07 जून, 2018

ईरान की कविता




        सिमीं बहबहानी

मैं ऐसी स्त्री को जानती हूँ

     सिमीं बहबहानी



मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो घर के एक कोने में
कपड़े धुलने और खाना बनाने के दरमियाँ
अपनी रसोई में गुनगुनाया करती है
मन को जगा देने वाले प्रेरक गीत.
उसकी आँखों में मासूमियत है पर एकाकी उदास हैं
उसकी आवाज थकी और लस्त पस्त है
उसकी उम्मीदें कल की आस  पर टिकी हुई हैं.

 मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो कुबूल करती है
अपने दिल की बाजी  हार जाना उसके सामने
जाने वो इसके काबिल है भी  या नहीं?
वो धीरे धीरे खुसर फुसर करती है
कि चाहती हूँ भाग जाऊं यहाँ से कहीं दूर
पर इसके फ़ौरन बाद खुद से सवाल भी करती है:
मेरे बच्चों के बाल कौन संवारेगा
जब मैं चली जाउंगी?

 एक स्त्री जो दर्द से गर्भवती है
एक स्त्री जो जनती है पीड़ा के शिशु
एक स्त्री बुनती है धागेदार कपड़े
एकाकी सूनेपन के ताने बानों से
कमरे के अँधेरे कोने में
दिए से करती है ईश्वर की प्रार्थना

 एक स्त्री जंजीरों से आदतन घुली मिली
एक स्त्री जिसको जेल घर जैसा अपना लगता है
वार्डन की ठंडी निगाहें बस
कुल मिला कर यही उसके हिस्से की प्राप्ति है.

 मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ....
 मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो निस्तेज और शिथिल पड़ जाती है तिरस्कारों से
फिर भी, गुनगुनाती रहती है कोई न कोई गीत
इसी को कहते  हैं  किस्मत का फेर...



पिकासो 



इस  स्त्री को हो जाता है अभ्यास गरीबी का
इस स्त्री को रुलाई छूटती है सोते वक्त
डाह और विस्मय से चकित स्त्री
समझ ही नहीं पाती कहाँ  हुई है उस से चूक...

 एक स्त्री छुपाती फिरती है
बेतरह उभरी हुई नसों वाले पैर
एक स्त्री चौकन्ना होकर एकदम से  ढाँप  देती है

अपने दुखों की अंदर अंदर फैलती लपटें
जिस से कुछ सामने न आये दुनिया के
ये तो ऐसे ही ऊपरी सिरे तक लबालब  होती है
घातों  प्रतिघातों से
मोड़ों तोड़ों और ऐंठनों  से.

 मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो हररात बिला नागा अपने बच्चों को
किस्से  और लोरियाँ गा गा कर तो सुलाती है
पर खुद अपने सीने में
जानलेवा तरकाशों को गहरे ही गहरे जज्ब करती जाती है.

 एक स्त्री घर से बाहर निकलने में डरती है
कि घर का चिराग वही तो है
सोचती है,घर कितना भुतहा लगने लगेगा
उसके चले जाने के बाद..

 ये स्त्री शर्मिंदगी महसूस करती है
भोजन से खाली खाली है उसका टेबुल
भूखे बच्चे को सुलाने के लिए
उसकी पसंद की गाती है मीठी मीठी लोरी...

मैं एक स्त्री को जानती हूँ
जिसकी स्कर्ट पीली पड़ गयी है
इस बाँझ के दिन और रात
रोते रोते ही
व्यतीत होते हैं...


मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जिसमें अब बची नहीं सुई भर भी जान
कि चल पाए एक कदम भी
दिल रो रो कर बेहाल
अब इस से बदतर और क्या होगा...

 मैं एक ऐसी स्त्री को जानता हूँ
जिसने जीता अपने अहम् को बलपूर्वक
हजारों हजार बार
और अंत में जब वो विजयी हुई
तो ठहाका लगा कर हँसी
और खूब स्वांग और ठट्ठा किया
दुष्टों का, भ्रष्टों का...



पिकासो 



 एक स्त्री छेड़ती है तान
एक स्त्री रहती है सुनसान
एक स्त्री अपनी रात बिताती है
अच्छी तरह देखभाल कर  किसी सुरक्षित गली में...

 एक स्त्री मशक्कत करती है दिन भर पुरुष की तरह
पड़ जाते हैं फफोले उसकी हथेलियों पर
उसको यह भी याद नहीं
कि वो तो पेट से है...

 एक स्त्री अपनी मृत्युशैय्या पर है
एक स्त्री बिलकुल मौत से सट कर खड़ी है...

 उस स्त्री को स्मृति में कौन सुरक्षित रक्खेगा
मैं नहीं जानती
एक रात यह स्त्री बिलकुल चुपचाप
उठकर चली जाएगी बाहर दुनिया के...

पर दूसरी स्त्री अवतरित होगी , लेगी इसका प्रतिशोध
वेश्याओं जैसा सुलूक कर रहे मर्द  से ...

 मैं जानती हूँ ऐसी एक स्त्री को
.एक स्त्री को....

   
 फारसी से अंग्रेजी तर्जुमा:   रोया मोनाजेम

अंग्रेजी से हिंदी अनुवादः यादवेन्द्र


यादवेन्द्र जी स्तम्भ नीचे लिंक पर पढ़िए  


यादवेन्द्र

निर्बंधकौन तार से बीनी चदरिया 
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/bizooka2009gmail.html?m=1

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविताएँ ।

    निम्न पंक्तियाँ विडम्बना के साथ प्रतिरोध का एक बिगुल फूंकती हैं ।

    "उस स्त्री को स्मृति में कौन सुरक्षित रक्खेगा
    मैं नहीं जानती
    एक रात यह स्त्री बिलकुल चुपचाप
    उठकर चली जाएगी बाहर दुनिया के...

    पर दूसरी स्त्री अवतरित होगी , लेगी इसका प्रतिशोध
    वेश्याओं जैसा सुलूक कर रहे मर्द से ...!"

    सिमी बहबहानी की कविताओं का यादवेंद्र जी ने अच्छा अनुवाद किया है ।

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  2. शुक्रिया भाई!
    यादवेन्द्र

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  3. ये कविता एक सच्चाई है और अनुवादक को धन्यवाद इस सच्चाई को हम तक पहुंचाने के लिए ।

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