19 जुलाई, 2018

कहानी: 

चीफ की नाक

हरीश पाठक



हरीश पाठक 



यह पहली बार था।प्रबल प्रताप की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? वह देश की एक बड़ी फाइनेंस कंपनी के जोनल चीफ के विशाल केबिन में खड़ा था, जहां ठंडी हवाएं रह-रहकर बरस रही थीं पर न जाने क्यों उसे अपने आसपास तेज-तेज गरम लपटों का अहसास हो रहा था।

वह हैरान था कि जोनल चीफ जैसे अधिकारी के आसपास बैठे लोगों को भी एफआईआर की ताकत नहीं मालूम थी, जबकि आज पूरे शहर में एक एफआईआर ने हंगामा मचाया हुआ था। शहर में हड़कंप था और जनता हैरान थी कि शहर के सबसे प्रतिष्ठित लंगर सिंह महाविद्यालय के संस्थापक ठाकुर लंगर सिंह पर उन्हीं के कॉलेज की एक प्राध्यापिका ने बलात्कार का आरोप लगाया है। यही खबर पूरे शहर में सुबह से चक्कर लगा रही है। चक्कर लगाती यह खबर परिवारों को डरा रही है और अखबारवालों को धमका रही है।

प्रबल प्रताप सीढ़ियां उतर रहा था पर उसके भीतर यह सवाल उबल रहा था कि चीफ साहब ने उसे सबके सामने किस- हैसियत से अपमानित किया? वह शहर के सबसे ज्यादा बिकनेवाले अखबार ‘राष्ट्रप्रेम’ का संपादक है, अखबार में छपनेवाली हर खबर का जिम्मेदार वह है। अखबार के आखिरी पन्ने पर उसका नाम भी जाता है। चीफ साब से उसका लेना-देना क्या? सिर्फ इतना कि वे उस ‘सदानीरा फाइनेंस कंपनी’ के मुखिया हैं, जो अखबार की पैतृक संस्था है और दोनों के मालिक बड़े साहब यानी धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ हैं।

फिर चीफ साहब ने उसे क्यों अपमानित किया? वह भी कई लोगों के सामने। वह यह भी भूल गए कि वे एक संपादक से बात कर रहे हैं जिससे मिलने से पहले शहर के डीएम और एसपी समय मांगते हैं।

प्रबल प्रताप के आगे सब कुछ धीरे-धीरे घूमने लगा।
वह आकर केबिन में बैठा ही था कि चिंता उर्फ चिंतामणि धड़धड़ाता केबिन में घुस आया। चिंता का चेहरा देख पता नहीं क्यों प्रबल प्रताप को अजीब सी चिढ़ होती है। जोनल चीफ का पीए चिंता पूरे कैंपस में दनदनाता घूमता है। माथे पर लंबा टीका ‘श्री’ जिसे वह समृद्धि की निशानी बोलता है, लगाए चिंता उसकी बुशर्ट का ऊपर का बटन हमेशा बटन रखता है, लोग उसे ‘जोकर’ कहते हैं।

चिंता ने आते ही कहा- ‘आधे घंटे से चीफ साहब आपको याद कर रहे हैं।उसकी नजरें अखबार पर ही गड़ी थीं। उसने चिंता की तरफ देखा तक नहीं। ‘आता हूं’ उसके मुंह से बहुत धीरे-से निकला।
‘आप इन्हें जानते हैं?’ केबिन में पहुंचते ही चीफ साहब ने बगल में बैठे एक धोती कुर्ताधारी सज्जन की तरफ इशारा करते हुए कहा। आज आपने इनकी इज्जत धूल में मिला दी। जानते हैं बड़े साहब को जब यह पता चलेगा, तो आप यहां से खदेड़ दिए जाएंगे। तब क्या करेंगे? कौन आएगा आपके साथ? जानते हैं जी, कितना मुश्किल होता है बगैर नौकरी के जीना?

‘क्या हुआ’, वह संयत स्वर में बोला?

पूछ रहे हैं क्या हुआ? इतने भोले हैं? ये लंगर सिंहजी हैं जिनके गोरखपुर के आसपास तीन कॉलेज चलते हैं। शहर के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति और आपने छाप दिया कि किसी रश्मि कुमारी ने इन पर बलात्कार का आरोप लगाया है, वह भी पहले पन्ने पर, पहली खबर।वह तो सारे, अखबारों की आज लीड है। फिर एफआईआर दर्ज हुआ है। गिरफ्तारी भी तय है। केवल हमारा ही अखबार थोड़े है ‘हिंदुस्तान’ और ‘जागरण’ में भी यह खबर पहले पन्ने पर है। हमने इतना भर ज्यादा छापा है कि इस कॉलेज में दो साल में तीन बलात्कार के मुकदमें दर्ज हुए हैं।

फिर शहर का सबसे बड़ा कॉलेज कैसे है?’ अबकी लंगर सिंह बोले।

प्रतिष्ठित कॉलेज था, अब नहीं है। बलात्कार की खबरों में आने के बाद रोज-रोज इसकी बदनामी हो रही है। विमला वर्मा वाले मामले में तो आपके एकाउंटेंट को दोषी भी पाया गया है, उसे सजा होना भी तय है। प्रबल प्रताप की आवाज गूंजी।
‘चुप रहो जी। आपने मुझसे तो पूछा होता। मैं इसी कंपनी का चीफ हूं। चीफ साहब जानते हैं लंगर सिंहजी से कंपनी को कितना फायदा है। आप लगातार बहस कर रहे हैं। ये एफआईआर क्या चीज है? फाड़कर फेंक दीजिए उसे। कागज का ही तो पुर्जा है। कमाल करते हैं खुद भी उससे डरे हुए हैं और हमको भी डरा रहे हैं।

आप एफआईआर का मतलब नहीं जानते, उसकी ताकत नहीं जानते तो मैं क्या करूं? आपके आसपास के लोग भी उसकी दहशत से वाकिफ नहीं है। यह कानून का वह हंटर है जिसकी धमक सबको हिला देती है। फिर मैं संपादक हूं, मुझे तय करना है क्या छपेगा, क्या नहीं? अखबार में मेरा नाम जाता है, अदालत में मेरी गवाही होती है आपकी नहीं। आप खबरों के बारे में मुझसे कुछ भी नहीं पूछ सकते। यह अधिकार सिर्फ ग्रुप एडीटर को है, आपको नहीं।’ प्रबल प्रताप एक सांस में बोल गया।

‘ग्रुप एडीटर कौन, वह बहरा? और वह क्या जाने फाइनेंस के गुर। पैसा तो हम लोग लाते हैं। खबरों से पैसा आता है क्या? जानते हो तुम्हारे अखबार का पैसा कहां से आता है? हमारी कंपनी ‘सदानीरा’ तुम जैसों को पाल रही है। वह तो बड़े साहब का मन है वरना काहे का अखबार, कैसी एफआईआर?’‘यह तो बेहद बदतमीज आदमी है। आपसे बहस कर रहा है? इसे मुर्गा बना दीजिए हमारे सामने। हमारा मन शांत हो जाएगा। अदालत में तो हम देख ही लेंगे। कितनी रश्मि कुमारी हमारे आगे पीछे घूमती रहती हैं। आप जानते नहीं हैं क्या?’

