26 अगस्त, 2018

रश्मि भारद्वाज की कविताएं



रश्मि भारद्वाज 




इन ए पेपर वर्ल्ड

कुछ लोगों का कोई देश नहीं होता
इस पूरी पृथ्वी पर ऐसी कोई चार दीवारों वाली छत नहीं होती जिसे वे घर बुला सकें
ऐसा कोई मानचित्र नहीं, जिसके किसी कोने पर नीली स्याही लगा वह दिखा सकें अपना राज्य

वे अक्सर जहाजों में डालकर कर दिए जाते हैं समंदर के हवाले
कोई भी नाव उन्हें बीच भँवर में डुबो सकती है
आग की लपटें अक्सर उनके पीछे दूर तक चली आया करती हैं
किसी भी ख़ंजर या चाकू को पसंद आ सकता है उनके रक्त का स्वाद
उनके जन्मते ही किसी एक गोली पर उनका नाम लिखा जाना तय है
उनका ख़ात्मा दअरसल मानवता की भलाई के लिए उठाया गया ज़रूरी कदम है

उनके अब मासूम नहीं रह गए बच्चे जानते हैं कि अक्सर माँ को कहाँ उठा कर ले जाते हैं
जहाँ से लौटकर वह सीधी खड़ी भी नहीं हो पाती
पिछली बार और फिर कई-कई बार
उन्होंने भी चुकाया था माँ की अनुपस्थति का हर्ज़ाना
पिता कभी रोते नहीं दिखाई देते
उनके चेहरे की हर रोज़ बढ़ती लकीरें दरअसल सूख चुके आंसू हैं
उनके ईश्वर वे हेलीकॉप्टर हैं जो ऊपर से खाने के पैकेट गिरा जाते हैं
कुछ गठरियों में सिमट आए घर को ढोते
वे पार कर सकते हैं काँटों की कोई भी तारें रातोंरात
काँटों से तो सिर्फ़ शरीर छिलता है
मन से रिसता रक्त कभी बंद नहीं होता।

एक घर
एक परिवार
एक देश
एक पहचान
कागज़ों से बनी इस दुनिया में जी सकने के लिए
उन्हें दरकार है
बस एक कागज़ की




देवी मंदिर 

लाल पत्थरों के उस फ़र्श पर अक्सर आ बैठती हैं वे सभी औरतें
औरतें जो प्रेम में हैं
औरतें जो पिट कर आईं हैं
कुछ ने धोखा खाया और अंतिम बार प्रणाम कहने चली आईं हैं
कुछ को गर्भ में मन्नतें संजोनी हैं
कुछ बेटे की रात को दी हुई गालियां याद कर आँखें पोंछती हैं
कुछ आस से सामने खेलते शिशु को निहारती हैं
और अपनी बच्चियों के सिर पर हाथ फिरा देती हैं
कुछ को नहीं पता उन्हें जाना कहाँ हैं
पैरों को बस यहीं का पता सूझता है,  घर से निकाल दिए जाने के बाद
फेयर लवली की दो परतें लगा कर आई वह सांवली लड़की
अपने होने वाली सास ननद के सामने खड़ी अक्सर काँप उठती है

उनके माथे पर आँचल हैं
आँखें बंद हैं
और होंठों पर है उनके अपनों के लंबी उम्र की प्रार्थनाएं
जबकि वे जानती हैं कि
ऐसी कोई प्रार्थनाएं नहीं बनी जिनमें गलती से भी चला  आता हो उनका नाम

एक पगली अक्सर लाल पत्थर की सीढ़ियों पर आ बैठती है
देवी के भवन में
देवी की प्रतिमा के सामने
गिड़गिड़ाती औरतों को देखकर
खिलखिला के हंसती है
सोचती है, अच्छा है कि उसका कोई घर नहीं है
और उसे जी पाने के लिए किसी और के नाम की प्रार्थना नहीं करनी है।










