27 सितंबर, 2018

  मैं क्यों लिखता हूँ

 बद्री सिंह भाटिया


बद्री सिंह भाटिया


मैं क्यों लिखता हूँ, यह सवाल मेरे सामने कई बार आया। पहली बार वर्ष 1983 में शिमला में अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन आयोजित हुआ था। उसमें एक सत्र इसी सवाल पर था। तब मैं साहित्य की दुनिया में एक खेल दर्शक मात्र था। आयोजकों का आदेश मानने वाला। बडे-बड़े लेखकों, विचारकों ने गोल मेज के गिर्द इक्ट्ठा हो अपने-अपने विचार प्रकट किए थे। मैं पिछली कुर्सियों पर बैठा था। उन्होंने जो विचार प्रकट किए उनमें से कुछ पल्ले पड़े कुछ नहीं। उसके बाद यह सवाल मुझसे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में एक रिफ्रेशर कोर्स में कहानी पाठ के समय भी पूछा गया था। मुझे यह सवाल आज भी उतना ही कठिन लगता है, जितना पहली बार सुनने में और दूसरी बार सीधे पूछने पर। संभवतया एक दो बार कालांतर में भी पूछा गया हो ठीक से स्मरण नहीं। पहली बार जब सुना तो मन ने कहा-सही बात है। क्यों लिखते हैं हम? ऐसी क्या आफत आ गई कि लिखे बिना रहा ही नहीं जा सकता? मैंने स्वयं से पूछा। काफी मनन करने के बाद कोई खास विचार नहीं बना। बस इतना कि इसलिए लिखता हूँ कि लिखता हूँ। एक खयाल आया- ये लोग जो बड़े-बड़े हैं, ये क्यों लिखते होंगे?क्यों लिखा होगा वातमीकि ने, तुलसीदास ने और भी जाने कितने पौराणिक औ आधुनिक युग के रचनाकारों में मुख्यताः प्रेम चंद। तब मन में यह भी विचार आया कि कुछ तो होगा इनमें ंजो इतना सशक्त रहा कि आज ये हर चूल्हे, स्कूल आदि में चर्चित हैं। इनके जो सरोकार अथवा  मनोइच्छा रही कुछ तो था उनमें। पर क्या मुझसे भिन होंगे? हटफिर वही प्रश्न, क्यों लिखा होगा प्रेमचंद जी ने और अन्य लोगों ने इतना विपुल साहित्य? कोई तो कारण रहा होगा ,अकारण कुछ नहीं होता।


आज जब मैं यह सोचने लगता हूँ तो पहले सवाल उठता है लेखक बनने का। लेखक कैसे बना? क्यों का सवाल बाद में आता है? मैं गाँव का रहने वाला हूँ। छात्र जीवन में एक गाँव के चचेरे भाई (तब हमारा गाँव एक ही बिरादरी का था। कहीं भीतर परिवार जुड़े भी थे) लुधियाना में कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ने गए। वे वहाँ से कुछ पुस्तकें एक और भाई/मित्र को भेजते थे। पतली-पतली किताबें। पेपर बैक में। बहुत समय बाद पता लगा ये तो फुटपाथी सहित्य है। आज का लुगदी साहित्य। हम उन पुस्तकों में वर्णित विषयों/कथाओं पर कहीं आँगन में या घाट पर बात करते। इसमें यह खयाल रहता कि अपने पक्ष के वक्तव्य में कहीं कुछ छूट न जाए जो उसने पढ़ा हुआ हो। हम रचनाकारों के लेखन और लिखने की क्षमता की भी बात करते। कैसे लिखते होंगे वे? कहाँ से आता होगी इतनी सामग्री? क्या वे इन पात्रों के घर जाया करते होंगे? घर आकर बिस्तर पर वे कथानक कई-कई दिनों तक घूमते रहते। तभी एक दिन यह विचार मन में कौंधा। ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। यह शायद इससे भी हुआ कि उन पुस्तकों में वर्णित स्थितियों के समरूप कुछ घटनाएँ हमारे गाँव तथा आसपास के गाँव में भी घट चुकी थीं। इसलिए वर्णन ही तो करना था। किया जा सकता था। मित्र के साथ तब तक एक दो और साथी भी जुड़ गए थे। सबने मेरा पक्ष सुना तो हैरानी से बोले, ‘तू लिख सकता है!’

