29 जुलाई, 2018

डायरी:
कनॉट प्लेस

कबीर संजय

एक


गाली

शराबी की कसम अक्सर ही दिन भर भी नहीं टिकती। रात को अगर ज्यादा हो जाए तो शमशानी वैराग्य जाग जाता है। यार, इतनी ज्यादा नहीं। ऐसे तो ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा। बस अब नहीं। हैंगओवर से सुबह मूड खराब रहता है। चिढ़चिड़ा मन कसम उठा लेता है। अब नहीं पीऊंगा इतनी। लेकिन, सुबह का संकल्प शाम तक ऐसे ही कमजोर पड़ जाता है। पता नही सुबह का भूला शाम को आने वाली कहावत इस पर लागू कर भी सकते हैं कि नहीं।


कबीर संजय

शाम होती जाती है। दिन भर की सर्दी-गर्मी, रोजी-रोटी दिमाग पर तमाम ऐसी परतें चढ़ा देती है कि उस तरफ कदम खुद ब खुद चल पड़ते हैं, जिधर दुकान होती है। सारे संकल्प ऐसे पिघलते हैं जैसे जरा सी आंच पाकर घी। ऐसा ही उस दिन भी हुआ। पिछली रात ज्यादा हो गई थी। नशे में नींद आ गई। पर नशे के उखड़ने के साथ ही नींद भी उखड़ गई। नशा चाहे कोई भी हो, उसका उखड़ना आदमी को तोड़ देता है। अधनींद में ही अपनी सौ-सौ लानतें-मलामतें करने लगा। आखिर जरूरत क्या है इतनी पीने की। अब क्या तुम रोज पीयोगे। ऐसी क्या आग लगी है। सेहत तो जब खराब होगी. तब होगी। इतना पीने के लिए पैसे भी तो चाहिए। मर जाओगे। रात घर लौटते समय कदम भी ठीक से उठ नहीं रहे थे। मेट्रो में अक्सर ही लोगों की उल्टियों के निशान दिखाई पड़ जाते हैं। खुद तुम्हारी भी हालत ऐसी ही होने वाली है। उल्टियों से सने, गिरे पड़े होओगे कभी। लोग नाक-भौं सिकोड़ते, मुंह फेरकर निकल जाएंगे।
जाहिर है कि मन जब अपने ही मन को इतनी मलामतें देने लगता है तब मन के पास कोई बचाव भी नहीं रहता। तो सुबह उठते-उठते यह संकल्प तो पक्का हो गया। कि नहीं, अब नहीं। इतनी कभी नहीं। ऐसे रोज-रोज नहीं। कभी-कभार पिया करेंगे। वो भी दोस्तों के साथ। ऐसे अकेले-अकेले बैठकर नहीं। ऐसे ही इंसान पियक्कड़ हो जाता है। उसके पतन की शुरुआत हो जाती है।
पर शराबी की कसम दोपहर भर से ज्यादा टिकती है कहीं। दफ्तर खत्म हुआ तो कदम खुद ब खुद उसी तरफ बढ़ चले। खुद को मन में समझाता भी चल रहा था। नहीं, पीना नहीं है। थोड़ी देर बैठकर राम झरोखे जग का मुजरा देखेंगे। फिर चले जाएंगे। अक्सर ही घर इतना ज्यादा आकर्षित नहीं करता कि कदम खुद ब खुद उसकी तरफ चले जाएं। कनॉट प्लेस के एन ब्लाक के मिड सर्कल में शाम होते ही कई अंधेरे कोने अपनी बदमाशियों से रौशन हो जाते हैं। बीयर की बोतल अपने मुंह में लगाए कोई किसी खंबे की ओट लिए खड़ा है। शर्मदार को तिनके की ओट काफी होती है। जो शर्मदार नहीं है। उन्होंने खुले में अपना बार भी सजा लिया है। प्लास्टिक के गिलास में जब व्हिस्की का वो खास रंग उतरता है, तो पीने वालों की आंखों में खुशियों की कलियां खिलने लगती हैं। हर किसी का अपना तरीका है। मेरा तरीका भी अपना है। शराब की दुकान में भीड़ ऐसी थी कि अगर आज नहीं खरीद ली तो पता नहीं कल से शराब मिलेगी भी कि नहीं। धकियाता हुआ हर कोई पहले अपना पैसा पकड़ाने और अपनी मनचाही बोतल हासिल करने की फिराक में था।
अपने को भी आदत है। किसी न किसी तरह पैसा पकड़ाकर अपना वाला हासिल कर ही लेते हैं। वोदका का एक क्वार्टर लिया। बगल की दुकान से पानी की बोतल। बोतल से थोड़ा पानी खाली करने के बाद वोदका उसी में उड़ेल दी। बस अब यह पैग तैयार हो गया। उसी के घूंट चटकते हुए कनॉट प्लेस की एक बेंच पर आकर बैठ गया। अपना मजाक उड़वाने में भी मजा कुछ कम नहीं। खासतौर पर जब अहमन्यता एक स्तर के ऊपर चली जाए। सामने फर्जी कैफे का बोर्ड लगा है। बताइये फर्जी कैफे। क्या कॉफी भी फर्जी होगी। एक तिकोने पर माई बॉर का बोर्ड भी दिख रहा है। कनॉट प्लेस के सस्ते बॉर में इसका नाम भी शामिल है। इसलिए हमेशा ही भीड़ लगी रहती है। कई बार तो सीट के लिए बाहर लोग इंतजार भी करते हैं। खैर अपने को क्या। अपन तो बोतल से घूंट-घूंट वोदका चसकते जा रहे हैं और राम झरोखे बैठकर जग का मुजरा देखते जा रहे हैं।
शराब की तासीर भी सब पर अलग-अलग होती है। हमारे लिए तो इसकी तासीर खासी बुरी है। इधर ढक्कन खुला नहीं, उधर आंखों में खुमारी लोटने लगती है। दो-चार घूंट के बाद दिमाग इन टू द हैवेन हो जाता है। सारी दुनियावी चिंताएं काफूर होने लगती है। अरे साला, हम ये सब सोचने के लिए नहीं है। जो होगा, देखा जाएगा। ये दुनिया साली पीतल की है, बेबी डॉल मैं सोने की। इसके चक्करों में पड़ोगे तो यूंही मरते रहोगे। हर दिन। इसलिए ज्यादा सोचने से क्या होगा। मेरे साथ-साथ सीपी के माहौल में भी खुमारी छाने लगी थी। सामने जमीन पर पोस्टर बिछाकर बेचने वाला बैठा था। एक लड़की उसमें से हर एक पोस्टर को हाथों से उठा लेती। आंखों से उसे तौलती। हाथों से उसे तौलती। फिर खुद तौलकर अपने प्रेमी को पकड़ा देती। प्रेमी इसलिए कह रहा हूं कि पति तो शायद ही इतने धैर्य के साथ इस पर तवज्जो दे पाता। प्रेमी उस पोस्टर को लेकर आंखों ही आंखों में तौलता रहता। कैसा लगेगा। तब तक लड़की की पसंद बदल चुकी होती। अब वो दूसरा पोस्टर उठाकर अपनी नजरों और हाथों से तौलने लगती।
पीछे कनॉट सर्कल की पार्किंग में एक जोड़ा कार की डिक्की से अपनी कमर टिकाए हुए था। कोई चौदह-पंद्रह साल की लड़की ने खूब डार्क लिपिस्टिक से अपने होंठ रंगे हुए थे। बाल खुले हुए। माथे पर आ जाने वाली जुल्फों की एक लट को बार-बार झटककर वह पीछे करना नहीं भूल रही थी। बीस-बाइस साल का युवक उसके हाथों को अपने हाथों में पकड़े हुए था। बीच-बीच में वह उसके गालों को हाथ में लेकर चिकोटियां सी काटने लगता था। दोनों एक दूसरे में डूबते जा रहे थे। लड़की को फुसलाने की कवायद में लड़का सफल होता जा रहा था। दोनों कभी गले भी लग जाते और देर तक एक-दूसरे से चिपके रहते। उनके पैर और कमर भी एक-दूसरे से चिपकते जा रहे थे। दूर खड़े दो लड़कों की निगाह सीपी में बस उन्हीं टिकी हुई थी। सिगरेट को अपने हाथों में लेकर वे उसके कश ऐसे भर रहे थे और धुआं ऐसे छोड़ रहे थे कि लगता था कि बस आह ही निकल जाएगी। उनसे बेखबर लड़का और लड़की का फेवीकोल और मजबूत होता जा रहा था। तभी उधर से गुजर रहे दो-तीन लड़कों के समूह ने थोड़ा तेज आवाज में फिकरा कस दिया, यहीं पर दे दोगी आज तुम। घर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ले भाई। ले-ले, जब देने को तैयार ही बैठी है तो।
जोड़े ने उनकी बातों पर कान नहीं दिया। उत्तेजना से दोनों के गाल सुर्ख होकर तपने लगे थे। इस रंग के बाद उनपर कोई दूसरा रंग इतनी जल्दी कैसे चढ़ जाता।
रामझरोखे बैठकर मैं जग का यह सब मुजरा देख ही रहा था कि एक सज्जन मेरी बेंच पर मेरी बगल में आकर बैठ गए। कुछ देर आस-पास देखकर कसमसाते रहे। फिर मेरी बोतल की तरफ इशारा करके बोले—
सर, थोड़ा पानी मिलेगा।
पानी नहीं है भाई ये, मैं बोला।
पानी, बोतल है तो जी।
हां, बोतल है लेकिन पानी नहीं है।
तो क्या है।
वोदका है।
ओह-हो। वोदका है।
जानकर शायद उन्हें कुछ हैरत हुई। गौर से बोतल को देखते रहे। मैंने अपनी बोतल उठाई और उसका एक घूंट और चढ़ा लिया। वोदका की कुछ बूंदों ने मेरे होठों को भी भिगो दिया था। मैंने अपनी जीभ फिराकर उसे भी चाट लिया। शराब का कोई भी कण बेकार क्यों जाने दूं। इससे उनको भरोसा हुआ।
कुछ भी कहो, लेकिन आप सच बोलने वाले आदमी हैं। नहीं तो आप झूठ भी कह सकते थे।
भाई आप से झूठ बोलकर मुझे क्या फायदा। आप मुझसे पहली बार मिले हैं। जीवन में दोबारा कभी आप से मुलाकात होगी कि नहीं इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। पता नहीं कभी ऐसा संयोग बनेगा कि नहीं कि आप और मैं दोनों एक ही बेंच पर बैठें हो। फिर मैं आपसे झूठ बोलकर क्या करूंगा। झूठ तो आदमी उससे बोलता है जिससे कुछ फायदा हो या नुकसान। आप से मेरा क्या नफा नुकसान।
मेरी साफगोई उनको और पसंद आई।
वैसे आप करते क्या हैं।
नौकरी। इस तरह के सवालों पर मेरा जवाब संक्षिप्त ही रहता है।
कहां पर।
एक प्राईवेट कंपनी में।
यहीं दिल्ली में रहते हैं।
हां, जी। हूं तो बाहर का लेकिन अब तो दिल्ली का ही हो गया हूं।
कुछ ही देर में साहेब को समझ में आ गया। दरअसल, इन टू द हैवेन होने के बाद दार्शनिक सवालों पर चाहे जितनी भी चर्चा कर लो मुझसे, लेकिन ये छोटे-छोटे, टुटपूंजिया-दुनियादारी वाले सवाल मुझे कतई पसंद नहीं थे। कि कहां काम करते हो। कितना पैसा पाते हो। घर कितना बड़ा है। अरे सालों, छोड़ों इन सब बातों को। इसके आगे भी दुनिया है। खुशी पैसे से नहीं मिलती। पैसा तो केवल माध्यम है। वह परिणाम नहीं है। पैसा खुशी नहीं है। खुशी तो वह है जो उस पैसे से खरीदी जाने वाली है। जहां से तुम्हारी ये टुच्चई खतम होती है, खुशी वहां से शुरू होती है। लेकिन, अब कौन समझाए। ये स्साले तो वही पीतल वाली दुनिया के ही पीछे पड़े रहेंगे। खैर साहब उठकर वहां से चले गए। मेरे संक्षिप्त जवाबों से उन्हें समझ आ गया कि यह आदमी तो अजीब किसम का ढक्कन है। तारीफ करने पर भी नहीं खुलता।
उनके जाने के बाद मैंने फिर से जग का मुजरा देखने की तरफ ध्यान लगाना शुरू किया। अपने पूरे हरामीपने के साथ सिगरेट के कश खींचने वाले दोनों नौजवान वहां से जा चुके थे। पोस्टर देख-देखकर तौलने वाली लड़की अपने प्रेमी के साथ अभी भी एक पोस्टर तौल रही थी। प्रेमी बड़े धैर्य के साथ उसका हैंडबैग अपने कंधों पर लटकाए, पोस्टर छांटने में उसकी मदद कर रहा था। अब तक जितने पोस्टर उसने देखे थे, अगर वो सारे पोस्टर वह लगा देती तो शायद उसके घर की कोई दीवार खाली नहीं रहती। लोगों के ज्यादा उत्तेजक और अश्लील फिकरों से तंग आकर कार की डिकी से कमर टिकाकर एक-दूसरे में सिमटने वाला जोड़ा वहां से जा चुका था। उसे कोई और जगह तलाश लेनी होगी। यहां पर तो लोग बिना पैसे की फिल्म देखने पर उतारू हो गए हैं।


कनॉट प्लेस


कई बार दृश्य खुद अपनी एकरसता से ऊब जाते हैं। सबकुछ चलते-चलते ब्रेक हो जाता है। कनॉट प्लेस की उस सुहानी शाम को भी कुछ ऐसे ही टूटना था। भाई, हम तो अब तक सातवें आसमान में पहुंच चुके थे और दुनियादारी से हमें खास मतलब रह नहीं गया था। हम तो कभी इधर देखते तो कभी उधर। उस दुनिया से ऊपर उठे हुए। जैसे शायद ऊपरवाला हमें देखता होगा। हमारे सुख-दुख से निर्लिप्त। हमें इधर-उधर भागता-दौड़ता देखता। रोता-गाता देखता। वैसे भी किसी ने लिखा है कि करीब से चीजें बड़ी दिखती हैं। जैसे कि अपना दुख। तो भाई, ऊपर उठ जाओ। दूरी ले लो। दुख दूर हो जाएगा। दिमाग इन टू द हैवेन हो जाएगा। निगाहों में कुछ ऐसी दिलचस्पियां तलाशों।
अचानक से दृश्य बदल गया। फर्जी से आगे चलकर जहां पर सड़क कनॉट सर्कल में प्रवेश करती है वहां पर अचानक ही शोर-शराबा सा कुछ सुनने को मिला। आसपास के लोग उधर की तरफ ही देखने लगें। हम भी अपने लड़खड़ाते हुए कदमों को संभालते हुए वहीं पर पहुंच गए। दृश्य मारधाड़ से भरा हुआ था। एक सरदार जी ने पहले तो एक फेरी वाले को धक्का दिया। फिर उसे दो तमाचे जड़ दिए। सरदार जी परिवार वाले थे। पत्नी बगल में खड़ी थी। दो बच्चे थे। पत्नी उन्हें कोहनी से पकड़कर वहां से चलने की मनुहार कर रही थी। सरदार जी गुस्से से कांप रहे थे और बोलते-बोलते उनके मुंह से फेन भी निकलने लग रहा था।
स्साले, जा रहा है कि एक और दूं लगा के।
फेरी वाला ढीठ था। नहीं जाऊंगा। क्या कर लेगा।
बदले में सरदार जी ने एक तमाचा और जड़ दिया। बताऊं तुझे।
तू मारेगा मुझे। ले मार। और मार। तेरा पूरा कुनबा मर जाए। तू मर जाए। तेरे बच्चे मर जाएं।
इसके बाद तो सरदार जी जैसे आग बबूला हो गए। उन्होंने उसे कंधे से पकड़कर मुक्के मारना शुरू कर दिया। उनके हर मुक्के पर फेरीवाला चीख पड़ता। तेरे पूरे घर का नाश हो जाए। आग लग जाए। मर जाओ तुम लोग।
इधर सरदार जी का मुक्का चलता। उधर फेरीवाला की बद्दुआ चलती। इधर फेरीवाली की बद्दुआ चलती। उधर सरदार जी का मुक्का चलता। हम अपनी तो क्या कहते। हम जिस हालत में थे, उसमें हम तो कुछ हस्तक्षेप करने की स्थिति में थे नहीं। बहुत ज्यादा समझ में भी नहीं आ रहा था। लेकिन, कुछ लोग अभी भी होश में थे। उन्हीं में से एक आदमी बीच-बचाव में जुटा हुआ था। सरदार जी-प्रा जी कहके संबोधित कर रहा था। हालांकि, उसकी टोन उसके पूरबिया होने की पक्की गवाही दे रही थी।
जाने दीजिए प्रा जी। क्यों छोटे आदमी के मुंह लगते हैं। छोड़ दीजिए।
तो इसको क्यों नहीं समझाते।
अरे इतनी समझ होती तो यहां पर दर-दर फिरता। आप तो पढ़े-लिखे हैं।
सरदार जी को अपने पढ़े-लिखे होने का कुछ होश आया। बद्दुवाओं का कोटा भी काफी ज्यादा हो गया था। पत्नी भी लगातार कोहनी से खीचने की कोशिश कर रही थी। सरदार जी के मुक्के चल रहे थे। लेकिन उनसे बद्दुआओं पर लगाम नहीं लग रही थी। सो, उन्होंने इसे अब बंद कर देने में ही भलाई समझी।
पूरबिया आदमी का प्रा जी कहना काम आया। गोल घेरे में खड़े लोग किसी संभ्रांत आदमी द्वारा की जाने वाली इस तरह की मारपीट पर भी मीनमेख निकालने से बाज नहीं आ रहे थे।
ठीक है छोड़ देता हूं। लेकिन, समझा के रखा करो।
वे चले गए। तमाशा बिखर गया। फेरीवाला वहीं पर एक बेंच पर बैठ गया। उसके होंठों के कोरों से खून की कुछ बूंदे रिसने लगी थीं। लेकिन, उसका ध्यान खून की उन बूंदों पर नहीं था। पूरी नफरत से वह सरदार जी को जाता हुआ देख रहा था। मैं उसके सामने वाली बेंच पर बैठ गया। तमाशबीनों की भीड़ घटनाक्रम पर भी कुछ चर्चा कर रही थी। हुआ यह कि सरदार जी गुब्बारे बेचने वाले एक बच्चे से गुब्बारा खरीदने के लिए मोल-भाव कर रहे थे। बच्चा बार-बार इसरार करके उन्हें गुब्बारा खरीदने के लिए कह रहा था। सरदार जी दस रुपये पर अड़े हुए थे। आखिर निराश होकर बच्चा दस रुपये में ही उन्हें गुब्बारे देने पर तैयार हो गया। तभी दूसरे फेरीवाले ने उसके हाथ से गुब्बारा छीन लिया। बीस का गुब्बारा दस का क्यों बेच रहे हो। उसने गुब्बारे बेचने वाले किशोर को गालियां देते हुए उसे दो तमाचे जड़ दिए।
इस पर सरदार जी का गुस्सा भड़क गया। उन्होंने दूसरे फेरीवाले को तमाचे जड़ दिए। बाद का किस्सा तो आपको पता ही है। सामने की बेंच पर बैठा मैं उसे गौर से देखने लगा। बाईस-पच्चीस की उम्र रही होगी। चेहरे पर बेतरतीब दाढ़ी। बाल बिखरे हुए। धूल में फंसे हुए। अपने कंधे पर वह ढेर सारे गुब्बारों की फेरी उठाए हुए था। बड़ी नफरत से उसने वहीं बैठे-बैठे थूक दिया।
तभी उसकी निगाह मेरी बोतल पर पड़ गई। मैं अचकचा गया। उसमें थोड़ी सी अभी बची हुई थी।
सर, थोड़ा पानी दीजिए।
पानी नहीं है ये।
अच्छा पानी नहीं है, कहकर एक बार फिर उसने नफरत से थूक दिया। मैंने मुंह बिचकाया। अब लो, इसमें मैंने क्या गलत कह दिया।
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क्रमशः 



