है
उनपर अनवरत लाठियाँ बरसायी जाए ।

5
आधी रात

पंखे की घर्र-घर्र,
पत्तों की सरसराहट,
तन्हा और चुप-चुप रात
चाँद सिसकता हो जैसे







तन्हाई

चाँद आज अकेला है
तेज हवाएँ
बादलों को उड़ा ले जा रहीं हैं
फिर भी उसके संगत में नहीं है कोई तारा
अकेले चाँद को देखकर
सिसकती है एक बिल्ली
और लंबे तान की तरह भौंकता है कोई कुत्ता




याद

तुम्हारे स्मृतियों में
बहुत कुछ था
थे बहुत-बहुत लोग
थीं बहुत अलग व्याख्याएं उनकी

कुछ था
जिसे स्मृति होना था
उनका गला घोंट दिया गया
नैतिक और अनुशासनबद्ध होकर

उनमें मैं कहीं न था
और यही मेरी अंतिम पराजय थी ।



बनारस 

श्मशानी शांति और
मृत्यु से आत्म साक्षत्कार कराता
आत्मा में कील की तरह
ठुका है बनारस

हिय को हेरता बनारस
मौका दे ही देता है
पीर को गाने का

तमाम सुंदरताओं और
असुन्दरताओं का यह शहर
अपनी शाश्वत सुंदरताओं में ही नहीं
अपनी विद्रूपताओं में भी जिंदा है

बनारस नाउम्मीद नहीं करता किसी को
श्मसान से चुप लौटाता यह शहर
बहुत देर तक चुप नहीं रहने देता
अपने तामझाम और शोर का यह शहर
जीवन का उत्सवधर्मी प्रवेशद्वार है ।




लौटना

लौट रहा हूँ
आनंद कानन से
इसके बहुत गहरे में
बीज है विषाद का

लौटता हूँ
अपने दुःख के अनंत कोटर में
दुःख जो छलावा नहीं है
अपने अवसाद के भरम में
बनारस का आनंद नहीं
श्मशानी भाव का बढ़त है

यह भरोसा भी टूटता है अब
कि नाम, स्पर्श और सानिध्य का स्वर्गिक सुख है
बनारस की प्राणवायु गंगा अब क्षीण है
सुकून शोर है अब
लौटना बनारस से
जैसे श्मशान से जीवन में लौटना है ।








बेरंग है होली

सबरंग है तेरे पास
बेनूर है दिवाली
नूर भी दीपित है तुमसे

तुम्हें मेरा रंग होना था जानां

2
तुम्हें
पारिजात होना था

झर जाना अगर तुम्हारा गुण-धर्म था
तो तुम नीम क्योंकर हुई

3
अतृप्त अधरों की प्यास
बुझती नहीं है
चुम्बनों से

प्यास बढ़ जाती है गर्म पानी से
चुम्बन जो मैंने टांके थे
तुम्हारे जिस्म पर
वो भांप बन कर उड़ गये

3.1
तुम्हें जब भी चूमा
अतृप्त ही रहा
ठीक वैसे ही
जैसे तुमसे प्यार करके
कभी पूरा नहीं हो पाया

हरेक बार प्यार करते हुए
याद आये वे चुम्बन
जो लिए थे चोरी से, जल्दबाजी में
प्यार और चुंबन दोनों मदिरा से अधिक
नशीले हैं ।

4
तुम्हारा शरीर
सितार है
और मेरी उंगलियाँ
तुम्हारे कटि पर फिरते हुए
जैसे तीव्र मध्यम लगातीं हों

सप्तक
जैसे तुम्हारे शरीर के
अधोअंग हैं
षड़ज से ऋषभ, गांधार
पंचम, धैवत और निषाद
तक आते-आते
भूल जाता हूँ
सुर लगाना ।

5
ये जो तेरी आंखें हैं न
खंजन के समान
और उसपर
तुम्हारा यूँ काजल लगाना

मन करता है
वहाँ से काजल चुरा कर
तुम्हारे कटि पर एक टीका लगा दूँ
नजरबट्टू का

6
जब तुम सो रहीं थीं
बेफिक्र
बच्चों सी नींद
तुम्हारी सुसुप्त मुस्कान
में जैसे रहस्य हो ब्रह्मांड का

दुनियावी छल में बंध गयी तुम
तुम्हारे मुस्कान का
भरम टूट गया है








मेरे मरने से किसको फ़र्क़ पड़ेगा

1.
मैं वो सड़ांध हूँ
जिसे बहुत दिनों तक साथ नहीं रखा जा सकता
कुछ दिनों बाद ही बजबजाने लगता हूँ
तुम्हारे विकास की अवधारणाओं में
मेरा अस्तित्व बिना वजह है
अधिक से अधिक एक झरेंगा की तरह
जो तुम्हारे इरादों के कंक्रीट जंगलों में
हरियाली बोता है ।

2.
जो तुम खाते हो
जिसे तुम बेचते हो

मैं उसे उगाता हूँ

तुम्हारी भूख बढ़ती ही गई
और हम मरते रहे भूख से

3.
जिसे हमने वोट दिया
उसने बदले में दिया
अंधकार

सदियों तक भेस बदल कर
आते रहे वोट मांगने

दरअसल वे सभी एक जैसे थे
एक जैसे थे उनके उपहार
उन्होंने उजाले के शक्ल में अंधेरा बांटा ।




समंदर मर गया है...

