03 अगस्त, 2018


राजस्थानी कविता 
ओम प्रकाश भाटिया की कविताएं 

अनुवाद- डॉ. आईदानसिंह भाटी




आईदान सिंह भाटी 




 बेटी
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बहुत संघर्ष करके
थक चुकी हो मां
अब तुम्हारे आंसू
मुझसे देखे नहीं जाते।
तुम व्यक्ति से वस्तु बन चुकी हो
तुम्हारी खूबसूरती एक चीज है मां!
जिसे हर कोई पाना और नोचना चाहता है।

तुम्हारा वह आंचल ही छिन गया है
जिसमें तुम मुझे छुपा सको।
तुम्हारी छातियों का दूध भी सूख चुका है
जिन्हें मुझे चींथना है।
तुम्हारी हरियाली सूख चुकी है मां!
तुम एक सूखा ठूंठ बन चुकी हो
जिसके माथे पर चिंताओं के कौवे
और आशंकाओं के गिद्ध बैठे हैं ।

तुम्हारी कोख में आ कर साफ देख रही हूं मां
तुम क्षण-क्षण मारी जाती हो
तुम्हारा रुदन इस ब्रम्हांड में
सदियों से गूंजता रहा गुहार लगाता रहा
किसने पौंछे है तुम्हारे आंसू
किसने थामी है तुम्हारी हिचकियां
किसका कंधा मिला है
तुझे सहारे के लिए
घर की भींत, खंभा या तुम्हारे ही घुटने।
समय और हवा ने भी
तुम्हारे आंसू नहीं पौंछे।

तुम ही कहीं भी कभी भी
बिना अपराध कत्ल कर दी जाती हो
तुम ही कहीं भी कभी भी
बिना शर्म अपमानित कर दी जाती हो
तुम ही कहीं भी कभी भी
बिना कसूर निष्कासित कर दी जाती हो
तुम ही कहीं भी कभी भी
तुम ही कहीं भी कभी भी ...क्यों?

तुम्हारी खूबसूरती
तुम्हारी कोमलता
तुम्हारी निर्मलता
तुम्हारी  निश्छलता
तुम्हारा समर्पण
तुम्हारा प्यार
तुम्हारे दुश्मन है मेरी मां!

मैं तुम्हारी कोख से
महसूस कर रही हूं मां
पिताजी के कंधों पर जब मैं चढ़ूंगी
तो वह मेरा बोझ नहीं उठा पाएंगे
झुक जाएंगे।
उनकी आंखें मुझे लेकर
डरती रहेंगी
चिंता की स्थाई लकीरें
माथे पर उतरेंगी और
अनजान आशंकाओं से
भरा मन स्थाई उदासी ओढ़ लेगा।

स्कूल भेजती मां तुम
मेरे घने बालों की
दो चोटियां बनाकर भय से
मेरे सर पर दोनों हाथों से
थाप मारती कहोगी
मर रे!  घोड़ी हो रही है दिन-ब-दिन।

तुम्हारी पनीली आंखें
हमेशा मेरा पीछा करती रहेंगी
लौटूंगी तो टटोलोगी मुझे
मैं कुछ खो कर तो नहीं आई
साबुत लौटी हूं या नहीं।
इंतजार करोगी किp
जल्दी से बड़ी हो जाऊं
मनौती मानोगी कि सौंप दूं
इसे किसी सुरक्षित हाथों में और गंगा नहाऊं
पर वे हाथ
न मां तुझे सुरक्षित रख सके ना मुझे रखेंगे
यह दुनिया तेरे और मेरे रहने लायक नहीं है मां!

तुम मुझे कोख में मारना चाहती थी न
सही सोचती थी तुम
मरना तो मुझे है ही
इस धरती पर जन्म लेते ही
शिकार कर ली जाऊंगी
बड़ी हो गई तो तिल तिल रोज मरूंगी
मरना तो पड़ेगा ही मुझे
इसलिए जब तक यह भयानक दुनिया
मेरे रहने लायक ना हो जाए
मैं जन्म लेने से इंकार करती हूं
मैं तुम बनने से इंकार करती हूं मां!

पर यह भी मेरे हाथ में है क्या
तेरे हाथ में तो है ना मां!









