05 अगस्त, 2018

प्रश्नोत्तरी


असहिष्णुता और अभिव्यक्ति के खतरे
                                             
भरत प्रसाद


डॉ भरत प्रसाद ,  पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग ( मेघालय ) के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। भरत प्रसाद हिन्दी भाषा में लिखने वाले अच्छे कहानीकार, कवि और आलोचक भी है। यहां हम  एक संक्षिप्त प्रश्नोत्तरी लगा रहे हैं। जिसमें भरत प्रसाद बहुत सटीक और पार्दपार उत्तर दिये हैं।  उम्मीद करते हैं कि यह प्रश्नोत्तरी तमाम विषयों की ओर ध्यानाकर्षित करेगी। हमें सोचने के लिए उकसाएगी। 


भरत प्रसाद


1. क्या गत कुछ सालों में देश में असहिष्णुता के माहौल में वृद्धि हुई है ?

असहिष्णुता कहीं से आयातित या उधार ली गयी प्रवृत्ति नहीं, बल्कि वह पहले से ही अन्तस्थल में सुलगती हुई ईर्ष्या है। जहाँ-जहाँ संसारग्रस्त धर्म होगा, साम्प्रदायिक मानसिकता होगी और जहाँ जातियों, विश्वासों, आस्थाओं में विभाजित व्यक्ति और समाज होगा, वहाँ-वहाँ असहिष्णुता फन की तरह सिर उठाएगी ही।
भारतवर्ष पृथ्वी का एक ऐसा पथभ्रमित और दबावग्रस्त देश रहा है, जिसने स्वतंत्र चेता वैज्ञानिक मानस का विकास किया ही नहीं, इसीलिए उसकी जड़ों में, मानसिकता और प्रकृति में भी असहिष्णुता के विषबीज मौजूद हैं। यहाँ का समाज धर्म, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय और जीवन पद्धति के नाम पर हजारों टुकड़ों में बंटा पड़ा है। इसका परिणाम यह है कि सही अर्थों में मानसिक और हृदयगत एकता उसमें चिर स्थापित हो ही नहीं सकती। यदि मेलजोल, मैत्री या सौहार्द्र का दुर्लभ दृश्य कभी उठता भी है, तो क्षणिक बुलबुले की भांति, आवेशजन्य, लगभग शोबाजी के लिए। शीघ्र ही पुनः असहिष्णुता मन में पांव पसार लेती है।
इसे संयोग कहें या भारतीय राजनीति की नियति, जहाँ ले-देकर दो ही पार्टियाँ राष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा कायम किए हुई हैं- कांग्रेस और भाजपा। कांग्रेस के इतिहास और विकास की जड़ों में चूंकि जनपक्षधर, उदार और समताशिल्पी व्यक्तित्वों की आत्मा मौजूद है- इसीलिए वे विभिन्न धर्मों, जातियों, सम्प्रदायों और वर्गों को साथ-साथ लेकर चलती है, यद्यपि मोका पाकर, अपने छिपे स्वार्थों के लिए जाति और मजहब का इस्तेमाल करने से वे भी नहीं चूकते। भाजपा तो पैदा ही हुई है- हिन्दू धर्म की कोख से। वह साम्प्रदायिक सौहार्द्र और सहिष्णुता का आह्वान करने योग्य ही नहीं, वरना कारण क्या है कि जब-जब भाजपा सरकार सत्ता में आयी है, अल्पसंख्यक वर्ग के दुर्दिन सिर पर नाचने लगे हैं, दलितों को चुन-चुन कर मारा-पीटा जा रहा है, मुस्लिम वर्ग का चित्त भयग्रस्त है कि 1947 के पहले के दिन फिर लौट आए हैं। कभी गोरक्षा, कभी मांस भक्षण, कभी मंदिर तो कभी राष्ट्र रक्षा के नाम पर धर्मपरस्त ठेठ हिन्दूबाजों का हिंसक तांडव मचा हुआ है। बदस्तूर जारी है- सड़कों, गलियों, बस्तियों, चैराहों पर खून बहा देने का खेल। ऐसा नहीं कि अन्य सरकारों के कार्यकाल में ऐसी मनुष्यताशून्य घटनाएँ नहीं हुई हैं, पर भाजपा के शीर्ष नेताओं यहाँ तक कि प्रधानमंत्री का भी इन विनाशक, संहारक मुद्दों पर जमकर प्रहार न करना कट्टरपंथी हिन्दुओं के दुस्साहस को बरकरार रखने का मूल कारण सिद्ध हो रहा है।


2. क्या देश के अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा का माहौल व्याप्त है ?