दूर कहीं विहाग बजता है
कोई हुक का हरकारा
रह-रह कर
तोड़ देता है
आत्मबल

साबुत घर पाने की
उत्कट इच्छा का
हो गया है गर्भपात

बातों की गौरैया
कहीं कोने में गिरकर
मर गयी है

उसके साथ ही कहीं
टूटा है कुछ
मैं जिसके लिए गाता था
पता है तुम्हें
वह समंदर मर गया है ।





रूप-अरूप
1.
शुभ
अचानक बदल जाता है
अशुभ में

और
शुभचिंतक बन जाते हैं ठेकेदार
ठेकेदार काम पूरा होने पर
लग जाते हैं किसी और काम पर ।

2.
जब कभी
किसी ने किसी को
पहचानने से किया है इंकार

उसनेअपने आप को छला है ।

3.
नाहक ही
टूट जाते हैं बड़े से बड़े बंधन

जो दिखने में सबसे विश्वसनीय होता है
सबसे पहला घात वही करता है ।

4
यादें
छतनार हैं
और तुम रौशनी
जब भी याद आती है तुम्हारी
धूप और छांव का तारामंडल बनता है ।

अर्धरात्रि में
तुम्हारी यादों की तुर्शी से ही
महक उठता है छितवन सा
मेरे मन का जंगल

5
पलाश, टेसू, गुलमोहर,
नीम, पारिजात, छितवन
कचनार, आम्र-बौर
और रजनीगंधा
मुझे प्रिय है
इनका झरना प्रिय है

इनके जैसा हो जाना प्रिय है
क्योंकि मुझमें इनके जैसा
वियोग का स्थाई भाव है ।







अफ़साने प्रेम के

दरख़्त अफ़साने सुनायेंगे
प्रेम के

सदियों तक गवाही देते रहेंगे
कि हमने जो किया वह
प्रेम नहीं
विद्रोह था ।


2
सफर के गवाह
केवल प्रतीकों में नहीं

छवियों में
कैद हैं

कुछ घटनाएं
अनकही हैं
उन्मुक्त मन की उड़ान में
याद आयेंगी कभी

3
जमाना गुजरा
कदमों के निशान
बहुतेरे होंगे
पत्थर कुछ मुलायम जरूर हुए होंगे

प्रस्तर और मूर्तियों में
जो बचा
वो अठखेलियां होंगी हमारी ।





आदमखोर लोकतंत्र

जो बड़ा हो रहा था
बढ़ रहा था
वह लोकतंत्र था

वह पहले भीड़ में बदला
फिर शोर में
और फिर हत्याओं में

वह आदमकद था
और देस लघुमानव
फिर वह आदमकद
आदमखोर में तब्दील हो गया

इस तरह लोकतंत्र
आदमखोर लोकतंत्र में प्रतिष्ठित हुआ ।





मौन-संवाद
1.
हलचल
और शोर
से भरी हुई
दुनिया में
बुलबुल ने चहकना छोड़ दिया

एक चुप
रच रही है
मृत्यु का महाआख्यान

2
अचानक बोलते हुए
का चुप होना
संकेत नहीं है
मरण का

कुछ ऐसा घटित हुआ है
जो अवांक्षित है

3
चुप्पी
एक उदास कविता है

4
उदासी
तन्हाई
और
चुप्पी
एकांत के साथी नहीं हैं

यह एक फरेब है
जिसे रचता हूँ मैं
अपने को ही छलने के लिए

5
घबरा कर हो जाता हूँ
चुप
हर चुप्पी छलावा है
कि तुमसे दूर हूँ मैं

6
लंबे अंतराल के
बाद
संक्षिप्त संवाद

जैसे
मेरे मौन का पारन हुआ हो आज

7
मौन का टूटन
बोलने का उत्सव नहीं है
अतिरेक
मौन का अधिक वाचाल होता है

8
बहुत बोलने के बाद
की चुप्पी
आत्मग्लानि से उपजती है

9
अनिर्णय का चुप
निर्णायक शोर से अधिक
वाचाल होता है

10
कई बातें हैं
कहने को
मेरे शब्द जो
अकहे रह गए
चुप हैं

जिसे कहा
वो शोर थे
मेरा कहा हर बार
मेरे आधिपत्य से उपजा था
मेरे कहे का मैं अधिकारी हूँ

मेरी चुप्पी
मेरी करुणा का पर्याय है ।







हाथ

अनमने खाली बैठे
हाथों को चैन नहीं मिलता
दिलो-दिमाग तो वैसे भी
कभी आराम न पा सका

जब कभी हाथों और
दिलो-दिमाग को दौड़ाते थकने लगता हूँ
कंपकपाते हाथों से पकड़ता हूँ
कलम को
और हाथ बनाने की कोशिश
करता हूँ
खाली कक्षाओं में
बोझिल व्याख्यानों में
पढ़ाई के वक्त पढ़ते-पढ़ते तुम्हारी याद आने पर भी
बनाता हूँ हाथ
देखा था सबसे पहले तुम्हारे हाथों को ही
केदारनाथ सिंह कहते हैं
दुनिया को हाथ की तरह गर्म और मुलायम होना चाहिए