 खेजड़ी

कोई नहीं लगाता है खेजड़ी
कोई अपने गार्डन में
ज्यूं कोई अफसर अपनी गंवई मां को
नहीं बिठाता है डार्इंग रूम में।

कोई लगाता नहीं है खेजड़ी
तपते रेगिस्तान में भी
अपने आप उगती है
और बेटी की तरह तेजी से बढ़ती है
हरियल होकर मां की तरह
लुटाने लगती है सब कुछ अपने आंचल से
पशुओं को लूंख पते चारा
छोटे छोटे पतों की गहरी ठंडी छाया
पक्षियों को बाहों में समेट
घर - घौंसले
आदमी को श्वास सींगरी और हौंसले
सावन के झूले।

जब आदमी सूंत लेता है उसे
किसी नव यौवना की तरह
उसका श्रृंगार, सौन्दर्य, हरापन
तब ढहते आकाश को
अपने नंगे बाजुओं पर थामे
अरदास करती है
फिर से हरियल होने की कामना करती है।

तपते थार में
केर- बेर, जाल- रोहिड़ा, फोग-खींप के बीच
आकाश तक सर उठाये
काल दुकाल में भी
जलते अंगारों को अपने हाथों में थामे
निहंग तपस्वनी की तरह रहती है खड़ी
अक्षय जड़ी।

दूर - दूर रेत के समंदर में
कहीं नहीं होती है छाया
तब
समंदर में लाइट हाउस की तरह
झूम कर बुलाती है
आओ मेरे पास है जीवन।

ये शमी
रेगिस्तान के तपते हवन कुन्ड में
आहूति है एक
वह कभी अर्जुन का गान्डीव संभालती
कभी परमाणु बमों की आग अंवेरती
पाताल फोड़ पानी पीती
रेत के छर्रों को झेलती
एक योद्धा है खेजड़ी।

खेजड़ी कायनात है
एक दुनिया है अपने आप में
जीव जगत् का आश्रय
जीवन का आधार
तभी तो कट गये
इसे बाहों में भर कर लोग
उन्हीं का करती सोग
उदास खेजड़ी
ढूंढ़ती है उन्हें
ज्यूं ढूंढ़ती है वृद्धा मां अपने बच्चों को
क्यों कि अब घरों में
न मां के लिए जगह है
न खेजड़ी के लिए।




 कविता

जो लेते हैं दिल से काम
वे दिमाग से नहीं लेते
जो लेते हैं दिमाग से काम
वे दिल से नहीं लेते
जो लेते हैं दिल और दिमाग से काम
वे झूठ बोलते हैं
धोखा देते हैं।

क्योंकि दिल से
किया जाता है प्यार
समर्पण
दिमाग से सोचा जाता है
और जो सोचते हैं
वे प्यार नहीं करते
यदि तुम करते हो मुझसे प्यार
तो मेरी सारी बुराइयों के साथ करो
मेरी बुराइयों को देखोगे
तो कैसे प्यार करोगे?
जब तुम्हारा प्यार रहेगा
तो बुराइयां रहेंगी ही कहां?




हवाएं

             
आजकल दिशाओं की बाजुओं में
कैद है हवाएं
वे चाहें तो छोड़े चाहें तो ना छोड़ें
हवा में बहुत थरथराहट है।

हर कोई अपनी बयार
चलाना चाहता है
कई बह जाते हैं
कई ढह जाते हैं
आजकल हवा बदलते भी देर नहीं लगती
सतर साल तक पश्चिम से बह कर
अब पूरब से बहने लगी है।

आजकल हवाएं सबकी नहीं रहीं
मेरी,तेरी, उसकी हो गई है
हमें दूसरे की हवा में
घुटन होने लगी है।

अट्टालिकाओं में बहने वाली हवाओं में
बादलों की ठंडक
घरों में हवा पुरानी बोसीदा गंध लिए
हमेशा गर्म
झोंपड़ पट्टी में हवा बदबू उठाये घूमती रहती है
कभी कभी हवा उल्टी दिशा में भी बहती है
तब बादलों की हवा मिट्टी की
सोंधी गंध से आ मिलती है।

जो जितना महीन होता है
उतना ही ताकतवर होता है
जो जरा से क्षिद्र से निकल जाने का
हुनर जानता है
वही तूफान बनने की ताकत भी
रखता है।