संवैधानिक स्तर पर  भारत एक लोकतांत्रिक देश है,  और भारत के एक एक नागरिक
                                                                                   
के लिए इसका निर्विकल्प मूल्य है, मायने है, महत्व है। लोकतंत्र अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के आधार पर जनता के बीज भेद नहीं करता, बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग को अधिकाधिक संरक्षण, सुविधा, अधिकार और अवसर देता है। संविधान में भी अल्पसंख्यक समुदाय को सुरक्षा और सम्पन्नता के विशेष अधिकार दिए गये हैं और उसके ठोस कारण हंै। प्रायः अल्पसंख्यक वर्ग किसी धर्म, सम्प्रदाय, जाति या क्षेत्र विशेष से आबद्ध होता है- वह आदिम काल से उसी को मानता, उसी में जीता-मरता-पलता और घिरा रहता है। भारत देश में कुछ ही सरकारें ऐसी आईं जिनके समय में इस दुर्लभ वर्ग को स्वाभाविक, समुचित और असल आजादी नसीब हुई। वह समय है- कांग्रेस के शासनकाल का। कांग्रेस ही वह दल है, जिसकी सत्ता के समय में मुसलमान, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन जैसे अल्पसंख्यक वर्ग खुलकर, अधिकारपूर्वक जीए हैं और भारतीयता के वातावरण में सांस लिए हैं। इस कसौटी पर भाजपा सरकार के इतिहास को बेहतर कहा ही नहीं जा सकता। अटल सरकार के वक्त भी अल्पसंख्यक वर्ग विशेष रूप से मुस्लिम वर्ग में भय, असुरक्षा और अपमान की चिन्ता व्याप्त थी, कारण बड़ा स्पष्ट है- खुद को हिन्दुत्व परस्त दल खुलेआम घोषित करना और हिन्दुत्व के प्रतीकों, प्रतिमानों को बढ़-चढ़कर उछालना। अब संघ और भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा यह दंभी और मूढ़तापूर्ण घोषणा का क्या अर्थ कि ‘भारत में जो भी रह रहा है, सब हिन्दू हैं।’ पूर्वांचल में तो यह हवा बनी हुई है - ‘‘गोरखपुर में रहना है, तो बाबा-बाबा कहना है।’’ बड़े संताप और सख्त तकलीफ का मुद्दा यह कि अल्पसंख्यक खुलकर यह चिन्ता भी जाहिर नहीं कर सकता कि उसे अपने अस्तित्व मिटने का खतरा है, जान पर संकट है और पहचान मिटने का भय है। वर्तमान समय में चाहे गाँव हो, कस्बा हो या शहर- आए दिन दलित परिवारेां को लूटा-मारा-पीटा और उजाड़ा जा रहा है। सरकार की ओर से मिली हुई अनेक संवैधानिक सुरक्षा के बावजूद बहुसंख्यक वर्ग के कट्टर धर्मान्ध इन दलितों के अस्तित्व पर बिजली की तरह टूट पड़े हैं। घटनाएँ अनेक हैं। एक दलित परिवार की स्त्री को सरेआम पूर्णतः नग्न, वस्त्रशून्य कर दिया जाता है- इसी लोकतांत्रिक देश में। घास खाने के लिए अति दलितों को विवश किया जाता है- इसी अहिंसक भारतवर्ष में।

3. क्या कला, संस्कृति, साहित्य में अभिव्यक्ति के खतरे बढ़े हैं ?

कलाएँ विविधतापूर्ण ऊँचाई हासिल करती हैं, वैज्ञानिक मानसिकता के उन्मुक्त वातावरण में। चिंतन और सृजन का भी समसामयिक और बाकमाल विकास भी ऐसे ही माहौल में संभव होता है। कला, साहित्य का कोई धर्म या सम्प्रदाय नहीं होता। यह बात और बल्कि भयजनक है कि सदियों से विभिन्न कलाओं का विकास यहाँ तक कि साहित्य का उत्थान भी धर्म के संरक्षण में हुआ। लेकिन वैश्विक स्तर पर विभिन्न आधुनिक कलाओं, मसलन नृत्य, संगीत,  चित्रकला,  रंगमंच,  नुक्कड़ नाटक  इत्यादि का  संवर्धन  और नवोत्थान धर्मनिरपेक्ष,
                                                               