कहते हैं हाथों को बनाना सबसे कठिन काम है
एक अभ्यस्त हाथ
जैसे कि
सितार, सारंगी या सरोद के तारों पर
उंगलियां रगड़ता हुआ
तबले पर आघात करता हुआ
या कि सर्जिकल ब्लेड से चीरा लगाता हुआ
या फिर सब्जी में नमक डालता हाथ
अगर थोड़ा भी इधर उधर हुआ तो
सुर गड़बड़
जान का खतरा
या फिर गुस्साए पति द्वारा थाली फेकने
और लोटा खींच के सर पर दे मारने का खतरा

मैं बनाना चाहता हूँ
एक हाथ जिसमें नसों-नाड़ियों और
हड्डियों के ऊबड़-खाबड़पन का सौंदर्य हो
वो नर्म और मुलायम नहीं
कठोर हो
कुदाल चलाते हाथ में पड़े घट्ठे वाले हाथ
भाप से बार बार जला हाथ
कलम या सर्जिकल ब्लेड को
मजबूती से पकड़े हाथ
वाद्ययंत्रों पर रगड़ खाये हाथ
छेनी हथौड़ी पकड़े हाथ
स्वेटर बुनते, मटर छीलते हाथ
सजीव, सधा, मजबूत और स्पन्दित हाथ

मैं एक हाथ की आकृति बनाना चाहता हूँ
तुम्हारी हाथों के स्पंदन को महसूसने से अधिक
उन हाथों की आकृति को महसूसना चाहता हूं
जो कई दिन भूखे रहने के बाद पहले निवाले के
साथ उठा हो
वह हाथ जो ट्रैफिक रुकने पर फैलाये गए हों
एक कुपोषित बच्चे का गुब्बारे फुलाते हाथ
श्मशान जाते शव के हाथ
दोस्त के गले मिलते
उसके पीठ पर लगातार वार करता हाथ
एक चुनावी वादे में उठा हाथ
जिसे आकाशकुसुम हो जाना है
एक हाथ हत्यारे का
एक हाथ हत्या को निर्देशित करने वाले का
एक हाथ दुनिया को संवारने वाले का
एक हाथ रोते हुए के आँसू पोछने वाले का
एक हाथ बढ़ा हुआ
एक हाथ खींचा हुआ
एक हाथ जो खींच लिया गया
एक हाथ जो बोझा उठाने के लिए बढ़ाया गया

हाथ जो पतनशील नैतिकता, मनुष्यता और लोकतंत्र की तरफ इशारा करे
और अंत में मैं एक हाथ और बनाना चाहता हूँ
जो हमारे निहात्थेपन को भी बताती रहे ।





बेहया

मैं बेहया हूँ
मुलायम और लचकदार
पर बिल्कुल निकम्मा
सदियों से अलक्षित
मेरे पुष्प अस्वीकार्य हैं सबको
न रस न गंध

अकहा ऐसा कि किसी ने नहीं कहा
कि तुम बेहया की फूल जितनी सुंदर हो
पर जीवन के सबसे विपरीत परिस्थिति में भी
लहलहाता रहा हूँ

नज़र फेर लो
फिर भी
जहां नमी पाऊंगा
उग आऊंगा
जैसे प्यार का पौधा हो बेहया

बेहया हूँ
अनायास ही उगता रहा हूँ
लेकिन जब याद आऊंगा
खटकूँगा किसी परपराते चोट की तरह ।





पुरखे
(केदार जी की स्मृति में)

ओ हमारे पुरखे !
अंतिम बरगद हमारे समय के
विदा...!

...पर लौटना
स्मृतियों में नहीं,
चिन्हों में नहीं,
अपने समय के शब्दों में नहीं,
खौफ़नाक क्रियाओं में नहीं,

लौट आना
सकुशल
उम्मीदों में अंकुआना
आते रहना महाकवि
कविता में

पचखियाँ फेंकते बने रहना
नवजात तुम्हारी ही ऊँगली पकड़कर
सीखेंगे ककहरा कविता की ।






मांडू की ओर

मांडू के रास्ते में
मांडू की ओर जाने वाले
अथक सहचर होते हैं प्रेम के

हरेक जर्रे से सुनाई देता है
अलाप, सम और
सांसों का आरोह-अवरोह

मांडू में नहीं
मांडू जाने वाले के मन में
बसती है रूपमती और
बाजबहादुर की आत्मा

किसी बाजबहादुर सा
कोई प्रेमी करता है इंतज़ार रूपमती का
बनवाता है जहाज-महल
और झरोखा
उसके मन में भी कहीं एक झरोखा
बना होता है
अपनी रूपमती के लिए

स्वदेश की मायाविनी ने
प्रणय निवेदन नहीं किया था स्वदेश से
मायाविनी चाहती थी
स्वदेश के साथ प्रेम को झरोखे से देखना
तभी तो कहा था उसमें
"मैंने मांडू नहीं देखा है"
और स्वदेश पागल हो गये
और मांडू हो गया शापित
और किसी अनजान डगर पर
चल पड़े बाज बहादुर और रूपमती
तब से कहाँ कोई देख पाया
मांडू

मांडू में नाकाम प्रेमियों का मज़ार लगता है ।
००



कुमार मंगलम की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए 

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/01/blog-post.html?m=1

26 जून, 2018

यात्रा वृत्तांत:

'हर की दून’- नेचर्स बून

राजकुमार




हर की दून


इस बार दोस्तों के बीच तय हुआ – ‘हर की दून’ की ट्रेकिंग की जाय. एक तो अपनी व्यस्त जिंदगी से समय निकालना आसान नहीं होता दूजे सभी दोस्तों के लिए एक सर्वमान्य तारीख तय करना और भी मुश्किल होता है. कभी हाँ कभी ना के बीच  29 मई को यात्रा का मुहूर्त निकला.