देर तक केबिन सन्नाटे की बांहों में कैद रहा। प्रबल प्रताप ने लगभग चीखते हुए कहा- ‘आगे से मुझे मत बुलाइए। आपके बुलाने पर अब मैं आऊंगा भी नहीं’।
यह तो धमकी दे रहा है लंगर सिंह की आवाज गूंजी।प्रबल प्रताप नीचे अपने केबिन में आ गया। उसने फोन उठाया और ग्रुप एडीटर का नंबर दबा दिया। जब-जब वह परेशान होता है, ग्रुप एडीटर का ही ऐसा कंधा है जिस पर वह अपना सिर टिका सकता है। बाबू तीर विजय (तीर विजय) सिंह जिन्हें वह बाबू साहब कहता है, फोन के दूसरी तरफ थे।
‘बोलो प्रबल सर’ उसके कानों ने सुना।उसने पूरा किस्सा सुना दिया और उसे लगा बहुत देर से जो कुछ उसके भीतर उमड़-घुमड़ रहा था वह एक झटके में शांत हो गया।

पहले धीमे फिर दहाड़ते हुए बाबू साहब ने कहा- डरना मत प्रबल सर, मैनेजरों से संपादक नहीं डरते। उनका काम पैसा जुटाना है। जुटाते रहें। जहां से, जैसे भी जुटाएं। हमारा काम बेहतर अखबार निकालना है। निकाल रहे हैं। तब ही तो नंबर वन हैं। डरना मत। मैं बैठा हूं। मेरे रहते आपका कोई कुछ नहीं कर पाएगा। इसकी बदतमीजी बड़े साहब तक पहुंचाकर रहूंगा।’

फोन से टपके शब्द प्रबल प्रताप को ताकत दे गए। उसे लगा चीफ साहब के सामने झुकने का मतलब रोज-रोज झुकना है। उसकी समझ में ही नहीं आता कि ग्रुप एडीटर को बहरा, यूनिट हेड को टूटा और उसे हकला कहने वाला जोनल चीफ उत्तर प्रदेश के इस सबसे बड़े जोन का मुखिया क्यों और कैसे बना हुआ है? यह भी प्रबल प्रताप के समझ से परे है कि बड़े साहब उसे बेतहाशा पसंद भी क्यों करते हैं?

एक झटके में प्रबल प्रताप की नजर कंप्यूटर पर गयी- कंप्यूटर फिर बंद था। वह बड़बड़ाया। आज कंप्यूटर बार-बार हैंग क्यों हो रहा है। उसने सिस्टम इंजीनियर को फोन किया। उधर से आवाज आई- सर्वर डाउन है सर। कुछ देर में ठीक हो जाएगा।

जिंदगी के इस मोड़ पर आकर न जाने क्यों प्रबल प्रताप को लगने लगा है कि जिंदगी भी हैंग हो रही है। कभी तेज-तेज, कभी धीमे-धीमे, तो कभी कंप्यूटर के स्याह स्क्रीन की तरह काली, भद्दी और बेरौनक। कंप्यूटर में खबरों की पुरानी फाइलें खोलने और बंद करते वक्त एक दिन अचानक उसकी अपनी जिंदगी की फाइल ही खुल गयी। वह चुप-पुच उसी खुली फाइल की एक-एक लकीर को पकड़ता, छोड़ता रहा।
उसके सामने उभरा मुंबई का वह बीटी स्टेशन जहां से आज वह विदा ले रहा था और जा रहा था नई नौकरी पर। स्टेशन के ठीक सामने टाइम्स ऑफ इंडिया की भव्य इमारत थी, गॉथिक कला का ऐतिहासिक नमूना। इसी इमारत से निकलनेवाले देश के सबसे बड़े अखबार में उसने पूरे ग्यारह साल नौकरी की थी। पत्नी सामने थी। उसकी आँखें गीली थीं और कह रही थी ‘इस उम्र में मुंबई छोड़ना और आपका अकेला रहना ठीक नहीं है। नयी कंपनी, नया अखबार कितना टिकाऊ साबित होगा मैं नहीं जानती पर इतना जरूर जानती हूं कि कहीं यह नौकरी रास नहीं आई तब हम क्या करेंगे? ठीक है आप यहां संपादक नहीं थे, पर अखबार तो देश का नंबर वन है। फिर उसकी आवाज में भारीपन उतर आया और बोली कहीं ऐसा न हो कि यह गलती हमें जिंदगी भर का जख्म दे दे।’

प्रबल प्रताप सन्नाटे में था। पत्नी के शब्द टन-टन की ध्वनि के साथ उसके कानों में बज रहे थे। एक लंबी सीटी बजी और ट्रेन प्लेटफार्म पर रेंगने लगी। सरकती ट्रेन और हवा में हिलता वंदना का हाथ उसे भीतर तक भेद गया। वंदना का हाथ कभी आँखों तक आता, तो कभी हवा में हिलता।धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म एक गोल काले धब्बे में तब्दील हो गया। वह दरवाजे से सरककर सीट पर बैठ गया पर उसके कानों पर वंदना थी। रह-रह कर उसके कान सुन रहे थे ‘ऐसा न हो कि यह गलती हमें जिंदगी भर का जख्म दे दे।’