निर्बंध: पांच

घोड़े भी इंसान को कुछ सिखा सकते हैं 

यादवेन्द्र


                                             यादवेन्द्र

अत्यंत लोकप्रिय उपन्यासों के ब्रिटिश लेखक निकोलस इवांस के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म(रॉबर्ट रेडफोर्ड के निर्देशन में 1998 में बनी) फ़िर से देखी -- शायद पाँचवी बार।यह बर्फीले चढ़ाव पर हुई फिसलने से हुई एक दुर्घटना में घोड़े और उस से गिर कर बुरी तरह से घायल हो गयी लड़की के दुबारा उठ खड़े होने के संघर्ष की शानदार कहानी है जिसे मिल कर सम्भव करते हैं लड़की की दृढ निश्चयी माँ एनी मैक्लीन और अड़ियल घोड़ो को ठीक करने वाला पशु मनोवैज्ञानिक सह ट्रेनर टॉम बुकर - भारत  में इनका प्रचलन नहीं है पर पश्चिमी दुनिया में जिन्हें "हॉर्स व्हिस्परर" जैसे बेहद अर्थपूर्ण सम्बोधन से पुकारते हैं ।

दरअसल व्हिस्परर अमेरिकी स्लैंग का कवित्वपूर्ण शब्द है जो उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है जो किसी जानवर से इस हद तक अंतरंग होता है कि दोनों एक दूसरे की भाषा सहज रूप में  समझने लगते हैं। पर  इनकी गिनती शायद दोनों हथेलियों की उँगलियों से ज्यादा न हो।   

"हॉर्स व्हिस्परर" फ़िल्म स्क्रिप्ट के कुछ  अंश
एनी(मैक्लीन) - मैंने इस आर्टिकल में तुम्हारे काम के बारे में पढ़ा - कि तुम उनलोगों के साथ किस तरह का काम करते हो जिनके घोड़ों के साथ कोई समस्या होती है।
टॉम(बुकर)- दरअसल सच्चाई अलग है ...मैं उन घोड़ों के साथ काम करता हूँ जिन्हें उनके मालिकों से समस्या होती है।
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टॉम - जब मैं किसी घोड़े के साथ काम करता हूँ तो उसका इतिहास जानने में पहली दिलचस्पी होती है ....और कुछ गिने चुने मामलों को छोड़ दें तो सभी घोड़े अपनी सारी कहानी खुद बयान  कर देते हैं ….. मेरी दिलचस्पी हमेशा से घोड़े का पक्ष सुनने और जानने में रही है।
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वहाँ एकत्र समूह गर्मजोशी से हँसता है।टॉम ने अपनी बात राल्फ़ लॉरेन के मँहगे कपड़े पहन कर खड़ी महिला (एनी) को सुना कर कही जो घेरे से थोड़ी दूरी बना कर खड़ी थी।
टॉम -यदि यह घोड़ा सनकी था या आलसी था - जैसा तुम कह रही हो - तो हम पहले जाकर उसकी दुम देखेंगे कि वह कैसे हरकत करती है .... और उसके  कान भी देखेंगे। पर मुझे लगता नहीं कि यह कोई सनकी घोड़ा है .... अलबत्ता मुझे यह बुरी तरह से डरा और  घबराया हुआ मालूम होता है। देखो तो उसकी गर्दन की चमड़ी कैसी सिकुड़ी हुई है ,वह यह तय नहीं कर पा रहा है कि जाना किधर है .... ।

एनी  ने सहमति में सिर हिलाया। टॉम पल भर को घोड़े को निहारता है और इस तरह खड़ा रहता है जिस से गोल गोल चक्कर काटते घोड़े के चेहरे की ओर ही लगातार देखता रहे।
टॉम : अब तुम खुद देखो यह कैसे अपने पुट्ठे मेरे सामने कर रहा है ..... मुझे लगता है कि बाड़े से बाहर निकलने में यह आनाकानी इसलिए करता है क्योंकि उसके जख्म दुखते हैं।
एनी : उसको उठने बैठने या घूमने में तकलीफ़ होती है ,तुम देख सकते हो। मैं उसको धीमी चाल से चलाते हुए ऊँची छलाँग की ओर ले जाना चाहती हूँ .... ।
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कौन है असल हॉर्स व्हिस्परर ? 

दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों की फ़ेहरिस्त में शीर्ष स्थान पर रहने वाला निकोलस इवांस का यह  उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" जिस वास्तविक चरित्र पर आधारित है वह हैं डैन बक ब्रेन्नामन। वे बारह वर्ष की अवस्था से घोड़ों के साथ खेलते और चोट खाते रहे हैं - कई बार उनकी जान जाते जाते बची पर उन्होंने सबक यह लिया कि सबसे पहले वह कारण जाना जाये जिसके चलते घोडा अपने सहज बर्ताव से अलग चल रहा है ... एकबार यह मालूम हो जाए तो उसका निदान ढूँढना आसान हो जाता है। डैन बिगड़ैल घोड़ों को किसी न किसी दुर्व्यवहार या हिंसा के शिकार रहे बिगड़ैल बच्चे मानते हैं।वे किसी का भरोसा नहीं करते और उन्हें हरदम अंदेशा होता है कि सामने वाला इंसान आक्रमण करेगा। पर धैर्य , कुशल    नेतृत्व , करुणा और दृढ़ता के साथ इनको अतीत की कु - स्मृतियों से बाहर निकाला जा सकता है। जब घोड़े या कोई भी जानवर मालिक के साथ से सुरक्षित और निडर महसूस करने लगे तब उन दोनों के बीच सही संबंध जुड़ सकता है। घोड़े सामान्य तौर पर क्षमाशील होते हैं - हम अपने जीवन के जिन हिस्सों के खालीपन को खुद नहीं भर सकते घोड़े उन्हें भरना जानते हैं।  वे दरअसल आपको खुश देखना और करना चाहते हैं पर आपको उनके साथ चलना पड़ेगा।
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भारत में "हॉर्स व्हिस्परर" संबोधन पहली बार मैंने हाल में भारत तिब्बत बॉर्डर पुलिस  के सब इंस्पेक्टर मंगल सिंह के संदर्भ में सुना जो इस पुलिस बल के श्रेष्ठ एनिमल ट्रेनर मंगल सिंह माने जाते थे जिनकी  हाल में असमय मृत्यु हो गयी।


अरुणाचल प्रदेश के लोहितपुर एनिमल ट्रेनिंग सेंटर में मंगल सिंह ने सुबह लगभग छह बजे जानवरों का चारा खिलाया और एक घंटे बाद दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई। एक अधिकारी के मुताबिक जानवरों को बिन बताये यह महसूस हो गया था कि उनके प्यारे ट्रेनर के साथ कुछ हुआ है। उन्होंने दोपहर और शाम को खाने की तरफ़ नज़र उठा कर भी नहीं देखा - अगले दिन भी बस नाम मात्र का भोजन किया। मंगल सिंह की कमी उन्हें खल रही है । जानवरों और मंगल सिंह के बीच एक खास किस्म का ‘रिश्ता’ था। खिलाते-पिलाते और ट्रेनिंग के दौरान मंगल सिंह जानवरों से बातचीत भी करते थे।घोड़े मंगल सिंह की भाषा कितनी समझ पाते थे पक्के तौर पर तो यह कहा नहीं जा सकता लेकिन उनके इशारों को वह बखूबी समझते थे। और एक बात जो घोड़ों और मंगल सिंह को जोड़ती थी वह था घोड़ों के प्रति मंगल सिंह का अपार और अंतरंग प्रेम।     

इस से पहले मंगल सिंह तीन वर्षों तक काबुल दूतावास में कुत्तों के स्क्वैड के 9 के प्रमुख थे और कई भयावह दुर्घटनाओं से भारतीयों को बचाने में सफल रहे थे - इस अनुकरणीय और साहसिक कार्य  के लिए उन्हें कठिन सेवा मेडल और फ़ॉरेन सर्विस मेडल से नवाजा गया था।

                          सब इंस्पेक्टर मंगल सिंह

थोड़ा सा भी भिन्न होने पर आसपास के मनुष्यों के प्रति बढ़ती  जाती  घृणा और असहिष्णुता के इस दुः समय में इंसान और घोड़ों के ऐसे  अप्रतिम प्रेम और साझेपन के उदाहरण बुनियादी मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा भरोसा पैदा करते हैं - आखिर हमें  मारकाट से अमन चैन की तरफ़ लौटना ही होगा।





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निर्बंध: चार नीचे लिंक पर पढ़िए

पहनावे और विचार का गहरा रिश्ता
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_4.html?m=1



मीडिया और समाज : नौ


मनोरंजन : ध्वनि और छवियों का बाजार और मीडिया

संजीव जैन

आज मनोरंजन एक उद्योग है जो हम तक ध्वनि और आभासी छवियों के बाजार के रूप में पहुंचता है। अब हम तकनीकी मनोरंजन के दौर में हैं। एक कृत्रिम, आभासी और बिना सहभागिता के मनोरंजन के द्वारा निर्मित समाज का निर्माण कर रहे हैं। आज की किशोर और युवा पीढ़ी अस्वस्थ मनोरंजन के नशे में चूर है। मनोरंजन जो चौबीसों घंटे उपलब्ध है, पर जो चित्तवृत्तियों और तन को स्वस्थ (हेल्दी)नहीं बना रहा बल्कि बीमार, तनावपूर्ण और मोटा बना रहा है।



मानवता के विकास के आरंभ से ही मनोरंजन शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का एक साधन था चूंकि तकनीकी मनोरंजन युग से पहले मनोरंजन उद्योग नहीं था, मनोरंजन एक प्रत्यक्ष सहभागिता के साथ ही संभव होता था। खेल या दृश्य कोई भी माध्यम हो हमारी भौतिक और मानसिक सहभागिता जरूरी थी। सदेह सहभागिता से शारीरिक और मानसिक विकास होता था। व्यक्ति सामूहिक जीवन की कला सीखता था। बच्चे साथ साथ रहने के मूल्यों और संवेदनाओं को अपने अंदर विकसित करते थे। खेल जो मनोरंजन का सबसे सशक्त और एक महत्वपूर्ण साधन था सहभागिता के नियमों से संचालित होता था। सहभागिता के नियमों और निर्देशों को सहभागिता करने वाले स्वयं बनाते और लागू करते थे। वे सामूदायिक संघर्ष और समन्वय के सिद्धांतों को प्रत्यक्ष रूप से सीखते थे। मनोरंजन खेल के शारीरिक और मानसिक दोनों आयामों को साथ साथ विकसित होने देता था। दैहिक और मानसिक अन्विति जीवन की धूरी होती है। तकनीकी और कम्प्यूटराइजड मनोरंजन और खेल के साधन इस अन्विति को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं।

तकनीक द्वारा निर्मित मनोरंजन के साधन अस्वाभाविक रंग और ध्वनियों का संयोजन होता है। यह संयोजन हमारे मस्तिष्क की क्रियाविधि पर प्रभाव डालता है यह प्रभाव अक्रिय प्रभाव होता है। यह दैहिक सहभागिता के बिना का प्रभाव होता है। यह सिर्फ उत्तेजना पैदा करता है। तनाव पैदा करता है। स्नायु तंतुओं पर कोई रचनात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। तकनीकी और यांत्रिक सक्रियता हमारी संवेदनात्मक सूचनातंत्र को तबाह कर देती है। चूंकि कम्प्यूटराइजड खेल और इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम पर जो मनोरंजन उपलब्ध है दूसरों के द्वारा प्रोग्राम्ड है, इसलिए उसमें शारीरिक और मानसिक सक्रिय भागीदारी संभव नहीं है। खेलने वाले की मानसिक भागीदारी भी अनुकरणमूलक होती है जो सुनिश्चित आने वाली दशाओं या स्टेजेज को देखता रह जाता है उसकी कोई योजना या रणनीति की वहां कोई आवश्यकता ही नहीं होती। पूरा गेम या कोई भी मनोरंजन कार्यक्रम पहले से विशिष्ट मानसिक स्थिति के लिए तैयार किया गया होता है। इस तरह संचार माध्यमों पर मनोरंजन एक अनुकूलन के लिए प्रोग्राम्ड किया गया होता है।

आभासी खेल मनोरंजन के सबसे ख़तरनाक साधन हैं। ब्लू व्हेल गेम ने यह सिद्ध कर दिया कि मनोरंजन के इस साधन की मानसिक अनुकूलन की क्षमता कितनी खतरनाक है। सैकड़ों लोगों ने आत्महत्या कर ली। यह मानसिक अनुकूलन का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह सभी आभासी खेलों पर लागू होता है। चूंकि आभासी खेल ज्यादातर बच्चे या किशोर - युवा खेलते हैं। उनको एक विशिष्ट तरह के अनुशासनात्मक  नियमों के तहत व्यवस्था के प्रति अनुकूलित कर दिया जाता है। अप्रत्यक्ष आभासी तकनीकी खेल और मनोरंजन के अन्य तरीकों का इस्तेमाल करने वाले लोग अपने वास्तविक जीवन के प्रति पजेसिव हो जाते हैं। उनमें एक सहज स्वीकार्य का भाव आ जाता है। वे पारिवारिक और भौतिक संबंधों के प्रति निष्क्रिय और संवेदनहीन संबंध बना लेते हैं। उनमें उत्सुकता और जिज्ञासा का भाव खत्म होता जाता है यथार्थ और वस्तुगत जीवन के प्रति। घरेलू खाने-पीने के प्रति उदासीनता और बाजारू गतिविधियों के प्रति सक्रियता एक बड़ा उदाहरण है। कम्प्यूटराइजड और नेटवर्क आधारित मनोरंजन प्राकृतिक और स्वाभाविक मनोवृत्तियों को तकनीकी बना देता है। स्वाभिक रंग अपदस्थ हो जाते हैं, कृत्रिम रंग हमारे बाहरी और दैहिक जीवन पर छा जाते हैं। बालों का स्वाभिक रंग अब गंदा लगता है, चेहरा अपने वास्तविक रूप में बदसूरत है, बिना फेसियल के, आंखों के वास्तविक रंग चेहरे पर शोभा नहीं देते। तमाम जीवन कृत्रिम रंगों से पुत गया है। यह मनोरंजन के तकनीकी साधनों के लगातार प्रयोग से ही संभव हुआ है।
कम्प्यूटर आधारित मनोरंजन ध्वनि और छवियों की श्रृंखला बनाता है। यह अत्यंत जटिल तकनीकी संयोजन है। इस संयोजन में मानव मस्तिष्क को अनुकूलित करने की तकनीकी क्षमता होती है। इन छवियों और ध्वनियों को स्वाभाविक ध्वनि और छवियों की तरह बनाने का प्रयास किया जाता है। इस प्रयास में हमारी रंगों और ध्वनियों को संवेदनीय बनाने वाली चेतना कृत्रिम निर्मित के प्रति अनुकूलित होती जाती है और स्वाभाविक के प्रति अन-अनुकूलित। इस तरह मनोरंजन एक उत्पाद की तरह, एक वस्तु की तरह हमारे जीवन के खाली समय और स्थान को घेरकर उसे कृत्रिम बना देता है।