     चूंकि टिकट पहले से ही बुक करा लिए थे अत: बस मिलने में असुविधा नहीं हुई. तय कार्यक्रम के अनुसार सभी साथी रात्रि 11 बजे दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पर थे. इससे पहले कि बस दिल्ली से देहरादून की ओर बढ़े टीम के परिचय की औपचारिकता पूरी कर ली जाय. एक बार फिर टीम का नेतृत्व कर रहे थे अनुभवी ट्रेकर साथी संजय कबीर और हिसाब-किताब की जिम्मेवारी इस बार संभाल रहे थे साथी राजकुमार. टीम के अन्य सदस्यों में शामिल रहीं साथी सविता, साथी कविता, साथी नीरा, साथी समीक्षा, साथी जनार्दन, साथी ललित, नौजवान रिशु और तीन लिटिल स्टार. 9 वर्षीय किस्सगो मास्टर पार्थ, 10 वर्षीय शैतान मास्टर दिगंत, और 8 वर्षीय चुलबुली बेबी अनुष्का.

इस बार की ट्रेकिंग टीम में कुछ नए चेहरे शामिल हुए जबकि कुछ पुराने चेहरे मज़बूरीवश शामिल ना हो सके. टीम पिछली साल की तुलना में ज्यादा उत्साहित थी, कारण ज्यादातर लोग पहली बार ट्रेकिंग पर जा रहे थे जिनमें बच्चे भी थे.

             बेस कैंप तालुका में ट्रेकिंग के लिए तैयार टीम

उत्तराखंड परिवहन ने अपने तय समयानुसार सुबह 5 बजे देहरादून पहुंचा दिया. फ्रेश होकर टीम ने चाय पी और साढ़े छ: बजे वाली बस पकड ली जो पुरोला के लिए जाती थी. बस मसूरी से होते हुए कैम्पटी फाल और डामटा ( डामटा से उत्तरकाशी जिले की सीमा प्रारंभ होती है ) व नौगांव होती हुई लगभग १२ बजे पुरोला पहुँची. पुरोला में चाय नाश्ता लेने के बाद टीम ने सांकरी के लिए टैक्सी हायर की. सांकरी फोरेस्ट रिजर्व रेंज है जो ‘गोविन्द वन्य जीव विहार’ के अंतर्गत आती है. गोविन्द वन्य जीव  विहार’ की स्थापना भारत सरकार ने 1955 में स्वतंत्रता सेनानी और गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त के नाम पर की. गोविन्द वन्य जीव विहार’ जिसका बाद में नाम गोविन्द नेशनल पार्क कर दिया गया, लगभग 958 वर्ग किमी में फैला हुआ है. ‘गोविन्द  नेशनल पार्क’  बियर्ड वल्चर और स्नो लिओपर्ड के लिए विशेष रूप से जाना जाता है. नटवाड से इस क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है जिसके लिए पहचानपत्र की फोटोकॉपी के साथ अनुमति लेनी जरुरी होती है और जिसकी एक निश्चित फीस भी निर्धारित है.

देहरादून से सांकरी की दूरी लगभग २०० किमी है जिसे बस या टैक्सी द्वारा तय किया जा सकता है. सांकरी से तालुका के लिए स्पेशल टैक्सी (केम्पर) चलती हैं. सांकरी से तालुका तक के 11 किमी मार्ग पर वन संरक्षित क्षेत्र होने के कारण सरकार ने सड़क नहीं बनाई है, सिर्फ पहाड़ काटकर छोड़ दिया है. हमने केम्पर हायर किया और चल पड़े तालुका की ओर. कुछ साथी अंदर बैठे तो कुछ साहसी साथियों ने केम्पर के ऊपर बैठकर सफारी का आनंद लिया. इस तरह हम सूर्यास्त से पहले अपनी पहली मंजिल तालुका में पहुँच चुके थे. चूंकि कमल ठाकुर को हमारे आने की पहले से सूचना थी अत: वे हमारा इंतजार कर रहे थे. कमल ठाकुर जो हमारे गाइड बनने वाले थे, ने हमारे खाने-पीने का बंदोबस्त किया और एक प्राइवेट लॉज हमें उपलब्ध करा दी. लॉज सामान्य ही थी किन्तु ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम’ के गेस्ट हाउस से कहीं बेहतर थी. थकान के कारण और सुबह जल्दी उठने की चाह में टीम जल्दी सोने चली गयी. हालाँकि सोने जाने से पहले टीम अगले दिन की योजना को अंजाम दे चुकी थी.


