20 सितंबर, 2018


श्रीधर करूणानिधि की कविताएँ



श्रीधर करूणानिधि 




        उड़ान

तेरी अवाज के मखमल से
पैदा हुए शब्दों को
परिंदे सा छूकर
मैंने उड़ा दिया हवा में
खामोशी से...
फिर-फिर तेरी आवाज के झरते रोएँ में
नहाने की खातिर।






       सिक्के

वक्त की फटी जेब से
यादें गिरती रहीं, गिरती रहीं
पड़ाव पर एक दिन रुककर मैंने देखा
कुछ चमकते सिक्के बचपन के
मुस्कुराहट के फूल लिए अब भी बचे थे।




   
       हमारे हिस्से में

एक चूल्हा और उसमें थोड़ी सी आग
एक आंगन और उसमें थोड़ी सी खुशबू
छोटा सा पेड़, थोड़े से चिड़य-चुनमुन
सूखते हुए अन्न के कुछ दाने
रात के आसमान के थोड़े से हिस्से में एक चाँद
थाली में फूली हुई कुछ रोटियाँ
और इन सब में पूरी की पूरी
छाई हुई माँ!!

थोड़े से खिलौने और उनमें छिपा थोड़ा सा बचपन
थोड़ी सी खिलखिलाहटों का छोटा सा आसमान
छोटी सी देहरी और इत्ती सी आजादी
बड़ा सा दर्द और थोड़े से आँसू
दुबली सी देह और पहाड़ सा बोझ
हमारी मटरगस्ती उनकी खुशियाँ
उनकी बचत और हमारी जेबें
हमारे और घर के वजूद पर
पूरी की पूरी छाई हुईं बहनें!!

एक छोटा सा इन्तजार और बड़ी सी बेचैनी
थोड़ी सी भूख और थोड़े से सपने
आंगन के कोने में कुछ रातरानी के फूल
एक चूल्हा भी थोड़ी सी आग भी
बादल भी थोड़ी सी बारिश भी
खुला आसमान और एक प्यारा सा चाँद भी
प्यारे से रिश्ते की बुनियाद में
सम्हले हुए घर की दीवार में हर वक्त
आहट की तरह सुनाई देतीं हुईं पत्नियाँ!!
ये सारी की सारी हमारे हिस्से आती हैं
चाँद की तरह फूल की तरह
बादल की तरह बारिश की तरह
आग की तरह....







       वो एक नदी

उन दिनों
वह अक्सर खामोश रहती
अब पहले के साथी किनारे
उससे दूर होने लगे
नदी शाम के पीले पत्ते सी उदास हो गई
बालू-ठेकेदारों के ट्रकों के नीचे आकर एक दिन
उसने अलविदा कहा इस शहर को

दोस्तो! अब यह एक इतिहास है
कि कभी शहर के हर शख्स ने
देखी थी नदी
चिड़ियों सी चहचहाती।




       राहत

खबरें हैरत भरी होती हैं
पर कहीं जिक्र नहीं होता
कच्ची ईमारत के गिरने
और मजदूरों के दब कर मरने का।

सुबह-सुबह अखबार के पृष्ठों पर
महानुभावों की मोहक मुस्कान पसरी होती है
खून के छींटे धो-पोंछकर।

दलीलें और भी हो सकती हैं
उनकी भी तो जिनको आज तक नहीं सुना गया!
महान आत्माओं के सुखनुमा दुख पर भी
आहें भरने वाले रुदालियो!
वक्त सबके गुनाह दर्ज करता है।




       वो पाखी

ठूंठ पेड़ की शाख पर बैठा एक पाखी
कर रहा इंतजार
हरे पत्ते का
हर ओर उठती हुई एक चीख
शोर, बेतरतीब पनपते कंक्रीट के जंगल से आता हुआ
धुएँ का दमघोंट बादल
जो छीन रहा आकाश
उसका नीला रंग
छीजती हुई नींद हर तरफ।
नींद जो सपनों की जरूरत है
और सपने जो सबकी जरूरत हैं

एक पाखी
नींद और सपनों को फिर से पाने की कोशिश में
पंख तौलता
ठूंठ पेड़ की शाख पर कर रहा इंतजार।