ईश्वर होती देह 

वहां किसी को जीतना नहीं है
हार दोनों की तय है
प्रेम के उत्कट क्षण
ख़ुद को ख़ाली करता हुआ एक उन्मत्त, अधीर
उसे ख़ुद में समेट लेने को व्याकुल प्रणयी बाँहें
वक्ष, उदर, ग्रीवा, पृष्ठ, भुजाएं
आँखें, चिबुक, कर्ण
हर अंग पर होठों से एक दूसरे का नाम लिखना
दरअसल आत्मा पर एक स्थायी नाम लिख देने की तड़प होती है

तीव्र साँसों की आरोहित लय के साथ साथ काँपते दो शरीर
बंद आँखें
एक दूसरे में समाहित होना
जैसे अथाह जल में धीरे धीरे गोते लेता अपनी ही तपिश से थका हुआ सूरज
थोड़ी देर बुझ जाना चाहता हो
जैसे अपनी ही परिधि से बाँध दी गयी एक अनन्त जलराशि
आज़ तोड़ देना चाहती हो सारी सीमाएं
दो ईश्वर एक दूसरे में लीन सृजन लीला रच रहे
सृष्टि असीम आनन्द से भरी उन्हें निहार रही है

समर्पित हो जाना देह और प्राण का
यह साधना के फलीभूत होने के क्षण हैं
हर अहम्, हर अहंकार की समिधा को प्रेम की अग्नि में समर्पित कर
यह आत्मा के एकाकार होने का यज्ञ है

एक दूसरे में अवगुंठित दो शरीर
तब ना स्त्री हैं
ना पुरुष
वे एक दूसरे को खोजती विकल आत्माएं
दअरसल अपना ही एक विस्मृत हिस्सा तलाश रहीं हैं
हर आवरण को हटाकर
मन छू आना चाहती हैं
प्रेम लिख आना चाहती हैं
उनके मिलन का साक्षी है एक निष्कपट अँधेरा
जिसमें घुलकर वह भूल जाते हैं
कि दिन का साजिशी उजाला उन्हें किस हद तक
दो हिस्सों में बाँट जाता है

अपने हर मद, हर विजय, हर पराजय को सौंप कर
वह बेसुध सोया शिशु
जो बस अभी अभी ही जागा है
कल नींद टूटते ही फिर कई युगों की नींद सो जाएगा
उसे याद आएगी एक विजित की गयी स्त्री
उसका पौरुष उन्मादित, अहंकार भरी अट्हास करेगा

एक पृथ्वी उसके स्खलन की साक्षी, उसे समेटे हुए अपनी बांहों में
धीरे धीरे चूमती है, उसके बालों पर उँगलियाँ फैलाती
हौले से मुस्कुराती है
एक लंबी मृत्यु जी आने के बाद
बस इन कुछ पलों में ही एक युग जी आयी है
अल सवेरे ही फिर स्त्री हो आएगी
अपने प्रश्नों में घिरी, देह की परिधि में बंद
वह सदियों के लिए फिर से मृत हो जायेगी।





दो शब्दों के बीच

तुम्हारे लिखे दो शब्दों के बीच बेख़्याली से जो जगह छूट जायेगी,
मैं अपनी कविता के साथ वहां मिल जाया करुंगी
उसी जगह, जहाँ तुम्हारे रचे इतिहास से वंचित किए गए लोग रहते हैं,
हारे -थके और दमित लोग
वहीं, जहाँ उनके आँसू रहते हैं,
भूख बसती है,
अंधेरा सहमाता है
तुम्हारे लिखे चमकते पन्नों से मुझे खून की बू आती है





नींद एक मरहम है

जागते दिनों की तमाम साजिशों के बाद
नींद एक मरहम है
यह हौले से आकर चुपचाप भरती है आगोश में
माँ सी थपकियाँ देती है
और हम एक मौत ओढ़कर सो जाते हैं।