                         हर की दून का रोडमेप

31 मई की सुबह उत्साहित टीम ने भरपूर नाश्ता किया, लंच पैक किया और चल पड़ी ‘हर की दून’ के 27 किमी प्रसिद्द ट्रेक पर. पहाड़ में एक खास बात का अनुभव हुआ कि हर सुबह आप बहुत तरोताजा होकर उठते हैं जबकि शहर में सुबह को उठने में आलस बना रहता है. तमोशा नदी के किनारे चलते हुए खूबसूरत पहाड़, झरने, रंगबिरंगे फूल, विविध वनस्पति, कलकल करती नदी ट्रेकर्स को लगातार आनंदित करती रही. विविध वनस्पति में स्नेक लिली, जंगली गुलाब और न जाने कितने मनमोहक फूल जिनके हम नाम भी नहीं जानते थे. वृक्षों में चीड़, मोरिंडा और भोज आदि की लम्बाई आश्चर्यचकित कर रही थी.  छोटे बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता था, विशेषकर नन्ही ट्रेकर अनुष्का (गुन्नू) ने चलने में सबका दिल जीत लिया. राह में मिलने वाले दूसरे ट्रेकर्स भी बच्चों की उम्र जानकर आश्चर्यचकित हो जाते थे.

     
            तीन नन्हे ट्रेकर्स – दिगंत, अनुष्का और पार्थ.                 

प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य फोटो खींचने के हमारे मोह को कम ही नहीं होने दे रहा था. गाइड को बार बार याद दिलाना पड़ता कि चलिए मंजिल अभी दूर है. पहाड़ में एक बात ध्यान रखनी होती है – ‘आप अपनी यात्रा लगभग २ बजे तक समाप्त कर लें उसके बाद बारिश की कोई गारंटी नहीं होती. दूसरे यदि आप समय से पहुँच जाते हैं तो रात रुकने का स्थान आसानी से मिल जाता है, देर से पहुँचने पर या तो स्थान सुविधाहीन मिलेगा या हो सकता है मिले ही ना.

पहाड़ पर ट्रेकिंग (जिसे हाईकिंग भी कहा जाता है) उतना भी आसान नहीं है. यदि आपके अंदर पैदल चलने का जज्बा नहीं है, यदि आप प्रकृति प्रेमी नहीं हैं, यदि आपके भीतर प्रकृति के सौंदर्य को घंटों बैठकर निहारने का धैर्य नहीं है, यदि आप डर के आगे जीत में विश्वास नहीं करते तो फिर भूल जाइये ट्रेकिंग व्रेकिंग.

ट्रेकिंग के पहले दिन टीम ने खूब एन्जॉय किया और लगभग आधी यात्रा समय से पूरी कर ली तथा बारिश आने से पहले सुरक्षित अपने गंतव्य ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम’ के गेस्ट हाउस में पहुँच गयी. सीमा गांव में दो ही गेस्ट हाउस हैं एक ‘वन विभाग’ का दूसरा ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम’ का. पहले वाला साफ सुथरा बिजली (सोलर) पानी युक्त था, दूसरे वाला काम चलाऊ रात कटाऊ. पहले वाला बुक हो चुका था अत: दूसरा एकमात्र विकल्प बचा था. मोमबती की रौशनी में पानी बाहर से लाना पड़ा. गेस्ट हाउस के केयर टेकर का व्यवहार बहुत निराशाजनक था. मोमबत्ती तक देने में उसे आपत्ति थी. केयरटेकर ने रामसे ब्रदर्स की फिल्मों की याद दिला दी जिसमें पुरानी हवेली का चौकीदार लालटेन लेकर आता है और बोलता है- ‘’मैं... पिछले तीन सौ सालों से यहाँ का चौकीदार हूँ.’’

गेस्ट हाउस के सामने एक अकेला ढाबा था जिसका खाना महंगा इसलिए लगा कि वह स्तरीय नहीं था. एकमात्र ढाबा होने के चलते ढाबा मालिक के नखरे स्वाभाविक थे. हमने भी झेले. टीम ने अगले दिन की योजना बनाई, गपशप मारी, दवादारू ली और सो गयी.

ट्रेकिंग के अगले दिन यानि 1 जून को हम सीमा गांव से हर की दून को रवाना हुए. रास्ते की  चढ़ाई पहले दिन के मुकाबले ज्यादा खड़ी और मुश्किल थी. लेकिन जल्दी ही बर्फ से ढके मनोहारी ग्लेसियर दिखाई देने लगे जिनकी सुंदरता ने थकान को शरीर पर हावी नहीं होने दिया. गाइड ने इनका नाम ‘कालानाग और बंदरपूँछ’ बताया, शायद इनकी आकृति के कारण इनका नामकरण हुआ होगा. रास्ते में जलधाराओं पर बने लकड़ी के पुल रोमांच में इजाफा कर रहे थे. इस ट्रेक पर एक अच्छी बात यह थी कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थानीय लोगों ने दुकान लगायी हुई थीं जहां बच्चों के लिए मैगी - आमलेट मिल जाता था और बड़ों के लिए चाय या लस्सी. साथ में सुस्ताने का अवसर भी.