आजकल हवा निश्चित आकार में
रूप  रंग में बहती है
इसकी गति भी बढ़ गई है
वह सब कुछ
उलट पलट करने पर तुली है
अभी भी थामेंगे इसकी रास
तो चलेगी मंथर चाल
वरना हवाएं तूफान बनते
देर नहीं लगातीं।


   




 पानी

समंदर
भर भर बादल भेजता है जीवन
बादल
पानी की तैरती नदी
उस नदी से जमीन पर उतरता है जल।

विशुद्ध जल
पवित्र जल
किसी शिशु की तरह
जंगल, पहाड़, मैदान, खेत, खलिहान
प्रकृति के हर हिस्से में
अठखेलियां करता शोर मचाता
कहीं झरनों में गूंजता
नालों में भागता, नदियों से मिलता
कहीं पोखरों, झीलों में
ठहर कर सांस लेता।

झील पर तैरता चांद
छिटकी चांदनी में
परियां उतर आतीं और हवा महकने लगती
जल पाखी किलोल करते
पेड़ झूमने लगते
किसी नवयुवती की तरह
डरे डरे चौकन्ने हिरण भी
मंत्र मुग्ध से जल पीना भूल कर
स्वर्गिक दृश्य को निहारने लगते
धरती हरी चूनर औढ़ लेती
और आकाश उसे बाहों में भर लेता।

इस दृश्यबंध में हर जीव सौंदर्य भरता
उसका हिस्सा होता, उसमें खो जाता।

परन्तु एक जीव मनुष्य
बनाया तो इसे भी प्रकृति ने ही
पर प्रकृति के अनुकूल नहीं रहता
प्रकृति को वश में करने लगता है।

सभी जीव प्रकृति की शुचिता में
करते हैं सहयोग मगर
मनुष्य उसे बरबाद करता है।

स्वच्छ निर्मल जल में
भर देता है अपना अवशिष्ट
हवा में बदबू भर जाती है
फैलने लगती है सड़ाँध चारों ओर
आकाश गुस्सा कर आंखें तरेरता है
पानी पाताल में चला जाता है
जल जल कर सूखने लगता है

विशुद्ध पवित्र जल
बदल जाता है मनुष्य के उच्छिष्ट में
झीलों में चांद नहीं उतरता
उदास दूर आसमान से
धुंधलाया ताकता रहता है
चांदनी धुएं में लोप हो जाती है
गाढ़े जल पर
लहरें नहीं करती अठखेलियां
जल-पाखी और पेड़
दृश्य से गायब होने लगते हैं
हिरण किसी नवयुवती सा
चौंकता है और डर कर भाग जाता है।

पानी उतर गया है
सब तरफ से
न प्रकृति में बचा है
न मनुष्य में।








अंधेरा

नीम फिर घना फिर घनघोर अंधेरा
ज्यों सात काराओं में बंद
घुप्प अंधेरा।

क्या आंखें अभ्यस्त हो जाएंगी
क्या अंधेरे में भी प्रकाश के स्फुलिंग
बचे रहते हैं कहीं
कैसे होगा इस अंधेरे का अंत
या हमेशा के लिए
खो जाना होगा इस अंधेरे में।

अभी जिंदा तो हूं
मस्तिष्क में आते हैं विचार
तो क्यों छोड़ दूं उम्मीद
ऐसे ही तो बिग बैंग निकला था।

घनीभूत होता जा रहा है अंधेरा
हावी होने को अट्टहास कर रहा है
कोंचने लगा है चारों तरफ से
रोक रहा है विचारों को
मस्तिष्क तक आने को
शून्य की तरफ जा रहा हूं मैं
क्या यही आसन्न मृत्यु है
लेकिन मैं मरना नहीं चाहता
अंधेरे के हाथों तो बिलकुल नहीं।

मन को दृढ कर सोच पर जोर डालूं
हटाऊं दूर ठेलूं अंधेरे को अपने ऊपर से
याद करूं उन उजालों को
जो मेरे अपने थे
वे जरूर मुझे देंगे ताकत
जिंदगी में उजालों को हमेशा
याद रखना चाहिए
वही तो देंगे लड़ने की हिम्मत इन अंधेरों से।

अंधेरे हर जगह हर समय होते हैं
लेकिन इनकी उम्र नहीं होती
बस इसी तरह बिग बैंग की तरह
विस्फोटित होगा मेरे अंदर से
तब तक मेरे अपने उजालो
मेरे पास रहो
इस अंधेरे की उम्र भी लम्बी नहीं होगी।