तकनीकी मनोरंजन के साधनों ने बच्चों और युवाओं की सहनशक्ति और प्रतिरोध की क्षमता को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है। असफलता को सहने की मानसिक और शारीरिक क्षमता जो प्रत्यक्ष सहभागिता वाले मनोरंजन से मिलती थी वह अब जीवन से नदारद है। यही कारण है कि परीक्षाओं में जरा सी असफलता उन्हें आत्महत्या तक ले जाती है या अवसाद में ढकेल देती है।

मनोरंजन एक संपूर्ण दैहिक और मानसिक गतिविधि होनी चाहिए। परंतु अब ऐसा नहीं है। अब जो मनोरंजन लगातार परोसा जा रहा है वह ध्वनि और छवियों के तकनीकी प्रभावों के द्वारा निर्मित है। यह प्रभाव हमारे श्रृव्य और दृश्य इंद्रियों पर लगातार दुष्प्रभाव डालता है। यह कृत्रिम ध्वनि और छवियां जीवन की वास्तविक आवाजों और व्यक्तियों के प्रति उदासीन बना देता है।
००

मीडिया और समाजः आठ नीचे लिंक पर पढ़िए
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परखः दस

एक कवि अपनी हथेली पर कश्मीर रखता है!

गणेश गनी


गणेश गनी

उस शाम ढालपुर में चलते चलते तुम्हारे पांव अचानक रुक गए, तुमने एक विशाल पेड़ की टहनी को छुआ, गोया कोई अपने सबसे करीबी को छूता हो। एक पत्ता तोड़कर अपनी हथेली पर रखा और फिर आंख बन्दकर उसे इस कद्र चूमा, जैसे कोई अपनी मिट्टी को चूमता है। उस पत्ते की खुशबू पहचानी। दरअसल तुमने हथेली पर रख उस कश्मीर को चूमा जिससे तुम्हारा एक ऐसा रिश्ता है जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है-

मैंने हब्बाकदल से
झेलम में देखा
मन्द मन्द बहता हुआ
चिनार का हरा पत्ता
मैंने साथ साथ बहकर पढ़ी
उस पर लिखी
खुली धड़कन।

यह चिनार का पेड़ अचानक तो नहीं उगा कहीं अभी अभी, पहले हमारी नज़र क्यों नहीं गई इस पर रोज़ आते जाते? इधर तो देवदार के पेड़ हैं, जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, जबकि यही देवदार हमारे घरों के अंदर तक हैं, हमारे बिस्तर के नीचे भी। जबकि तुम्हारे कदम यहाँ पड़ते ही चिनार एकदम प्रकट हुआ सामने-

सदियों से
हम उखड़कर अपनी ज़मीन से
पर्वतों के उस तरफ
जा बसते हैं।

परंतु नहीं निकल पाते हम
चिनार की सौंधी स्मृति से
हम जहां जाते हैं, चलता है आसमान में
चाँद की तरह साथ साथ
और घर नहीं लौटता चिनार।

कवि ने हमें बताया कि कुल्लू में बसा यह पेड़ दरअसल कश्मीर का चिनार है। अग्निशेखर भाई यह वही चिनार है जिसके पूर्वज कश्मीर में हैं। इसे तो एक चिड़िया यहां लाई थी। तब, जब चिनार संकट में थे, चिनार काटे जा रहे थे, जलाए जा रहे थे, उनसे ब्लात्कार हो रहे थे। उस वक्त एक चिड़िया अपनी चोंच में एक बीज दबाए उड़ी और  उन्चासों हवाओं ने उसका भरपूर साथ दिया। इधर वर्षा ज़मीन को नम बनाने में जुटी थी-

छलनी छलनी मेरे आकाश के ऊपर से
बह रही है
स्मृतियों की नदी

ओ मातृभूमि!
क्या इस समय हो रही है
मेरे गाँव में वर्षा।

जवाहर टनल कवि ने उस स्याही से लिखी है जो अब किसी कलम की नोक पर नहीं मिलेगी। इस कविता में पीड़ा है, पीड़ा है, बस केवल पीड़ा है-

हमारे सिकुड़े शरीरों के अंदर दबे कोलाहल में
छिपी बैठीं
लहूलुहान स्मृतियां इस समय
क्यों जाग रही थीं
गीले अंधेरे में
शून्य में उभर रही थीं
बलात्कृत हो रही
छटपटाती बिलखती
हमारी बहनें।

शिमला में एक साहित्यिक गोष्ठी में अग्निशेखर आए थे । मैंने अजेय से कहा कि क्या अग्निशेखर कुल्लू आ सकते हैं । कुल्लू में भी दोएक कार्यक्रम पहले ही तय थे। अजेय ने कहा - तुम बुलाना चाहते हो तो मैं आग्रह करूँगा और वो टालेंगे नहीँ ।
मैं बहुत खुश हुआ । अग्निशेखर तुरंत मान गए । यह मई 2012 के दिन थे । यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी । इसके बाद अग्निशेखर का कुल्लू से नाता जुड़ा और हमारे कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते रहे । इस बीच नौ मई 2014 को लिखा उनका एक पत्र आया-

प्रिय गणेश गनी,

तुम्हारे जैकेट को तुम तक वापस पहुंचाने के लिए मेरी अलमारी में कितना इन्तजार करना पड़ा ! कुल्लू से जम्मू तक की उस ठंडी रात में बस-यात्रा में इसने मुझे कितनी आत्मीय ऊष्मा दी , मुझे ठिठुरने से बचाया , तुम्हारे प्यार , तुम्हारी संवेदनशीलता को निरंतर मेरे अंदर जगाए रखा ।
साल भर जब जब में अलमारी खोलता , कपड़े निकालने के लिए हाथ बढ़ाता तो इसी जैकेट को छुए बिना नहीँ रहता । इसे छूने और देखने से लगता तुम्हें देख रहा हूँ । तुम्हारी भाव - प्रवणता से महक उठता ।

तुमने मेरी एक कविता ' एक दोस्त का गरम कोट ' शायद पढ़ी हो । उस गरम कोट का भी ऐसा ही प्रसंग है । कश्मीर से विस्थापन के वर्ष 1990 में जबकि जम्मू पहुंचकर ठण्ड और बरखा के दिनों में मेरे पास कोट नहीँ था । एक दोस्त शैलेन्द्र ऐमा ने अपना कोट पहनाया था ... उसे पहने मैं डेढ़ - दो महीने तक जम्मू शरणार्थियों की बस्तियों में , जलूसों , जलसों में घूमता रहा । उस गरम कोट से मेरी स्मृतियाँ जुड़ी हैं ।
मैंने उस गरम कोट पर कविता लिखी । सम्भव है कभी मैं तुम्हारे जैकेट पर भी लिखूं । यह मुझे देर तक हाँट करता रहेगा ।

अपने जैकेट की जेबों में हाथ डालकर देखना ... मेरी संवेदनशीलता के दस्तावेज मिलेंगे । तुम्हारे जैकेट की जेबों में मैंने ठूंस ठूंस कर कविताएं  रखी हैं ।
ज़हीन को भी सुनाना । भाभी को भी ।
स्नेहांकित
अग्निशेखर
जम्मू , 9.5.2014

तुम्हारे शहर से जाऊंगा एक दिन चुपचाप
सब कुछ यहीं छोड़कर
मेरे साथ जाएगी अलबत्ता
तुम्हारे गर्म कोट की याद।

कितने मौसम हैं उस कोट की जेबों में
जिसके साथ खेलती रहती हैं
मेरी उंगलियां
उदास लम्हों में
मेरी आत्मकथा के कुछ तुड़े मुड़े नोट्स
ताबीजों की तरह पड़े हैं
निर्वासन के अंधेरे कोनों में यहां।

अग्निशेखर की कविताएं मेरी जेबों से पक्की चिपक गई हैं, साथ साथ चलती हैं, जहां जहां रास्ता मुश्किल हो तो मेरा हाथ थाम लेती हैं। आराम करने बैठूं तो किस्से सुनाती हैं ये कविताएं और मुझे झट से उठकर चलना पड़ता है। मेरी सांसें तेज़ तेज़ चलने लगती हैं, समय भी मुझे छलने लगता है-

खुला था आसमान सुरंग से बाहर
और
हम उतरे पर्वतों से शरणार्थी कैम्पों में
फैल गए संविधान के फफोले तंबुओं में
बिलबिलाए कीड़ों की तरह
जलूसों में
धरनों में
हम उछले नारों में
दब गए अत्याचारों में।


अग्निशेखर की कविता आपको जगाए रखती है। यह पीड़ा से गुजर कर निकली आह जैसी होती है, दर्द को छुपाए रहती है-

हम जब लिखते हैं कविताएं
तो हंसते हैं ईश्वर
उधर पागलों ने छीन ली है
उसकी हंसी
पागल लिखते नहीं
जीते हैं कविताएं
और हंसते हैं ईश्वर पर।

कवि ने कठिन दिन जिये हैं, कठोर यथार्थ भोगा है।  अग्निशेखर संवेदनाओं और स्मृतियों से सराबोर कवि हैं-

मैं इस तारीख का क्या करूँ
पहुँचता हूँ बरसों दूर मातृभूमि में
सीढ़ियों पर घर की
फैल रहा है खून अभी तक
मेरी स्मृतियों में।

कवि की कविताएं हमारे समय की कविताएं हैं, इनका एक एक शब्द आप महसूस कर सकते हैं। विद्रोही तेवर की कविताएं अग्निशेखर की पहचान है-

अगर तुम नींद में नहीं चल रहे हो
तो जरूर कहीं सोए पड़े हो
और इस समय जागे होने का
सपना देख रहे हो।


अग्निशेखर की एक लंबी कविता का एक अंश यहां देना इसलिए आवश्यक लगता है कि यह पढ़ने से बहुत सारी बातें साफ़ होंगी कि क्या क्या खोया, क्या क्या ज़ुल्म सहे, क्या क्या हुआ जो टाला जा सकता था-

हर वर्ष 19 जनवरी के साथ बदलता है हमारा निर्वासन संवत्
हम न चाहते हुए भी
पहुँचते हैं 1990 की उस भयावह
हुआँ हुआँ करती घनी अंधेरी रात में
यह अंतिम रात थी
हमारे सामूहिक  लोकगीतों की
हमारे तीज त्योहारों की
हमारे अडोस पड़ोस के साझा दुख सुख की
यह अंतिम रात थी
जैसे प्राचीन पुलों के नीचे से
वितस्ता के बहने की
यह अंतिम रात थी
हमारे आँगनों में बर्फ के गिरने की
यह अंतिम रात थी
चिनारों के नीचे जाकर बैठने की
यह अंतिम रात थी।
 ००

परखः नौ को नीचे लिंक पर पढ़िए
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26 जुलाई, 2018

मैं क्यों लिखता हूं?

संजीव जैन

मैं लिखता कहां हूं? बस कुछ क्षण अपने तईं  जीने की कोशिश करता हूं। इस मरते हुए रचनात्मक समय में लेखक को हर क्षण मरना पड़ता है। लेखक के बतौर जीने का अर्थ है किश्तों में खुदकुशी करना। कम से कम मैं तो हर कविता या लेख के बाद एक नई जिंदगी को महसूस करता हूं। यह नई जिंदगी महसूस करने का अर्थ ही है कि उसके पहले का मैं मर चुका है।

संजीव जैन

भूख के लिए लिखना भूख से मरने वालों का अपमान है। बतौर लेखक मैं भूखा नहीं हूं। रोज रोटी मुझे मिल जाती है आराम से दोनों समय। तो मैं भूख के लिए नहीं लिख सकता जैसा तेजिंदर ने काला पादरी भूख से मौत का सामना करते हुए लिखा। मैंने इस तरह भूख को कभी महसूस नहीं किया इसलिए मैं काला पादरी नहीं लिख सकता। भूख एक भौतिक सच्चाई है। इस भौतिक ठोस कमीनी सच्चाई पर जिन लोगों ने कब्जा कर रखा है उनके इस अप्राकृतिक अधिकार को मैं रोज अपने मस्तिष्क पर महसूस करता हूं और यही कारण है कि मैं भूख पर नहीं भूख के शत्रुओं पर लिखता हूं। तो मेरे लिखने का कारण एक भौतिक, ज्यादा ठोस कारण है।
मैंने बतौर एक स्त्री के बलात्कार को नहीं झेला इसलिए मैं उस दरिंदगी की पीड़ा को नहीं लिख सकता और नहीं लिखता हूं कभी‌। मैं उस कारण की वास्तविकता जानता हूं जिसके चलते मेरे जैसा एक पुरुष बलात्कारी हो जाता है। मैं हमेशा स्वयं को एक बलात्कारी की वजह के बतौर महसूस करता हूं और इसलिए मैं उस वजह की जड़ में मट्ठा डालने के लिए लिखता हूं।
प्रेम को एक अलौकिक अमूर्त आध्यात्मिक प्रत्यय के बतौर मैंने कभी महसूस नहीं किया। मैं एक भौतिक तत्त्व की तरह प्रेम को सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त देखना चाहता हूं और महसूस करता हूं इसलिए मैं प्रेम को दैहिक चेतना की आंतरिक अन्विति की तरह लिखता हूं और उसे इसी रूप में जीना चाहता हूं। प्रेम के वायवी आयामों ने स्त्री पुरुष को पृथक कोटियों में कैद कर दिया। यह कटघरे बलात्कार का एक महत्वपूर्ण कारण हैं। इसलिए मैं प्रेम को हरियाली की तरह सम्पूर्ण जीवन जगत में महसूस करने के लिए लिखता हूं।
मैं क्यों लिखता हूं ? इसे मैं इस तरह कह सकता हूं कि मैं एक स्थाई मौत नहीं मरना चाहता। मैं अपनी मौत को ठोस सच्चाई के बरक्स एक तरल अनुभूति की तरह फैला देने के लिए लिखता हूं। और यही कारण है कि मैं लेखक के बतौर रोज मरता हूं।

लेखक की मौत

मैं एक लेखक के बतौर रोज मरता हूं। मैं जब लिखने के लिए उठाता हूं कलम, मेरी अब तक  सीखी गई भाषा साथ नहीं देती। मुझे लगता है जैसे मैं शब्द और भाषा के श्मशान में हूं। कोई भी शब्द जिंदा नहीं महसूस होता है। वाक्य मरी हुई संज्ञा, सर्वनाम और क्रियाओं का निरर्थक समूह लगता है।
मैं एक लेखक के बतौर रोज मरता हूं। जब मैं लिखना चाहता हूं सत्ता के खिलाफ क्रांति और नहीं लिख पाता लोगों की दास मनोवृत्ति में जीते रहने की स्वीकृति के कारण।
मैं एक लेखक के बतौर रोज मरता हूं। उस वक्त जब लेखन पुरस्कार और वाहवाही के लिए लोमड़ी भाषा का इस्तेमाल करने लगता है।
मैं रोज मरता हूं एक लेखक के बतौर जब लेखन पूंजी की ललमुनिया के पीछे लपकता है और लेखक आलोचक सब प्रकाशक के इशारों पर बंदर की तरह नाचने लगते हैं।
मैं एक लेखक के बतौर उस वक्त मृत्यु का शिकार हो जाता हूं जब लेखन जीवन और जगत की गहरी समझ और अनुभूति के बिना संभव होता है।
इस तरह का लेखन अंततः पाठक की मौत का कारण भी बन जाता है। पाठक गहरी विवेचना नहीं करता परंतु उसकी चेतना ग़लत दिशा में सक्रिय होती जाती है इस तरह एक मृत पाठक समूह साहित्य के रंगमंच पर छाया रहता है। फिर लेखक से अपेक्षा की जाती है कि इस पाठक की समझ के अनुकूल लिखे। यह भी मेरे जैसे लेखक की मौत बन जाती है। पाठक को भाषा की समझ के प्रति लगातार असावधान रखा जाता है और फिर लेखक से अपेक्षा होती है कि वह उस भाषा में लिखे जो यह पाठक समझता हो।
जीवन और जगत के बीच संबंध आसान और सरल हैं ?
जटिलता, उलझाऊपन, गुंथे हुए जीवन को आसान भाषा में कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है? यह अपेक्षा लेखक की बतौर लेखक मृत्यु का कारण बन जाती है।