लोकतांत्रिक और समन्वयवादी मानसिकता के व्यापक वातावरण में हुआ। विचार कर लीजिए, यदि यथार्थवादी, जनपक्षधर, प्रगतिशील और माक्र्सवादी माहौल रचनात्मक दुनिया में खड़ा न हुआ होता तो साहित्य अपने पिछड़ेपन के किस युग में सांसं गिन रहा होता। अजीबोगरीब आश्चर्य यह कि भारत सरकार की ओर से कभी भी कलाओं को या साहित्य को बढ़-चढ़कर सम्मान न मिला। उल्टी स्थिति यह कि सरकारें रचनात्मक कलाओं का दुरूपयोग करती हैं और एक से बढ़कर एक प्रतिभा पुरुष भी राजनीतिक निर्वाण की प्राप्ति के लिए राजनीतिज्ञों का चरण-प्रक्षालन करते फिरते हैं। आधुनिक, स्वतंत्र भारत का इतिहास कलाकारों, संस्कृति-शिखरों और लेखकों की हत्याओं से अंटा पड़ा है। अवतारसिंह पाश, सफदरहाशमी की हत्या कुछ दशक पूर्व, इधर कालबुर्गी, पानसरे और गौरी लंकेश के रचनात्मक जीवन और अस्तित्व को सरेआम जमींदोज करना, मिटा डालना। हिन्दी साहित्य के प्रतिबद्ध कवि मानबहादु सिंह को किस कदर घसीट-घसीट कर मारा गया, घटना अभी घाव की तरह पन्नों पर बह रही है। दक्षिणपंथ को पोसने वाली, पालने वाली सरकार से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह वैज्ञानिक, प्रगतिशील और कट्टरता विरोधी रचनाशीलता को बढ़ावा देगी ?
राजनीति, खास तौर पर भारतीय राजनीति चालाक, बीमार, स्वार्थग्रस्त और विभाजनवादी सोच, शौक और स्वभाव से ग्रस्त रही। कला के वही रूप, सृजन की वही धाराएं उसकी संकीर्ण प्रवृत्ति में संरक्षण पाते रहे, जिन्होंने उसके निहित एजेंडे को, कट्टरतापरस्त नारों को, बढ़ावा दिया, बढ़-चढ़कर समर्थन किया। वर्तमान में भाजपा सरकार मान बैठी है कि मौजूदा वक्त के सारे लेखक चूंकि धर्म के हिन्दुत्व के, राष्ट्रवाद के कटु आलोचक हैं, अतः वे सरकार-विरोधी हैं, बल्कि शत्रु भी। चूंकि वे तर्कजीवी हंै, वैज्ञानिक सोच की बात उठाते हैं- इसलिए माक्र्सवादी हैं। यूँ समझिए - माक्र्सवाद से हिन्दुत्व का 36 का नहीं 96 का आंकड़ा रहा है, सीधे उल्टा। निश्चय ही मौजूदा वक्त में प्रगतिशील, वैज्ञानिक चिंतन सम्पन्न, उदारवादी, मानवतावादी कलाएँ और साहित्य ‘पैरालाइज’ होने की नियति जी रही हैं। प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर की मौजूदा भाजपा सरकार से यदि बढ़ावा मिल भी रहा तो पुरातनपंथी, परम्पराभक्त और अवैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न अन्धभक्ति वाले साहित्य को। वर्ष 2018 के जनवरी माह में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के प्रतिष्ठित पुरस्कार- ‘भारत-भारती’ से लेकर समस्त लघु, लघुतम पुरस्कार छांट-छांट कर भक्तवीरों और अनाम-गुमनाम लेखकों को थमा दिए गए।

4. गौरक्षा, मंदिर-मस्जिद विवाद, जेएनयू प्रकरण, दलित दमन, धर्म परिवर्तन पर राय।

सिर्फ गौरक्षा ही क्यों ? भैंसरक्षा, बैल संरक्षण, गधारक्षा और सुअररक्षा क्यों नहीं ? प्रत्येक जानवर आखिर श्रेष्ठ जानवर ही है। मनुष्य जगत की सेवा, सहयोग के लिए गुलाम की तरह सदियों से मानव जीवन  के नीचे बिछा हुआ । गाय को धार्मिक  आस्था का प्रतीक
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बनाकर उसकी नैसर्गिक कीमत को खत्म कर दिया, इन भगवाइयों ने। इस देश में अकारण जीव हत्या अपराध है। दानव  को  बहुत  पीछे छोड़ देने  की  हद तक  अमानवीय। गोरक्षा  भाजपा सरकार का राजनीतिक एजेंडा है, जो धर्म के बहाने जीव रक्षा का नाटक खेल रही है, विशुद्ध अभिनय। हाँ, यदि जानवर-जानवर में  जातिगत भेद न  करते हुए  जीवशालाएँ बनतीं, समृद्ध और लहलहाते चारागाह तैयार होते, स्लाटर हाउस (कत्लगाह) जमींदोज होते और मांस की मंडियाँ अवैध, गैरकानूनी घोषित की जातीं तो सरकार की ओर से काबिले तारीफ, ऐतिहासिक कदम माना जाता। ठीक शराबबन्दी की तरह मांसबन्दी का नारा बुलंद होना चाहिए। रही बात मंदिर-मस्जिद बवाल की तो तय मानिए- यह रगड़ खत्म नहीं होने वाली। राजनीति इसे खत्म होने नहीं देगी। राम मंदिर बनना इतना आसान नहीं, राष्ट्रव्यापी अशांति की आशंका है, और तपे-तराशे हुए रामभक्त इससे कम पर मानेंगे नहीं, वरना ‘सर्वधर्म समभाव’ का स्मारक खड़ा होना क्या अनुचित है ? राम का जन्म ठीक वहीं हुआ, इसका न ऐतिहासिक प्रमाण है, न पुरातात्विक। यह शत-प्रतिशत धार्मिक आस्था की उलझन बन चुका है। दिल्ली और देश का अग्रगण्य उच्च शिक्षा संस्थान जे. एन. यू.। पिछले सालों देशद्रोह का मुद्दा आग की लपटों से भी ज्यादा असरकारी बनकर छाया रहा। निश्चय ही जे. एन. यू.  अतिबौद्धिकता की स्थली है, जहाँ देशभक्ति और राष्ट्रवाद की परिभाषाएँ अपनी तरह से गढ़ी जाती हैं, जो देश की शेष सोच से मेल नहीं खातीं। मौजूदा हालात में पाकिस्तान ने दशकों से आतंकवादी गतिविधियों का तूफान खड़ा कर जो कोहराम मचाया है- उसके चलते ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ का नारा न सिर्फ गलत है, बल्कि अपराधियों के संरक्षक देश को बल देने वाला है। आतंकवाद के पोषक देश की जयकार बौद्धिक अंधेपन के सिवाय कुछ नहीं है। हाँ, एक और नारा जो जे. एन. यू. नहीं, देश के प्रत्येक शिक्षण संस्थान की फिजाओं में गूंजना चाहिए- ‘संघवाद से आजादी/ पूंजीवाद से आजादी/ दंगाइयों से आजादी/ भ्रष्टतंत्र से आजादी/जातिवाद से आजादी/ है हक्क हमारा आजादी।’’ दलित दमन पिछले 3 वर्षों के भीतर जितना बेलगाम और अविश्वास करने की हद तक बढ़ा है, उतना आजादी के बाद कुछ ही मौकों पर दिखाई देगा। हिन्दुत्व परस्त सरकार का सह पाते ही दलितों के प्रति घृणा, तिरस्कार और हिंसा से लबालब भरी विषधर बुद्धि, चित्त और आत्मा फनफना उठी है- धर्म-धुरन्धरों की। इलाहाबाद के एक रेस्तरां में 21 साल के एक दलित युवक को सरिया से पीट-पीटकर इसलिए मार देते हैं- शत्रुनुमा युवक, क्योंकि वह रेस्तरां उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है। अनकहे कारण जो भी हों, यह बात तय है कि संवैधानिक रूप से लोकतांत्रिक देश कहा जाने वाला भारत जातिगत और धार्मिक विद्वेष की हिंसक और संकीर्ण मानसिकता में जीता हुआ अर्द्धविकसित देश है।