जख्म तो उसे मिले। जख्मी हुए उसके सपने। वह जिन उम्मीदों पर सवार होकर ‘दैनिक राष्ट्रप्रेम’ का संपादक बनकर गोरखपुर आया था, वैसा उसने कुछ नहीं पाया। उसे याद आया सुबह का वह दिन जब वह दफ्तर पहुंचा ही था कि चीफ रिपोर्टर ने एक कार्ड उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा था- ‘आज रात आठ बजे अगस्त क्रांति मैदान में रामलीला समिति का विशाल कवि सम्मेलन है। बड़े कवि आ रहे हैं। ऊपर से आदेश है। फोटोग्राफर को बोल दिया है। एक-दो कवियों से छोटी-सी बात भी कर लेना, खबर के बीच में बॉक्स लग जाएगा।
प्रबल प्रताप की यही मुलाकात ध्रुवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ से हुई। वे राष्ट्रभक्ति के गीत मंच से सुना रहे थे। प्रबल प्रताप को उनकी कविताओं में कोई दिलचस्पी नहीं थी, पर मंच के आगे बैठे नौजवान, उनकी हर कविता पर ताली बजा रहे थे। वे सुना रहे थे ‘तरुण क्रांति का शंख बजाओ रे, विषमता दूर भगाओ रे’ और मंच के ठीक सामने बैठे नौजवान ताली दर ताली बजा रहे थे।

पर प्रबल प्रताप को उनसे मिलकर, बात कर जरा भी अच्छा नहीं लगा। वह भौंचक था कि बातचीत में जब उसने पूछा- ‘कविता में आपका आदर्श?’ तो वह बड़े गर्व से बोले- ‘काका हाथरसी’। उसने फिर दोहराया- ‘काका तो हास्य व्यंग्य के कवि हैं, उनका साहित्यिक योगदान तो ज्यादा नहीं है। निराला, दिनकर, पंत में से कोई? वह बेधड़क बोले- ‘मैं काका को सबसे ऊपर मानता हूं। उनकी निश्छल हँसी, उनका कविता पढ़ने का अंदाज, लोगों को लोटपोट कर देने की कला लाजवाब है। वे सबसे ऊपर हैं। फिर वे काका हाथरसी की कुछ कविताएं सुनाकर खुद इतनी जोर से हँसने लगे कि प्रबल प्रताप डर गया।

ध्रुवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ से यह उसकी पहली मुलाकात थी। जाते-जाते उन्होंने कहा- ‘मिलते रहिए’। एक साथ तैंतीस शहरों से ‘राष्ट्रप्रेम’ नाका रंगीन, ब्रॉडशीट अखबार निकाल रहा हूं। संपादक बना दूंगा, संपादक।

इसी कोण पर आकर सब कुछ बदल गया था। अरसे तक रिपोर्टिंग करते-करते प्रबल प्रताप ऊब गया था। प्रशासन से लेकर हेल्थ और रेलवे से लेकर लेबर तक सारी बीट वह देख चुका था। उसके भीतर एक महत्वाकांक्षा बार-बार पछाड़ खा रही थी कि जब जहां उसे मौका मिले वह संपादक की कुर्सी पर बैठ जाए। एक ऐसा अखबार निकाले जिसमें जनता का चेहरा दिखे। वह जनता का लाड़ला अखबार बने। वह शाम से शहर में घूमे। उसके केबिन के बाहर भीड़ ही भीड़ हो और अखबार के आखिरी पन्ने पर बतौर संपादक उसका नाम हो। यह सपना हर रोज, हर वक्त उसने मन के भीतर गश्त लगाता। उसने यह सपने की खातिर भी सोच लिया था कि यदि, शहर भी बदलना पड़े तो कोई दिक्कत नहीं। वंदना की नौकरी चल ही रही है।

यह तो उसे ‘राष्ट्रप्रेम’ में आकर पता चला कि मंच से राष्ट्रभक्ति के गीत गाने वाले और अपने हर समारोह की शुरुआत में भारत माता की मूर्ति पर पुण्य अर्पित करनेवाले ध्रुवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ उस ‘सदानीरा’ फाइनेंस कंपनी के मुखिया हैं, जिसकी पूरे देश में तीन सौ निहत्तर ब्रांच हैं ‘सदानीरा’ का तंत्र धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ ने इस तरह बनाया था कि उसकी सांसें उसी के इशारे पर ऊपर-नीचे चलती थीं।

जोन में बांट दिया था पूरा देश। हर शहर में, गांव में, कस्बे में ‘सदानीरा’ के दफ्तर थे। उसके एजेंट जिन्हें वह फील्ड वर्कर कहने रोज घर-घर जा कर दस रुपये से लेकर सौ रुपये तक इकट्ठे करते। फुटपाथ पर बैठे मोची से लेकर, चना-चबेना बेचनेवाले, फूल माला बेचकर अपना पेट पालनेवालों से लेकर घरों में दूध देनेवाले और मंदिर के पुजारी तक ‘सदानीरा’ के क्लाइंट थे। न बैंक जाने की जरूरत, न लाइन में लगने का झंझट। छोटा आदमी, अनपढ़ आदमी खुश रहता कि घर पैसा ले जाता है और मौका पड़ने पर घर पर ही पैसा आ जाता है। शादी-विवाह हो या मरक मौत ‘सदानीरा’ को फोन करो पैसा हाजिर। यह भी कि होली, दीपावली और ‘सदानीरा’ के स्थापना दिवस पर मिठाई के डिब्बे का आना कभी नहीं रूका।

यह ऐसा टोटका था जिसमें ‘सदानीरा’ को घर-घर पहुंचा दिया था। देखते ही देखते वह पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक बड़ी फाइनेंस कंपनी बन गयी थी।

कुछ ही दिनों में प्रबल प्रताप यह जान गया कि जिस स्वतंत्रा और जनता की आवाज वाले अखबार की कल्पना वह मन के भीतर कोने में सजा-सवांरकर बैठा है, वह अखबार कम-से-कम ‘राष्ट्रप्रेम’ तो नहीं ही हो सकता।

कई सीढ़ियां थीं और चक्करदार इन सीढ़ियों पर कई निगाहें काबिज थीं। यह गोरखपुर में था पर यहां अखबार से ज्यादा ‘सदानीरा’ के दफ्तर थे। धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ मंच से उतरकर ‘सदानीरा’ के सर्वेसर्वा थे। वे कविताएं भूलकर यह ध्यान रखते कि किस जोन को कितना टार्गेट दिया है और वह पूरा हुआ या नहीं। यदि किसी जोन ने टार्गेट से ज्यादा पैसा जुटा लिया तो उसे उपहारों से लाद दिया जाता। इंटर्नशिप के साथ विदेश यात्रा का भी मौका वह जोन और उसके अधिकारी पा लेते। यहां आते ही कविताएं दराज में चलीं जातीं और धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ बड़े साहब में तब्दील हो जाते।