अर्थ को केंद्र से विस्थापित करने के लिए लिखता हूं

लेखन का संबंध है ज्ञान और चेतना से न कि सुविधाओं और सुख से। मैं स्वयं को अर्थ केंद्रित जीवन से घिरा हुआ महसूस करता हूं। इस घेरे में दम घुटता हुआ महसूस होता है। अपना स्वत्व बेचा खरीदा जाता हुआ महसूस करता हूं हमेशा। रोज सुबह उठते ही स्वयं को बाजार में चौराहे पर बेचे जाने के लिए प्रस्तुत करने के लिए तैयार करता हूं। इस दासत्व का केंद्र है पैसा। मैं सिर्फ उतनी देर स्वयं को मुक्त महसूस कर पाता हूं जितनी देर में लिख रहा होता हूं। तो जीवन के अर्थ केंद्रित चक्रव्यूह में स्वयं को कुछ समय के लिए उससे मुक्त महसूस करने के लिए लिखता हूं।

मैं स्वतंत्र समय को जीने के लिए लिखता हूं

आधुनिक तकनीक द्वारा नियंत्रित समय में ‘खाली समय’ को जिस तरह केपचर किया जा रहा है, वह जीवन के निजी समय को छीनकर पराधीन समय में ले जाने का दौर है। मेरे पास अपना स्वतंत्र कोई समय नहीं है जिसे मैं अपने अनुसार जी सकूं। लेखन का वक्त ही ऐसा वक्त होता है जो मेरा अपना होता है। इस समय में मैं स्वयं को तकनीक के नियंत्रण से मुक्त महसूस करता हूं इसलिए मैं लिखता हूं । निजी समय और निजी जगह के बिना जीवन को जिया जाना कटघरों में कैदी की तरह जीना है और मैं अपने लिखने के समय और लिखने की जगह को मुक्त मानव की तरह महसूस करने के लिए लिखता हूं।
००


संजीव जैन का स्तम्भ - मीडिया और समाज, नीचे लिंक पर पढ़िए

मीडिया और समाजः आठ
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शिवदयाल की कविताएँ



शिवदयाल




ताक पर दुनिया
   
चीजें संभालते
दम नहीं घुटता उसका
जरूरी-गैरजरूरी के बीच
अंतर नहीं करती वह
अपने हिसाब से
सबका बराबर ख्याल रखती है
जब भी दिखती है
क्षमता से अधिक उठाती दिखती है
..कि हम ही उसकी योग्यता
कम आँकते हैं शायद
जबकि यह परम आश्वस्ति का भाव है
कि चीजें ताक पर हैं

यह भी नहीं कि
काई बनी-बनाई चीज ही हो ताक
जिस पर हम
अपनी बुद्धि तक रख छोड़ते हैं
और निश्चिन्त हो रहते हैं
कई बार चीजें और सामान
अपनी औकात भूल
उसकी भूमिका निभाने लगते हैं
और ढोना शुरू कर देते हैं
जैसे - कुर्सी पर किताबें
और उसके ऊपर चाय की प्याली
चौकी पर संदूक
और उसके ऊपर कपड़े-लत्ते..

यह कितना कुछ ढोता चला जा रहा हूँ
दुनिया और दुनियादारी...
जिसे ताक पर रख छोड़ना था
खुद उठाए फिर रहा हूँ
बोझा भारी हो रहा है
कोई आकर कुछ उठा ले जाता
- कुछ जरूरी ....




नंदी का वंशज
       
जा, तू चला जा
अभी कितनी ही योनियाँ बची हैं
फेरे लगाने हैं
अभी तो कितने ही जनमों के
सोच कि तू जनमा ही नहीं!

जीते रहने का विकल्प
कितना त्रासद है
काश तू समझ सकता !
तेरा पुंसत्व ही
तेरा शत्रु ठहरा
ओ अबोध!

हजारों सालों की सहयात्रा का
अंत देखने को ही तू जनमा, तो देख -
यह दोराहा
जहाँ से आदमी और बैल के
अलग हो रहे रास्ते

लेकिन यह क्या वरदान नहीं
कि आदमी को अब बैल नहीं चाहिए ?
कि तेरे पौरुष-कोषों को कूटा नहीं जाएगा
बड़भागा है तू
जो उस पीड़ा, उस क्षोभ
और लाचारी से अनजान रहेगा
तेरे कंधे पर
जुए का निशान नहीं रहेगा

कोसों चलते जाने
चलते चले जाने की विवशता
चाहे वह कोल्हू के केन्द्र की
परिधि खींचने की ही हो
कंधे पर भारी जुआ
पीठ पर हुरपेटा
रक्ताभ आँखों की तरेड़
मुख में गरम झाग
उबलती साँसों से धिकते नथुने
नथुनों में फँसी
चुभती, रगड़ खाती रस्सी
जिसका एक, अंतिम सिरा
हड़ाह हरवाहे के हाथों में
नकेल नहीं, समूचा स्वत्व अपना !
धिक्कार ऐसे निर्वीर्य पौरुष पर!

देख, यह नया इतिहास बन रहा है
आदमी के माथे का
कलंक मिट रहा है
बछड़ा अब बैल नहीं बन रहा है।

अपनी माता की ममता से
बलात वंचित,
दूर कहीं छोड़ आए हुए
ओ नन्हें-से बछड़े
कान आगे कर तू किसकी आहट सुनता
टकटकी लगाए किसकी राह देखता
अब कौन आने को है ..

अभी तो तेरी देह से
जनम के रोएँ तक नहीं गिरे
लेकिन तू जा,
तनिक मत ठहर इस देस
तेरे मुख में अब नहीं उतरने की
गर्म दूध की रसधार
वैसे भी तू कहाँ छक सका
एक बार भी जी भर कर वह अमरित
जो केवल तेरे लिए
तेरी माता के थन में उतरता है !
अपनी ही लार को मथ-मथ कर
कितने दिन तू चाटेगा
यह भी तो सोच
कि जी गया तो क्या-क्या दुःख काटेगा !

ठेसाह घुटने
फटे खुर
जगह-जगह छिला-कटा
उद्रग, विशाल ककुद
ढहते किले के कंगूरे-सा अब भी तना
पीठ पर ढेलों के निशान
मानो घृणा, तिरस्कार, मानमर्दन से
लड़खड़ाती चाल
न कोई आश्रय न ठिकाना
हर द्वार बेगाना
रास्तों से अपकुशन की तरह गुजरना
डरते, ठिठकते, बचते निकलते लोग
भय और उत्तेजना  में रंभातीं, डकरतीं
खूँटे से बँधी गउएँ ....

जाने किस जनम का पाप काटने को
इस जनम दर-दर भटक रहा
नंदी का वंशज
जिसकी पीठ पर विराजते
स्वयं देवाधिदेव !

जा, तू जा
अपने पुरखों के लोक जा
ओ नंदी के नन्हें-से वारिस
यहाँ वही रहेगा
जो दुहा जा सके !

देखना अपने को

डाइनिंग हाॅल के एक कोने में
वाश बेसिन के ऊपर
एक बड़ा-सा आइना टँगा है
जो हमारे साथ
तब से चला आ रहा है
जब कि घर में कोई
डाइनिंग रूम नहीं था।

लाल फ्रेम लकड़ी का
विवर्ण और विदीर्ण हो चला है
उसकी कसावट शीशे  पर
ढीली हो चली है
लेकिन लेकिन शीशा बिल्कुल ठीक है -
एकदम साफ - बेदाग
- इसमें मूँछों के पके बाल
साफ नजर आते हैं
होठों के ऊपर रोएँ आ रहे थे
यह इस आइने ने ही कई बरस पहले
दिखाया था,
मेरा रामांच तब उसमें भी उतर आया था।

बदलते, जैसे पुराने पड़ते चेहरे
चेहरे पर गाढ़ी होती रेखाओं का
और कौन होगा ऐसा आत्मीय और प्रामाणिक साक्षी
जो तबसे मुझे देख रहा है
जब कि मेरा कद वहाँ तक पहुँचा भी नहीं था
जिस ऊँचाई पर यह आइना टँगा रहता था
और जिसमें खुद को देखने के लिए
पंजों के बल खड़ा होना पड़ता था।

आज यह आइना देखता हूँ
तो मेरा अतीत उचक कर
उसमें से झाँकने लगता है
अपने को देखने की
जब कोई और जगह नहीं
तो आश्वस्त हूँ, यह आइना है











कूड़ा समय

(1)
अपशिष्ट
आधुनिकता की पहचान है
और उसकी परिणति भी
अपशिष्ट का परिमाण, उसकी संष्लिष्टता
आदमियों ही नहीं
देशों की भी औकात का पैमाना है
सबसे छोटे आदमी
छोटे इसलिए भी हैं
कि इस ‘अपशिष्ट युग’
या कि ‘कूड़ा-समय में
कूड़ा बना सकने का
सामर्थ्य नहीं रखते
उत्पादन उपभोग की
जटिल संरचना से वे बाहर हैं

छोटे लोग
छोटे इसलिए भी हैं
कि वे बड़ों द्वारा उत्सर्जित कूड़े से भी
काम चला सकते हैं
छोटे लोगों का यह बड़ा काम है
कूड़े में अपना भविष्य बीनने के बहाने
जो दुनिया उनके रहने योग्य न हो सकी
उसे हमारे रहने योग्य रहने दे रहे हैं

(2)

इस दुनिया से
किसने कितना लिया
कूड़ा इसका हिसाब बताता है
जो इस दुनिया से
सबसे कम लेते हैं -
सबसे कम हवा
सबसे कम अन्न-जल
सबसे कम सुविधा
सबसे कम अधिकार
वे सबसे कम कूड़ा उपराजते हैं

बैकुंठ के दरवाजे
अब केवल उन्हीं के लिए खुलेंगे
क्योंकि वे ही
मात्र वे ही
इस धरती को
कल के लिए भी छोड़ रहे हैं।









पहचान
   
जाती हुई पहचानें
छोड़ती हैं जरूर
अपने पीछे कोई चिह्न अपना

निर्जल होता ताल
छोड़ जाता है अंदर मिटटी में
थोड़ा गीलापन
कटती हुई फसल खेतों में
कुछ दाने बिखेर जाती है

बिना बरसे भी
गुजर गए बादल हवा में
थोड़ी नमी छोड़ जाते हैं
टूटा हुआ कोई आत्मीय सम्बन्ध
एक कसक तो छोड़ ही जाता है

और देखिये
किन युगों में गायब हो गए सरीसृप
छोड़ गए थे अपनी हड्डियां
मनुष्य छोड़ गए थे
नगर-भवन-सभ्यताएं….

हम क्या छोड़नेवाले हैं
अपने पीछे ?
छोड़ना होगा कुछ तो कुछ जरूर
वैसे चाहे-अनचाहे भी कुछ न कुछ
छूट ही जाता है…

इन चिह्नों का होना
भविष्य में अपना होना है




 बेवजन

सिर्फ ग्राहक के
इंतजार में नहीं झुकी होगी पीठ
सर को घुटनों पर टिकी
कोहुनियों का अवलम्ब
न हो तो
मानो अपने ही वजन से
वह जमीन पर गिर जाए!
गो अपनी पसलियों को
चीथड़ों में छुपाए फिर भी
वे सचमुच
इंतजार कर रहे हैं

फुटपाथ को रौंदते
अनगिनत पाँव ....
जिन पर टिकी हैं उनकी
लाल डोरियों वाली आँखों से
झाँकती निस्तेज निगाहें..
कि कोई कदम
शायद इस ओर बढ़ आए

अपने ही पाप से भारी होती
इस दुनिया के किसी बाशिंदे को
शायद खुद अपने वजन का
अंदाजा लगाने की दरकार हो आए,
या फिर गुमान ही ....

या ऐसा होता कि
डायटिंग से इकहरी होती जाती
किसी युवती की निगाह में ही आ जाती
उनकी वह धूलिधूसरित वेइंग मशीन वजन मापने की

या काश ऐसा होता कि
इन अगणित पदचापों को सुनते,
आपस में जैसे लड़ते-उलझते और संभलते
किस्म-किस्म के पैरों को निहारते
भूखे पेट ही सही उन्हें नींद आ जाती!

इस दुनिया में
जबकि हर चीज अपना वजन खो रही है
एक अदद वजन मापने की मशीन के सहारे
वे अशोक राजपथ के फुटपाथ के किनारे
किसी वजन वाले का अब भी
इंतजार कर रहे हैं ....!   
         





वार

वे पहले
मारते हैं शब्दों से
जुमलों से गोदते हैं
पहले.पहल
जैसे . गद्दार !
तब करते हैं
खंजरों.तमंचों से वार  …!

मालूम है इन्हें
कि अगर कहीं
खाली भी जाये वार खंजर का
तब भी शब्द
अपना काम करते रहेंगे…

एक पूरा
मुकम्मिल इंतजाम है यह
चाँदमारी का
जिसमें शिकार बच निकला
तब भी जीते जी मरता रहेगा !
मारने वाले को और क्या चाहिए ?

जो खेलते हैं शब्दों से
जो रहते हैं शब्दों की दुनिया में
ताज्जुब है
शब्दों की इस भूमिका से
अनजान बने हुए हैं
कि शब्द भी करते हैं काम तमाम
कि जैसे खंजर और तमंचे
जाने कबसे
जाने कबसे….!   







फेरीवाले 
   
फेरे लगाते फेरी वाले
कभी न डिगते
कभी न थकते
ये वामन के डगवाले

अपने.अपने फेरों में
जो रहते.हरदम गुम
उन्हें उनकी याद दिलाते
खोमचा बक्सा ठेलावाले

कितनी.कितनी चीजों से
करते हैं आबाद
खाली जगहें भरते हैं
बूंदे झुमके तालेवाले

चाहे सूरज चाँद सितारे
सबके अपने फेरे
घूम.घूम कर बता रहे
‘हरेक माल एक दाम’वाले

हम भी तो हैं लगा रहे
जनम.जनम के फेरे
सोए हुओं को जगा रहे
पुकार लगाते फेरीवाले




सोमालिया 
                      
मरते हो तो मरो
साबुत इंसान से
कंकाल में तब्दील होते हुए मरो
भूखी आँतों में
गोलियाँ खाते हुए मरो ...

मगर मुझे,
मेरे होने को क्यों भेजते हो लानत ?
ओ दूर देश में बसने वाले
कृष्णकाय लोगो ?

जब मैं
सुबह की चाय पर
अखबार देख रहा होता हूँ
तुम्हारी भूख से गलती
और गोलियों से बिंधती देह
किस बात का हिसाब माँगती है ?
या कि शाम की शराब से पहले
अपने चमचमाते जूते के फीते
खोल रहा होता हूँ
तुम्हारे तलवों के नीचे
की तपती मिट्टी और सिर पर
गिद्धों के डैनों की छाया
क्यों भर देती है अकस्मात
मेरी शिराओं में
बर्फीली सिहरन ?

और जब बत्तियाँ बुझाकर
बहुत मीठे सपनों को
आमंत्रित करता
सोने की तैयारी कर रहा होता हूँ
तो क्यों सहसा पड़ जाता हूँ
उधेड़बुन में कि
दुनिया में जितना अन्न पैदा होता है
उसका कितना हिस्सा
चूहे हजम कर जाते हैं ?

भूख और घृणा के महा-अलाव में सिंकते
मेरी ही धरा के सहवासियो
देखो,
मुझे बख्श दो !
मैं कर भी क्या सकता हूँ
तुम्हें एक इंसानी गरिमा से पूरित
मृत्यु देने के लिए !








         
फसल

चुप-चुप रहते हैं
इन दिनों रामेसर चाचा !
कभी के इतने बड़बोले
बात की बात में दूसरों की लगोट खोलें
ताली मार-मार कर हँसने-हँसानेवाले
चाची को चिढ़ाने, फिर रिझानेवाले
रामेसर चाचा !

बड़कू की कलकत्ते में मारी गई मति
न रुपया न पैसा
न चिठ्ठी न पतरी
माई के कलेजे में हूक
बहू का दिल दो टूक
बेआस मन को देती विश्वास
कि एक दिन जरूर फलेगा
नीम वाली मइया का भाखा,
तीज-जीतिया का उपास !

रोती-फेंकरती पोती को
जब गोद में लेते चाचा
छाती पर लगता
धरा हो जांता !