5. क्या भारतवर्ष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र में हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा सही है ?

जहाँ धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त खड़ा हो गया, वहाँ हिन्दू या मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध राष्ट्र
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का क्या अर्थ ? दरसत्य तो यह कि धर्म, मजहब या सम्प्रदाय के आधार पर राष्ट्र का वर्तमान या भविष्य तय करना खतरनाक और विनाशक है। भारत में एक विचित्र अन्तर्विरोधी स्तर पर हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म और हिन्दू राष्ट्रवाद का ही दबदबा और तप्पा (अधिकार) है। कहने के लिए यह देश मुस्लिमों, सिक्खों, पारसियों, बौद्धों और जैनों का भी है, पर तूती बोलती है, हिन्दुत्व की। हिन्दुत्व का  व्यावहारिक अर्थ घनघोर जातिवाद, सशक्त  छुआछूत, सामाजिक अलगाव, पत्थर की अमिट लकीर जैसा ऊँच-नीच और रंगभेद। यह हिन्दुत्व कट्टरता और पांेगापंथीपन के मामले में केवल इस्लाम धर्म से एक जौ ही कम है, वरना बुद्धि-विवकेशून्य हमला करने, दहशत का दबदबा बनाने में अन्य धर्मों से कई कदम आगे है। जिस देश में दर्जनाधिक धर्म हों, सैकड़ों छोटे-बढ़े सम्प्रदाय-मजहब हों, संख्यातीत सामाजिक वर्ग और असंख्य जीवन-संस्कृतियाँ हों, वहाँ हिन्दू राष्ट्र की कल्पना ही राष्ट्र के प्रति अपराध है। हिन्दुत्व में किसी व्यक्ति या वर्ग की व्यक्तिगत आस्था हो, अखण्ड विश्वास हो- यह अलग बात है, पर राष्ट्र वो भी भारत जैसे विविधतापूर्ण, बहुधर्ममय देश के ऊपर इस बहुसंख्यक वर्ग के धर्म को थोपना देश को धार्मिक और सांस्कृतिक गुलामी के अनन्त अंधकार में झोंक देना है। धर्म के आधार पर आज जिन देशों की पहचान है, उनकी सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा किस हद तक गतिहीन, पश्चगामी और आधुनिकता विरोधी बन चुकी है- यह विश्वविदित है। इस समय पृथ्वी के नक्शे पर सबसे तबाह, पिछड़े, युद्धग्रस्त ओर अशांत देश पश्चिमी मध्य एशिया के इस्लामिक देश हैं। सीरिया, इराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तुर्की, मिस्र इत्यादि देशों में आम जनता का जीवन अपने मानव-अस्तित्व पर खून-पसीने ही नहीं, सांस-सांस के आँसू रो रहा है। धर्म जहाँ जीवित हुआ, दूसरे मतावलम्बी से अटस, भेद, अलगाव अतः शत्रुता शुरू। ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।’ (इकबाल) - यह केवल सुनने में अच्छा लगता है। काश, भारत में यह धार्मिक सौहार्द्र का वातावरण हकीकत बन पाता। हिन्दू धर्म के तथाकथित पैरोकार हिन्दुत्व के आदर्श के बहाने अनन्त वर्षों तक केवल अपने सामंती मनमानेपन का साम्राज्य अमर रखना चाहते हैं, फिलहाल हिन्दू राष्ट्रवाद के पीछे छिपा विशुद्ध रहस्य यही है।

6. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या होगी ?