 ऐसे बड़े साहब जिनकी कानपुर में ‘ड्रीम लैंड’ नाम का अपना शहर ही बसा हुआ था। इसमें ऑडिटोरियम भी था और थिएटर भी। इसमें जहाज भी खड़े थे और पांच सितारा सुविधाओं वाले गेस्ट हाउस भी थे। बड़े साहब की गिनती देश के बड़े उद्योगपतियों में थी। अमिताभ बच्चन भी ड्रीमलैंड में आते थे, कपिलदेव भी और सानिया मिर्जा भी। मायावती से भी उनके रिश्ते थे, मुलायम सिंह से भी और राजनाथ सिंह से भी। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बड़े साहब ‘ड्रीमलैंड’ में ही रहते और ‘अपना उत्सव’ मनाते। नए साल के पहले दिन वे एक सौ तेरह अनाथ लड़कियों का विवाह कराते। उस दिन ‘राष्ट्रप्रेम’ सहित तमाम अखबारों में पूरे-पूरे पेज की खबरें छपतीं।खबरें वे नहीं छप पातीं जिनके बारे में साफ-साफ हिदायत थी कि ‘कंपनी के हित में शहर के इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों से जुड़ी कोई भी खबर नहीं छापी जाए। यह हिदायत सीधे-सीधे बड़े साहब के ऑफिस से थी। एक बंद लिफाफा उसे पहले ही दिन मिला था जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था ‘गोरखपुर संस्करण के ध्यानार्थ’।

ये और ऐसे तमाम रंग-बिरंगे परदे धीरे-धीरे उसके सामने से हटते गए। जैसे-जैसे वह अखबार में पुराना होता गया, वैसे-वैसे उस सूची से निकले नाम उसे अपने बनैले पंजों से डराते रहे।

यह राज पल-प्रतिपल गहराता जा रहा था कि आखिर ‘जनता का अखबार’ स्लोगन के साथ निकलने वाले ‘राष्ट्रप्रेम’ से अशोक शुक्ला, सुधीर सिंह, ब्रह्मा यादव, छात्रा नेता मुर्गी सिंह, अमित मोहन, राकेश यादव, चंदन सिंह, एसओ रामपुकार और डीएसपी शिवचरन लाल का क्या रिश्ता है। चीफ साहब के केबिन में उनका बेधड़क आना, घंटों बैठे रहना, उनके सत्कार में पूरे दफ्तर का जुट जाना किस हकीकत की तरफ इशारा करता है? जबकि ये सारे शहर के बदनाम चेहरे हैं।

‘अशोक शुक्ला को आप नहीं जानते?’ न्यूज एडीटर भूतभावन जिन्हें दफ्तर में सब ‘बाबा’ कहते थे, ने चौंकते हुए पूछा।

‘मैं कैसे जानूंगा, मैं तो सीधे मुंबई से आया हूं। पहले कभी यूपी में रहा भी नहीं। वह धीरे-धीरे बोला।

‘तब आपने श्रीप्रकाश शुक्ला का नाम तो सुना ही होगा। वही जिसने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को जान से मारने की धमकी दी थी। धमकी के बाद पूरा प्रशासन हरकत में था। बाद में एसटीएफ ने उसे गाजियाबाद में मार गिराया था। श्रीप्रकाश गोरखपुर का ही था। हत्या से पहले अखबार के दफ्तरों में फोन करके कहता था- ‘आज चार बजे एक हत्या कर रहा हूं। पहले पेज पर छाप देना फिर इतनी जोर से हँसता था कि आदमी डर जाए। कौड़ीराम के थाना प्रभारी की उसने सरेआम हत्या कर दी थी। हत्या के बाद देर तक वह मृतक की देह पर गोलियां बरसाता था, कहीं बच न जाए बेचारा।’

‘अशोक शुक्ला उसी का भाई है। उतना ही शातिर, उतना ही बड़ा क्रिमनल।’

‘चीफ साहब से उसका क्या लेना-देना?’ उसने पूछा।

‘रोज आता है। वह साहब का भी खास है, चीफ साहब का भी। सुधीर सिंह भी चीफ साहब का खास है।’‘वही सुधीर सिंह जो जेल से रंगदारी मांगता है? परसों ही खबर छापी थी डॉ. रूपम से बीस लाख मांगे थे।’ वह डरा-डरा सा बोला।
‘जी, वही सुधीर सिंह जो जेल से रंगदारी मांगता है और पैरोल से छूटने के बाद सबसे पहले चीफ साहब के पैर छूने आता है। इधर छूटा, उधर फिर कोई हत्या, फिर भीतर।’ अबकी भूतभावन खिलखिलाकर हँस पड़ा।

एक बार तो सुधीर सिंह अपने दलबल के साथ जब दफ्तर आया तो अपना क्राइम रिपोर्टर आलोक दुबे वहीं बैठा था, चीफ साहब के पास उसके आते ही चीफ साहब हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उसके साथ आए लोग सोफे पर आलथी-पालथी मार कर बैठ गए। एक आदमी सिर पर पोटली रखे था। सुधीर सिंह ने उससे कहा- ‘चीफ साहब को दे दो।’ उसने पोटली चीफ साहब की टेबल पर रख दी।

‘कितने हैं?’ चीफ साहब ने पूछा।

‘फोन पर बताऊंगा’ सुधीर सिंह ने कहा।

‘किसके नाम?’ चीफ साहब ने फिर पूछा।

‘एक नई लड़की है, उसके नाम।’ सुधीर सिंह बोला।
‘नाम’ चीफ साहब फिर बोले।

‘वह भी फोन पर बताऊंगा।’ सुधीर सिंह फिस्स से हँस दिया।

फिर वह बड़े इत्मीनान से बोला ‘स्टेशन के चौराहे से हम जैसे ही आपके दफ्तर के लिए मुड़े तो ट्रैफिक पर खड़ी पुलिस हमें ऐसे देख रही थी जैसे आँखों से ही गोली चला देगी।’

अभी सुधीर सिंह बोल ही रहा था कि पुलिस के साइरन की आवाज पहले धीमी, फिर तेज-तेज होती गयी। सुधीर सिंह के मुंह से निकला- ‘पुलिस, यहां अखबार के दफ्तर में।’
जब तक सीढ़ियों से तेज-तेज आवाजें आने लगीं।