छोटकू का कुछ पता नहीं
दो महीने पहले बैठाया था
पंजाब की गाड़ी में
थोड़ा डर था थोड़ा पछतावा पर
लड़का था जिद पर
संग गाँव के दो छोरे और
क्या करते !
सुनते हैं, ट्रेने लड़ती हैं, लुटती हैं
अच्छे भले लोगों के हो जाते हैं गुर्दे गायब
और अनचक्के मारे जाते हैं
सोते हुए बिहारी मजदूर !

बिटिया अलग है बेहाल ससुराल में
नैहर लिवा जाने के लिए
बुलाया है भाई को
भाई बचा एक नन्हकू !

नन्हकू को इधर नेताजी पोटिआए हैं
जाने क्या खिलाए-पिलाए हैं
अब तो राम ही जी का सहारा है
बगदल, बेकहल, बनबाकर ...
कुछ कहो तो अगिया कर
पोलटिस झाड़ने लगता है।

गाँव की हवा अलग खराब
छूटी चौपाल, बिछड़े सब दोस्त-यार
ऊपर से चाची ने जबसे पकड़ी है खाट
चित्त बेकल है, जियरा उदास
जब देखो तो कलपती हैं
जोड़कर काँपते हाथ-
अब चलाचली का टेम है
कहा-सुना सब माफ !

गुमसुम
बीड़ी सुलगाते-बुझाते
सोचते हैं रामेसर चाचा
हुई उनसे ऐसी क्या भूल
जहाँ रोपा था हुलसकर उड़हुल-कनेर
उग आए वहाँ बेर-बबूल !
इन दिनों रामेसर चाचा
चुप-चुप रहते हैं
कभी के इतने बड़बोले
रामेसर चा....

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परिचय 


शिवदयाल
हिन्दी के समकालीन सृजनात्मक एवं वैचारिक लेखन के  क्षेत्र  में लगभग तीन दशकों से सक्रिय ।
बहुमुखी व बहुविधात्मक लेखनए पूर्णकालिक लेखक।
उपन्यासए कई कहानियांए कविताएं समेत दर्जनों वैचारिक निबंध प्रकाशित। ललित निबंध एवं समीक्षाएं तथा कुछ पटकथाएँ भी लिखीं। रचनायें धर्मयुगए वागर्थए समकालीन भारतीय साहित्यए साक्षात्कारए पुस्तक वार्त्ताए हिन्दुस्तानए आजकलए पूर्वग्रहए दस्तावेजए संवेदए सबलोगए परिकथाए जनसत्ताए प्रभात खबर आदि पत्र.पत्रिकाओं में प्रकाशित।

पिछले कई सालों से जनसत्ता में वैचारिक लेखों.निबंधों का प्रकाशन। 
कुछ कहानियोंए कविताओं एवं लेखों का अनुवाद मराठी एवं उर्दू में प्रकाशित। 
अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में वक्ता के रूप सहभागिता। अनेक साक्षात्कार प्रकाशित एवं प्रसारित। अनेक रचनाएं अनेक पुस्तकों में संगृहीत। अनेक वेब पोर्टलध्साइट पर रचनाएं प्रकाशित एवं उपलब्ध।
पिछले कई वर्षों से गत्यात्मकता और विकास पर केन्द्रित पत्रिका ष्विकास सहयात्री  के संपादक। बाल मासिक ष्बाल किलकारीष् के संपादक।

प्रमुख पुस्तकें.
एक और दुनिया होती. उपन्यासए अनन्य प्रकाशनए दिल्ली।
छिनते पल छिन. उपन्यासए नेशनल पब्लिशिंग हाउसए नई दिल्ली।
मुन्ना बैंडवाले उस्ताद. कहानी संग्रहए भारतीय ज्ञानपीठए नई दिल्ली।
बिहार में आंदोलनए राजनीति ओेर विकास . कांति प्रकाशनए पटना।
बिहार की विरासत यसंण् . वाणी प्रकाशनए नई दिल्ली।

संपर्क.
 ए1ध्201ए आर के विला अपार्टमेंटए महेश नगरए ;
बोरिंग रोड पानी टंकीद्ध पटना.800024  



तेलुगु कहानी: 

आसरा

वारणासि नागलक्ष्मी
अनुवाद: आर. शान्ता सुन्दरी


आर शांता सुंदरी 

रात के आठ बजे थे.एक फैशन मैगजीन के कार्यालय में कंप्यूटर के सामने बैठकर एक सुंदर लडकी के फोटो को फोटोशॉप के जरिए निखार रही थी एक पच्चीस साल की युवती.उसकी आंखों में लगन, काम को अच्छी तरह पूरा करने का निश्चय झलक रहे थे.
मोडल रागिनी की तसवीर स्क्रीन के एक कोने में सेट थी.स्क्रीन के बीच में जो तसवीर थी वह उस फोटो से मिलती जुलती होने के बावजूद वह किसी प्रसिद्ध चित्रकार की पैंटिंग सी लग रही थी.इस फोटोशॉपिंग के काम में माहिर होने के कारण ही वह युवती  मल्टीमीडिया के क्षेत्र में काफी नाम कमा चुकी थी.

सुबह से उसी फोटो के साथ बैठी वह तरह तरह के फिल्टर इस्तेमाल करके उसमें अच्छा एफेक्ट लाने की कोशिश कर रही थी.इस तरह एक से लेकर दस तक कई अलग अलग चित्र तैयार करने के बाद सातवें और दसवें चित्र के बीच किसे लिया जाए , यही सोचती बैठी थी कि इतने में उसका मोबाइल बजा.एक पल केलिए वह समझ नहीं पाई कि उसीका मोबाइल बज रहा है पर रिंग टोन अलग था.फिर उसे ऑन करके कान से लगाया.

"हाई स्वीटी!" धीमी आवाज ने मुस्कुराते हुए कहा.

"हां बोलो ... तुम क्यों मेरे सेल में बार बार रिंग टोन बदलते रहते हो? मुझे दिक्कत होती है ना?" युवती ने कहा.उसकी आवाज में थोडा गुस्सा था और थोडा प्यार.उसकी सवाल पर प्रमोद हंस दिया.
रोज तुम्हें याद करते ही जो गाना मन में आता है उसे रिंग टोन में सेट कर देता हूं.पर दिक्कत क्या है? यह फोन तुम्हें सिर्फ मुझसे बात करने केलिए ही दिया है ना मैंने?
" यह सब छोडो,पहले यह बताओ फोन क्यों किया?" पूछते हुए आखिर दसवीं तसवीर को उसने क्लिक कर दिया.
"जानती हो अब आठ बज चुके हैं? अभी तक काम कर रहे हो?"
" हां पूरा नहीं हुआ...मतलब अभी अभी पूरा होने को है."
"किसका फोटो? सुबह रागिनी की तसवीर लेकर बैठी थी ना? "
"वही तो कर रही हूं."
"अरे अभी खत्म नहीं हुआ? इतनी देर क्यों? पहले एक घंटे में दो दो खत्म कर देती थी? पूरा दिन एक ही को लेकर बैठी हो और वह भी ओवर टाइम? ऐसी क्या खास बात है भई?"
" पता नहीं दस अलग अलग तसवीरें सेट की ,एक भी नहीं जंचा.पर कुछ ही देर में मिल रहे हैं न? फिर फोन पर यह बहस क्यों?बेकार पैसा मत खर्च करो...फोन रखो.." कम्प्यूटर से लगी सूपर पेन से पैड पर हल्की लकीरें खींचते हुए कहा.
" अब रहने दो ना स्वीटी. मैं तुम्हारे दफ्तर आ रहा हूं.दोनों साथ निकलेंगे."
"अब तुम्हें इतनी दूर आने की क्या जरूरत है प्रमोद? मैं दफ्तर की गाडी में पहुंच जाऊंगी."
" सवाल ही नहीं उठता भई.रागिनी को 'सेव' करके मशीन बंद कर दो और मेरा इंतजार करो.बस तुम्हारे दफ्तर के गेट पर हूं!" कहकर उसने मोबाइल बंद कर दिया.वह मोनालिसा की तरह मुस्कुराकर फिर काम में लग गई.

प्रमोद उसके कैबिन में आ गया. उसे देखते ही बोली," प्लीज दो मिनट रुको."
"इस फोटो में ऐसा खास क्या है? घंटों इसी में लगी हो? फिर उसने वही सवाल पूछा.
"छोडो ना ,क्या करोगे जानकर?"
"नहीं छोडूंगा.बताना ही पडेगा!" उसकी आंखें युवती के चेहरे पर टिकी थीं.
एक पल केलिए उसके चेहरे पर काला साया सा फैलकर हट गया." कभी किसी रागिनी केलिए जो समय नहीं निकाल सकी,वह इस रागिनी पर खर्च करना चाहा था...इस तसवीर को शाश्वतता देना चाहा..." उसकी बात खत्म होने से पहले बिजली गुल हो गई.एसी बंद हो गई.बत्तियां एक बार टिमटिमाकर इन्वर्टर की मदद से फिर जलने लगीं.यूपीएस की मदद से कंप्यूटर अपना काम बेरोक करता जा रहा था.
" शुक्र है इस यूपिएस की वजह से इतने घंटों का मेरा काम बेकार नहीं गया. न जाने किसने ईजाद किया था इसे!" उसने कहा,तभी कंप्यूटर के परदे पर रागिनी की तसवीर उभरकर आई.तृप्त होकर उसने उस तसवीर को देखा, उसे सेव किया और कंप्यूटर बंद करके प्रमोद से कहा,"अब चलें?"
दोनों बाहर निकलकर गाडी की ओर चले. गाडी में बैठकर घर की ओर जाते हुए उसने सोचा, अच्छी नौकरी है, प्यार करने वाला पति है. अपनी अलग पहचान भी बना चुकी हूं , जिंदगी में और क्या चाहिए मुझे ! वह सीट पर सिर टिकाकर बैठी बीते दिनों को याद करने लगी.
                                                                              

सीधे अपनी मां के पास जाइए और उन्हें सबकुछ बता दीजिए," प्रियंवदा की आंखों में देखते हुए मधुकर ने कहा.अंदर असहनीय पीडा का अनुभव करते हुए भी प्रिया निश्चल रहने की कोशिश कर रही थी.सबकुछ जान गया था मधुकर. ऐसे में उसके सामने बैठना ही दूभर हो गया था. न जाने क्या सोचता होगा मेरे बारे में!उन दोनों से कुछ ही दूरी पर हाथ मलता,होंठ चबाता बैठा था श्रीकर.वह ऐसी मुश्किल में अब फंसा था कि पहले जो दैहिक आकर्षण, स्पर्श सुख के लिए तडपना, उसीको प्यार समझ लेना, ये सब ... पहले जो थ्रिल्लिंग लगते थे,अब उनसे घिन आ रही थी ! पर देर हो चुकी थी.क्षणिक शारीरिक सुख , जल्द्बाजी में की गई गलती इस तरह 'प्वायिंट ऑफ नो रिटर्न ' तक लाकर छोडेगा,यह मालूम नहीं था.प्रिया के दिल में दुःख,वेदना और डर हिलोरें ले रहे थे.श्रीकर को देखते हुए सोचने लगी , इससे मैंने प्यार कैसे किया? जरा सी गडबड हो जाती तो घबराकर बडे भाई के पीछे छिप जानेवाला कायर है यह.अमीर बाप का बेटा,हीरो होंडा पर कालेज आता और शान दिखाता श्रीकर.वेलेन्टैन्स डे पर फूल देना , एक भी पैसा कमाने का सामर्थ्य नहीं पर प्यार की बातें करना...क्या मैं इस तरह का जीवन साथी चाहती थी? इसीलिए कहते हैं प्यार अंधा होता है.पर क्या यह असल में प्यार ही है?

"प्रियंवदा अब आप कुछ भी मत सोचिए.आप चुप होकर सोचने लग जाती हैं तो मुझे चिंता होती है.मैं आपके सामने लेक्चर झाडना नहीं चाहता.डरिए मत.जो हो गया उसे हम बदल नहीं सकते.उसीके बारे में सोचते रहने से कुछ नहीं होगा.मेरी सलाह मानिए और अपनी मां को सबकुछ साफ साफ बता दीजिए.वे पढी लिखी हैं और लेक्चरर हैं. हालात को समझकर आपको इस मुश्किल से बाहर निकलने का रास्ता बाता सकेंगी.वे आप्के पिता जी को समझा देंगी. अगर उनकी प्रतिक्रिया इससे उलटी रही तो आप फिर से निस्संकोच मेरे पास आ सकती हैं.मैं जरूर आपकी मदद करूंगा!" मधुकर ने तसल्ली दी.
प्रिया ने कुछ मिनट बाद आंख उठाकर श्रीकर को देखा.वह भी घबराया सा उसकी ओर देख रहा था.मन में उठती असहायता और डर को काबू में करते हुए प्रिया ने पूछा," तुम क्या कहते हो?"श्रीकर की असहायता और गुस्सा झुंझलाहट के रूप में बाहर आया." मैं क्या कहूं?गलती दोनों से हुई है.अब यह कहने की कोशिश मत करना कि सारा दोष मेरे अकेले का था!" वह तेज आवाज में बोला.
प्रिया को गुस्सा आया. श्रीकर से नफरत सी होने लगी.मधुकर वहां नहीं होता तो न जाने क्या जवाब देती.पर चेहरे पर कोई भाव दिखाए बिना उसने मधुकर की ओर देखा. देखना चाहती थी कि कहीं उसकी आंखों में मेरे प्रति बेइज्जती या नफरत तो नहीं है !
पर वहां तो विवेक और इज्जत ही दिखाई दी.उसका सारा ध्यान समस्या का समाधान ढूंढने में ही लगा हो जैसे.
"आइ हेट माइसेल्फ...शायद आपको भी मुझसे नफरत ही हो रही है..." प्रिया ने कहा.उसका चेहरा लाल हो गया.
"नो...नो...ऐसा कभी मत सोचिए.पर इस भयंकर अनुभव से आपने सबक जरूर सीखी होगी.अगर हमारी गलती की वजह से समाज हमें धिक्करने लगे तो उसे एक चुनौती के रूप में लेना चाहिए.ऐसे ऊंचा उठना चाहिए कि वही समाज हमारे सामर्थ्य को विस्मित होकर देखने लगे." उसकी आंखों में झांकते हुए एक हिप्नोटिस्ट की तर कहा मधुकर ने. फिर आंखें उसके चेहरे से हटाते हुए मुस्कुराकर कहा,"आप सोचती होंगी कि आखिरकार मैंने लेक्चर झाड ही दिया! पर एक बात जरूर कहना चाहूंगा. आपके सामने एक समस्या है ,हिम्मत के साथ उसका सामना कीजिए."
सहानुभूति से भरी मधुकर की बातें सुनकर ,केसेट देखने के बाद भी उससे इतनी इज्जत से बात करते देखकर , प्रियंवदा का दुःख बाढ की तरह उमड पडा.मुंह छिपाकर जोर जोर से रोने लगी.श्रीकर गुस्से से उठकर दो कदम चला और मुट्ठी कसकर मेज पर दे मारा और बाहर चला गया.श्रीकर का यह बर्ताव प्रिया के दिल में शूल की तरह चुभा.मधुकर चुपचाप बैठा रहा और प्रिया को रोने दिया.फिर धीरे से बोला," प्रियंवदा जी,अभी कुछ नहीं बिगडा.खुद को संभालिए.आंखें पोंछकर मुंह धोकर आइए.संभलकर घर जाइए.श्रीकर भी आपकी ही तरह टीनेज में है.आप दोनों अभी किशूरावस्था में हैं प्रियंवदा जी! उसकी प्रतिक्रिया को दूर्बीन से मत देखिए...अनुभव ही हमें परिपक्व बनाते हैं.".
प्रिया ने धीरे से सिर उठाया और आंसू पोंछकर कहा," आइ एम सॉरी!" फिर उठकर मुंह धोकर आई और उसी कुर्सी पर बैठ गई.मधुकर रसोई में चाय बनाने गया था.तरह तरह के ख्याल मधुमक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे. रागिनी क्या कर रही होगी?वह भी मेरे जैसे ही मुश्किल में फंसी है.उसका बॉय फ्रेंड केशव उससे भी बदतर हाल में है.उस कम्बख्त ने कहा था कि दस हजार देने पर वह केसेट दे देगा.दोनों सहेलियां बुरी तरह फंस गई थीं.प्रिया ने अपने गले में पहना सोने का चेन श्रीकर को देकर केसेट लेने को कहा.श्रीकर झूठ बोलकर अपने बडे भाई से पाम्च हजार मांगकर लाया और चेन बेचकर और पांच हजार जोडे और केशव को वह रकम दे आया.यह बात फोन पर प्रिया को बताई. तबतक प्रिया की नींद आंखों से दूर रही.
अगले दिन कालेज में श्रीकर उससे मिला और बताया  केशव और बीस हजार यह कहकर मांग रहा है कि उस केसेट की कॉपी उसके पास है. सुनते ही प्रिया के होश उड गए.डर के मारे पसीने छूटने लगे.मर जाने की इच्छा हुई.घर पहुंची तो मां को इम्तहान के पेपर जांचते देखा. मां ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया.वरना वह बेटी का चेहरा साफ पढ लेती. उस दिन प्रिया किसी तरह बच गई.
रातभर उसे भयानक सपने आते रहे.एक हफ्ते से डरी डरी रहनेवाली प्रिया को कल ही परिस्थिति का सही भान हुआ.कल तक हिम्मत से काम लेनेवाला श्रीकर एकदम ढीला पड गया.भविष्य अंधकारमय दिखने लगा.प्रिया की मां उसे बेटी कम और सहेली ज्यादा मानती थी.लाड प्यार करने वाले पिता...ये दोनों सचाई जानने के बाद क्या कहेंगे? रिश्तेदार और दोस्त मुझसे नफरत तो नहीं करने लगेंगे? दूर के रिश्ते का लडका हमेशा उसे छूने का मौका ढूंढता रहता था. अब वह कैसा बर्ताव करेगा?
उसके ख्यालों में खलल डालते हुए मधुकर की आवाज सुनाई दी," यह लीजिए चाय," चाय के साथ छोटी तश्तरी में बिस्कुट भी थे.