यदि राष्ट्रीयता हर प्रकार के वैविध्य को अपने आयतन में समेट लेती है, यदि उसमें विश्व की विभिन्नता को न सिर्फ पचाने, बल्कि आदर सौंपने की अखण्ड उदारता है, यदि वह भौगोलिकता में सीमित रहकर भी भूमण्डल के लिए कीमती है- तो वह राष्ट्रीयता स्वीकार्य ही नहीं, अनिवार्य है। मौजूदा विश्व में मात्र लोकतांत्रिक देश ही ऐसे हैं, जो मानवीय, उदारतापूर्ण और समतावादी राष्ट्रीयता को जीते हों, वरना कहीं धर्मवाद है, कहीं वंशवाद है तो कहीं सैनिकवाद। राष्ट्रीयता धर्म, जाति, भाषा, परम्परा के एकाधिकार से मुक्त है और होना चाहिए- अनिवार्यतः। विश्व का एक भी देश ऐसा  नहीं, जिसकी  जमीन पर कई संस्कृतियाँ, ख्यातीत
                                                           
सामाजिक वर्ग अनेक भाषा-भाषी और विभिन्न मतों, सम्प्रदायों के लोग न बसते हों। यदि न भी बसते हों तो भी आगामी सदियों के योग्य सिद्ध होने के लिए किसी देश का समन्वयवादी होना अनिवार्य है। प्रायः राष्ट्र की लगाम उन्हीं के हाथ में सदा के लिए चली जाती है, जो उस देश में बहुसंख्यक होते हैं। यदि वह बहुसंख्यक किसी धर्म या विचार के प्रति विशेष आग्रही या कट्टर रहा तो शेष मतावलम्बियों के प्रति द्वेष, ईष्या, शत्रुता और हिंसा दरनिश्चित। बर्मा में कट्टर बौद्धों  और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच जो नरसंहारी गदर मचा, वह अतिशय काबिले चिंता है। आज भारत-पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया और अमेरिका के बीच दशकों-दशक से बेइंतहा युद्ध, मारकाट जो चल रहे हंै- उन सबके पीछे एक कारण बहुसंख्यकों का यही अन्धा-बहरा, पागल, राष्ट्रवाद ही है। राष्ट्रवाद का अर्थ दूसरे देश से अटस, भेद, शत्रुता या प्रतिष्पद्र्धा पालना नहीं, बल्कि अपनी ही तरह दूसरे देश और देशों की विचारधारा, विश्वास जीवन-पद्धति, भाषा, परम्परा और को व्यावहारिक और मानसिक दोनों रूपों में समादृत करना है। रवीन्द्रनाथ और प्रेमचन्द जैसे कलम- शिखरों ने राष्ट्रवाद की कट्टरता से उत्पन्न खतरों को भांपते हुए इसका समर्थन नहीं किया। मुश्किल यह है- यह राष्ट्रवाद अन्ततः बहुसंख्यकवाद, एकभाषावाद, एकल धर्मवाद और संस्कृतिवाद का मुखौटा बनकर रह जाता है। इस राष्ट्रवाद के बहुआयामीपन को चरितार्थ कौन करेगा ? नेता और उनकी राजनीति, या फिर देश के बहुसंख्यक नागरिक ? जब तक हिन्दू अपना हिन्दुत्व नहीं छोड़ता, मुस्लिम अपना इस्लामीपन नहीं छोड़ता। बौद्ध जैनियों को तपाक से गले नहीं लगाता तब तक राष्ट्रवाद एक खतरनाक और अन्धा हथियार है। संविधान के नियमबद्ध पन्ने राष्ट्रवाद को लागू करने में असमर्थ हंै, जब तक हम अपनी समस्त मानसिक, बौद्धिक धार्मिक जड़ता से ऊपर नहीं उठते।


7. क्या वन्देमातरम् के जबरन गायन से राष्ट्रभक्ति की भावना में वृद्धि होगी ?