सुधीर सिंह और उसके साथी फुर्ती से उठे। सुधीर सिंह ने चीफ साहब को धकियाया और उनके पीछे की खिड़की से दनादन सारे लोग कूद गए। केबिन में अफरातफरी मच गयी। चीफ साहब ‘चिंता, चिंता’ चिल्लाए और पोटली उठाकर, बगल के कमरे की तरफ भागे। चिंता आया और पोटली को उसने झटके से एक अलमारी में बंद कर दिया। चीफ साहब बगल के गेस्ट रूम में चप्पल उतार कर आराम से बैठ गए। डर के मारे उन्होंने बगल में पड़ा अखबार उठा लिया। वह तो चिंता ने सीधा किया, घबराहट में उन्होंने उलटा अखबार थाम लिया। पुलिस आयी, चली गयी।

भूतभावन फिर हँसा। वह बोला ये चीफ साहब हैं सर। घबराहट होती है कभी-कभी यह देख कर कि शहर के सबसे ज्यादा बिकनेवाले अखबार की पैतृक संस्था का जोनल चीफ अपराधियों को शरण भी देता है और उनसे रिश्ते भी रखता है। छात्रा नेता के नाम से मशहूर मुर्गी सिंह ने तारामंडल में अपनी पूर्व प्रेमिका को बीच चौराहे पर जला दिया था। जब तक उसकी देह जलती रही वह रिवाल्वर थामे वहीं खड़ा रहा। रामपुकार जब रेती चौक में एसओ था तब अपने लापता भाई का पता लगाने की गुहार लेकर थाने पहुंची एक गर्भवती महिला को उसने इतना प्रताड़ित किया कि उसका थाने में ही गर्भपात हो गया। शहर भर में हंगामा मचा। महिलाओं ने थाने को घेर लिया। रामपुकार का पहले निलंबन हुआ, बाद में उसको बर्खास्त कर दिया। अब तुर्कमानपुर में होटल चलाता है। वह भी चीफ साहब का खास है। डीएसपी शिवचरन लाल जिसने फंदे पर लटकी अपनी पत्नी का वीडियो बनाकर खुद वाइरल कर दिया था बाकायदा सजा काट कर लौटा है। उसने तो चीफ साहब की छोटी बेटी के विवाह की सारी तैयारी की थी। दरवाजे पर वह साफा बांधे ऐसे खड़ा था जैसे चीफ साहब की बेटी न होकर उसकी बेटी हो।





भूतभावन शांत हो गया। प्रबल प्रताप भी शांत था। एक ऐसा सन्नाटा दोनों के बीच पसरा था जो धीरे-धीरे डर पैदा कर रहा था।

घंटी बजी। प्रबल प्रताप ने फोन उठाया। दूसरी तरफ चिंता था। ‘साहब बात करेंगे’ उसने कहा।

‘ये पंडवा कौन है जी?’ चीफ साहब की आवाज आई।
‘पंडवा, मैं तो नहीं जानता’ वह बोला।

‘अरे कोई पंडवा था आपके पहले संपादक। दो घंटे से नीचे बैठा है। भीख मांग रहा है। कह रहा है रिटायर्ड हुए तीन साल हो गए न पीएफ मिला, न बकाया। अरे हम क्या करें जी? हमारा अखबार से क्या लेना-देना? बड़े साहब जानें, उनका काम।’

इस बीच भूतभावन फुसफुसाया। प्रदीप पांडे होंगे, पुराने संपादक। कई दिन से चक्कर लगा रहे हैं। नौतनवा में एक्सीडेंट में जबसे उनका बेटा मरा है, बेहद परेशान हैं। कल मेरे पास भी आए थे, आपसे मिलना चाह रहे थे पर कल आपको फॉरेस्ट क्लब में मालिनी अवस्थी के कार्यक्रम में जाना था।

‘मैं नहीं जानता। मेरे पहले वे ही संपादक थे, मुझे इतना भर पता है।’ उसने टुकड़ा-टुकड़ा कहा।

पर उसने साफ-साफ सुना चीफ साहब किसी से कह रहे थे ‘भगाओ साले को। पेड़ पर लटका है क्या पैसा जो तोड़ कर दे दूं। कितनी मुश्किल से जुटता है पैसा यह मैं ही जानता हूं।’

फोन कट गया था। फोन से उभरा चीफ साहब का बदमिजाज चेहरा प्रबल प्रताप को तोड़ रहा था। यह कैसा आदमी है जिसने मान मर्यादा की सारी दीवारें तोड़ दी हैं। सुधीर सिंह के सामने हाथ जोड़ता है और प्रदीप पांडे को ‘भगाओ साले को’ कहता है। पांडे को पंडवा कहता है और अपराधियों को ‘सर’। उसे लगा वह सायास ही उस गंधी गुफा के मुहाने पर खड़ा है जिसके आसपास चटक-मटक रोशनी थी। उसी चमकदार रोशनी ने उसे छल लिया था।

वह झिलमिलाती और मन को रिझाती उस रोशनी के पीछे का स्याह अँधेरा कहां समझ पाया था? वह तो सुन रहा था वंदना की आवाज ‘ऐसा न हो यह गलती हमें जिंदगी भर का जख्म दे दे।’ उसने दोनों हाथों से कान बंद कर लिए।

‘तो वह ठगा गया है?’ उसके भीतर से एक मजबूरन आवाज उभरी।

ठगा तो कोई और गया था। यह किस्सा उसने कई बार, कई लोगों से सुना था। जब-जब ‘सदानीरा’ की बात चलती तब-तब श्रीधर पंजाबी का जिक्र जरूर होता और श्रीधर पंजाबी का जिक्र होता तो यह सच बेपरदा हो जाता कि धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ का देश प्रेम, देश के प्रति उनकी निष्ठा, भारत माता की विशाल मूर्ति के आगे उनका झुकना और पर्व जैसे आयोजन सिर्फ और सिर्फ छलावा हैं। उनकी नींव में वह दगाबाजी बहुत चुपके से आ बैठी है जो दगाबाजी उन्होंने श्रीधर पंजाबी के साथ की। वक्त की रेत में सब कुछ फिसल गया। लोग हाथरस को भूल गए, लोग श्रीधर पंजाबी को भूल गए। लोग उस मायावी लोक में गुम हो गए जो धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ का बनाया हुआ था।