मृत्यु के इन नितांत निजी पलों में
कल आने वाला एक और निर्दयी सूरज नहीं डराता है
जो नयी साजिशों, नयी तिड़कमों के साथ
हमें फिर से एक बार भीड़ के हवाले कर देगा
भीड़ के पास अट्टहास है, भूख है, आस है, हमारे सपने हैं
और एक मज़बूत ताला है
नींद अक्सर उस ताले को भी चुराकर तोड़ डालती है
और हम हमारे सपनों के साथ महफूज़ सो जाते हैं।

नींद में मुस्कुराता यह शिशु ईश्वर है
जो जब चाहे बेसुध सो सकता है
उसे ललचायी आँखों से देखते हैं एक पुरुष और एक स्त्री
नींद उनके लिए एक याचना है
उन्हें अपने दंभ भरे सिरों का बोझ उतारकर
थोड़ी देर सो जाना चाहिए
जिससे जागने पर वे थोड़े धुले निखरे होकर
फिर से जी सकने के लिए तैयार हो सकें

नींद किसी चन्दन की पट्टी सी
हमारे उबलते हुए माथे को सेंकती है
और मन का सारा ताप हर ले जाती है

नींद है कि एक बेहतरीन कविता
इसे अपने आने के लिए चाहिए एक साफ़ दिल
और थोड़ी सी प्यास




चंद्रिका स्थान 

गांव के सीमांत पर सदियों से खड़ा था एक बूढा बरगद
किसी औघड़ सा अपनी जटाएं फैलाएं
अपने गर्भ में सहेजे था एक देवता-स्त्री को
 यह रक्षक स्त्री है तो गांव सलामत है, ऐसा कहते कई पीढियां गुजर गयीं
उसके खोंइंछे में हर दिन टांक दिए जाते थे
दुःखों के अनगिन चाँद सितारे
मन्नतों के कई गोटे
वह उन्हें वैसे ही सहेज लेती जैसे सैकड़ों सालों पहले कभी अपनी व्यथा को सहेजा होगा
मेरी दादी और उन जैसी कई औरतें
हर पखवाड़े बरगद की गोद में बने उस छोटे से स्थान की अँधेरी दीवारों पर सिंदूर से एक आकृति उकेरतीं
उसे हल्दी, चन्दन और कुमकुम से सजातीं
और गीत गाती हुईं उस पर अपने आंसूओं का अर्ध्य चढ़ा आती
मेरे गांव ने अपनी देवता-स्त्री ख़ुद गढ़ी थी
उसे दी थी अपनी पनियाई आँखें, अपने सूखे होंठ और अपना सा ही रूप

बरगद का वह बूढा वृक्ष
उनके कथा गीतों को पक्षियों के कानों से सुनता
और उन्हें पंख मिल जाते
वह गांव -गांव उड़ते
हर नम आँख को तसल्ली दे आते
ब्याही हुई बेटी को मिलता अपनी मां का संदेसा
प्रेमी उन गीतों में खोजते बिछुड़ी हुई प्रेयसी की स्मृतियाँ
कुंवारियों की आशंकाएं उन्हें सुनकर चैन पातीं थी
उन गीतों में उग आती थीं पीढ़ियों की व्यथाओं की असंख्य लकीरें
जिन्हें संग साथ गाते बूढ़े-बुजुर्ग देवता-स्त्री से नयी नस्लों की ख़ुशहाली की दुआएँ मांगते

चंद्रिका स्थान एक बसेरा था


जहाँ ज़िन्दगी की धूप में तप रही आत्माएं सूकून पाती थीं
गपोड़ रिज़वान चचा छाँव में बैठ घन्टों किस्से कहानियां बांचते
उनकी बकरियाँ आस पास घूमती नरम घास चरतीं
खेत में काम कर थकी पड़वा, गौरी, समीमा वहीं बैठ खाती थी अपनी दुपहर की रोटी
और अँचरा ओढ़ कर लुढ़क भी जातीं
वृक्ष एक पिता था जिसकी फैली हुई मज़बूत भुजाओं पर झूला झूलते खिलखिलाते थे बच्चे
और उसकी रूखी- सख़्त शिराओं में दौड़ पड़ता हरा ताज़ा ख़ून
अँखुआ उठती नयी कोंपलें
गांव का पतझड़ हर साल बहुत ज़ल्दी हार जाता था
देवता- स्त्री थी सबकी माँ
वह मुस्कुराती और खेतों का बसन्त लौट आता

