23 अगस्त, 2018

उपन्यास अंश

युवा कथाकार पल्लवी प्रसाद इन दिनों उपन्यास लेखन में व्यस्त हैं। हाल ही में उन्होंने अपना दूसरा उपन्यास ' लाल' पूरा किया है। यहां उनके उपन्यास लाल का एक अंश प्रस्तुत है। 

 

लाल

पल्लवी प्रसाद

घर के ठीक बाहर पुलिस वाले बैठे हैं, लकड़ी के फ्रेम में प्लास्टिक की सफेद पट्टियों से बुनी हुयी कुर्सियों पर। घर के लड़कों ने आनन-फानन अंदर से एक चौकी ला कर बिछा दी है ताकि कोई वर्दीधारी खड़ा न रह जाये। पुलिस ने भीतर के बैठक में बैठने से मना कर दिया है। जब वर्दीधारी बाहर ही खड़े रहे तो लोगों ने उनके बाहर बैठने का इंतजाम ताबड़तोड़ कर दिया । उस घर के अंदर प्रवेश करने से पहले फौलादी से फौलादी सीना भी काँप उठेगा! घर के औरत-बच्चे-मर्द कलप-कलप कर विलाप कर रहे हैं। लाश पोस्टमार्टम के लिये गई है। फाटक से बाहर, सड़क तक भीड़ है। कोई कहता है, " धीरेन्दर बाबू को पीछे से एकदम पास से पीठ पर मारा है - तीन गोली पॉईन्ट ब्लैंक, हत्यारे फरार!" इसी तरह की और बातें भी हो रही हैं। वारदात पिछली शाम की है जब बाबू अपने पुराने लैम्ब्रेटा दुपहिये पर घर लौट रहे थे। अंदाज है पीछे से आ रहे मोटरसायकल सवारों नें सड़क पर उनका काम तमाम कर दिया। घर पर उनके बड़े भाई का पूरा परिवार एवं अन्य रिश्तेदार आये हुये थे। स्कूटर के पायदान पर दो बड़े झोले भर कर फल और सब्जियाँ रखे बाबू बाजार से अपने घर लौट रहे थे कि कलेक्टरेट ऑफिस को पार करते ही...वहाँ सिर्फ स्कूटर ही नहीं गिरा, सिर्फ खून ही नहीं छलका बल्कि सड़क पर हर दिशा में आलू-प्याज़ के साथ दर्जनों गुलाब-खास आम लुढ़क गये थे, एकदम लाल। - वे एक गृहस्थ के जीवन तथा उसके नृशंस अंत का मार्मिक वर्णन करते थे।

पल्लवी प्रसाद


"हा...य...हमरे ला...ल..." रह-रह कर इस प्रकार की चीखें 'लीड' लेती हैं। साथ ही सामुहिक रूदन की अमूर्त वेला तरंगें उठती हैं। पुरुष-कंठों का भोकाल और भी हृदय व कर्ण विदारक है।

इस माहौल से बेअसर कोई कैसे रह पाये? दारोगा कोशिश करता है। वह मृतक के बड़े भाई से धीमी आवाज में सवाल कर रहा है। बड़े भाई - वही जो तीन गाड़ियों में मय बीवी, बेटा-बहु, बेटी, बेटी-दामाद, बहन-बहनोई तथा आदमीजन के साथ अपने पुश्तैनी घर-जमीन, अपने छोटे भाई के घर दो दिन पहले पधारे हैं - क्या वे यहाँ यह देखने आये थे? अपने लक्ष्मण जैसे भाई के मुँह में अग्नि देने...? सोच कर वे फफक उठते हैं! उन्हें देख, दारोगा फाटक की ओर अपनी आँखें फेर लेता है। वह कॉंस्टेबल को अर्थहीन सा कोई निर्देश देता है जैसे वहाँ कुछ हुआ न हो - इस तरह वह मृतक के शोकाकुल बड़े भाई को प्रायवेसी की आड़ देता है।

अधेड़ वीरेन्द्र सिंह खुद को संयत करते हैं - "...हमारे जानते कोई दुश्मनी न थी। वह कॉलेज में पढ़ाता था। इतना सीधा था, जैसे गाय! किसी छात्र के नम्बर-वम्बर देने वाली कोई बात रही हो तो हम नहीं जानते...लेकिन उसके लिये कोई हत्या थोड़े ही करता है?" वे बोलते-बोलते दुबारा आपे से बाहर होने को हुये।

"आप कहाँ रहते हैं?" दारोगा ने पूछा।

"मूल रिहाईश यही है। मैं अपने परिवार के साथ धनबाद में रहता हुँ, को-ओपरेटिव बैंक में कार्यरत हुँ।"

"यहाँ कैसे आना हुआ आप सब का?"