‘सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम् मातरम !’ निस्संदेह विलक्षण रोमांच भरने वाला आकर्षक गीत है। यह देश के प्रति शरीर में अदम्य अनुराग का संचार भी करता है, पर इसका आशय यह नहीं इसे गाने के लिए किसी को भी बाध्य किया जाय। और फिर देशप्रेम किसी गीत, कविता या भजन का मुहताज नहीं। वह तो शिराओं में तरंगित रहने वाला, बजने वाला एक अखण्ड एहसास है, जो हमें अनुरागमय करता है, बांधता है- देश की धरती, आकाश, सुबह और शाम से, चैराहों, पगडंडियों से, घासों, फसलों, वृक्षों, बागों और देशी जंगलों से। रोमांटिक जज्बात से भरता है- मात खाए सूखे चेहरों के प्रति, दरारों को जीते हुए धुरिहा पांवों के प्रति, खेती-किसानी, मजूरी-धतूरी में जी-भर रही मौन मूर्तियों के प्रति। रामचन्द्र शुक्ल ने भर तबियत से गाया है देशप्रेम का राग, निबन्ध- ‘कविता क्या है ?’ में। राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान किसी पर भी जबरन लादने से न देश के प्रति चाहत, आकर्षण और ललक का ज्वार  उमड़ता है, न ही किसी सत्ता के प्रति ही । उल्टे एक दबा हुआ आक्रोश और सुलगती हुई घृणा तक जन्म ले लेती है। इसलिए अनिवार्य यह है कि देश के भीतर रहने वाले वर्गों को ऐसा वातावरण, ऐसा भयमुक्त माहौल और विकास करने के इतने कीमती अवसर मुहैया कराइए कि हर किसी को राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान (जन गण मन.........) अपना गीत लगे न सिर्फ लगे, बल्कि जिसका तरन्नुम छेड़े बगैर जी न माने। यह तभी होगा, जब देश की सीमाओं में बसते हुए एक-एक का चित्त आजाद होगा, उसके हृदय पर बहुसंख्यक वर्ग के मनमाने आतंक, तानाशाही, सामंतीपन और हिंसावादी तेवर का पहरा न होगा, जब वह देखेगा कि राष्ट्रगीत में उसकी भी आकांक्षा, पीड़ा और सपनों को आवाज मिल रही है। बाहर से लादा गया एक भी तरीका कारगर नहीं, जो देशप्रेम की भावना वृक्षवत् कर दे। यह पूर्णतः आन्तरिक बदलाहट है, आत्मा की दिशाओं का आवेशित होना है और जड़, जंगल, जमीन, मनुष्य के अकथनीय समर्पण और कृतज्ञता के जज्बे से परिपूर्ण हो जाना है। बंकिम चन्द के उपन्यास ‘आनन्द मठ’ में ‘वन्दे मातरम्’ गीत उपस्थित है। उसमें मुस्लिम वर्ग को म्लेच्छ कहा गया है, वे बर्बर आक्रणकारी हैं- अतः घृणा के योग्य। इतिहास में घटित बर्बरता का प्रतिशोध वर्तमान में मौजूद उस समुदाय से लेना अक्षम्य अपराध है। केवल उस सम्प्रदाय, समुदाय या धर्म से मात्र जुड़े होने से कोई व्यक्ति इतिहास की बर्बरताओं का दोषी या जिम्मेदार नहीं हो जाता।


8. क्या पाठ्यक्रमों से महान लेखकों की विदाई संकीर्ण सोच की परिचायक नहीं है ?

देश के कुछ बहुमूल्य क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें सरकार के दायरे में लाकर भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर देना चाहिए, पूर्णतः स्वायत्त। उसमें शिक्षा भी एक है। विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता की हैसियत मिलने के बावजूद सरकार की नीतियों का राजनीतिक एजेंडों का और चालबाजी का दबदबा कायम है। इस समय चपरासी से लेकर शिक्षक तक, बाबू से लेकर डायरेक्टर तक, लेक्चरर से लेकर कुलपति तक की नियुक्तियाँ संघ और भाजपा के सशक्त दिशा-निर्देश ;ळनपकमसपदमद्ध में भयानक पैमाने पर चल रही हैं। अब यह किंकर्तव्यविमूढ़ कर डालने वाली घृणित सच्चाई सामने खुलने लगी है कि कुलपतियों की नियुक्तियों में बोली लग रही है - 20 लाख, 30 लाख, 50 लाख। हाँ ! एक मात्र क्वालीफिकेशन अनिवार्य है- भगवाध्वज का वाहक या संघ-भक्त या फिर भाजपा का ढोलकिया होना। मौजूदा वक्त में शायद ही शिक्षा के क्षेत्र में एक भी सीधी नियुक्त हो, जिसमें योग्यता एक मात्र शर्त हो। खैर ! पाठ्यक्रमों में शामिल महान लेखक जैसे प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन या मुक्तिबोध धार्मिक कठमुल्लापन और जातीय भेदभाव के न सिर्फ रोवाँ-रोवाँ से विरुद्ध थे बल्कि हिन्दू-मुस्लिम सहित अन्य धर्मावलम्बियों की हार्दिक, व्यावहारिक एकता और सौहार्द्र के प्रबल हिमायती थे। मौजूदा सरकार की राजनीति में धर्म का इस्तेमाल अपनी दूरगामी नाटकबाजी  बनकर कायम रही। अटल जी की  फिलहाल  एक उदार दृष्टि थी - अब तो  वह शौक  भी  नहीं दिखता, व्यावहारिक स्तर पर दिखना तो बहुत दूर की बात है।