सर्दी में रेगिस्तान
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ठंड में ठिठुरता रेगिस्तान
झरने लगता है खेजड़ी के पत्तों से
हवा कोई कोना तलाश कर
जमने लगती है।

कोहरे में कांपता चांद
फीकी चांदनी छिटका देता है
ओस में नहाते धोरे
सिकोड़ लेते हैं अपनी लहरें
ज्यों बगलों में दाब लेता है कोई
अपनी भुजाएं।

झिंगुर भी फोग की ओट में
थरथराने लगते हैं
आसमान में उभरा शीत कोट
आंच का आभास देता है
और रेगिस्तान एक सर्द रात
काट लेता है।








 रेगिस्तान में रात


चांदनी के समंदर में
तैरता है चांद
रेत के धोरों पर
सरगोशियां करती हैं हवाएं
दमकते हैं पत्ते और
ऊंघते हैं पेड़।

नींद के झौंके से
छूट कर गिरता है मोर
और चौंक कर चीखता
फिर चढ़ जाता है डाल पर
सिहर कर भागने लगती है रात।

उस भागती रात के पीछे
भौंकते कुत्ते
थोड़ी देर में थक कर
पकड़ लेते हैं कोने
खामोशियां तारी हो जाती हैं चारों ओर
झिंगुरों के शोर के बीच
दूर बज उठती है
किसी ऊंघती गाय के गले की घंटी।

किसी मंदिर में
प्रार्थना सी चहचहाने लगती है चिड़ियां
और हो जाती है भोर
रात भर का थका - हारा चांद
अलसा कर ऊंघने लगता है
रात एक सूरज को जन्म देकर
हो जाती है अनंत में विलीन।




 मन के भीतर थार 

अनंत तक फैला
धरती से आकाश तक
पीला ही पीला
तीक्ष्ण अंगारे उछालता,लहराता
प्यासे रेतीले कठिनाइयों के पहाड़ उठाये
विस्तारित होता
थार रेगिस्तान।

जल विहीन रेत के कणों को
बरछी की तरह मारता
एक युद्ध लड़ता है अपने आप से
जलाती है तीखी धूप हवा को अग्नि कुंड में
या लू काटती है धूप को
अपनी रेतीली बरछी से
एक झंझावत सा उठता है चारों ओर
बन जाती है एक घूमती सुरंग सी स्वर्ग तक
भूताले में सब कुछ
आसमान में छा जाता है
उबलने लगती हैं धरती,रेत ,हवा
ज्यों तन - मन
कहीं ठंडक नहीं
कहीं हरापन नहीं
कहीं ठहराव नहीं।

देखता  हूं मैं
महसूसता हूं मैं
मेरे चारों ओर है थार
या मेरे भीतर दहकता है थार
मन के झंझावत
अंतस का सूखता पानी
कठिनाइयों के रेतीले धोरे
अंतर में भूताले की सुरंग
एक युद्ध सा लड़ता अपने आप से
मुझ में विस्तारित होता थार
कहीं हरापन नहीं
कहीं ठहराव नहीं
कहीं राहत नहीं
यह थार है कि मैं हूं।




कविता
बड़ा ही जिद्दी है रोहिड़ा
सदियों से प्यासे धोरों में
अपनी अक्षुण भुजाओं पर
रंग बिरंगे फूल खिला
हंसता रहता है
बलती लाय में भी
इस उम्मीद में
कभी तो महकेगी खुशबू
इन फूलों में।








 कुलधरा

यह कैसा गांव
ढूहों का ढेर , निर्जन, भुतहा ,शापधरा
रहता है केवल सन्नाटा
कहते हैं इसको कुलधरा।

कहां से आया सन्नाटा
बासों ऊंचा उछलता-कूदता
करता है तांडव
करता है अट्टहास
आसमान तक गूंजते हैं उसके ठहाके
हाहाकार मचाता है सन्नाटा।

डर कर दौड़ती है रेत
भागती है हवा
खंडहरों के कोनों में
दांत दिखाता है अंधकार
कूच कर गये देवता मंदिर के
फटी ध्वजा कांपती है बारम्बार
भांंय - भांंय करती है सुनसान धरती
रोज तपता है सूरज
रोती है रात चांदनी के आंसू
आंसुओं को रेत में छिपाए पड़ी है नदी
तालाब भरते हैं, इंतजारते हैं
और सूख जाते हैं।