"एक महीने पहले मेरे बेटे की शादी हुयी है। तब यही छोटा भाई अपने परिवार के साथ विवाह में सम्मिलित हुआ था। राँची-धनबाद से रिश्तेदारों को बुला कर नव-दम्पत्ति को पुश्तैनी घर-जमीन के दर्शन कराने और गाँव के चौरा पर माथा टेकने हम सब यहाँ अाये थे लेकिन..." बोलते-बोलते नि:सहाय भाव से विरेन्द्र सिंह ने अपनी मोटी हथेलियाँ फैला दीं, उनका कंठ अवरुद्ध हो गया।

"आपका कौन सा गाँव है?"

"हरिरामपुर - यहाँ से २५ कि.मी. दूर पड़ता है।" दारोगा के आगे पूछने से पहले वीरेन्द्र बाबू ने दूरी की अनावश्यक जानकारी दे डाली। यह कहने की बात नहीं कि दारोगा को तमाम थानों की जानकारी है।

"गाँव में किसी से किसी तरह का  झगड़ा हुआ था?"

"नहीं जी।"

कॉंस्टेबल ने आ कर दारोगा को वायरलेस पकड़ाया - एस.पी. ऑफिस से कॉल है। दारोगा ने मुस्तैदी से निर्देश लिये। अपनी गहरी सोच से उबरते हुये वीरेन्द्र बाबू बोले, "...वह दो साल पहले, बटाईदार को हमने हटाया था।"

"कितने साल से बटाईदारी करता था?"

"ठीक याद नहीं। हो गये थे कुछ साल।" वीरेन्द्र बाबू सतर्क हो गये। उन्होंने गोल-मोल जवाब दिया।

"अच्छा। तब यह बटाईदारी जमाबंदी रिकॉर्ड में दर्ज रही होगी?" दारोगा ने उन्हें घेरा।

"न सर, इतने बरस थोड़े ही हुये थे, कच्ची बटाईदारी थी और बेईमानी करने लगा था तो हटाना पड़ा..."

"नाम क्या था?"

"सोखा पासी।...सुना था बाद में वह पंजाब या ऐसी ही किसी जगह चला गया।"

"आपको किसी पर शक है?"

"नहीं।"

"ठीक है वीरेन्द्र बाबू, आपके भाई के कातिल मिल न जायें तब तक हम तफ़्तीश जारी रखेंगे। आप परिवार और अपना ख्याल रखें। आगे आदेश होने तक पुलिस का यहाँ पहरा रहेगा। आपसे सहयोग की आशा है।" दारोगा ने उठते हुये कहा।

"बिल्कुल, सर।" वीरेन्द्र बाबू दारोगा को फाटक तक छोड़ने गये। वे जैसे ही लौटने के लिये मुड़े उनके कलेजे में एक बार फिर शोक ठाँठे मारने लगा...

उन्होंने कह तो दिया कि उन्हें किसी पर शक नहीं लेकिन विरेन्द्र बाबू भलीभाँति जानते हैं कि रंजिश जमीन से उपजी है। वे दो भाई हैं...नहीं - थे! 'हे भगवान, यह तूने क्या अनर्थ कर डाला?' यह सोचते हुये उनका शरीर बार-बार ठंडा पड़ जाता है।...वे दो भाई थे और दोनों अच्छी नौकरियों में थे। वे बैंक में हैं तो छोटा सरकारी ग्राँट प्राप्त, स्थानीय कॉलेज में पढ़ाता था। दोनों के घरों में महीने की शुरुआत में तनख्वाह आ जाती। उनके पास इफरात न रहा हो लेकिन दोनों को कोई विशेष चिंता भी न थी। उनकी परिस्थति यहाँ के लोगों और जमाने से कई गुना अच्छी थी। यूँ भी उनकी ड्योढ़ी से पुराने जलने वाले बहुतेरे हैं। बहरहाल!