किसी भी देश की भाषा या भाषाओं के महान लेखक अनिवार्यतः एक स्वस्थ, वैज्ञानिक और मानवतावादी चेतना के निर्माण में अनिवार्य और ऐतिहासिक भूमिका निभाते हैं। सच कहिए तो विचारकों, दार्शनिकों, साहित्यकारों, सांस्कृतिक कलाकारों, आन्दोलनधर्मियों और मशालधारियों के बगैर सच्चा, स्वस्थ, सशक्त लोकतंत्र खड़ा ही नहीं हो सकता। विचित्र दशा यह कि हिम्मती कलाकार, स्वतंत्रचेता सर्जक और जनतंत्र के पहरूए सरकार को फूटी आँखों नहीं सुहाते। हरिशंकर परसाई पर दक्षिणपंथियों ने हमला बोला, मुक्तिबोध की पुस्तक - ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ जला दी गयी, उसकी प्रकाशित हुई प्रतियां तक जब्त कर ली गयीं। दरसल सत्ता एक नशा है, उन्माद है, जड़तापूर्ण आत्ममुग्धता और अधिकारों के बहाने तानाशाही जमाने का अवसर है। लेखक चाहे वह महान हो या साधारण- इन जड़ताओं, अहंकार और सामंतीपन का प्रायः नखशिख विरोधी रहा। कबीर से लेकर गोरख पाण्डे तक आप देख डालिए। यद्यपि मौजूदा सरकार को यह भी डर सता रहा कि इन जाति, धर्म के बगावती लेखकों को पाठ्यक्रमों से गायब कर पाना असंभव है। हाँ इनके अपने एक्का-दुक्का लेखक लगातार जगह पाने लगे हैं।


9. क्या संवेदनशील मुद्दों पर बुद्धिजीवी वर्ग और संस्कृतिकर्मियों की चुप्पी सही है।

चुप्पी जीते जी मौत की पूर्व सूचना है। इस चतुराईपूर्ण कायरता से न समाज स्वस्थ हुआ है, न राजनीति को दिशा मिली है और न ही जनगण को। और फिर चुप है कौन ? सभी तो सब मुद्दों पर बोलने के अधिकारी बने हुए हैं। इस समय सत्ता, शासन, शिक्षा और समाज के उच्च पदों पर आसीन हर चतुर न सिर्फ बोल रहा बल्कि अपने तरीके से हांक भी रहा है। कोई राजनीति में नहीं है, फिर भी राजनीति कर रहा है, धार्मिक है- फिर भी राजनीति बिछा-ओढ़ रहा है। जनवादी है, फिर भी जनता को धोखे में रखे है। अर्थात् पूंजीपरस्ती और राजनीति मौजूदा दौर के बुद्धिजीवियों का फैशन बन चुकी है। यदि बुद्धिजीवी और कलाकार विकट, जटिल, ज्वलन्त और दुसहनीय मुद्दों पर मौन हैं, आन्दोलनात्मक मूड में नहीं आ रहे, कलम को धार नहीं दे रहे, पीठ घुमाकर पार्टियों में बालडांस का सपना पाल रहे हैं तो बेशक अघोषित गुलामी का दौर है यह। पानसरे, कालबुर्गी या गौरी लंकेश की हत्याओं पर प्रतिरोध का नतीजा क्या निकला ? अभी तक अपराधियों की शिनाख्त न हो सकी। जे. एन. यू. कैम्पस में देशविरोधी नारे लगे तो पूरे कैम्पस का माहौल इमरजेंसी में बदल गया। बेहद आपत्तिजनक है- देशविरोधी भाषण या नारा। पर हैदराबाद, बी. एच. यू., इलाहाबाद विश्वविद्यालयों के कैंपस दलितों, अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रशासन ही नहीं, सवर्ण छात्रों का जो रवैया है, उसका क्या किया जाय ? अभी चन्द रोज  पहले बी. एच. यू. कैंपस में गांधी जी की हत्या  करने वाले नाथूराम गोडसे को नायक के रूप में  पेश किया गया। कैंपस का एक भी शिक्षक एक भी लेखक, एक भी बुद्धिजीवी  ओंठ नहीं हिला रहा। मुंह पर ही  नहीं, मन, बुद्धि, आत्मा और इंसानियत पर भी ताला पड़ चुका है। ‘लेखक चुप, साहित्यकार चुप........। यही है मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत फैंटेसी का दरसत्य, जो आज आतंक की हद तक सामने खड़ा है। जब भी देश का बुद्धिजीवी वर्ग अवसर परस्त, समझौतावादी और गूंगा हुआ है, तब-तब राजनीतिक तानाशाही बेलगाम हुई है, समाज विरोधी अराजक शक्तियां बेखौफ हुई हैं और साम्प्रदायिक उन्माद ने फन उठाया है। अभी केरल में रजक (दलित वर्ग) की एक युवती को जला दिया गया। एक युवक को पीट-पीटकर इसलिए मारा गया, क्योंकि भूख न बर्दाश्त होने पर उसने अनाज की चोरी कर ली। ठीक-ठीक यह वक्त आह्वान कर रहा कि चप्ुपी तोड़ो, कलम स्थगित करो, भय को झटक दो और चैराहों-सड़कों पर खड़े हो जाओ। बुलाओ, बहस करो, आवाज दो और तब तक चुप मत रहो- जब तक डरकर मौन साध लेने वाले हाथ हवा में न लहराने लगें। बुद्धिजीवियों का एक और हास्यास्पद फैशन पुरस्कारों की वापसी है- क्या फर्क पड़ा इससे ? ‘जब तोप मुकाबिल हो- तो अखबार निकालो’ इसी तर्ज पर क्यों न कहा जाए कि ‘जब अंधकार खड़ा हो, तो चुप्पी तोड़ो।’
मूकोऽस्ति कोऽवा, बधिरश्व, कोऽवा।
वक्तुं न युक्तं समये समर्थः।।
गूंगा कौन है ? बहरा कौन है ? समय पर जो युक्त बात नहीं बोल सकता है, वही गूंगा है, वही बहरा है।