और फिर एक दिन अचानक एक पगडंडी ने देखा शहर का रास्ता
देवता-स्त्री की संगमरमर की चमचमाती मूर्ति आ गयी
जिसके होंठों पर एक सदा बहार कृत्रिम मुस्कुराहट थी
उस मूर्त्ति के वैभव को समेटने के लिए छोटी पड़ गईं वृक्ष की भुजाएं
अब वहां एक विशाल मंदिर है
वृक्ष अब नहीं रहा
दादी भी नहीं
और उनके समय की कई और स्त्रियां भी
अब वहां पक्षी नहीं आते
ना मज़दूर औरतें
रिज़वान चाचा अपनी झोपड़ी में बैठे ख़ाली निगाहों से मंदिर जाती यंत्रवत भीड़ को देखते हैं

 देवता- स्त्री अब लोहे के फाटकों और मन्त्रों के तीव्र शोर में घिरी
अपनी धवल मुस्कान के साथ
 एक पवित्र ईश्वर में तब्दील हो गयी है






स्मॉग इन द सिटी

शहर के बुध्द चौक पर चार दिशाओं में खड़े हैं चार बौद्ध भिक्षु
एक साथ, एक दूसरे की पीठ से जुड़े हुए
झुके हुए शीश, बंद नेत्र, हाथ क्षमा दान की मुद्रा में उठे हुए
उनके चेहरे पर लिखा है घोर विषाद
शायद यह मेरा भ्रम हो या कि कल्पना का अतिरेक
लेकिन शहर पर बीते हर दुःख के बाद
उनके चेहरे पर खिंच आती है पीड़ा की नयी लकीरें
शहर के हर नए पाप के बाद
उनके चेहरे थोड़े और झुक जाते हैं
और मैं वहां शर्म की गहरी काली छायाएं देखती हूँ
वे उस मूर्तिकार के शुक्रगुज़ार होंगे शायद
जिन्होंने उनके नेत्र बंद कर दिए और एक अश्लील शहर को देखते रहने के अपराध से बचा लिया

उनके चारों ओर भागती एक बेदम भीड़
अपनी आत्मा में भरती जा रही है एक स्याह धुंआ
उसे कहीं पहुँच जाने की ज़ल्दी है
जबकि वास्तव में वह एक घेरे से बंधी बस गोल गोल चक्कर काट रही है
भिक्षु इस भीड़ के बहाने उन सभी को माफ़ कर देना चाहते है
जो मानवता को प्रतिमाओं में बदल देने की साज़िश में उलझे हैं

एक बीमार शहर के चौराहे पर खड़े ये चार बौद्ध भिक्षु
उसकी हर रोज़ की जा रही आत्महत्या के मूक गवाह हैं
कुछ नहीं कर पाने के दुःख और शर्म से गड़े
वे हर रोज़ ख़ुद भी थोड़ा थोड़ा मरते जा रहे हैं




आत्म संवाद

अब तक नहीं लिख सकी कि कितने नर्कों के बाद मैं यह बोल पड़ी थी कि बस अब यह मेरा आख़िरी नर्क होगा
कहाँ लिखा कि रात -अँधेरे उठ कर तय करती रहती हूँ ठीक से बंद हों घर के दरवाज़े, खिड़कियां
नहीं लिखा कि किन किन मौकों पर मुझे बोलने नहीं दिया गया
या कि मैंने ख़ुद ही चुना चुप रह जाना
नहीं लिख सकी कि कितनी बार मेरी आँखों को ज़बरन बंद करा दिया गया
और कुछ दृश्य जलते रह गए मन में हमेशा
नहीं लिखा कि कितनी ही बार कितनी अश्लीलता से याद करायी जाती है मुझे मेरी देह
या कि मेरे कुछ भी बोलने पर थमाए गए मुझे तमगे
उदंड, बत्तमीज़, बेशऊर या पागल होने के