प्राध्यापक धीरेन्द्र सिंह की अंत्येष्टि हुई। उनकी अंतिम यात्रा में शहर-भर के लोग उमड़ पड़े। सबकी जुबान पर अफसोस और दिलों में रोष है। कयास लगाने को क्या बचा है? सब जानते हैं। यह कोई पहली वारदात नहीं। इस क्षेत्र में संभ्रांत किसानों की रोज हत्याएँ हो रही हैं। देश-भर के अखबारों में रोजाना सुर्खियाँ शाया होती हैं। प्रदेश में दहशत का राज है।

इन सबके दरम्यान बैंक-बाबू विरेन्द्र सिंह की मुश्किलों के अनेक आयाम हैं। वे न जाने किस बुरी घड़ी में कुनबे को यहाँ साथ ले आये! उन्हें अब अपने पूरे कुनबे पर खतरा मंडराता हुआ मालूम पड़ रहा है। वह पल भर के लिये भी अपने जवान बेटे को बाहर पैर नहीं धरने देते हैं। वह नया-नया सरकारी नौकरी में आया है और उसकी नई शादी हुई है सो अलग! तिस पर धर्मसंकट यह है कि वे बच्चों को भाई की तेरहवीं से पहले घर भेज भी नहीं सकते न खुद वहाँ से तिल भर हिल सकते हैं। क्रिया कर्म उन्हें ही पूरा करना है। दिवंगत भाई का ससुराल पक्ष भी पहुँचा हुआ है सो लोकलाज की बात और है। और जो हो सो, इन हालात में वे छोटे भाई के पत्नी-बच्चों को अपने साथ धनबाद लिवा ले जाना चाहते हैं। वे उनकी जिम्मेदारी हैं।

विरेन्द्र बाबू की पत्नी सुमित्रा ने उन्हें अकेले में बताया है कि समाज के लोगों में कानाफूसी हो रही है कि उनकी बहु कुलक्षणी है, ड्योढ़ी पर पैर रखते ही चचा-ससुर को खा गई। बहु रुआँसी सी, सबसे अलग-थलग एक कोने में पड़ी रहती है। हद है जाहिलता की! इस युग में भी लोगों की ऐसी सोच है? इन्हें किसी से सहानुभूति है ही नहीं चाहे किसी पर लाख विपदा आ जाये! बहु का मुँह देख कर उन्हें दया आती है। परन्तु वे मियाँ-बीवी क्या करें? वे लोगों का मुँह बंद नहीं कर सकते। सहने के सिवा उपाय क्या है? कुछ दिनों की ही तो बात है - सास, बहु को ढ़ाँढ़स बँधाती है।

आठवीं व नवमी कक्षाओं में पढ़ने वाले, दिवंगत के दो सुकुमार पुत्रों को देख कर लोगों का कलेजा मुँह में अटक जाता है। लड़के हैरतजदा हैं - उन्हें यकीन नहीं आता, उनके पापा अब घर नहीं लौटेंगे? उनकी माँ विक्षिप्त है। उसके भाईयों का बहुत जोर है कि तबियत सँभलने और सामान्य होने तक उनकी बहन और उसके दोनों बच्चे उनके पास रहें। उन लोगों को अपने इस प्रस्ताव पर कर्ता होने के नाते विरेन्द्र बाबू की स्वीकृति चाहिये। बहुत पारिवारिक सलाह मशविरा होने के बाद विरेन्द्र बाबू उनकी बात पर आखिर राजी हो गये। सुमित्रा देवी ने चुपके से राहत की साँस ली। वे देवरानी और उसके बच्चों को बहुत प्यार करती हैं। लेकिन सदमे के पहले दौर से गुजरने के बाद किसको गृहस्थी की पेचीदगियों का एहसास नहीं होता? कौन नहीं जानता कि परिवार साथ रखने की भावुकता में काँटे बिछे हैं? नाम पा कर क्या करना है लेकिन बदनामी का ज्यादा खतरा है।

                                                          :