10. क्या सृजनात्मक लेखन सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध है ?

सृजनात्मक लेखन सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय लक्ष्यों से जन्मतः नाभिनालबद्ध रहा है, पर सरोकार जब एजेंडा और निहित स्वार्थ बन जायें, तो समझ लीजिए उसमें यांत्रिकता, जड़ता और कृत्रिमता पैठ लगा लेगी। सृजन बेहद नैसर्गिक, स्वच्छन्द और परिवर्तनधर्मी कला है। वक्त के अनुसार सामाजिक प्रतिबद्धता की कसौटियाँ भी बदलती रहती हैं। एक समय था, जब सामाजिक विसंगतियों, शोषण, असमानता और जातिगत भेदभाव को आधार बनाकर धुआंधार लेखन हुआ, अभी भी हर प्रमुख विधा में इन मुद्दों की तूती बोलती है। पर अब सामाजिक संरचना जटिल, अन्तर्विरोधग्रस्त और मायावी बन चुकी है। अब दलितों में भी - ‘ब्राह्मण’ पनप गये हैं। अपने पिछड़े समाज का आर्थिक, शारीरिक, मानसिक शोषण करने से उसी वर्ग का सम्पन्न अधिकारी, नेता, बुद्धिजीवी तनिक भी नहीं चूकता। सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना अब स्वार्थ, सम्पत्ति और विशुद्ध लाभ की धुरी पर घूमने लगा है। जैसे समाज क्षण-क्षण परिवर्तनशील सत्ता है, वैसे ही उसको शब्दशः प्रकट करने वाला सृजन भी। सृजन समाज की वास्तविकता का नक्शा खींचने वाला न सिर्फ माध्यम है, बल्कि भविष्य में समाज क्या रंग दिखाने वाला है, उसकी असलियत क्या आने वाली है, वह कितनी विषमता, विविधता और जटिलता के साथ कल उपस्थित होगा, इसकी भी कल्पना (यथार्थपरक) सृजित करता है।

मौजूदा हिन्दी लेखन की एक विकट ट्रेजडी यह कि सब तरह सामाजिक चिन्ताओं की बाढ़ आयी हुई है, पर प्रतिसृष्टि खड़ी करने वाला सृजन कहीं दिखाई नहीं देता। कौन लेखक मिलेगा, जो स्वीकारे कि हमारे रचनात्मक समर्पण में खामी है, अधूरापन और दोमुँहापन है। पर अघोषित दरहकीकत तो यही है। यह धुरनिश्चित है कि जब तक हमारा कर्म, हमारा जीवन, हमारी भावना, सोच, प्रवृत्ति और महत्वाकांक्षा जमीनी समर्पण से आकंठ लबालब नहीं होगी- तब तक समाज में नयी लहर भरने वाली, नींद को तोड़ने वाली, व्यक्ति-व्यक्ति में आत्मजागृति की दीवानगी उठाने वाली कृति जन्म नहीं लेगी। बड़े-बड़े कार्यक्रमों का सिरमौर हो जाने से स्थापित होने या अमर हो जाने का तमगा हासिल कर लेने से सामाजिक दुर्दशा में रत्ती भर फर्क नहीं आने वाला। पन्ना-दर-पन्ना पक्षधर आँसुओं की बाढ़ से भर देने वाला लेखक दलित-पिछड़ी-गंवार और गरीब बस्तियों में कदम नहीं देना चाहता। उसे एलर्जी मच जाती है- अनपढ़, भदेस पब्लिक के साथ बैठकर गपियाते या चाय-नाश्ता करते हुए। सामाजिक सरोकार कलम का नहीं, लेखक के जीवन का मुद्दा हो। खांटी कलम से समाज, समाज का भजन-कीर्तन करते रहिए- बेमूल्य का है, गैर प्रामाणिक और बेप्राण का। जब जीवन आत्मबद्ध होता है, सामाजिक वास्तविकताओं से, तभी सृजन की भी सार्थकता स्थायी तौर पर सिद्ध हो पाती है।

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डा. भरत प्रसाद 
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
 पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय                                                
शिलांग - 793022 (मेघालय) 
 मो. 9774125265

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