यह किस्सा हाथरस का नहीं है, यह किस्सा कानपुर का नहीं है। यह किस्सा ध्रुवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ के उस कायातंरण का है जिसमें वह कवि सम्मेलनों के मंच से उतरकर ‘सदानीरा’ जैसे विशाल साम्राज्य का बड़ा साहब’ बन जाता है। स्कूटर पर कुर्ता-पाजामा पहन कर गली-गली घूमनेवाला ध्रुवनारायण ऊपर से नीचे तक सफेदी में डूब जाता है। वह सफेद सफारी, सफेद जूते, सफेद कार यहां तक कि उसका केबिन तक सफेदी में सराबोर था। परदे सफेद, सोफा सफेद, टेबल, कुर्सी, घड़ी सब कुछ एक ही रंग में रंगा- झक्क सफेद।
वह 13 दिसंबर की सर्द रात थी। हाथरस के मेले का कवि सम्मेलन था। काका हाथरसी के बगल में बैठे ध्रुवनारायण अपनी कविता पढ़ चुके थे। संयोजक से अपना लिफाफा भी ले चुके थे कि एक पर्ची ने उनकी जिंदगी में हलचल पैदा कर दी। उनके हाथ में एक पर्ची आई जिस पर लिखा था ‘आज रात आप मेरे मेहमान हैं- श्रीधर पंजाबी।’

ध्रुवनारायण उठे और पर्ची लाए आदमी के साथ श्रीधर पंजाबी के पास पहुंच गए। सुरक्षा घेरे में बैठे श्रीधर पंजाबी ने कहा ‘आप हाथरस के मेहमान हैं, एक दिन मुझे आपकी खातिर करने का मौका दीजिए।’ ध्रुवनारायण हाथ जोड़कर पूरे झुक गए।

उस रात उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे कहां आ गए। मीलों तक फैली कोठी। बाग ही बाग। दरवाजे पर जबरदस्त सुरक्षा। गेट से लेकर कोठी तक जाने के लिए मर्सीडीज, सीएनजी कारों की भी एक कतार खड़ी थी। हेलीपेड़, मेहमानों के ठहरने के लिए होटलनुमा गेस्ट हाउस। पोलो ग्राउंड। रंगमंच। हेलीपेड और एक विशाल सभागार। ध्रुवनारायण को लगा वे किसी स्वप्नलोक में आ गए हैं जिसके हर दरवाजे पर कौतुक और जिज्ञासा की चादर तनी है। वे नीचे बैठे थे और उन्हें रूकना ऊपर के कमरे में था। संगमरमर की सीढ़ियों से जो रास्ता ऊपर जा रहा था उसकी रेलिंग सोने से मढ़ी थीं। जिस कमरे में धु्रवनारायण रूके थे, उसके पीछे कलकल करती एक नदी थी। नीले जल से लबालब। बताया गया कि यहां तक लाने के लिए नदी की धारा को ही मोड़ दिया गया है।

रात भर सो नहीं पाए धु्रवनारायण। यह कैसा संसार था जो उन्हें हर पल चौंका भी रहा था और डरा भी रहा था। श्रीधर पंजाबी के इस स्वप्न संसार में वे आ कैसे गए? क्या उनकी कविताओं ने यह दुनिया दिखा दी? यही सोचते-सोचते वे, कहां और कैसे भटकते रहे, उन्हें नहीं मालूम। उन्हें यह भी नहीं मालूम कि इसके बाद वे कितनी बार हाथरस आए और इस कोठी में ही रूके।

श्रीधर पंजाबी उस ‘सदानीरा’ फाइनेंस कंपनी के मालिक थे जो धीरे-धीरे विस्तार पा रही थी। निःसंतान श्रीधर पंजाबी लगातार यात्राएं करने और इन्हीं यात्राओं के दौरान फतेहपुर में उनके पेट में ऐसा दर्द उठा कि उन्हें यात्रा छोड़ वापस हाथरस आना पड़ा। इलाज की सारी कोशिशें जब नाकाम हो गयीं तो धु्रवनारायण ने उन्हें कानपुर के रीजेंसी गेस्टो हास्पीटल का रास्ता दिखाया और बताया कि डॉ. एन.के. मिश्रा देश के सबसे बड़े गेस्ट्रो एनटेरोलॉजिस्ट हैं उनका इलाज ही उनकी सेहत सुधार देगा।

रीजेंसी में आए श्रीधर पंजाबी के चारों ओर ऐसा सुरक्षा कवच बन गया जिसके बारीक तार धु्रवनारायण से जुड़े थे। उनकी सेहत की खबरें रोज आती रहीं। यह खबर भी अकसर आती कि सेहत तेजी से सुधर रही है, पर उनसे मिल कोई नहीं पाता। घरवाले भी उनसे मिलने को तरसने लगे। दिन, महीने और साल बीतने लगे। अस्पताल से आनेवाली खबरें भी लोग भूल गए। लोग यह भी भूलने लगे कि श्रीधर पंजाबी बीमार हैं। उनकी चर्चा बंद हो गयी। चर्चा होने लगी ध्रुवनारायण की जो धीरे-धीरे ‘सदानीरा’ पर अपना अधिकार जमाने जा रहे थे। अब रीजेंसी जाना और श्रीधर पंजाबी के हाल जानने में लोगों की दिलचस्पी खत्म हो गयी थी। जब भी कोई पूछता, जवाब मिलता ‘सेहत तेजी से सुधर रही है’ और इसी ‘तेजी से सुधरती सेहत’ के बीच खबर आयी कि श्रीधर पंजाबी नहीं रहे। उनकी मौत की खबर लोगों ने सुनी और चुप लगा गए जैसे उन्हें अहसास था कि उनकी मौत तो हर पल, हर क्षण, रोज-रोज हो रही है।

हुआ यह कि अब ‘सदानीरा’ धु्रवनारायण की कंपनी थी और वे धु्रवनारायण ‘राष्ट्रप्रेमी’ से बड़े साहब में तब्दील हो गए थे। उन्होंने पूरे देश में कंपनी का विस्तार किया था। हाथरस बहुत पीछे छूट गया था। ‘देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति’ कंपनी का स्लोगन था। सारे कर्मचारी एक ही रंग में रंग दिए गए थे। नीला पेंट और नीली शर्ट उनका परिधान था। कंपनी जोन में बांट दी गयी थी। जोनल चीफ कंपनी का बड़ा अधिकारी हो गया। उसके बाद रीजनल मैनेजर, फिर सेक्टर मैनेजर उसके बाद ब्रांच मैनेजर। हर ऑफिस में बड़े साहब की आदमकद तसवीर लगाना जरूरी था और जरूरी था दफ्तर शुरू होने के पहले ‘जन गण मन’ का गान।