जब शहर की सड़कें व मुख्य मार्ग टूटे-फूटे हों तब गाँव-देहात को जाती सड़क से क्या उम्मीद लगाई जा सकती है? फिर गाड़ी भी...माशाल्लाह, अपनी एम्बैसडर! ड्राईवर के पास की सीट पर अपनी रिटायरमेंट का मुँह जोहता हुआ कॉंस्टेबल बैठा है - उनका पुलिस प्रोटेक्शन! पीछे की सीट पर घुटे सिर, अकेले वीरेन्द्र बाबू बैठे हैं। उनके मन में दहशत समायी हुई है। यहाँ राह चलता कोई भी आदमी गोली खा कर ठंडा हो जा सकता है। यही कारण है कि उन्होंने परिवार के किसी सदस्य को अपने साथ लाना मुनासिब नहीं समझा। कहाँ तो वे अपने बेटे के विवाह संस्कार के निर्विघ्न संपन्न होने की खुशी में समस्त परिवार को ले कर पुश्तैनी गाँव के चौरे पर सिर नवाने आये थे और कहाँ उसी परिवार को सूतक के बहाने, वे घर पर छोड़ आये हैं। घरवाले उन्हें इस तरह अकेले गाँव नहीं जाने देना चाहता थे। 

बहनोई ने आपत्ति की थी - "अंतिम क्रिया आपने की है। बाहर आपको जाना निषिद्ध है महाराज, हमें नहीं। हम तो बाहर वाले ही हुये।"

वीरेन्द्र बाबू ने स्वर्गवासी भाई का वास्ता दे कर बहनोई को रोक लिया था - "...जमीन पर जा कर आप क्या कीजियेगा? आप तो बाहर वाले हैं। मुझे स्वयं ही पांडे जी से मिलना होगा। तेरहवीं के बाद मैं आप सबको यहाँ से लौटा लिये जाऊँगा। ज्यादा दिन नहीं हैं। इस आपातकाल में जमीन देखने की व्यवस्था पांडे जी की मदद से हो जायेगी। वे गाँव के सबसे बड़े जमींदार हैं, उनके एक इशारे पर दस आदमी खड़े हो जायेंगे। फिल्हाल वे थोड़े दिन देख दें। यहाँ माहौल ठंडा पड़ने पर आगे की देखी जायेगी। फिर मेरे पीछे यहाँ घर पर कोई बड़ा आदमी रहना चाहिये, आपका ही तो सहारा है।"

चलती हुई गाड़ी से बाहर देखते हुये वीरेन्द्र बाबू ने सोचा - ...माहौल ठंडा ही तो नहीं पड़ता! कौन ठंडक पड़ावेगा? भ्रष्ट और निकम्मी सरकारें? उन्होंने यहाँ जँगल राज छोड़ रखा है। कानून व्यवस्था कुत्तों का निवाला बन गई है। हर जाति, वर्ग, या कह लें हर आदमी अपनी हिम्मत व बल के हिसाब से 'सलटने-फरियाने' को आजाद है। लोग कानून अपने हाथों में लिये जरा-जरा सी बात पर खून की होली खेल लेते हैं। फिर जमीन कोई जरा सी बात नहीं होती है! उससे इंसान का वजूद जुड़ा होता है। पढ़े-लिखे, नौकरी पेशा लोग भी अपनी जमीन नहीं छोड़ते...चाहे उनकी औलादें अनाथ ही क्यों न हो जायें! तब क्या आश्चर्य है कि जमीन के लिये वे लोग लाशें बिछा रहे हैं जिनके पास उसके सिवा और कुछ भी नहीं?

जमीन गाँव से दूर है। अपने खेत देख कर वीरेन्द्र बाबू दंग रह गये। छोटी-छोटी उगी हुयी फसल के बीच मेड़ के किनारे-किनारे यह लाल झंडे कैसे उग आये? झंडे टटके लाल हैं मानो कुछ रोज पहले ही वहाँ गाड़े गये हों, धूप में उनका रंग अभी उड़ा नहीं। यह झंडे किनकी मालिकी के हैं जो बाबू की मालिकी को ललकार रहे हैं? नहीं, वे चेतावनी देते हैं - लाल! दूर रहो!