प्रिया ने मधुकर की ओर ऐसे देखा जैसे उसका सबकुछ लुट चुका हो. जब से वह आई है मधुकर उसे ध्यान से परख रहा था.न जाने उसकी आंखों में उसे क्या दिखा , एक पल केलिए वह सावधान हो गया. उससे कुछ दूरी बरतते हुए दूसरी कुर्सी पर बैठ गया और कहा," प्रियंवदा जी, आप होशियार हैं..." . पर प्रिया बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोली," हां होशियार पर चरित्रहीन !" यह कहते वक्त उसके चेहरे पर पीडा झलक रही थी.
मधुकर ने सहानुभूतिपूर्ण मुस्कान के साथ कहा," चरित्र सिर्फ भौतिक नहीं होता.आप अभी छोटी हैं.गलती को सुधार सकती हैं."
" अब वैसा मौका कहां मिलेगा?"
"आप पहले चाय पीजिए , फिर बताता हूं." प्रिया के चाय पीने तक उसने इंतजार किया और कहा," दट्स गुड ! अच्छा,आप फौरन जाकर अपनी मां को ..."

फिर उसकी बात को काटते हुए उसने कहा," मां और पिताजी अगर इस बारे में जान लेंगे तो वहीं उनका दिल टूट जाएगा और मर जाएंगे , या लकवा मार जाएगा और जिंदगी भर खाट पर पडे रहकर मुझे कोसते रहेंगे." उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे.

"कुछ देर पहले मैंने यही समझाया था कि जो अभी हुआ नहीं उसकी कल्पना करके खुद को तकलीफ नहीं देना.आपकी मां अबतक कितने सारे छात्रों को सिखाती रही हैं.वे आपकी हालत को भली भांति समझ जाएंगी.हां सुनते ही पहले उनपर गाज जरूर गिरेगी, दुख होगा.शुरू में उनकी प्रतिक्रिया गुस्से के रूप में भी होगी. वह सब दबने तक आपको इंतजार करना होगा.खुद पर काबू रखना होगा."
" हम जो भी करते हैं उसके नतीजे का सामना करने केलिए तैयार रहना होगा. कायर की तरह भागना गलत है." मधुकर ने मुट्ठी बांधकर ऊपर उठाकर कहा. यह देखकर रोते रोते प्रिया हंस पडी.फिर उसकी ओर देखकर " थैंक यू !" कहा और खडी हो गई.
"घर तक छोड दूं?" मधुकर  ने उठते हुए पूछा.

"नहीं," कहती हुई वह जल्दी जल्दी दरवाजे पर पहुंच गई. मधुकर एक पल केलिए खडा सोचता रहा ,फिर दरवाजे के पास पहुंचकर कहा," ठहरिए, मैं छोड देता हूं," और गाडी निकालने लगा.
एक तरफ उसकी हमदर्दी पर आंखें बार बार नम होने लगीं और दूसरी तरफ यह शक परेशान करने लगा कि कहीं इसके मन में कोई गलत इरादा तो नहीं है !वह चुपचाप गाडी की पिछली सीट पर बैठ गई.घर पहुंचने से पहले मधुकर ने कहा," अब आप अपने लिए एक लक्ष्य बनाइए.मां , पिताजी या कोई और कुछ भी कहे मन कडा करके बर्दाश्त कर लीजिए.जिस रोज आप अपने लक्ष्य पर पहुंच जाएंगी, तब यह सब सिर्फ एक कडुई याद बनकर रह जाएगी.अगर घर में आपको ज्यादा विरोध मिले और आपको बेचैनी महसूस हो तो इस उलझन से बाहर निकलने में मैं आपकी मदद करूंगा.आल द बेस्ट!" उसने गाडी सडक के किनारे रोकी .

गाडी से उतरकर एक बार फिर फीकी हंसी हंसते हुए प्रिया ने " थैंक्स" कहा.वह चला गया.
धीरे से ताला खोलकर घर के अंदर कदम रखने लगी तभी फोन की घंटी सुनाई दी.डरते डरते फोन का चोंगा उठाया.वहां से कोई आवाज नहीं आई तो दिल जोर जोर से धडकने लगा कि कहीं केशव तो नहीं?वह सांस रोके कुछ पल सुनती रही.फिर उसे वापस रखने ही वाली थी कि उधर से आवाज आई
,"प्रिया !"
दुःख से भारी वह आवाज रागिनी की थी.
"सुबह तू कालेज नहीं आई.तुझे कई बार फोन किया था.सोमू अपनी मां की सेहत बिगडने की बात बताकर गांव भाग गया. कुछ नहीं सूझ रहा कि मैं क्या करूं..." फिर हिचकियां लेकर कुछ देर रोती रही रागिनी.फिर संभलकर कहने लगी," ...दस हजार...वह बदमाश केशव दस हजार मांग रहा है.वर्ना कालेज में सब स्टूडेंट्स को वह वीडियो के कॉपीज बेचने की धमकी दे रहा है.दस हाजार छोडो , मेरे पास सौ रुपये भी नहीं है प्रिया..." वह फिर रोने लगी.

"रागिनी रोना नहीं. दस हजार देकर भी इस शनीचर से हम पीछा नहीं छुडा पाए थे ना?यह पैसों से छूटनेवाला रोग नहीं है.हम पूरी तरह डूब गए...मैंने फैसला कर लिया कि मां को सारा मामला बता दूंगी.बाद में जो होना हो हो जाए..." अपनी आंखों में उभरे आंसुओं को पोंछते हुए कहा प्रिया ने.
"मैं घर में बता भी नहीं सकती.ऐसे जीने से तो मरना अच्छा."
"मुझे भी ऐसा ही लगता है,पर मरकर भी इस बदनामी से छुटकारा नहीं मिलनेवाला.हमारे मरने के बाद क्या होगा, लोग क्या कहेंगे,क्या सोचेंगे , इन सब बातों का ख्याल करने पर मरने की भी इच्छा नहीं होती.और कोई रास्ता न मिले तो तब पता नहीं क्या करूंगी..." चोंगा आंसुओं में भीग रहा था. प्रिया ने दरवाजे की ओर देखा.
रागिनी ने अचानक फोन काट दिया.प्रिया को लगा कोई आ गया होगा. भारी पैरों से अपने कमरे में गई और मां के मोबाइल का नंबर मिलाया.
" बोलो मेरी सोनी बेटी?"
मां की आवाज सुनते ही रोने का मन किया.
"प्रिया... बोलो क्या बात है?"
" कुछ नहीं मां,जल्दी घर आ सकोगी?"
"क्यों तबियत ठीक नहीं है? बस एक क्लास और है. पढाकर आऊं या पर्मिशन लेकर अभी आ जाऊं?"
" नहीं, पढाकर ही आना..." कहा और फोन काट दिया.घर में अकेली थी तो बिस्तर पर औंधी लेटकर, तकिये में मुंह छिपाकर जी
भर रोई.

कालेज में प्रैक्टिकल कक्षाएं हो रही थीं.स्टाफ रूम में सुमती अकेली बैठी कुछ पढ रही थी.दरवाजे के पास आहट हुई तो उसने सिर उठाकर देखा.दुबला पतला लंबा सा बीस पच्चीस साल का लडका खडा था.उसने पूछा," क्या सुमती मैडम आप ही हैं?"
"जी."
वह अंदर आया और बोला," मैडम,मैं आपके एक छात्र का भाई हूं.आपसे कुछ बात करनी है."
"अच्छा,आइए , बैठिए," सुमती ने बगल वाली कुर्सी दिखाई.
"आप जिसकी बात कर रहे हैं उसका नाम?"
"वह बाद में बताऊंगा मैडम ! आपसे सलाह मांगने आया हूं."
"समस्या क्या है कहिए?" उसने मुस्कुराकर पूछा.
"घर में मेरी बहन के साथ बडे लाड प्यार से पेश आते हैं." मेज पर पडे पेपर वेइट को घुमाते हुए लडके ने कहा.
सुमती ने लडके की ओर ऐसे देखा मानो कह रही हो कि आगे बोलो.
"कालेज मे कोई प्रॉजेक्ट दिया गया था जिसके लिए ्चार लोगों की इनकी टीम इंटरनेट सेंटर में जाती रही."
सुमती ने भौंह सिकोडकर कहा ,"फिजिक्स में ऐसा कोई प्रॉजेक्ट तो नहीं दिया गया?"
"फिजिक्स नहीं मैडम, कंप्यूटर्स."
"अच्छा,कंप्यूटर्स विभाग तो अगली बिल्डिंग में ..."
उनकी बात पूरी होने से पहले लडके ने कहा,"मैडम, मेरी बहन आपको बहुत मानती है.आपके  लिए उसके मन में बहुत आदर है.इसीलिए आपके पास आया हूं."
सुमती ने हैरान होते हुए पूछा," क्या आप प्रशांती के भाई हैं?"
लडका एक पल चुप रहा और फिर परेशान सा बोला," क्या अभी नाम बताना जरूरी है मैडम?"
बहन के प्रति उसका प्यार देखकर सुमती को अच्छा लगा,पर फिर भी वह बात अजीब भी लगी." नाम जाने बिना मैं मदद कैसे कर सकूंगी?" उसने पूछा.
"उस उम्र के लडके लडकियों के बारे में आपको विस्तार से बताने की जरूरत क्या है मैडम? शारीरिक सामीप्य और प्यार में वे फर्क नहीं कर सकते!"
सुमती ने सिर हिलाकर हामी भरी.





"मेरी बहन उस टीम में एक लडके से दोस्ती करके उसीको प्यार समझने लगी और उससे मेल जोल बढा लिया."
सुमती का मन इसी सोच में उलझा था कि कौन हो सकती है इसकी बहन?
"उस सेंटर में पता नहीं क्या प्रॉजेक्ट वर्क किया,पर लगता है कुछ अश्लील वीडियो वगैरह देखने लगे थे...दोनों ने नेकिंग ,वही गले मिलना शुरू कर दिया," लडका कहने में झिझक रहा था शायद इसीलिए खिडकी से बाहर देखते हुए यह सब बताया.
" ओ...नो ..." सुमती ने कहा.
"....." लडका चुप रहा.
" कम से कम अब आप अपने माता पिता को यह सब बताइए.लडका और लडके को एक साथ बिठाकर काउन्सेलिंग दिलवाइए.ऐसी बातों में देर करना ठीक नहीं.एक बार भटक गए तो जिंदगी भर उसका नतीजा भुगतना पडेगा.सिर्फ वे दोनों ही नहीं,दोनों परिवारों पर भी असर पडेगा."
" पहले ही कुछ देरी हो गई मैडम.वह इंटरनेट सेंटर वाला बडा कमीना निकला.इनकी जानकारी के बिना दोनों का वीडियो शूट किया.
"हाय...तो फिर?" दूसरों की तकलीफ के बारे में आम तौर पर लोग जिस तरह की प्रतिक्रिया दिखाते हैं वैसा ही सुमती ने भी किया और क्लास का समय हो जाने से किताबें समेटने लगी.
सुमती को गौर से देखते हुए लडके ने कहा," पिछले हफ्ते ये सेंटर गए तो उन्हें यह कैसेट दिखाकर वह बदमाश ब्लैकमेल करने लगा.उसने दस हजार मांगे तो दोनों के होश उड गए...घर में न बताकर किसी तरह वह पैसा लाकर दिया और कैसेट ले लिया."
"अब आप अपनी बहन पर नजर रखे रहिए.इस वाकये से सबक तो सीख ही गई होगी.अब आप ही अपने पेरेंट्स को बता दीजिए...ठीक है अब क्लास का समय हो गया,मुझे जाना होगा," सुमती ने कहा.
"पर बात वहां खत्म नहीं हुई मैडम.वर्ना मैं आपके पास नहीं आता."
"तो?"
"चार दिन बाद दूसरा सीडी दिखाकर उसने फिर बीस हजार मांगे."
" अरे, यह तो दल दल की तरह लगती है.बच्चे ऐसी समस्या से जूझ नहीं सकेंगे.बडों को मैदान में उतरना ही होगा.मेरी बात मानिए और दोनों के मां बाप को मामले के बारे में बताइए."
"मेरे पिताजी जी बदनामी झेल नहीं पाएंगे,मैडम.मेरी बहन को मार डालेंगे!"
' सही परवरिश नहीं करते और जब बच्चे गलत रास्ते पर जाने लगते हैं तो उनके साथ ऐसा शत्रुओं जैसा बरताव करने लगते हैं,' मन में ऐसे मां बाप की निंदा करते हुए सुमती ने कहा," उस लडकी को मार डालने से इज्जत बच जाएगी?"
"मार डालेंगे का मतलब सचमुच ऐसा नहीं करेंगे न मैडम!उसे मारेंगे,पीटेंगे, खरी खोटी सुनाकर जीना हराम कर देंगे."
"पर आपकी बहन ने जो किया है, मां बाप का दिल जो दुखाया है ,उसके लिए इतनी सजा तो भुगतनी ही पडेगी," बडी निष्ठुरता से सुमती ने कहा.
सुमती की तरफ एकटक देखते हुए लडके ने कहा," हमारे जीवन न्याय के नियमों पर नहीं चलते हैं न मैडम!अभी मेरी बहन शर्म और डर के मारे शायद आत्महत्या की बात सोच रही हो तो?मां बाप की इस प्रतिक्रिया के कारण वह यह भी समझ सकती है कि अब इस दुनिया में उसे सहारा देनेवाला कोई नहीं बचा.ऐसे में घर में और बाहर अपमान और दुत्कार सहते हुए जीने से मर जाना अच्छा समझकर..."
इतने में टन्न करके घंटी बजी.
सुमती ने कहा," अब मुझे जाना होगा.तुम्हारी बहन के बारे में जानकर दुःख हुआ. पता नहीं मुझे यह सब तुमने क्यों बताया,पर जिसका तुम जैसा भाई हो उसे कभी बेसहारा नहीं महसूस होगा.अब चलती हूं," कहकर सुमती दरवाजे की ओर मुडी.
"एक मिनट मैडम."
इस बार सुमती कुछ झुंझलाकर बोली," क्लास में देर से पहुंचना मुझे पसंद नहीं. वैसे भी ये सब बातें अपनों से करके उनकी मदद लेना ज्यादा बेहतर होगा," उसने ऐसे अंदाज में कहा जैसे अब इस विषय पर उसे कुछ भी नहीं सुनना या कहना है.
" सॉरी मैडम.इस विषय में आपसे ज्यादा अपना कोई नहीं होगा.मैं जिस बहन की बात कर रहा हूं वह और कोई नहीं,आप ही की बेटी प्रिया है," कहकर लडका भी खडा हो गया.
सुमती ठिठक गई .आंखें फाडकर लडके की तरफ देखते हुए उसने पूछा, " मेरी बेटी? तुम क्या पगला गए हो? मेरी बेटी इस कालेज में नहीं पढती," उसने गुस्से को काबू में करते हुए कहा.
"जानता हूं मैडम.पर मैंने जो कुछ बताया वह आपकी बेटी प्रिया के बारे में ही है."
यह बात हजम होने में सुमती को कुछ देर लगी. मेरी प्यारी प्रिया, हमेशा सही बर्ताव केलिए जानी जानेवाली मेरी लाडली. इतनी बडी हो जाने के बावजूद मेरी गोदी में सिमटकर ,मुझे चूमते हुए "आइ लव यू!" कहनेवाली मासूम बच्ची !उसे यकीन नहीं हो रहा था.उसने लडके की ओर आंखें तरेरकर देखते हुए पूछा," यह क्या कोई खेल खेल रहे हो मुझसे?"
सुमती के चेहरे पर तेजी से बदलते भाव देखकर ," काश यह खेल ही होता.सचाई है इसी बात का तो दुःख है !"
" क्या वह सेंटर में प्रिया के साथ जो लडका था वह तुम्ही हो?" नफरत भरी नजरों से लडके को देखते हुए उसने पूछा.
"जी नहीं, मेरा छोटा भाई है."
उस एक पल में सुमती के मन में हजारों सवाल उठने लगे. ये सब मिलकर कोई तिकडम तो नहीं भिडा रहे हैं?मेरी मासूम बच्ची को पता नहीं क्या कहकर फंसा लिया?"
"आइ एम सॉरी...वेरी सॉरी..."
"तुम क्यों सॉरी कहते हो?" जवाब गोली की तरह आया.
"मेरे मुंह से यह सब सुनना आपको बहुत पीडा देगा यह मैं जानता हूं."
" अगर यही सच है तो...तो फिर...तू बताने क्यों आया?" गुस्सा बढ जाने से सुमती के बोल रुक रुककर आ रहे थे.
उसने सोचा सुमती खुद को संभाल ले, तबतक चुप रहना ही ठीक होगा.
"बोलो, किस मकसद से यहां आए? सीधी सादी लडकी को फंसाकर ऊल जलूल बातें सिखाईं...उसके साथ ...तुम लोग क्या करना चाह्ते थे...!" गुस्से से वह कांपने लगी.
"मैडम, खुद को संभालिए, प्लीज.जितनी भोली आपकी बेटी है उतना ही भोला मेरा भाई भी है. दोनों टीनेज में हैं..."
उसे तर्जनी दिखाते हुए वह बीच में कह उठी," चुप...मुंह बंद रखो...गली के आवारा जैसे तू और तेरा भाई ...मेरे प्रिया से तुलना कर रहे हो? और उस लफंगे का भाई तू मुझे पाठ पढा रहा है और भाई की तरफदारी कर रहा हि?" सुमती का चेहरा तमतमा उठा.वह जानता था कि सुमती की ऐसी ही प्रतिक्रिया होगी,फिर भी उसे गुस्सा आ गया.
"मैडम, इस तरह की बातें मैं भी कर सकता हूं.क्या पता आपकी बेटी ने ही मेरे भाई को फंसाया हो? उससे शादी करने के इरादे से उसके पीछे पड गई हो? उससे एकांत में मिलकर उसे लुभाने की कोशिश की हो? फिर आप मुझे क्या जवाब देंगी?" गुस्से को दांत भींचकर काबू में रखते हुए लडके ने कहा.
सुमती की सारी हवा निकल गई.वह पागलों की तरह लडके को देखती रह गई.
"आप आवेश में आकर असली समस्या को भूल रही हैं.ये दोनों नासमझ समस्या में फंस गए, यह सच है.पर उससे कहीं बडी समस्या यह है कि इस दलदल से इन्हें बाहर कैसे निकाला जाए."
सुमती वहीं जमीन पर बैठ गई और दोनों हाथों से अपना सिर पकड लिया.
"कल शाम को मेरी मां और पापा शादी मे गए थे. मेरा भाई सिर दर्द का बहाना करके बिना खाए सोने चला गया तो मैं उसे उठाकर थोडा खाकर सोने को कहने उसके कमरे में गया. उसके चेहरे पे आंसुओं के धब्बे देखकर जोर देकर पूछा तो सारी बात उसने बता दी.हमारे वीडियो केमेरे में वह मिनी कैसेट चलाकर देखा .दोनों गले लगकर एक दूसरे को चूम रहे थे...बस और कुछ नहीं..." इतना बताकर वह रुका और कुछ पल बाद फिर कहा," मुझे भी पहले आप ही की तरह बहुत गुस्सा आया.