‘हाँ!’ और एक दिन मैंने अपनी लिखी एक कहानी सबको सुना दी। मित्र बोला-‘ये तो फलाँ की कहानी है। मुआ मारा जाणा जे पता चला।’
‘तुम ही तो कह रहे थे कि लिख। इसलिए। फाड़ दूँ।’
‘नहीं अभी रहने दे।’
यह शुरूआत थी। कालांतर में गाँव के स्कूल से हायर सैकेंडरी स्कूल में एक खुला वातावरण मिला। पाठ्य पुस्तकों में जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, टैगोर की कहानियाँ पढ़ने को मिली और उनसे एक रास्ता पुस्तकालय का भी मिला। कुछ अन्य साथी भी अपने मन के उद्गार लिखा करते थे। उनमें से एक ने बताया कि लिखना काग़ज़ के एक ओर चाहिए। हाशिया छोड़कर। अब रुझान लिखने की ओर हो गया था। लिखना है वैसा ही मगर अपना। कोई अनुकृति नहीं।
दायरा खुला तो अपना लिखा हिन्दी व अंग्रेजी के अध्यापक जी को दिखाया। उसने झिड़क दिया। तुम पढ़ाई में कमजोर हो, पहले पढ़ाई पर ध्यान दो।

हायर सैकेण्डरी के बाद नौकरी की तलाश और सांध्य महाविद्यालय में पढ़ाई। तब भाई के क्वाटर में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, एकता संदेश, जगत आदि पत्रिकाएं आती थीं। भाभी और वे अच्छे पाठक थे। उनके बीच मैं तथाकथित लेखक। कुछ न कुछ लिखता रहता। अपने लिए । कई बार बिस्तर पर ही रह गई कोई रचना दिन में भाभी पढ़ लेती। शाम को खाना खाने के बाद हल्की गोष्ठी जमती तो वह टोक देती। जो लिखा वैसा थोडे़ भी होता है। मैं चिढ़ जाता। कहता-‘ये कल्पना है। लेखक काल्पनिक लिखता है। खैर! सांध्य कालेज में एक मित्र मिले। उन्हें अपनी रचनाएँ दिखाने लगा। तब यह सवाल आया कि लिखने के पीछे राज क्या है?


एक वाक्य में कहें तो मन के भीतर समाज के कुछ पहलुओं को देख एक कचोट उठती है। एक लम्बे समय तक मैं उसके साथ चलने लगता हूँ। भीतर ही भीतर वह आग सुलगती रहती है। जब उसका एक खाका सा मन में बन जाता है तब प्रसव बेदना की तरह सृजन की पीड़ा उठती है। अभिव्यक्ति को छटपटाती है। उस मन में परिपक्व कचोट को मैं पहले अपने घर फिर किसी ऐसे मित्र के साथ काफी के प्याले के साथ वार्तालाप का विषय बनाता, जो मेरे रचनाकर्म से वाकिफ होता और उसी शिद्दत से उस कथानक को समझता। वह अपनी बेबाक राय देता। यदि कहीं सुधार की आवश्यक्ता होती तो जताता भी। फिर उसके अंतः और बाह्य संवेदनाओं को पचा कर एक दिन कागज के ऊपर कब उतार लेता, पता ही नहीं चलता।


यह क्यों बहुत कठिन है। मैं इस क्यों के पीछे के सरोकारों को तलाशता फिर किसी सामाजिक परिस्थिति जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में घटित हुई हो से टकराता हूँ। टकराता रहता हूँ। कोई घटना या सामाजिक अवस्थिति का होना या पाया जाना मेरे सरोकार बनते जाते हैं। कोई पुरानी सुनी हुई घटना या कार्य-व्यव्हार, मानवीय सोच और कृत्य मुझे उद्वेलित करते रहते हैं। मैं उनके कारणों और संवेदनाओं की खोज में विचरता रहता हूँ। तब कभी वह अपनी साँद्रता में एक दिन कागज के उपर आ जाती है। मेरी मंशा यह होती है कि मैं उस सबको उस समाज और व्यवस्था को अवगत करूँ जो मुझसे, आपसे और उनसे सीधे या परोक्ष रूप में जुड़े हैं। वे जाने और समझें। यह समाज है, यह व्यवस्था है जो कथानक बनाते हैं। सोच और विरोध को जन्म देते हैं। उनके प्रकटीकरण को यह भी एक तरीका है। यह आंदोलनों, जुलुसो, नारों से इतर एक आवाज़ है जिसे मैं उठाने की कोशिश में अकेला प्रयासरत हूँ।