तभी पुलिस कॉंस्टेबल ने उन्हें सावधान किया - "यहाँ उतरना नहीं है। खुले खेत में जाना खतरे से खाली नहीं। आसपास कोई भी हमसे अनदेखा छिपा हो सकता है। देखते नहीं...यह झंडे! आप लोग दहशतगर्दों के निशाने पर हैं। ऐसे ही थोड़े आपका भाई मारा गया है? चलिये फौरन यहाँ से।"

वीरेन्द्र बाबू की रीढ़ की हड्डी पर मानो ठंडा केंचुआ रेंग गया। गाड़ी गाँव के रास्ते पर दौड़ने लगी। सबसे पहले गाड़ी गाँव के थाने पर रुकी, वीरेन्द्र बाबू ने अपनी जमीन पर गड़े लाल झंडों की रपट वहाँ दर्ज करवाई। हालांकि कॉंस्टेबल न जवान था न बलवान ही, लेकिन उन्हें 'पुलिस प्रोटेक्शन' का  सहारा उसी से था। वहाँ से गाड़ी गाँव के भीतर बढ़ी और दबंग भूमिहार जमींदार राजा राम पांडे के दरवाजे पर जा कर रुकी। सबने कुछ राहत महसूस की।

वहाँ जो देखा, वह रस्मी मातमपुर्सी न थी। न था वहाँ किसी पुराने सज्जन पड़ोसी को खो देने का महज मलाल या दु:ख। वहाँ जो था वह लावा की तरह खौलता हुआ गुस्सा था, प्रतिशोध का दलदल अौर उत्तरजीविता की पुकार! ...बहुत देर बाद बाबू वीरेन्द्र का ध्यान इस बात पर गया कि काँस्टेबल बैठक के बाहर ही रुक गया है? राजा जी के दरबार में बिना अनुमति के पुलिस भी नहीं घुस सकती। कॉंस्टेबल का राजा जी से इस तरह दबना और उन्हें अदब दिखाना वीरेन्द्र बाबू को अखर गया। उन्हें प्रतीत हुआ कॉंस्टेबल ने स्वयं उन्हें कभी इस किस्म की इज्जत नहीं दी। एक पढ़ा-लिखा आदमी जिसकी आजीविका कलम चलाने पर निर्भर है, वह इन हालात में किस सम्मान के योग्य हो सकता है? उन्होंने राजा जी के सेवक द्वारा बढ़ाए गये पानी के ट्रे से एक गिलास उठा कर ठंडा पानी पिया - प्यास बुझी तो उन्होंने महसूस किया कि वे जिंदा हैं यही गनीमत है। उनके जैसे लोगों के लिये जिंदा रहना और सम्मानित रहना, दोनों साथ संभव नहीं है।

"प्रॉफेसर साहब आते रहते थे...आपसे बहुत साल बाद मुलाकात हो रही है?" मसनद की टेक ले कर बैठे राजा जी ने अपनी बूढ़ी याददाश्त को तकलीफ दी थी। न जाने क्यों वीरेन्द्र बाबू को शर्मिन्दगी का एहसास हुआ था कि स्वयं बड़े होते हुए उन्होंने घर-जमीन की देख-रेख छोटे भाई पर क्यों छोड़ी?

"जी। नौकरी शय ही ऐसी है..." यह कहते हुये उन्होंने अपनी गर्दन झुका ली।

"वह तो देखता ही हुँ। गाँव एक बार छूटा कि आदमी दोबारा लौटता नहीं? वह क्या कहते हैं, 'मॉडर्न' जमाना है। लेकिन हमारे प्रॉफेसर साहब ऐसे न थे...वे निहायत सज्जन और कर्मठ आदमी थे। इंसानियत की मिसाल!..." राजा जी बोलते हुये कहीं खो गये।

जब चुप्पी लंबी होती गयी तो वीरेन्द्र बाबू ने अपनी झुकी नजरें उठायीं और राजा जी को ताकने लगे। यूँ कुछ पल और बीत गये। राजाजी उँगली से अपने कुर्ते की बाँह की चुन्नटें महसूसते रहे। चुन्नटों को गिनना संभव नहीं चुँकि नौकर ने बड़े जतन से, 'गेल्हा' से उन बाँहों पर चुन्नटें डाली हैं जो असंख्य हैं। चुन्नटों का खुरदुरापन परखते हुये वे सोचते रहे और अंतत: बोल पड़े - "...बदला लिया जायेगा!"