पड़ी है पीली रेत
पीले प्रस्तर
पीली पगडंडी
पीली तपन
ढूहों पर उगी जालों के
पते ही पड़ गये पीले
लगते हैं जिनमें पीले पीलू
कोई नहीं तोड़ता है पीलू
कोई नहीं भरता है पानी
कोई नहीं करता है आरती
गर है तो अकेला केवल सन्नाटा
करता है तांडव
ठहाके लगाता
मचाता है हाहाकार।

किन्तु उड़ती है एक चील
एक खंडहर से दूसरे खंडहर
एक जाल से दूसरी जाल
जीवन है तो केवल इस चील में
देखे होंगे इस चील ने
यहाँ बजते ढोल- ढमाके, गीत- राग
किलकारी भरते आंगन
घर में प्रवेशती मूंछों की मुस्कान
खम्भों के पीछे छिपती लजाती नवोढ़ा
खाट पर गुड़गुड़ाता हुक्का
घर भर उठता होगा
उफान पर आये दूध की गमक से
खनखनाता होगा दही बिलौता चूड़ा
बच्चे खेलते होंगे टीले वाली जाल पर।

रंग - बिरंगी पनघट
हंसती, गुदगुदाती,उतावली ,चंचल
सदियों भर लायी होगी
इस तालाब का पानी
भरे होंगे पश्चिमी घाट पर
सावन के मेले
उफनता होगा सम्पूर्ण गांव
गूंजती होगी विदा होती, विलापती
बेटी की करुण कुरलाहट
गाया होगा 'मोरिया'
बजे होंगे विदा होते उठते ऊंट के पावों के घुंघरू।

फिर क्या आ पड़ा संकटकाल
किसने  दिया अभिशाप
सुनते हैं एक रात में
खाली कर गये गांव
लेकर गये केवल अपना आपा
छोड़ गये पूजा - पितर और सन्नाटा।

किसी ने नहीं लुभाया उन्हें
धन - माया, जर - जमीन
पुरखों, परंपराओं किसी ने नहीं।
किन्तु घर छोड़ने से पहले
जरूर लिपटकर रोये होंगे भीतों स
लिटे होंगे थोड़ी देर घर के आंगन में
देखी होंगी  वे जगहें
जहां संजोये थे सपने
भरे थे मांग में मोती
घर की गोदी से निकलते
फूट बहा होगा अंतस
विलापा होगा हिवड़ा
टूक -  टूक हो फट गया होगा कलेजा।

अछोर आसमान के तले जाते समय
मुड़ मुड़ कर देखे होंगे वे ठांव
जहां किया था इंतजार
उड़ाये थे काग प्रिय जनों से मिलन हित
रखी होगी जहां श्राध्द पक्ष में कागोल
आज वहां उड़ी रही है धूलि
धुंधलास में अलोप हो रहा है अतीत।

पीछे छोड़ गये वे उफनता दूध
चेतन चूल्हा, पानी का पलिन्डा
घड़े- पाटिये- लोटे
ताक पर रखे बिलखते
रमतिये,दड़ी- दोटे।
रोती, बिलखती, रंभाती दौड़ी होगी
गायें गलियों में
चक्कर काटे होंगे बछड़ों ने
घर आंगन चौबारों पठियालों कोठों में
चढ़ी होगी खंख ठेठ आसमान तक
छिपाया होगा अपना मुंह
सूरज चांद तारों ने।

इसी खंख के साथ
उतरा होगा सन्नाटा
धीरे-धीरे,कण-कण उतरता
जम गया गांव के चारों ओर
प्रेत की तरह पसरा
बासों ऊंचा उछलता कूदता
करता है तांडव
करता है अट्टहास
आसमान तक गूंजते हैं उसके ठहाके
हाहाकार मचाता है सन्नाटा।

ये कैसा गांव
ढूहों का ढेर , निर्जन, भुतहा ,शापधरा
रहता है केवल सन्नाटा
कहते हैं इसको कुलधरा।



ओम प्रकाश भाटिया 


ओम प्रकाश भाटिया
मातृछाया, भाटिया पाड़ा
जैसलमेर (राज.)
मो. 9414391020



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