                             मनोहारी गिलेशियर

मैं शायद बताना भूल गया कि यात्रा के आरम्भ में ही हमने एक जोड़ी खच्चर हायर किये थे एक साथी नीरा के लिए दूसरा सामान के लिए. ऐसा बताते हैं कि खच्चर जोड़े में ही चलते हैं अकेले नहीं. पहाड़ पर सामान और कभी कभी आदमी ढोने का एकमात्र साधन खच्चर ही होते हैं. दूसरे दिन की यात्रा में साथी नीरा खच्चर की मदद से जल्दी ही ‘हर की दून’ पहुँच गयीं और वन विभाग का गेस्ट हाउस बुक करा दिया. गेस्ट हाउस बहुत पुराना बना हुआ था जिसका उद्घाटन 25 मई 1953 को तत्कालीन वन उप मंत्री श्री जगमोहन सिंह नेगी  के द्वारा हुआ था. बेफिक्र पूरी टीम फोटो खींचते-खिचाते, रुकते-रुकाते, मनोहारी दृश्यों का आनंद लेते हुए समय से अपनी मंजिल पर पहुँच गयी. टीम के लिए सबसे ज्यादा खुशी की बात ये थी कि तीनों बच्चे बिना परेशानी के मंजिल पर पहुँच गए थे. हमारी एक साथी के पहले पहुँचने का लाभ पूरी टीम को मिला. ‘हर की दून’ का सबसे अच्छा गेस्ट हाउस हमें रुकने को मिला. अब हम निश्चिन्त होकर गेस्ट हाउस में बैठे गर्मागर्म चाय का मजा ले रहे थे. केयरटेकर आतिशदानी में आग सुलगा रहा था, ठण्ड जो बढ़ गयी थी.
हर शाम की तरह सभी ने बैठकर गपशप की. अपनी जिंदगी के कारनामों का वर्णन करके एक दूसरे का मनोरंजन किया. इतने में खाना तैयार हो गया. सभी ने खाना खाया और सोने चले गए. रात में एक साथी की तबियत खराब हो गयी जिसके चलते कई साथी रातभर ठीक से सो नहीं पाए.

‘हर की दून’ की सुबह बेहद खूबसूरत थी. सामने बर्फ से ढकी स्वर्गरोहिणी चोटी, हजारों मीटर में फैला मखमली बुग्याल ( बुग्याल मतलब घास का मैदान जिसे कश्मीर में मर्ग कहते हैं मसलन – गुलमर्ग और सोनमर्ग ) और बुग्याल से बहती ‘हर की दून नदी’ पीछे से कलकल करती रुनसारा नदी. कुदरत ने मानों सारे जहाँ की ख़ूबसूरती इस घाटी में बखेर दीं हों. ‘हर की दून’ को ‘वैले ऑफ गोड’ भी कहा जाता है. यह समुद्र तल से लगभग 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. एक पौराणिक कथानुसार युधिष्ठर स्वर्गरोहिणी चोटी से होकर ही स्वर्ग गए थे शायद इसीलिए इस चोटी का नाम स्वर्गरोहिणी पड़ा. पहाड़ में नदियों के नाम थोड़ी थोड़ी दूरी पर बदलते रहते हैं. मसलन ‘हर की दून’ में रुनसारा नदी और ‘हरकीदून नदी’ मिलकर टोंस नदी बनाती हैं जो ओसला गांव से लेकर तालुका तक ‘तमोशा नदी’ कहलाती है. सांकरी से जखाल तक इसे सूपिन कहते हैं तो नटवाड में रुपिन और सुपिन मिलकर टोंस बनाती हैं.



पूरा दिन साथियों ने घूमने फिरने फोटो खींचने और खिंचवाने में बिताया. कुछ साथियों ने गेस्ट हाउस में थकान दूर की और अपने को तरोताजा किया. शाम 5 बजे सभी साथी पास में लगे टेंट पर गए जिसका नाम था ‘दून कैफे’. वहाँ बच्चों ने अपना पसंदीदा बोर्नविटा दूध पिया और बड़ों ने ट्रेकिंग की अब तक की सबसे अच्छी चाय पी. मौसम बड़ा सुहावना हो गया था. काले काले बादल घिर आये थे. ऐसे मौसम में अगर पकोड़ी मिल जाएँ तो क्या कहने. कैफे वाले ने हमारी बात सुन ली. और झटपट आलू की पकोड़ी छान दीं. आह क्या स्वाद था पकोड़ी में. दुनिया जहान की चिंताओं से बेफिक्र 3500 मीटर की ऊंचाई पर पकोड़ी खाने का आनंद ही कुछ और है.  इसका क्रेडिट जाता है साथी नीरा को. उन्होंने ही इस चाय पार्टी को स्पोंसर किया था. नीरा जी की पकोड़ी पार्टी ने सबका मूड फ्रेश कर दिया. साथी ललित ने बड़ी म्हणत और कुशलता से भोज की शाखाओं से भोजपत्र उतारे जिन्हें सबने सहेजकर रखा. कागज की खोज होने से पहले इन्ही भोजपत्रों पर लिखा जाता था. रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य इन्हीं पर लिखे गए.  उसके बाद नदी किनारे बच्चों का एक वीडियो शूट करके  हम लौट आये अपने घोंसले में. रोज की तरह डिनर से पहले गपशप और फिर अपने अपने बिस्तर में पसर गए.