मेरे हाथ में कलम थी, मेरे पास आवाज़ थी
लेकिन मैं अपने लिए ही नहीं लड़ पायी
मेरा भय छिपा था मेरे नाम में
मेरा भय छिपा था मेरे नाम के आगे लगे एक ख़ास उपनाम में
मेरा भय था एक ऐसी मिट्टी से उखड़ आना जिसका ज़िक्र भी गाली की तरह किया जाता है
मेरा भय था कि पुरुष की छत्र छाया से वंचित हर स्त्री चरित्रहीन ही कहलाती है

मैं एक मज़बूत स्त्री होने का आडंबर रचती
हर दिन एक नए भय से लड़ने को अभिशप्त हूँ




रिक्त स्थान

एक पुरुष ने लिखा दुख
और यह दुनिया भर के वंचितों की आवाज़ बन गया
एक स्त्री ने लिखा दुःख
यह उसका दिया एक उलाहना था

एक पुरुष लिखता है सुख
वहाँ संसार भर की उम्मीद समायी होती है
एक स्त्री ने लिखा सुख
यह उसका निजी प्रलाप था

एक पुरुष ने लिखा प्रेम
रची गई एक नयी परिभाषा
एक स्त्री ने लिखा प्रेम
लोग उसके शयनकक्ष का भूगोल तलाशने लगे

एक पुरुष ने लिखी स्त्रियाँ
ये सब उसके लिए प्रेरणाएं थीं
एक स्त्री ने लिखा पुरुष
वह सीढियाँ बनाती थी

स्त्री ने जब भी कागज़ पर उकेरे कुछ शब्द
वे वहां उसकी देह की ज्यामितियां ख़ोजते रहे
उन्हें स्त्री से कविता नहीं चाहिए थी
वे बस कुछ रंगीन बिम्बों की तलाश में थे

भक्ति काल में मीरा लिख गयीं - राणाजी म्हाने या बदनामी लगे मीठी।
कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूंगी चाल अपूठी...
1930 में महादेवी के शब्द थे -विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना...
1990 में लिखती हैं अनामिका -
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!

2018 में यह पंक्तियाँ लिखते
मैं आपके लिए तहेदिल से चाहती हूँ ' ग्रो अप
एन्ड मूव ऑन '
और आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए
20 ....लिख कर रिक्त स्थान छोड़ती हूँ
उम्मीद करती हूँ कि अब कोई नयी बात लिखी जाए !







अस्सी का दौर और एक अव्यक्त रिश्ते से गुजरते हुए

जबकि हममें से कइयों को इस बात पर भी दुविधा हो सकती है
कि हम प्रेम की संतानें हैं या नफ़रत की
या किसी रात एक दिनचर्या या अनिच्छा से ही गुजरते हुए हमें संजो लिया गया अपने गर्भ में
जबकि पुरानी, रंग उड़ी तस्वीरों के अलावा
हमने कभी नहीं देखा उन्हें फिर एक दूसरे की आँखों में झांकते हुए
या हाथों में हाथ डाले समंदर से गलबहियाँ करते
जबकि कई बार हमें यह लगता रहा कि यह घर हमारे होने से ही घर बना हुआ है
और जो हम हटा दिए जाएँ तो दो लोगों के साथ रहने की कोई वजह बाक़ी नहीं रह जायेगी
जबकि हमने कभी नहीं सुना कि उन्होंने कहा एक दूसरे से, तुम्हारे बिना नहीं है मेरा वजूद
बल्कि रोज़ रोज़ की बहसों से तंग आकर कई बार सोचा और कहा भी
छोड़ क्यों नहीं देते आप लोग एक दूसरे को !
वे साथ बने ही रहे