       ख्वाब के पर

उनका बचपन
उनकी आँखों मे होता है
जिनके आँगन में
अनार के पेड़
पेड़ नहीं रहते
कहानियों में
पंख पहन उड़ जाते हैं।








       खारापन

रेल के डिब्बे में ठूंसे हुए सैकड़ों चेहरों‌ -से
पंक्तियों में बदहवास शब्द
आरी-तिरछी रेखाओं सी निरीह भावहीन खामोशियाँ
मेहनत-मशक्कत की आँच में तपे
कटे-फटे घावदार जिस्म के हजारो अल्पविराम
टूटती-बनती उम्मीदों के कई गैरजरूरी पूर्णविराम
करोड़ों लोगों के श्रम से बनी
पसीने की बूंदों से सजी
जिंदगी की कविता
खारेपन की ही तो कविता होगी!!




       झुग्गियाँ

सारे तारे जल गए
ठूँठ पेड़ के ऊपर

नीला तालाब
बिना दिए के झिलमिलाता है

बेमतलब मुरझाया फूलों का एक बगीचा
शहर की नींद में बिना खलल डाले
अंधेरे के काले पहाड़ के पीछे छिप जाता है

एक काला फूल
अंधेरे में फिर से खिलने की कोशिश करता है
शहर में शहर के उजाले से दूर...




प्यार और उदासी 

1...

कुम्हलाए फूलों से
उदास गीत का मर्म पूछो
धौंकनी की तरह चलती छाती को पढ़कर
झांक कर देखो जाने वाले की आंखों में
खूबसूरत चाँद कितना तनहा होता है
यह जानकर
जाते हुए मुसाफिर को
सफर के लिए एक चाँद, एक उदास फूल
और कोई कुम्हलाया गीत देकर
तुम भी तनहा हो जाओ।


2 ...

आते-जाते ट्रकों के शोरगुल में
ऊँघता-जागता चाँद
तड़पता बेचैन बियाबान सड़कों पर।
रातें, चाँद की रातें
उदास और तनहा गुजरती हुईं
पहियों पर घूमती बेचैन

ट्रक के ऊपर सोता चाँद
क्यों न पहुँच जाए तेरे करीब!
तेरे बहाने क्यों न मैं ही
पहुँचूँ ऊँघते चाँद तक
सोते हुए ट्रक में।



3....

चाहने की वजह
भरोसे की ताकत से होती है
सपनों की ताकत इससे है कि
तुम्हारी याद तुम्हारे होने से कम खूबसूरत न हो।
मैं जब कड़ी धूप में चलते हुए
उसे चाँदनी की नरमी में नहाना मान बैठूँ
तब मुझे लगे
कि तुम्हारी स्मृति को
कठोर समय के लिए बचाकर रखना
कितना जरूरी है?
वह भी तब
जबकि पंख, ख्वाहिश और याद को बचाना
कितना मुश्किल है इस दुनिया में!



        




        रंग की तरकीबें

वक्त बेरहम पत्थर सा
रास्ते को घेरकर बैठा
टुक-टुक ताकता एक शातिर को
जो घुप्प अंधेरे में
रंग की पहचान की तरकीबें सोचता।
काले और उजले को अलग होना सिखलाता।

किसी मेहनतकश के सांवले रंग से खौफ खाकर
गोरे चहरे के नफरत से भर उठने तक
दुनिया के किसी भी शब्दकोष में
एक शब्द के जिंदगी की दास्तान शुरू होने से
उसके मृत होने तक
अनवरत तोड़ने की साजिशें

चिड़िया के भीगे पंख पहन
पहाड़ के उड़ लेने की कोशिश से
पूरी होती हौसले की अधूरी कहानी कितनी खोखली!

जिन्होंने पोटली में सहेज कर रखे
दूसरों की खातिर सुख
उन्हें कटे हुए वृक्ष की तरह गिरते देखना
बस रंग की तरकीबें हैं
उन बांटने वालों की निगाहों में चढ़कर।





        जुड़ी हुई हथेलियाँ

        बढ़ी हुई हथेलियों को थामकर
नाजुक अहसास से भींगते हुए
क्या तुम्हें चाँद की मीठी झील का सपना आता है?
मुझे नहीं पता
दुनिया के तमाम मीठे पानी के स्रोत
छुअन जितने मीठे हैं या नहीं!
क्या तुम निश्चय के साथ यह कह सकते हो
कि जितनी पुरानी है यह धरती
उतना ही आदिम है स्वप्न भी?