‘हर की दून’ के प्रसिद्द ट्रेक पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया है. बेस कैंप तालुका में दो ढाई साल से बिजली संयंत्र ( टरबाईन ) मरम्मत के इंतजार में सरकार की बाट जोह रहा है. तालुका, सीमा और ‘हर की दून’ में दस करोड की लगत से बना सोलर सिस्टम युक्त गेस्ट हाउस सरकारी तंत्र की गैर- जिम्मेदारी के चलते कभी चालू ही नहीं हो पाया और बर्बादी की ओर अग्रसर है. नटवाड से आगे आपको न तो नेटवर्क मिलेगा और न ही बिजली. गांव में स्कूल जरुर बने हुए हैं जो शिक्षक कम शिक्षामित्रों के सहारे ज्यादा टिके हुए हैं. चिकित्सा सुविधा के नाम पर एक कोठरी है जिसमें कुछ दवाइयों के साथ एक कम्पोन्डर या अटेंडेंट ही दिखाई देता है. यहाँ के निवासियों के लिए डॉक्टर के दर्शन हो जाना किसी देवता के दर्शन से कम नहीं होते. पहाड़ जितने खूबसूरत होतें हैं उतनी ही कठिन होती है यहाँ की जिंदगी. जीविकोपार्जन के लिए थोड़ी बहुत मौसम आधारित खेती और पशुपालन ही एक मात्र विकल्प हैं. रोजगार के लिए यहाँ के लोग महानगरों की ओर पलायन को मजबूर हैं. एक अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड की जनसँख्या का आधे से अधिक भाग दिल्ली-एनसीआर में रहने को विवश है. यहाँ छोटी से छोटी सुविधाएँ उपलब्ध कराना भी सरकार जरुरी नहीं समझती. पिछले विधानसभा चुनावों में यहाँ के चार-पांच गांव ने मिलकर चुनाव का बहिष्कार किया और मतपेटियां इस उम्मीद में खाली भेज दीं कि शायद कोई नेता उनकी सुध लेगा. किन्तु दुर्भाग्य है इस देश की जनता का कि वर्तमान राजनीति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता नतीजतन आज तक वहाँ किसी ने जाकर नहीं देखा. सरकार यदि चाहे तो यहाँ के लोगों की बुनियादी समस्याएं आसानी से हल हो सकती हैं. उचित प्रबंधन द्वारा पहाड़ों की ख़ूबसूरती को ना सिर्फ सरंक्षित किया जा सकता है बल्कि पर्यटन को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसर पैदा किये जा सकते हैं.

अगली सुबह न चाहते हुए भी हम ‘हर की दून’ को बाय-बाय कह रहे थे. वापिस उसी ट्रेक से नीचे उतरना शुरू किया. टीम ने तय किया कि आज रात ओसला गांव में स्थानीय लोगों के घरों में रुकेंगे, उन्ही के साथ भोजन करेंगे, उनके बारे में जानेंगे. ओसला गांव में दो मंदिर हैं- एक है सोमेश्वर देव मंदिर जिसमें भगवान शिव की आराधना होती है. दूसरा मंदिर है दुर्योधन का. कितना आश्चर्यजनक लगता है यह सुनना कि दुर्योधन का भी कहीं मंदिर हो सकता है. हमें भी लगा. घर से बाहर निकलने पर कई सारी चीजें आश्चर्यजनक लगती हैं. बहुत सी सच्चाइयों को हम घर बैठे नहीं जान सकते. एक पंजाबी कहावत है –‘चल उठ ढूढन चलिए घर बैठे यार नी मिलदे’. लेकिन ओसला गांव जाकर रुकने और वहाँ के बारे में जानने की हमारी अभिलाषा पूरी न हो सकी. पहाड़ उतरने के साथ साथ उत्साह भी उतर रहा था. अत: तय हुआ कि ओसला से 4 किमी आगे वाले गांव ‘गंगाड’ में रुका जाय ताकि एक दिन का समय बचाया जा सके. नतीजतन साढ़े तीन बजे हम गंगाड गांव के ‘यस होटल’ में थे. वुडन क्राफ्ट का खूबसूरत नमूना- ‘यस होटल’. लेकिन शौचालय का डिजाइन कुछ इस तरह था कि बिना योग अभ्यास के आप निवृत नहीं हो सकते. होटल पहुंचकर साथियों के मध्य कुछ मतभेद उभरकर सामने आये. मतभेदों को यदि समय रहते सुलझा नहीं लिया जाता तो गलतफहमियां जन्म लेने लगती हैं और मतभेद मनभेद बन जाते हैं. लिहाजा कुछ बिंदुओं पर बात हुई और कुछ बिंदुओं को पोस्टपोंड कर दिया गया.
अगली सुबह पूरी टीम साढ़े छ: बजे रवाना होने के लिए मुस्तैद थी. आज रास्ते में तालुका से ठीक पहले सिर्फ एक दुकान ही खुली मिली जिसका लाभ यह हुआ कि हमारा समय बचा और हम ११ बजे तालुका में पहुँच. तालुका पहुंचकर पता चला कि सांकरी से पहले लैंडस्लाइड हुआ है. हमने झटपट लंच किया, गाइड और खच्चर वाले का हिसाब किया और सांकरी के लिए केम्पर पकड़ लिया. लैंडस्लाइड से स्थानीय टैक्सी वालों को बहुत फायदा हुआ. पहले वे सांकरी तक का 800 रुपए ले  रहे थे अब 1200 लेने लगे. केम्पर जैसे ही चला एक खूबसूरत भेड़ का बच्चा उसके नीचे आ गया, उसकी मौत हमें अपशकुन का संकेत दे गयी. हम आश्वस्त थे कि सांकरी से देहरादून के लिए टैक्सी आसानी से मिल जायेगी किन्तु सांकरी पहुँचने पर पता चला कि टैक्सी तो है पर ड्राईवर नहीं है. हमने एक टेम्पो ट्रेवलर से बात की जिसने साढ़े नौ हजार रुपए की मांग की. इतने में एक अन्य टेम्पो ट्रेवलर आ गया. हमने उससे चलने के लिए पूछा और नौ हजार में बात पक्की हो गयी. दूसरे वाला ट्रेवलर पहले वाले से जा मिला और हमसे चलने के लिए मना कर दिया इस पर कुछ साथियों की उससे तीखी नोंक झोंक हो गयी. अब पहले वाले ट्रेवलर से बात की गयी. चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर उसने अब पैसे बढ़ा दिए और दस हजार रुपए मांगने लगा वो भी एडवांस. हमने एडवांस के बदले पक्की रसीद मांगी तो उसने मना कर दिया. लिहाजा बात नहीं बनी. अब हमारे सामने एक ही विकल्प था कि वहीँ रुका जाए और सुबह सरकारी बस से देहरादून का सफर तय किया जाय. लेकिन ट्रेवलर्स के दुर्व्यवहार और घर लौटने की बेचैनी ने वहाँ रुकने के विचार को परास्त कर दिया.