"...समझ रहे हैं बाबू? आप नहीं समझ रहे हैं, पानी सर से ऊपर बह रहा है! यह सब रोज सवर्णों को गाजर-मूली की तरह काट रहा है। जिनकी जमीन यहाँ है और वे खुद बाहर, उन्हें रोज गोली से उड़ा रहा है जैसे आपके भाई को भून दिया गया - या तो आप मारे जाईयेगा या अपनी जमीन छोड़ कर भागियेगा! आखिरकार हम जैसे गँवई किसानों को अकेला कर के घेरेगा सब! अँग्रेज के राज में मजाल थी किसी हिन्दुस्तानी की, कि चूँ भी कर लेता? आजादी के नाम पर अब चोट्टों का राज आ गया है।वोट ले-ले कर नान्ह जात मंत्री बन बैठे हैं। कौवा चले हँस की चाल?...कल जो हमारा मैला ढोता था आज हमारी पीठ पर बँदूक तानता है? वे दिन हुआ करते कि घुड़क भर देते थे तो सालों की धोती में पेशाब निकल जाता था - पेशाब! आज यह दिन देखना पड़ रहा है कि यह नीच सब हमारे बच्चों को यतीम कर रहा है?"

"मेरे रहते हुये मेरे भाई के बच्चे यतीम नहीं, चचा।" वीरेन्द्र बाबू हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। उन्हें अपनी जुड़ी हुयी हथेलियों  में कँपन तथा आँखों में पानी की जलन महसूस हुयी।

जैसे अचानक बात याद आयी हो, इस तरह चौंकते हुये राजा जी ने पूछा, "आप क्या ऐसे ही यहाँ तक चले आये?"

उनका आशय समझते हुये वीरेन्द्र बाबू ने उत्तर दिया, "नहीं। एक पुलिस कॉंस्टेबल है साथ में।"

"अरे! भड़ुवा पुलिस क्या करेगी? वह खुद इन लोगों से बिलाय के माफिक अपनी जान लुकाये-लुकाये फिरती है। ठहरिये! आपको मेरा आदमी शहर तक छोड़ने जायेगा।" राजा राम पाँडे चौकी से उठे तो वीरेन्द्र बाबू उन्हें अपलक देखते रह गये। धूप में पके गेंहु सा रंग, खूब ऊँचा कद, रॉड सी सीधी पीठ, छरहरा बदन, सन् से सफेद बाल-मूँछ, रुपहले फ्रेम के चश्मे के पीछे गर्म लोहे सी दहकती आँखें - मानो बिल्कुल जवान!

"चचा, देख लिजियेगा..." चलते वक्त वीरेन्द्र बाबू ने याद दिलाने के लिये मुड़ कर विनय किया।

"आप बेफिक्र रहें। कल सुबह ही मेरे आदमी आपके खेत पर जायेंगे...यह एकजुट होने का समय है!"

वीरेन्द्र बाबू न जाने क्यों, आश्वस्त नहीं महसूस करते हैं। किसी दिन राजा राम पाँडे से उन्हें एकजुट होना पड़ेगा यह आज से पहले उन्होंने कभी सपने में भी न सोचा था। आज वे मजबूर हैं।

यह बात नहीं है कि बाबू राजा जी के कायल नहीं। वे क़ायल कैसे न हों? वे स्वयं कुछ भी न कह पाते यदि चचा ने सामने से ख्याल रखते हुये अपने खास लठैत ललन को उनके साथ न कर दिया होता। गाड़ी में ललन की देह में मला सरसों तेल तथा पसीने की मिली-जुली गँध आ रही है। वीरेन्द्र बाबू को पुलिस की बँदूक से ज्यादा भरोसा ललन की लाठी पर है, वह वार करने से पहले तनिक झिझकेगी नहीं। और कैसी लाठी, कैसा लठैत? यह तो महज पुराने बुलाने के नाम हुये, अब सारा काम तमंचा से होता है। कमर में बिना तमंचा बाँधे यह लोग दिशामैदान को भी न जाते होंगे। यहाँ निहत्थे का पखाना भी न उतरे! - वीरेन्द्र बाबू अपनी वक्र सोच पर जरा सा मुस्काये।

सफर की खामोशी नीरस बन गयी तो ललन ने अपनी उपस्थिती दर्ज करायी। वह आगे बैठे कॉंस्टेबल से मुखातिब हुआ - "देखिये जनाब, इ जो बायीं तरफ कच्चा रस्ता जा रहा है, यही जाता है बेड़ा गाँव - भारी नक्सल 'इनफेस्टेड' गाँव है! अभी गये हफ्ते ही पुलिस पैट्रोल पार्टी पर बम चलाया है उ लोग। एक आप जैसा कॉंस्टेबल मर गया - एकदम ऑन द स्पॉट! सब-इंस्पेक्टर अब तक अस्पताल में..."