अखबार इन सबसे अलग था और सबसे अलग था प्रबल प्रताप का मन। उसका मन रह-रह कर मुंबई की तरफ उड़ता और वह बार-बार सोचता ‘जनता का अखबार’ क्या ऐसा होता है जिसमें जनता के दुःख, उसके त्रास, उसकी पीड़ा, उसके सपने, उसका क्रंदन और उसके सरोकार ही गायब हों। वहां उपस्थित हो सिर्फ मालिक का गुणगान। उसके यशोगान से भरे हों सारे पन्ने। जहां अपराधी शरण पाते हों और आम जन तिरस्कार। मालिक तिकड़म में लगा हो और जोनल चीफ टार्गेट की खातिर अपराधियों का बगलगीर हो। एक ठंडी लकीर ऊपर से नीचे तक उसके शरीर में दौड़ गयी।

अबकी प्रबल प्रताप के सामने उभरा ‘प्रेरणा सम्मेलन’ का वह दृश्य जो चाहकर भी वह कभी नहीं भुला पाता। वह सोच ही नहीं सकता कि दूसरों को लज्जित और अपमानित करनेवाला चीफ, बड़े साहब के चरणों में कैसे दूर तक पड़ा रहा था। कांप गया था प्रबल प्रताप। उसके सामने उभरा ‘ड्रीम लैंड’ का वह भव्य समारोह जिसमें संपादकों को हर हाल में उपस्थित रहना था। वह सबसे आगे की कतार में बैठा था। सारे जोनल चीफ, रीजनल मैनेजर, सेक्टर मैनेजर और ब्रांच मैनेजर वहां मौजूद थे नीले पेंट, नीले शर्टवाली कॉरपोरेट ड्रेस में।

मंच पर सिर्फ एक कुर्सी थी जिस पर बड़े साहब बैठे थे। वे बहुत पुलकित थे। उनकी आवाज उत्साह में ऊपर-नीचे हो रही थी और वे कह रहे थे ‘आज मैं बहुत खुश हूं। मेरी खुशी का कारण गोरखपुर यूनिट है। इस यूनिट ने पिछले माह ऐसा काम किया है कि यह यूनिट सभी की सिरमौर बन गयी है। सभी को इस यूनिट और इसके जोनल चीफ नमोनारायण जिन्हें मैं ‘नाना’ कहता हूं, से प्रेरणा लेना चाहिए। ‘नाना’ प्रेरणादायक व्यक्ति हैं। हर माह उनके टार्गेट का आंकड़ा बढ़ता ही जाता है। पिछले माह उन्होंने टार्गेट से सौ गुना बिजनेस किया। एक कंपनी को इससे ज्यादा क्या चाहिए? वे कंपनी के ऐसे हीरे हैं, जिनकी चमक से हमारे चेहरे भी चमकते हैं।’

सभागार तालियों में डूबा था। देर तक तालियां बजती रहीं। फिर आवाज उभरी ‘गोरखपुर के जोनल चीफ नमोनारायण मंच पर आए।’ मंच पर एक तरफ से चार लोग एक विशालकाय लाल गुलाबों का हार लेकर आगे बढ़े और दूसरी तरफ से चीफ साहब।

बड़े साहब की आवाज फिर गूंजी। ‘आप भी नमोनारायण बन सकते हैं। आप भी एक दिन इसी तरह, इसी मंच पर मेरे हाथों सम्मानित हो सकते हैं बशर्ते आपका टार्गेट भी सौ गुना हो जाए।’

वे रूके फिर बोले ‘क्या थे नमोनारायण। कुछ भी नहीं जीरो। जब मुझसे मिले नंगे बदन थे। सिर्फ एक चड्ढी बदन पर थी। मैं कोठी के बाहर खड़ा था। वे आए और मेरे पैरों में गिर गए। मैं डर गया। बोले- ‘साहब पैसा तो कमा लेता हूं पर इज्जत नहीं मिलती।’ तब कानपुर शहर में वे छोटा हाथी चलाते थे। छोटा हाथी जानते हैं आप? टाटा का एसीई वाहन, जिसे मेटाडोर भी कहते हैं, जो सामान लादने के काम आता है। सामान लादते थे और दिन भर कभी बर्रा, कभी नौबस्ता, कभी जाजमऊ, कभी विजय नगर, तो कभी स्वरूप नगर घूमते थे। पसीना, पसीना। चिंतामणि अगली सीट पर इनके पास बैठा रहता।’'

मैंने कहा- ‘दफ्तर आना। पूरे कपड़े पहनकर, ऐसे मत चले आना। बिहार से आए थे। आरा के रहने वाले हैं। जब लक्ष्मणपुर- बाथे नरसंहार हुआ और साठ लोग मारे गए तो इतने डर गए कि आरा ही छोड़ दिया। सीधे तूफान एक्सप्रेस पकड़ी और कानपुर आ गए।’

अचानक मंच पर हलचल हुई। चीफ साहब दोनों हाथ जोड़े आगे बढ़े और बड़े साहब के पैरों में लोट गए। वे रो रहे थे। लोग दौड़े, उन्हें उठाया पर लगा बड़े साहब के पैरों में कोई चुंबक था, चीफ साहब टस से मस नहीं हो रहे थे।
प्रबल प्रताप स्तब्ध था। वह बड़े साहब को इत्मीनान से सुन रहा था। वह सुन रहा था उस चीफ साहब का सच्चा किस्सा जो आज का एक बिगडै़ल अफसर है। जिसकी जुबान पर सिर्फ और सिर्फ बदतमीजी के कुछ नहीं होता।
सम्मेलन खत्म हो गया था। बड़े साहब कह रहे थे- ‘परसों स्थापना दिवस है, जोरशोर से इसे मनाइए। कोई कसर न रहे, तैयारी पूरी करें।’