बल्कि ये भी होता रहा कि कभी दूर होने पर हर शाम
सुनाई जाती रही एक दूसरे को दिन भर की हर घटना फोन पर
फ्रिज़ और आलमारी में रखी चीज़ें याद दिलाई जातीं रहीं
लौटती के टिकट की तिथि पूछी जाती रही
लेकिन ये नहीं कहा गया कि तुम्हारे बिना घर ख़ाली सा लगता है
यह भी कभी नहीं हुआ कि हमारे बचपन में हमें ही लिपटा कर ढेर सारे चुम्बन दिए गए हों
कहा गया हो कि तुम लोग आँखों के नूर हो
और एक दूसरे को आँखों ही आँखों में शुक्रिया कहा गया हो
हमारे लिए प्रेम हमेशा अव्यक्त ही रहा
लेकिन हम आज़ भी जानते हैं यह बात मन ही मन में
कि जो अव्यक्त है वही सबसे सुंदर है

अब जबकि हम उनके साथ नहीं है
जबकि कहा नहीं जाता होगा अब भी कोई शब्द जिससे प्रेम जैसी कोई गंध आती हो
वे अब तक साथ बने हुए हैं
हमें यह विश्वास करने के लिए बाध्य करते हुए
कि प्रेम कुछ -कुछ ऐसा ही दिखता होगा।

००
परिचय
नाम : रश्मि भारद्वाज
जन्मस्थान- मुजफ्फरपुर, बिहार
शिक्षा -अँग्रेजी साहित्य से एम.फिल
 भारतीय विध्या भवन, नयी दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा
वर्तमान में पी.एच.डी शोध (अँग्रेजी साहित्य)
दैनिक जागरण, आज आदि प्रमुख समाचार पत्रों में रिपोर्टर और सब - एडिटर के तौर पर कार्य का चार वर्षों का अनुभव ,वर्तमान में अध्यापन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य। 
 प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओं में विविध विषयों पर आलेख, कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित। मुजफ्फरपुर दूरदर्शन, बिहार के लिए दो वर्षों तक स्क्रिप्ट राइटिंग और कार्यक्रम संचालन। रेडियो के लिए नाटक लेखन  
ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार -2016 द्वारा कविता संग्रह ‘एक अतिरिक्त अ’ प्रकाशित   
बोधि प्रकाशन , जयपुर द्वारा प्रकाशित और वरिष्ठ कवि विजेंद्र सिंह द्वारा संपादित 100  कवियों के संकलन “शतदल” में रचनाएँ चयनित।
राजपाल प्रकाशन द्वारा रस्किन बॉन्ड का कहानी संग्रह एवं साहित्य अकादमी विजेता हंसदा सोवेन्द्र शेखर के कहानी संग्रह आदिवासी नहीं नाचेंगे का अनुवाद ।  
जगरनौट के लिए नियमित अनुवाद कार्य और लेखन और दैनिक जागरण के लिए फ्रीलान्स रिपोर्टिंग और लेखन। 
साहित्य अकादमी, रजा फाउंडेशन-युवा और कविता आज, हिन्दी अकादमी, ज्ञानपीठ, नीलांबर कोलकाता, मुक्तांगन आदि प्रतिष्ठित साहित्यिक मंचों पर चयनित भागीदारी। 
मुक्तांगन कविता कोष काव्य पाठ सीरीज का संचालन- संयोजन.   
पता: 129, 2nd फ्लोर, ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश-201014
ईमेल: mail.rashmi11@gmail.com
संपर्क- 09654830926
वेब मैगज़ीन ‘मेराकी पत्रिका’ का संपादन जिसके द्वारा समय- समय पर महत्वपूर्ण एवं वैचारिक साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन। यह वेब पत्रिका नए रचनाकारों को मंच देने के लिए प्रतिबद्ध है।

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही लाजवाब कवितायेँ है आपकी ,समाज की कुरीतियों के विरुद्ध स्वर बुनती हुई रचन है आपकी |आपको शुभकामनायें

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  2. अच्छी कवितायें .ताजगी से भरी .कथ्य नया और अंदाजे बयां बहु .रिक्त स्थान ' ने बरबस अपनी ओर खींचा .रश्मि जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ .

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  3. पहली कविता:इन ए पेपरवर्ल्ड में अपने देश की भौगिलिक स्थितियों,विशेषकर जन-जीवन, रहने सहन निर्वहन पर जिस भांति जरूरी कर्मचारी की है वह काबिले गौर है।A-4 साईज के पेपर पर प्राकृतिक आपदा, उसका प्रबन्धन नहीं संभाला जा सकता।
    रचना के अन्त में खुद के होने कहूँ तो अपनी अस्मिता के लिये कुछ सवाल अन्तर्मन को झकझोरते हैं।
    बेहतरीन लेखन हेतु शुभकामनाएं मित्र।शब्द गठन, यथार्थ का समावेश रचना का दीर्घ गंभीर बना रहा।

    _____विमल चन्द्राकर

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  4. पहली कविता:इन ए पेपरवर्ल्ड में अपने देश की भौगिलिक स्थितियों,विशेषकर जन-जीवन, रहने सहन निर्वहन पर जिस भांति जरूरी कर्मचारी की है वह काबिले गौर है।A-4 साईज के पेपर पर प्राकृतिक आपदा, उसका प्रबन्धन नहीं संभाला जा सकता।
    रचना के अन्त में खुद के होने कहूँ तो अपनी अस्मिता के लिये कुछ सवाल अन्तर्मन को झकझोरते हैं।
    बेहतरीन लेखन हेतु शुभकामनाएं मित्र।शब्द गठन, यथार्थ का समावेश रचना का दीर्घ गंभीर बना रहा।

    _____विमल चन्द्राकर

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  5. पहली रचना: इन ए पेपरवर्ल्ड में अपने देश की भौगोलिक संरचना, परिवेश, रहन सहन, यहां का समाज आबादी का निर्देशन, देश की प्राकृतिक आपदा, उस समय के प्रबंधन, वितरण रसद आपूर्ति जैसे अर्थ गंभीर विषय पर शाब्दिक गठन व शब्द सामंजस्य काबिले गौर है।
    रचना के अंत में कुछ सवाल उठे हैं जो चिन्तनीय हैं।
    खुद की अस्मिता की पड़ताल का एक अवसर पाठकीय रुप में इस रचना द्वारा प्राप्त हुआ।गंभीर विषय पर उम्दा सृजन हेतु बधाई मित्र।

    विमल चन्द्राकर

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  6. पहली रचना: इन ए पेपरवर्ल्ड में अपने देश की भौगोलिक संरचना, परिवेश, रहन सहन, यहां का समाज आबादी का निर्देशन, देश की प्राकृतिक आपदा, उस समय के प्रबंधन, वितरण रसद आपूर्ति जैसे अर्थ गंभीर विषय पर शाब्दिक गठन व शब्द सामंजस्य काबिले गौर है।
    रचना के अंत में कुछ सवाल उठे हैं जो चिन्तनीय हैं।
    खुद की अस्मिता की पड़ताल का एक अवसर पाठकीय रुप में इस रचना द्वारा प्राप्त हुआ।गंभीर विषय पर उम्दा सृजन हेतु बधाई मित्र।

    विमल चन्द्राकर

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  7. बेहतरीन कविताएं रश्मि जी की । सभी कविताएं एक विमर्श में शामिल करती है एक निश्छल प्रवाह जिसमे बहते जाते है । बहुत ही बढ़िया कविताएं।

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