" कुछ सच ऐसे होते हैं जिन्हें सुनने से बडा दर्द होता है.मेरे भाई श्रीकर की बातों में अपने किए पर पछतावा, मां और पापा को पता चलेगा तो क्या होगा ,इस बात का डर,और उसके साथ प्रिया का भी बदनाम होने का दुःख ,ये सब मुझे महसूस हुए.रात को लेटकर उन दोनों के बारे में सोचता रहा. श्रीकर कालेज नहीं गया, मुझे लगा प्रिया भी नहीं गई होगी."
सुमती को पिछली रात बेटी का अजीब सा बरताव याद आया. वह उससे दूर दूर ही रही.सुबह मां बेटी दोनों को कालेज जाने की जल्दी होती है इसलिए बातें लगभग होती ही नहीं हैं.पर शाम को अक्सर दोनों बैठकर इधर उधर की बहुत सी बातें करती हैं.प्रिया के पिता को हमेशा दफ्तर के काम से बाहर ही रहना पडता है. सुमती ने चिंत्त होकर मन ही मन सोचा,' हमारी परवरिश में गलती कहां हुई?'
कमरे के बाहर दो लडके दिखे तो क्लास का ध्यान आया.उन्हें यह बताकर भेज दिया कि आज क्लास नहीं ले सकती.लडके की ओर देखा जैसे कह रही हो,'आगे बताओ !'
"मां स्कूल चली गई और मैं दफ्तर से छुट्टी लेकर श्रीकर के साथ घर पर रुक गया.उसके साथ बैठकर बातें करने लगा तो तभी प्रिया हमारे घर आई..."
"क्या तुम्हारे घर आई थी? क्या पहले भी आया करती थी?" जैसे चाबुक की चोट लग गई थी सुमती को.
"नहीं मैडम, मैंने उसे बहुत कम बार देखा है.श्रीकर मुझे सब बातें बताता है,मुझसे कुछ नहीं छुपाता,पर प्रिया के बारे में कभी नहीं बताया. उसे देखकर वह भी हैरान हो गया."
सुमती का चेहरा अपमान से तमतमा उठा.
"प्रिया बहुत परेशान हुई होगी.इसके बारे में किससे बात करती? शायद श्रीकर से बात करना ही ठीक समझकर तुम्हारे घर आई होगी."
"मैंने प्रिया को बहुत समझाया कि इस मामले के बारे में आपको बताए और आपके साथ बैठकर सोचे कि आगे क्या करना है और आपसे मदद ले.वह मेरी बात मान गई."
" मैं? मैं क्या मदद कर सकती हूं? खुद आग लगाकर तडपने लगे तो मुझसे क्या होगा?"
"ऐसा मत कहिए.आप ही प्रिया के पापा को इसके बारे में समझा सकेंगी.मेरी जानकारी में एक एसीपी है,उससे बात करूंगा.मेरे पापा और मम्मी से भी बात करूंगा. आप भी जरूर किसी बडे आदमी को जानती होंगी जो मदद कर सकता हो."



सुमती अभी बीती घटना में ही अटकी हुई थी. आगे क्या करना है,उसे बेटी की मदद किस प्रकार करना है,ये सब बातें वह नहीं सोच रही थी.अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि प्रिया ने ऐसा काम किया होगा.अगर सचमुच उसकी बेटी ने ऐसा किया है तो वह मार मारकर उसके गाल लाल कर देगी...इससे पहले फूल सी बच्ची पर कभी हाथ नहीं उठाया था उसने !
"मैडम ,घर जाकर अपनी बेटी की पूरी बात पहले सुनिए.आप का मन करेगा उसे मारूं,पीटूं,आडे हाथों लूं और घर को सिर पर उठा लूं.वह सब करने के बाद कल सुबह आपको अपनी जिम्मेदारी याद आएगी, पर शायद इट मे बी टू लेट!जब कोई लडकी यह समझ लेती है कि सारे रास्ते बंद हो गए तो वह खुदकुशी करने की सोचेगी, या घर छोडकर भाग जाएगी.आज के जमाने में दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है.आप एक दिन की देरी करेंगी तो कुछ भी हो सकता है.बाद में पछताने से कोई फायदा नहीं होगा."
"तो क्या मैं यह कहूं ,कोई बात नहीं बेटी मुझपर भरोसा रख,सबकुछ मैं ठीक कर दूंगी?" सुमती बिफर उठी.
"मैडम,मैं यह नहीं कहता आपका गुस्सा नाजायज है और नही प्रिया ने जो किया वह गलत नहीं .पर जब बात का पता चलते ही आपकी जो प्रतिक्रिया होगी, वह बाद में ठंडे दिमाग से सोचने के बाद बदल जाएगी.अब ऐसा कुछ नहीं हुआ कि प्रलय आ जाए..."
" तुमको क्या फर्क पडेगा? चार दिनों में तुम्हारे भाई का यह कांड सब भूल जाएंगे...लडका जो ठहरा!पर एक बार लडकी बदनाम हो गई तो जिंदगी भर समाज उसे नोच खाएगा...इससे अच्छा है कि वह मर जाए."
"कल सुबह आपका यह विचार बदल जाएगा.कल आप जैसा बर्ताव करनेवाली हैं,आज घर जाकर ऐसा ही बर्ताव कीजिए, मैडम...यही कहने मैं आपके पास आया..." तभी फोन की घंटी बजी." मैं अपने दोस्त से बात करने के बाद आपको फोन करके मिलने आऊंगा, तबतक खुद पर काबू रखिए.अब चलता हूं," कहकर वह चला गया.

जब सुमती घर पहुंची तो देखा प्रिया रसोई में दूध उबाल रही थी.उसकी आंखें लाल और सूजी हुई थीं और चेहरा उतरा हुआ था.उसे देखते ही सुमती गुस्से से भर गई.अपमान और दुःख के भाव उमडे.उन्हें दबाकर नकली हंसी हंसते हुए बोली,"अच्छा मां केलिए कॉफी बनाया जा रहा है?" और जल्दी से बाथ रूम में चली गई.
" चलो बाहर बैठकर पीते हैं," कहा सुमती ने.दोनों बाहर बैठ गईं.मां की आंखें लाल हैं,इस बात पर गौर करके प्रिया ने पूछा," क्या बात है मां? इतनी उदास क्यों हो?" प्रिया के मन में एक तरफ दुःख था और दूसरी ओर और मां के प्रति प्यार . दोनों भाव हलचल मचा रहे थे.
"कुछ नहीं,कालेज के पॉलिटिक्स..."
"....."
"पर तुम भी तो उदास हो? क्यों, क्या हुआ?"
" मां अगर मैं कोई भयंकर गलती करूंगी तो क्या तुम मुझे माफ कर दोगी?" आंखें झुकाकर रुंधे गले से प्रिया ने पूछा.
सुमती के मन में बेटी केलिए प्यार या दया जैसे भाव नहीं थे.पर उसने कहा," तुम ऐसी गलती क्यों करोगी?"
अचानक मां की गोद में सिर रखकर रोते हुए प्रिया ने कहा," मुझे माफ कर दो मां...माफ करना ही पडेगा...चाहे फिर मुझे मार ही डालो तो भी कोई बात नहीं!"
एक पल केलिए सुमती मानों काठ हो गई थी.फिर श्रीकर का भाई मधुकर की बातें याद आईं.प्रिया की पीठ सहलाते पूछा," ऐसी कौन सी गलती कर दी प्रिया?"
" मां...एक आवारा लडका साइबर केफे  में मेरे साथ बत्तमीजी कर रहा था और मैंने बिना कुछ कहे उसको मेरे गले लगने दिया...चूमने दिया...अपने किए की मुझे जो भी सजा मिले कम है मां... मैं मरने से नहीं डरती. शायद यही एक रास्ता है," प्रिया ने बिलखते हुए कहा.
अबतक सुमती ने जो वेदना मन में दबाकर रखी थी वह एकदम से उफान की तरह बाहर निकली." क्यों किया ऐसा प्रिया? क्या हमने तुम्हें यही सिखाया था? अपने आप पर काबू नहीं रख सकती थी?"
"नहीं मां, आपकी कोई गलती नहीं है. उस वक्त मैं सबकुछ भूल गई...कुछ भी ध्यान में नहीं था.उसकी सुंदर हंसी, फिल्मी हीरो जैसा स्टाइल, मुझपर मर मिटने की उसकी मीठी बातें ,इन्हीं में मैं खो गई...जैसे बेहोशी का आलम था..."
सुमती चिंतित हो गई." तो , तुम उसके साथ आगे भी कुछ कर बैठी क्या?" उसका दिल जोरों से धडकने लगा.
" नहीं नहीं...बस इतना ही..."
"क्यों किया प्रिया? पापा के बारे में नहीं सोचा? घर की इज्जत को कितनी अहमियत देते हैं वे? मैं भी बडे कालेज में लेक्चरर हूं मेरी बदनामी का ख्याल नहीं आया?"
" मैंने नहीं सोचा था बात इतना आगे बढ जाएगी.उसने मेरी उंगलियों में अपनी उंगलियां उलझाईं,हाथ थामा, मुझे बहुत अछा लगा बहुत सी लडकियां उसपर मरती हैं.उसे 'हार्ट थ्रॉब ' नाम भी दिया है.ऐसा लडका मुझे पसंद करने लगा तो गर्व महसूस हुआ..." प्रिया ने खुद से नफरत करने के अंदाज में कहा.
"घर में कंप्यूटर है ना,फिर वहां क्यों गई बेटी?"
" वह सॉफ्ट वेयर हमारे कंप्यूटर में नहीं है.कालेज के कंप्यूटर में है , पर वहां हमेशा लंबी लाइन लगी रहती है.हमारी टीम में दो लडके और दो लडकियां हैं.हम चारों काम जल्दी पूरा करने के चक्कर में सेंटर गए थे."

" तो क्या चारों ने मिलकर काम नहीं किया?"
"पहले दिन साथ ही काम किया था.फिर सोचा दो अलग अलग सेट बनाकर काम करेंगे.श्रीकर ने ही कहा था,'मैं और प्रिया एक विषय पर करेंगे तुम दोनों दूसरे पर करो.'मैं सातवें आसमान पर पहुंच गई.मैंने सोचा मीठी मीठी बातें करते काम पूरा करेंगे.एक ही हॉल में अलग अलग कंप्यूटरों पर बैठने लगे तो सेंटर वाले ने हमसे कहा कि हमें दूसरे कमरे में जाना होगा क्योंकि हमारे कंप्यूटर में यूपीएस का प्रॉबलेम आ गया है.अब सोचती हूं तो लगता है कि हमें फंसाने केलिए पहले से उसने कोई प्लान बनाया था.हम अलग केबिन में बैठे तो थोडी सी घबराहट जरूर हुई पर वह शारारत भरी नजरों से मुझे देखने लगा तो मैं रोमंटिक मूड में  चली गई.मैंने सोचा,' आइ नो व्हेर टु स्टॉप.'बीच बीच में वह अपना पैर मेरे पैर से टकराता, उंगलियां छूने लगता तो यह सब मजेदार खेल ही लगा था मुझे...बस..." यहां तक एक ही सांस में कहकर प्रिया फिर रोने लगी.
सुमती चुपचाप प्रिया के सिर पर हाथ फेरते सुनती रही.
"तीसरी बार मैं ही उतावलापन महसूस कर रही थी कब सेंटर जाएंगे और श्रीकर के साथ बैठने का मौका मिलेगा ! मुझे आशा थी कि वह 'आइ लव यू ' कहेगा... उस दिन मैंने जैसे ही माउस पर हाथ रखा उसने अपना हाथ मेरे हाथ के ऊपर रखा और दबाकर क्लिक करने लगा. मुझे लगा यह गलत है पर मैंने अपना हाथ नहीं हटाया!"
"प्रिया अगर तुझे शादी करके घर बसाना पसंद था तो हम कभी आगे पढने केलिए जोर नहीं देते.यह सब करने की क्या जरूरत थी?" सुमती का गला भी भर आया.
यह सुनते ही प्रिया झट से उठ बैठी. आंसुओं से उसका चेहरा और आगे के बाल भीग चुके थे.उसने बहुत ही संजीदगी से कहा," मां, मैं सबकुछ साफ साफ बताऊंगी...कुछ भी नहीं छुपाऊंगी...चाहे तुम मुझसे नफरत करो या मारो पीटो..."
" हां प्रिया,मैं देख रही हूं कि तुम बिना डर के सचाई बता रही हो. जब हंसी मजाक में पापा ने अपने दोस्त के बेटे से तेरी शादी की बात की और दूर के रिश्तेदार के लडके का रिश्ता आया तो तूने मना करके इतना शोर क्यों मचाया था?"
"मां वह तो शादी की बात थी.शादी और रोमान्स में फर्क होता है.क्या मेरी उम्र की लडकियां शादी करती हैं?"
"तो प्रिया तुम्हें हमने ये संस्कार दिए? मुझे खुद पर शर्म आ रही है..."
"मैं जानती हूं मां.मुझे खुद हैरानी होती है कि मैं इतनी गई गुजरी हरकत कैसे कर बैठी!अपनी जिंदगी को दस दिन पीछे ले जा सकूं तो कितना अच्छा  हो!"
"चलो जो हुआ उसे भूल जा.आगे से ऐसे काम न करने को ठान ली ना,यही काफी है."
"मैंने पूरी बात अभी बताई नहीं मां.तुमने नहीं पूछा हमेशा मेरे गले में पडी रहनेवाली चेन कहां गई?"
"कभी कभी निकालकर दूसरा कुछ पहन लेती हो ना?"
मां के चेहरे से आंखें फेरकर दूर किसी पेड को देखते हुए प्रिया ने कहा," वह...वही, सेंटर का मालिक ...उसने चोरी से हमारा वीडियो शूट किया और दस हाजार देने पर कैसेट हमें देने की बात की.श्रीकर अपने घर से पांच हजार लाया.मैंने चेन बेचकर वे पैसे श्रीकर को दे दिए.दस हजार लेकर उसने कैसेट श्रीकर को दे दिया.यह एक हफ्ते पहले की बात है," प्रिया के गालों पर आंसू बहते जा रहे थे.
"एक हफ्ता पहले इतना सबकुछ हो गया पर तूने बताया ही नहीं?"