पहाड़ के लोगों के बारे में आमराय है कि ये लोग बड़े भले होते हैं और अब तक हम भी ऐसा ही मानते रहे हैं. लेकिन आज हमारी इस राय पर तुषारापात हो गया. जब हम इस बदलाव का कारण समझने की कोशिश करते हैं तो एक ही बात समझ में आती है कि जहाँ जहाँ बाजार (पूंजीवाद) पहुंच रहा है अपने चरित्र के अनुरूप वह लोगों को स्वार्थी, लालची, चालाक, अवसरवादी और संवेदनहीन बनाता जा रहा है. उसी का परिणाम है कि पहाड़ जैसे रिमोट एरिया में भी लोग इसके दुष्प्रभावों से बचने के बजाय तेजी से इसकी गिरफ्त में आते जा रहे हैं.

वस्तुओं को महंगा बेचना समझ में आता है क्योकि सामान को इतनी ऊंचाई पर ले जाना मुश्किल होता है किन्तु मुंहमांगे पैसे लेकर घटिया और कम खाना देना आपकी भलमनसाहत पर सवाल खड़े करता है. पूरी टैक्सी हायर करने पर भी ड्राईवर उसमें सवारी घुसाने की कोशिश करता है. टैक्सी का एक निश्चित रेट होता है किन्तु ट्रेवलर मौके का फायदा उठाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. पूरे पैसे लेकर आधी अधूरी सेवाएं देना ये सब मौकापरस्ती और मक्कारी नहीं तो क्या है ? खैर पहाड़ के लोगों के बारे में राय बदलना लाजमी है. लेकिन पहाड़ में एक जीव ऐसा भी है जो आपका हमसफ़र बनता है. वो है वहाँ पाया जाने वाला कुत्ता. हमें भी एक प्यारा सा भूटिया नस्ल का हमसफ़र मिला और ट्रेकिंग में पूरे समय पूरी शिद्दत के साथ हमारे साथ रहा.

   
                        ट्रेक का साथी भूटानी कुत्ता     

                               गाइड कमल ठाकुर

इतने में एक प्राइवेट बस आकार रुकी. उम्मीद की एक किरण दिखाई दी. लपक कर साथियों ने उसके ड्राईवर से बात की. असल में बस को सुबह जाना था किन्तु पैसे के लालच ने उसे चलने के लिए तैयार कर दिया. बड़ी गाड़ी होने के कारण उसने 12 हजार रुपए की डिमांड की, बारगेनिंग होते-होते साढ़े दस हजार में बात बन गयी. मानो अंधे के हाथ बटेर लग गयी हो, पूरी टीम खुश हो गयी बावजूद इसके कि बजट ओवर हो रहा था. लगभग ढाई बजे हम देहरादून के लिए रवाना हुए. ट्रेकिंग की खुमारी उतर चुकी थी. इतना हम आज के चलने से नहीं थके थे जितना ट्रेवलर्स ने थका दिया था. देहरादून पहुँचते-पहुँचते साढ़े दस बज गए थे. हमने बस वाले को आभार के साथ भुगतान किया और दिल्ली की बस पकड़ने के बारे में सोचने लगे. ओवरबजट के कारण साथियों का कैश खत्म हो चुका था, अत: हमने ATM तलाशने शुरू किये. ज्यादातर ATM पर या तो शटर पड़े थे या वे कैशलेस थे  जो डिजिटल इंडिया का मजाक उड़ा रहे थे. बड़ी मुश्किल से एक ATM से पैसे मिले किन्तु इस प्रक्रिया में हम एक घंटा बर्बाद कर चुके थे और रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे. दिल्ली जाने वाली बसें या तो भरी खडीं थीं या पहले से रिजर्व थीं और उसके बाद कोई बस सर्विस नहीं थी. कैसा ट्रांसपोर्ट सिस्टम है हमारा ? सवारी हैं बस भी हैं चलाएंगे नहीं. प्राइवेट ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देने का भी ये एक तरीका है. सुबह तक हम इंतजार नहीं कर सकते थे अत: अब टैक्सी लेने के आलावा हमारे पास दूसरा विकल्प नहीं था.
अंत भला तो सब भला. अगली सुबह सभी साथी सकुशल अपने अपने घर पहुँच चुके थे.



राजकुमार
परिचय

डॉ राजकुमार
शिक्षक एवं सामाजिक कार्यकर्ता
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