"जानते हैं।" कॉंस्टेबल ने गंभीरता से टोका।

ललन झक् से हँसा - "हाँ जी, आप जानते काहे न होंगे? आपके सतर्क रहने का काम है।...अरे यह लोग अपने को माओवादी, मार्क्सवादी - ऐसे बुलाता है! अंकलजी...ऊंहा चीन देस में इनको राजपूत-बाभन सब से भेंट नहीं न हुआ, वरना बुझाता!  ये दुनिया भर में गँध नहीं मचा पाते।..."

"मार्क्स चीन का नहीं था।" न चाहते हुये भी वीरेन्द्र बाबू के मुँह से निकल गया।

"ओऽह...एके बात है! चाहे जहाँ के रहे हों ससुरे माओ-मार्क्स!" - ललन ने खिड़की से बाहर देखते हुये कहा। उसके आत्मविश्वास में कोई फेर नहीं आया।

वीरेन्द्र बाबू चुप लगा गये।

"हम शहर से ग्रैजुएट कर रहे हैं, अंकल।" ललन ने फिर बताया।

"अच्छा? यह बढ़िया बात है।" 

"क्या बतावें! पढ़ाई-लिखाई छौंड़ा सब पर सूट करता है, हमारी तो उमर निकल गई पढ़ने की। लेकिन जमाना देखिये उलट गया है। लड़की वाला  डिग्री माँगता है नहीं तो लड़की नहीं देगा! खाली जमीन दिखाने से काम नहीं चलता है अब। बाउजी के कहने पर हम भी कागज के जुगाड़ में लग गये हैं। समय के साथ चलना पड़ता है। है न, अंकल?" वह हँसा।

"बिल्कुल।"

इसी प्रकार छोटी-मोटी बातें करते हुये, सफर और दिल के भय को काटते हुये वे लोग शहर पहुँच गये। अँधेरा पूरी तरह घिर गया था। ललन शहर के मुख्य चौराहे पर उतर गया। उसे पास ही किसी रिश्तेदार के घर जाना है, ऐसा उसने कहा। उसे वहाँ उतार कर, गाड़ी घर की ओर बढ़ गयी।

                                                          :

तेरहवीं पूरी होने के दो दिन बाद जब वीरेन्द्र बाबू साथ लाये कुनबे को समेट कर वापस धनबाद चलने को हुये तो उनके जीवन का पिछला मंजर सदा के लिये खो गया था। इस दौरान उन्होंने भाई का मृत्यु प्रमाण पत्र उसके कॉलेज, बैंक, इंश्योरेंस...हर जगह दाखिल कर, जरूरी कार्यवाही जारी करवा दी। विशेष, उन्होंने कॉलेज में अनुकम्पा के आधार पर भाई की पत्नी के लिये नौकरी की अरजी दिलवाई - मीना ग्रैजुएट होने के नाते क्लर्क के पद के लिये योग्य है। इतना सब कुछ कर के उन्होंने आगे की बागडोर भाई के साले के हाथ में दे दी और उन सब से जल्दी ही लौटने का वादा किया।

सुमित्रा देवी ने चलते वक्त देवरानी से कहा - "तुमको हमने परिच्छा (स्वागत की रस्म) है। माँ तो थीं नहीं! तुमसे एक चीज़ माँगते हैं...हमारे जीते जी तुम सादे कपड़े नहीं पहनोगी न सूने ललाट रहोगी..." कहते-कहते वह सस्वर फूट-फूट कर रो पड़ीं। मीना पर उनके रोने का कोई असर न हुअा। वह पूर्ववत् जड़ बैठी रही। दोनों लड़के अपने मामुओं के साथ घबराये और उदास खड़े उन्हें जाते देखते रहे।...जाने वाले चले गये।
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मंटो से आसिकी : एक प्रेमपत्र
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पल्लवी प्रसाद
ऊना, हिमाचल प्रदेश

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