" खतरा टल गया था.मैंने सोच लिया अब कभी जिंदगी में ऐसी मुश्किल में नहीं पडूंगी.पर उस कमीने ने उस कैसेट से एक और सीडी बनाकर रख लिया था.यह हमें तब पता चला जब वह फिर से बीस हजार मांगकर ब्लैकमेल करने लगा...वह तो न जाने कितने सीडी बना लिए होंगे...अब उससे छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं..." प्रिया के होंठ फडकने लगे,चेहरा फक पड गया.
मधुकर ने बताया कि श्रीकर ने उसे वह वीडियो दिखाई थीौसने प्रिया से पूछा," वह कैसेट कहां है?"
"श्रीकर के पास है."
" तू कैसी बुद्धू है प्रिया? जरा भी अकल नहीं है? श्रीकर भी तो पराया लडका है.उसके पास कैसेट छोडकर आराम से कैसे बैठी है तू?"
प्रिया फटी आंखों से कुछ देर मां को देखती रही.फिर उसकी आंखें भर आईं तो बोली," श्रीकर वैसा लडका नहीं है मां.और अगर वह कैसेट मेरे पास होगा तो भी क्या फायदा?जब तक उस बदमाश के पास सीडी की कॉपी है तबतक हम सेफ नहीं हैं ना?अब मैं पीछे जाकर जो कुछ हुआ उसे बदल तो नहीं सकती.अगर मेरे जान देने से यह सब उलझन सुलझ जाए तो मैं उसके लिए भी तैयार हूं!"
"कभी ऐसी बात जुबां पर मत लाना,प्रिया! तुम मां बनोगी तभी जानोगी कि ऐसी बात से मां बाप को कितनी पीडा होती है.बच्चे को खोने का दुःख जिंदगी भर सालता रहता है.एक मां कितने सपने देखकर बच्चे को जन्म देती है.कितनी तकलीफें हम्सी खुशी सहकर उसे बडा करती है.सालों बच्चों केलिए ही जीनेवाले मां बाप बुढापे में उनकी छत्र छाया में आराम करने के सपने देखते हैं.बच्चों की जान उनकी अपनी नहीं बल्कि जन्म देनेवाले मां बाप की है.उसपर उनका हक है.और ऐसे में उनके मरने का दुःख भी हमींको उठाना पडेगा? यह कैसा इन्साफ है?"सुमती की वेदना आवेग के रूप में बाहर आई.
प्रिया ने हतप्रभ होकर मां को देखते हुए पूछा," इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी तुम मुझसे पहले की तरह प्यार कर सकती हो?"
"प्रिया एक मां हर हाल में अपने बच्चों को प्यार करती है.गुस्से में,आवेश में आकर कभी आपा खोकर बच्चे से भले ही कह दे कि इससे अछा है तू मर जाती, पर दिल से ऐसा कभी नहीं चाहती." प्रिया का चेहरा दोनों हाथों में लेकर आँखों  में झांकते हुए बडे प्यार से सुमती ने कहा.प्रिया ने अपनी दोनों बांहें मां के गले में डाल दीं.
"मां...आइ लव यू...अब कभी मरने की बात मन में नहीं आने दूंगी.अपने किए का फल जैसा भी हो उसे बरदाश्त करूंगी.आगे से कोई भी काम करने से पहले सावधानी बरतूंगी.आप दोनों का सिर नीचा हो जाए, ऐसा काम तो बिल्कुल भी नहीं करूंगी...प्रॉमिस!" प्रिया ने भारी आवाज में कहा.

मां को सबकुछ बताने के बाद प्रिया का मन जरा हल्का हुआ तो थोडा सा खाकर सो गई.सुमती की भूख मिट गई.वह इस समस्या का समाधान ढूंढते हुए परेशान होने लगी.पति को फोन लगाया.बार बार कोशिश करने पर भी फोन ऑफ आ रहा था.इस तरह की समस्या को किसके साथ बांटे, यह भी समझ में नहीं आ रहा था.पल पल दिल का बोझ बढ रहा था. दस बजे फिर एक बार पति को फोन करके सोने का फैसला कर ही रही थी कि इतने में उसका मोबाइल बज उठा.उसने उठाया,पति का नहीं था.ऑन किया तो उधर से मधुकर की आवाज आई.उसने बेसब्री से कहा," मैडम,मैं हूं ,मधुकर!"
" देखो तुमसे कुछ मांगना चाहती हूं.तुम्हारे पास जो कैसेट है वह मुझे दे दोगे?" उसने बिनती की.
उधर से क्षण भर  केलिए कोई जवाब नहीं आया.फिर मधुकर ने कहा," मैडम उसके बारे में आप निश्चिंत रह सकती हैं.अभी लाकर देने को कहेंगी तो ला दूंगा.आप इस तरह बिनती करके मेरा अपमान न कीजिए..." फिर थोडा रुककर पूछा," प्रिया कैसी है? ठीक तो है ना?"
" हां बहुत देर तक मुझे सारी बातें बताती रही."
"मैंने भी पापा को सबकुछ बता दिया.वे समझदार हैं बात की संजीदगी को समझ गए.हम दोनों मेरे दोस्त,उस एसपी से मिलने गए.उसने कहा कि हम श्रीकर को बीस हजार देकर उस सेंटर में भेजें और उसके पीछे जाकर वे लोग वहां रेड करेंगे."
सुमती सांस रोककर सुन रही थी.
"उसने तो प्रिया को भी श्रीकर के साथ भेजने की बात की थी.पर जबतक यह मामला रफा दफा नहीं हो जाता हम कोई रिस्क लेना नहीं चाहते.मीडिया के कानों तक बात पहुंच गई तो केमेरे ,माइक लेकर आ जाएंगे और हंगामा  करेंगे.इसीलिए प्रिया को इससे दूर रखने केलिए मैंने उससे रिक्वेस्ट किया.शाम को प्लान के मुताबिक सबकुछ ठीक ठाक हो गया.उस आदमी को गिरफ्तार किया, सेंटर में रखे सारे वीडियो निकाल लिए.एसपी ने वादा किया ,'मीडिया को खबर हो भी गई तो किसीका नाम बाहर नहीं आएगा,इसकी जिम्मेदारी मेरी है.' दो दिन में सारे कैसेट देखकर कुछ ऊल जलूल सीडी मिलेंगी तो उन्हें तोडकर जला देंगे.लगता है हम इस दलदल से बिना किसी खरोंच के बाहर निकल आएंगे...आप चिंतित होंगी इसीलिए फोन किया.अब आराम से सो जाइए.गुड नाइट."

सुमती के जवाब का इंतजार किए बिना उसने फोन काट दिया.सुमती का मन उसके प्रति कृतज्ञता से भर गया.आंखें नम हुईं.सबकुछ ठीक ठाक खत्म करने केलिए भगवान से प्रार्थना की.धीरे से जाकर प्रिया की बगल में लेट गई.पर नींद नहीं आई.पिछले एक हफ्ते से प्रिया का बर्ताव सामान्य नहीं था,मैंने ही ध्यान नहीं दिया...'वीडियो के दृश्य आंखों के सामने नाचने लगे...मधुकर की भलमनसी, दूर की सोचने का स्वभाव, सेंटर वाला बदला लेने केलिए कोई कांड न कर बैठे,इस बात का डर...मकडी के जाले में फंसी कीडे की तरह वह रात भर तडपती रही.' ये सीडी पुलिस के हाथ में चली गई हैं,तो क्या वे उन्हें सचमुच तोड देंगे?' सोच सोचकर वह कांपने लगी.
 ठीक सुबह होने से पहले उसकी जरा सी आंख लगी.
जोर जोर से चीखने की आवाज से सुमती चौंककर उठ गई.उनींदी अवस्था में लगा कोई बुरा सपना देख रही हूं.पर पूरा होश आने पर मालूम हुआ चीखनेवाली प्रिया है.वह हडबाडाकर उठी और हॉल में पहुंच गई.सोफा पर बैठी प्रिया की आंखें पगालाई सी थीं.वह जोर जोर से चीख रही थी.सुमती ने उसके दोनों कंधे पकडकर झकझोरते हुए पूछा," क्या हुआ? प्रिया...क्या बात है?"
सुमती को देखते ही प्रिया उससे चिपक गई.सुमती नहीं समझ पा रही थी कि यह हो क्या रहा है.उसने आसपास नजर दौडाई तो उस दिन के अखबार पर नजर पडी. पहले पन्ने पर एक फोटो था जिसमें एक लडकी रस्सी से लटक रही थी.सुर्खियों में बडे बडे अक्शर दिखाई दिए,' कालेज की छात्रा की आत्महत्या - इंटर नेट के जाल में कालेज के छात्र'. सुमती की सांस एक पल केलिए रुक सी गई.सुमती ने सरसरी नजर से खबर पढी. आत्महत्या करनेवाली रागिनी को छोड किसी और का नाम नहीं था.खबर के नीचे तसवीर में पुलिस की पकड में खडा सज्जन सा दिखनेवाला तीस बत्तीस साल का आदमी.सुमती ने दिल कडा करके अंदर के पन्नों पर छपी पूरी खबर पढी और छाती पीटकर रोती रागिनी की मां की तसवीर भी देखी.पढते हुए कांपने लगी पर दिल की गहराइओं में एक तरह की राहत भी महसूस हुई.
इस दौरान प्रिया मां के कंधे पर सिर रखकर कुछ बोले जा रही थी.पूरी खबर पढ लेने के बाद प्रिया पर सुमती का ध्यान गया. " मेरी वजह से ही रागिनी मर गई मां.कल फोन पर मुझसे कह रही थी वह खुद्कुशी करना चाहती है.पर मैंने कुछ नहीं किया.ऊपर से कहा ,मुझे भी ऐसा ही लग रहा है.यह कहकर मैं आराम से सो गई और उसने सचमुच अपनी जान ले ली..." असहनीय दुःख से प्रिया फूट फूटकर रोने लगी.







सुमती ने नाम लेकर पुकारा," प्रिया!"
पर वह अपनी ही धुन में बोलती जा रही थी," कल मैं घर पहुंची तो फोन बज रहा था. मैंने उठाया तबतक बंद हो गया.न जाने उसका ही हो...कितनी बार कोशिश की होगी मुझसे बात करने की...!"
सुमती ने इस बार जोर से कहा," प्रिया ... इधर देखो !!" प्रिया एकदम रुक गई.
" तुम खुद मदद मांगने की स्थिति में हो,फिर दूसरे की मदद न कर पाने से दुःखी होना कहां की अक्लमंदी है?क्या इस बात का दुःख है कि तुम भी उसके साथ न मरकर अभी जिंदा हो?" बहुत कडे स्वर में इतना कहकर सुमती ने प्यार भरी आवाज में,समझाने के अंदाज में कहा," देख बेटी,अब जो हो गया सो हो गया.आगे क्या करना है इसकी चिंता करो.मुझे और परेशान मत करो, मैं बहुत थक गई हूं.उठो,जाकर ठंडे पानी से नहा लो."फिर उसने प्रिया को जबर्दस्ती बाथ रूम भेज दिया और रसोई में चली गई.दूध का पतीला गैस पर चढाकर मधुकर के बारे में सोचने लगी.अगर रागिनी को भी मधुकर जैसे लडके का आसरा मिल जाता तो वह आज जिंदा रहती.उसकी वजह से ही मेरी बेटी आज सही सलामत मेरे पास है.उसकी कितनी भी तारीफ की जाए कम है.
'उस दिन असहाय स्थिति में श्रीकर के घर गई थी.वहां पर मधुकर ने दरवाजा खोला तो उसको देखकर न जाने  मन ही मन कितना खीज उठी थी मैं!पर उस दिन वह वहां नहीं मिलता तो न जाने मेरी जिंदगी आज कैसी होती.मधुकर के समझाने पर मां मुझे माफ करके सहारा न देती तो शायद मैं भी रागिनी की तरह..." सोच में पूरी तरह डूबी प्रिया गाडी रुकने से होश में आई.दोनों घर पहुंच गए थे.प्रमोद उतर गया और उसकी तरफ आया.यह देखकर भी वह हिली नहीं.प्रमोद ने गाडी का दरवाजा खोला,प्रिया की तरफ हाथ बढाकर बोला," चलकर आएगी या..." शरारत भरी नजरों से वह प्रिया को ही देख रहा था.हमेशा चुलबुली रहनेवाली प्रिया आज गुमसुम क्यों है,वह यही सोच रहा था. प्रिया ने प्यार से प्रमोद को देखा और उसका हाथ थामकर नीचे उतरी.

" किस बारे में इतना सोच रही हो ?" अंदर जाते हुए प्रमोद ने पूछा.
"सोच रही हूं? अरे उसी यूपीएस के बारे में.बिजली के जाने से तबतक किया गया सारा काम सेव करने के काम आता है ना?पंद्रह बीस मिनट सहारा बनकर आसरा देनेवाला यूपीएस कितना जरूरी है? है ना?" प्रिया ने प्रमोद की ओर देखकर कहा.

वह हंसकर बोला," कभी कभी बिल्कुल बच्चों जैसी बातें करती हो प्रिया.इतना अनोखा कंप्यूटर,सॉफ्ट वेयर ,इन सबको छोडकर तुम यूपीएस की तारीफ कर रही हो?" उसके सिर पर प्यार से हल्की सी चपत लगाकर वह घर में दाखिल हुआ.
रागिनी को और उससे जुडी यादों को मन की परतों के नीचे दबाकर वह भी अंदर गई.घर पहुंचते ही आडियो सिस्टम चलाना प्रमोद की आदत है.उसके बटन दबाते ही गाना बजने लगा,'आ चलके तुझे मैं लेके चलूं...". ये गीतकार तो कुछ भी लिख देते हैं,ऐसा सोचकर प्रिया मुस्कुराई.क्या आंसू और गम के बिना भी कहीं कोई दुनिया होती है? फिर भी जब किसीको जब चारों ओर से अंधेरा घेर ले, समस्याओं के भंवर में कोई फंस जाए ,तब कोई इस तरह दिलासा देता है, आसरा बनता है तो क्या यह काफी नहीं होता?

     



परिचय:-

आर शांता सुंदरी
चार दशकों से अधिक अनुवाद क्षेत्र में सक्रिय.अबतक ७४ पुस्तक प्रकाशित.कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक इन सभी विधाओं में अनुवाद प्रकाशित. तेलुगु से हिंदी, हिंदी से तेलुगु, अंग्रेजी से तेलुगु और तमिल से तेलुगु में अनुवाद कार्य.

पुरस्कार: पोट्टि श्रीरामुलु तेलुगु विश्वविद्यालय का उत्तम अनुवाद पुरस्कार(तेलुगु)-प्रेमचंद का बाल साहित्य-१३ कहानियां, हैदराबाद
केंद्रीय साहित्य अकादेमी का उत्तम अनुवाद पुरस्कार(तेलुगु) - प्रेमचंद घर में,नयी दिल्ली
'डा. गार्गी गुप्त द्विवागीश सम्मान '(तेलुगु-हिंदी में आदान प्रदान) , भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली.
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ,दिल्ली - अनुवाद में प्रथम पुरस्कार(हिंदी), सलीम का उपन्यास,'नयी इमारत के खंडहर'.

संपर्क: ५०६, वेस्टएंड अपार्टमेंट्स,
         मस्जिद बंडा, कोंडापुर,
          हैदराबाद - ५०००८४
मोबाइल: ९४९०९ ३३०४३
ईमेल: arusat8@gmail.com


 
वारणासि नागलक्ष्मी

वारणासि नागलक्ष्मी
तेलुगु की जानी मानी लेखिका हैं. इनके तीन कहानी संग्रह, एक नृत्य नाटिका, और गीतों का एक संग्रह प्रकाशित हैं.
पुरस्कार : गीत-संग्रह के लिए तेलुगु विश्वविद्यालय का पुरस्कार प्राप्त हुआ.
लेखन के अलावा नागलक्ष्मी चित्र-कला में भी निपुण हैं. उनके अनेक चित्रों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हैं.
Society for Promotion of Art द्वारा उत्तम पुरस्कार से सम्मानित हैं और दूसरा चित्र 'Blues& Blooms' लन्दन के रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट में प्रदर्शन के लिए स्थान पा चुका है.

ईमेल- varanasi.nagalakshmi@gmail.com