भय और संत्रास की भुरभुरी भीत पर
उगे हुए प्यार के दो उम्दा पेड़
       आपस में मिले हुए....
   
       मिट्टी में जकड़ी हुईं खूबसूरत जड़ें
दो जुड़ी हुई हथेलियों की तरह
सामूहिकता के आरंभ होने के संकेतकों को खींचकर
इतिहास के पन्नों तक लाती हैं
और फिर चाँद की झील का मीठा पानी
समूह के सपनों को बचाने के लिए
हमारे साथ हो लेता है।
     



        बहनों के बारे में

उनके पुराने किस्से
उनके नए जीवन से कब के अलग हो चुके हैं!
बिल्कुल अनाज के छिलके की तरह।
नए किस्से हमारे पास बस छन के पहुँचते हैं
ताकि सुबह की चाय का जायका न बिगड़ जाय।

वे पुराने किस्से
सिर्फ यादों की तरह बचे हैं
घर भर की आँखों में।

जब त्योहार आता है
तब उनकी मीठी हँसी की कोमल दुबकी परछाइयाँ
यादों की सतहों पर तैरने लगती हैं।
पकवानों के चंपई रंग और उनके हाथों की मेंहदी में
दबी हुई वे सच्चाइयाँ
जिनके सामने आने से हम डरते हैं
कि हम बहनों को
सिर्फ पलंग की चादरों और खिड़की-दरवाजों के
साफ-सुथड़े पर्दों से ही जानते हैं
कि हम बहनों को पकवानों और
तरकारियों के स्वाद से ही जानते हैं
क्यों पुराने जीवन के किस्सों में
घर के किसी कोने में छिपी हुईं
मुँह झांपकर हँसती हुई मिलती हैं बहनें!
     






       उसके कंधे 

सोचिए
कि कितने ऊँचे हुए हैं पहाड़ों के कंधे
जब से हम हैं सुख-चैन से
और हमारे आस-पास उनकी बेचैन परछाइयाँ
सुबह-शाम जब घूमती हैं
तब हमारी आँखों में होता है कितना पानी?
नदियों के जल में कितनी बूंदें हमारी हैं
हमें पहचानती हुईं!
आसमान के वे तारे जिन्हें हम नहीं बढ़ा सकते
उनमें से कुछ उन धुओं में ओझल हो गए
जिसमें हमारा भी जहर था।

हर दिन
हमारे होने ने
कितनी चिड़ियों की विलुप्त होती नस्लों को
मौत की नींद मुहैया कराने में मदद की
नए पौधों को
रसायनों की कितनी धूंटें पिलाईं
फूलों के रंग को कितना फीका किया

हमने कुछ न भी जोड़ा अगर
तो एक उड़ान को
सपनों के कितने पंख दिए!!

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परिचय
नाम-श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया जिले के दिबरा बाजार गाँव में
शिक्षा- एम॰ ए॰(हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदक,
   पी-एच॰ डी॰, पटना  विश्वविद्यालय, पटना।

प्रकाशित रचनाएँ-      ’दैनिक हिन्दुस्तान‘,
 ’उन्नयन‘(जिनसे उम्मीद है कॉलम में),’पाखी‘, ‘‘वागर्थ’ ’बया‘  ’वसुधा‘, ’परिकथा‘ ’साहित्य अमृत’,’जनपथ‘ ’छपते छपते‘, ’संवदिया‘, ’प्रसंग‘, ’अभिधा‘‘ ’साहिती सारिका‘, शब्द-प्रवाह‘, पगडंडी‘, ’साँवली‘, ’अभिनव मीमांसा‘’परिषद् पत्रिका‘ आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार

2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)


  
संपर्क-          
श्रीधर करुणानिधि
द्वारा- श्री मती इंदु शुक्ला
 आलमगंज चौकी, गुलजारबाग पटना-800007
मोबाइल- 09709719758
ई-मेल- shreedhar0080@gmail.com

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