सब गोरखपुर लौट आए। सब तरफ चीफ साहब की चर्चा थी। वे किस तरह देर तक बड़े साहब के पैरों में पड़े रहे। उन्हें बमुश्किल उठाया गया। उनकी आँखें लाल सुर्ख हो गयीं थीं। वे बड़े उत्साह से उस हार को गोरखपुर ले आए जो उन्हें पहनाया गया था। वह हार कई दिनों तक उनके केबिन में सजा रहा।

सज रहा था पूरा कैंपस। स्थापना दिवस की सब जगह धूम थी। मेन गेट पर बड़े दरवाजे लगाए गए। पूरे कैंपस को रंगीन रोशनियों से ढंक दिया गया। गुलाब की पंखुड़ियों से पटा पड़ा था। चीफ साहब का केबिन। गार्डन जहां भाषण होना था एक विशाल मंच बनाया गया था। मंच के पीछे बड़े साहब की आदमकद तसवीर थी। गार्डन के पेड़ रोशनी में नहाए थे। संपादकीय, मशीन, स्टोर, रिसेप्शन सब जगह रंगीन गुब्बारों से पाट दी गयी थी। सबको ठीक दस बजे आना था, कॉरपोरेट ड्रेस में। पहले बड़े साहब का उद्बोधन सुनाया जाना था फिर चीफ साहब का भाषण। अंत में कतार में लग कर सबको मिठाई लेनी थी।





प्रबल प्रताप को मंच पर बुलाया गया। वह चीफ साहब के बगल में खड़ा था। सबसे पहले कानपुर से आया बड़े साहब का भाषण पढ़ा गया। तालियां बजीं और बजती रहीं।

अब चीफ साहब की बारी थी। वे लगातार बोले जा रहे थे और उनका हर शब्द प्रबल प्रताप के भीतर झल्लाहट पैदा कर रहा था। वह हैरान था कि इतनी बड़ी कंपनी का जोनल चीफ बार-बार कह रहा था- ‘सदानीरा फेमिली का जो परिवार है’ और प्रबल प्रताप उनके बगल में खड़ा लाचार था। वह बेबस था। वे कह रहे थे- ‘तिलक ने कहा था- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ और प्रबल प्रताप उन्हें रोक नहीं पा रहा था। वह उन्हें बताना चाहता था कि आप गलत बोल रहे हैं। भीड़ सन्नाटे में थी और चीफ साहब अपनी ही धारा में। वे कह रहे थे ‘व्यक्ति, व्यक्ति को लेकर चल रहा है, संस्था को लेकर नहीं, जबकि संस्था बड़ी है, व्यक्ति नहीं। वे देर तक बोलते रहे। प्रबल प्रताप ने सुनना बंद कर दिया। उसने अबकी आँखें बंद कर लीं। मंच से उसका नाम पुकारा गया तो उसकी आँखें खुलीं। वह माइक तक पहुंचा कि चीफ साहब उसके कान में फुसफुसाए- ‘कम ही बोलिए। हमारी नाक मत कटवाइए। अर्र-बर्र मत बोलना। चीफ साहब की आवाज माइक से होती, दूर तक फैल गयी।

प्रबल प्रताप सन्न रह गया। उसे लगा किसी ने बिजली का नंगा तार उसकी रीढ़ में ऊपर से नीचे तक छुआ दिया है। करंट से थरथराता शरीर। गुस्से में उबलता प्रबल प्रताप। उसने खुद को संभाला। कुछ ठिठका फिर बोला ‘साथियों, चीफ साहब के बाद मैं क्या कहूं? वे सब कुछ बोल ही चुके हैं। आज मैं बोलूंगा नहीं, कुछ करूंगा और वह झटके से मुड़ा और एक तेज मुक्का उसने चीफ साहब की नाक पर जड़ दिया। चीफ साहब चिल्लाए- ‘चिंता, चिंता’। फिर वह लगातार चीफ साहब पर मुक्के बरसाता रहा। फिर उसने स्टैंड से माइक निकाला और चीफ साहब के माथे पर जड़ दिया। पहले तेज, फिर धीमी-धीमी होती उनकी कराहें माइक से होती कैंपस में दौड़ती रहीं।

उसने देखा कतार में लगे लोग हिल तक नहीं रहे हैं। सब चुपचाप अपनी जगह खड़े हैं। सुरक्षा कर्मी उतरी बंदूक लिए खामोश खड़े हैं। वह मंच से उतरा। कतार में खड़े लोगों के बीच से आगे बढ़ा। एक जानलेवा सन्नाटा सब तरफ पसरा था। चीफ साहब की कराहें अब धीमे-धीमे उभर रही थीं।
वह मेन गेट तक आया। दरवाजा अपने आप खुल गया। वह सड़क तक आया। आसमान बादलों से घिरा था। ठंडी हवाएं रह-रह कर बह रही थीं। हवा में बारिश की फुहारें थीं। उसने रिक्शा रोका और धम्म से बैठ गया।
पार्क होटल के सामने से गुजरता रिक्शा अब यूनिवर्सिटी चौराहे की तरफ जा रहा था। फुहारें बढ़ती जा रही थीं।
तेज-तेज फुहारों के बीच दूर कहीं से आवाज आ रही थी- पहले धीमे-धीमे फिर तेज-तेज
तब शुभ नामे जागे
तब शुभ आशिष मांगे
गाहे तब जय गाथा।
रिक्शा धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। वह कहां जा रहा है, उसे कुछ नहीं मालूम?
अब उसे अपना ही रास्ता खोजना था।
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हरीश पाठक
मूलतः कथाकार।
अब तक चार कहानी संग्रह प्रकाशित।
पहला संग्रह 'सरे आम',मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ,भोपाल से प्रकाशित
पत्रकारिता की दो किताबें प्रकाशित।
ग्वालियर के दैनिक स्वदेश से पत्रकारिता की शुरुआत।
 40 साल की पत्रकारिता में 21 साल तक संपादक रहे।
ग्यारह साल तक धर्मयुग में रहे।

सम्प्रति:सिर्फ लेखन।

2 टिप्‍पणियां:

  1. मित्रों,
    रचना पढ़ने के बाद मुझे उसके बारे में बताने से बेहतर होगा कि यहीं अपनी राय ज़ाहिर करें, ताकि रचनाकार भी आपकी टिप्पणी पढ़ सकें।

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  2. चीफ़ की नाक पर जो मुक्का लगा उसकी गूँज बहुत दूर तक सुनाई पड़ेगी। इस सामयिक और सुंदर कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाई।

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