 यह मनोंरंजन के साथ समाज को अवगत कराना भी है कि तुम यहाँ थे। तुम्हारे साथ ऐसा भी हुआ था। शायद यह मंशा भी कि इतिहास के बाहर एक नया इतिहास बताने का जरिया हो। पर है कुछ। यह अभी भी निश्चित नहीं कि क्या है? इसे ऐसे भी मान सकते हैं कि यह सर्दियों की रातों में जिस प्रकार दादी-नानी बच्चों को कहानी सुनाया करती थीं और वे उसे अपने में आत्मसात कर सो जाया करते थे उसी तरह मैं बड़े बच्चों को अपना अनुभव सुनाता रहता हूँ ताकि वे अपने बेचैन दिमाग को शांत कर सो जाएँ अथवा शांति महसूस करें। कहें कि यह तो मेरा सच है मेरा।

खैर! जब वह रचना तैयार हो जाती है तब उसे फिर देखता हूं। समझता हूँ कि यह अब समाज का सामना कर सकती है। तब यत्र-तत्र पत्रिकाओं को भेज देता हूँ। कोई छप जाती है तो कोई लौट आती है। जो लौटती है उसे फिर कहीं और प्रेषित करता हूँ और सिलसिला चलता रहता है। इससे मुझे संतोष मिलता है। मेरा संतोष तब और बढ़ता है जब पाठक अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवगत कराते हैं। यह दोहरी होती है। प्रशंसात्मक भी और आलोचनात्मक भी। प्रशंसा से अधिक पुलकित नहीं और आलोचना से विचलित नहीं।
अब एक सवाल और उठता है कि कहानी ही क्यों? हाँ! कहानी ही। मुझे आरम्भ में जो पाठ मिला वह अचानक मिला। कच्ची उम्र में मिला। कोई विरासत नहीं। कोई विचार नहीं, कोई भावना नहीं। बस मन का उद्वेग और प्रकटीकरण। उपन्यास थे वे। कथा विस्तार लिए। इसलिए कालांतर में और आज भी अधिकाँश कहानियाँ लम्बा कैनवास लिए होती है। प्रकटीकरण की पूरी प्रक्रिया। कहा जा सकता है कि पुस्तकें ही मेरी गुरु रहीं हैं।

कालांतर में एक दो दोस्त कवि मिले। उन्होंने कविता के बारे में बताया। तो कविता से भी गुजरा। कुछ कविताएँ जो पहले किसी समारोह के लिए लिखी जाती थीं। बाद में एक विन्यास के साथ लिखी। अधिकाँश छपी भी। मगर फिर सब छूट गया। लगा कविता आती नहीं। सोचनी पड़ती है। यह नहीं। कविता के शब्द पहले मन से टकराने चाहिए। पूरी तरह। इसलिए कविता फिर पीछे और कहानी ही। कुछ कथानक अपने ट्रीटमेंट में कुछ ज्यादा ही विस्तार माँगने लगे तो लिखा और इस प्रकार उपन्यास भी लिख डाले। मगर लगा उपन्यास लिखना बहुत बड़े धैर्य का काम है। इसलिए कहानी ही। अब कुछ प्लॉट कहानी के छोटे कैनवास के भी बनने लगे हैं। यह शायद उम्र बढ़ने के कारण भी है। बीच में लघुकथा के मित्रों की लघुकथाएँ भी पढ़ी। उनका शास्त्र भी पढ़ा और एक दो लिख भी दीं। कुछ लेख तो सरकारी नौकरी के कारण लिखे और कुछ पत्रिकाओं के कहने पर।
विगत समय से समीक्षा की ओर भी ध्यान गया है मगर यह पाठकीय टिप्पणी ज्यादा होती है।
कहा जा सकता है कि मैं पहले जो स्वांतः सुखय लिख रहा था अब मैं समाज के लिए लिखता हूँ। वही कुछ जो उससे लिया होता है। उसे उसकी समझ के शब्दों में लौटाना अच्छा लगता है।
००

बद्री सिंह भाटिया की कहानी नीचे लिंक पर पढ़िए


प्रेतात्मा की गवाही
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_55.html?m=1



बद्री सिंह भाटिया
गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू वाया दाड़लाघाट
तहसील अर्की, जिला सोलन, हि.प्र. पिन 171102

2 टिप्‍पणियां:

  1. पड़ते वक़्त ऐसा लगता है की लिखती बार आप किसी से संवाद कर रहे हो।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढिया तरीके से आपने अपनी बात कही है भाटिया सर। आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं। ़

    जवाब देंहटाएं