11 अक्तूबर, 2018

सविता पाठक की कविताएँ



सविता पाठक



तुम्हारी संस्कृति और मेरी कविता या अकविता जो भी समझे....


थोड़ी सी सब्जी में से
हम भाई-बहनों की सब्जी में से
कटोरी मे भर के
मां ने सिखाया था, छुप के दो गली पार दे के आना
नहीं बताना किसी को,पापा को भी नहीं
छुप के देना सबसे छोटी दुल्हन को
जी करता होगा उसका कुछ अच्छा खाने को
रेडियो के कवर के अंदर मां का बैंक
तुड़ी-मुड़ी नोट दे के आना होता था दूसरे गांव
कोई भी मंदिर हो, कोई भी मस्जिद हो
करना चाहिए प्रणाम
अपने घर कोई आये,आये अगर कोई दुख में तो
वो है भगवान
खटिया-मचिया मांगा है जब तब,मांगा है, दिया है, लिया है
नन्ही-नन्ही ये चोरियां
बहुत ऊंचा बना देती है मेरी मां का रसूख
और जिनके सहारे बच जाती है भारतीय संस्कृति की लाज
बाढ़,सूखा या आयी हो कोई विप्पति
मां को समझाना होता था सबसे आसान
मेरी मां पिट जाती थी
'किससे पूछ के दिया घर का सामान'
और मै हो जाती थी और ढृढ़
मेरी पीढ़ी ने संस्कृति को यूं ही समझा
बाकि तुम्हारे उपाख्यान,
तुम्हारे रक्षक
गांव की बाजार के लुहेड़े हैं
जिन्होंने पहनी है दहेज में मिली सोने की जंजीरे
और कसी हैं किसी मजलूम के कर्ज से खरीदी हुई अंगुठियां
जिनके घरों की दीवारों पर छपी है दर्द की दास्तान
जिनके कुंए,जिनके तालाब
जिनके गांव का देवता
डूब के मर गये या भट गये
या फिर
तुम्हारे रक्षक
वो नाकाबिल पकौड़ी-चोर हैं
जो बस खड़े रहते है दुकान पर बाट जोहते दिन भर
कोई आये कुछ मंगाये
और वो कुछ खाये
फिर देश काल संस्कृति गपियायें







बेजार दिल

बेजार दिल
वो दिन ब दिन कमजोर हो रहा
और नजरों को लगता है कुछ गफलत हो रही है
लगता है दुकानों की सारी डमी सड़कों पर चलने लगी है
उन्होंने पहने हैं एक जैसे कपड़े
उनकी अदायें भी एक जैसी
वो कुछ इंच नाप के मुस्कुराते हैं
और मैं ढ़ूढ़ने लगती हूं उनकी चाभी
आज की थीम है लाल,कल थी गुलाबी
कभी नीली,कभी पीली
उनसे मांगती हूं माफी
और देखती हूं - छू के
प्लास्टिक तो नहीं ये
पता नहीं। बस लगता है कि डमी सड़को पर चलने लगी है
तुम्हें यकीन नहीं है
ना करो
क्या मेरी बुद्धि जा रही है
करीब जा के देखो उन्होंने आंखो पर बांधी है काली-काली पट्टियां
एकदम काली-काली
उन्हे कुछ नहीं दिखता
उनके कपड़े, उनके घुँघराले बाल जैसे अंगूर की लतर के रोंये लगते हैं ना
मुझे भी लगते हैं
वो आदमी देखो,कितना ताकतवर
एकदम मजबूत,बाजूओं की मछलियां उछलती है उसकी
और शरीर वैसा, जैसे गोंडवाना की मजबूत चट्टानें
तुम्हे भी लगता है ना
लेकिन वो निकर भी खुद नहीं पहनता
उसका चश्मा भी, उसका नहीं, रोज रोज बदलता है
उसकी टोपी भी उसकी नहीं
वो थीम है किसी दुकान का।
वो बच्चें कुछ गब्बू-लड्डु सरीखे
दुनिया के सबसे स्वस्थ-सुंदर से दिखते
सोचना मत कि, वो तुम्हारे पास आयेंगे
उनकी प्यारी फ्राक और बाबासूट
मैला नहीं होता
वे नहीं जाते-खेलने,नहीं करते कुछ भी ऐसा-वैसा
बस वही करते हैं-वही खेलते हैं
जो थीम है दुकान की।




पिकासो 



मुजफ्फरपुर जो कि मेरा देश है ....

मृत्युदंड
मेरा बस चलता तो
तुम्हे मरने नहीं देती
तुम्हे सुनाती दिन रात वो चीखें
बार बार दिखाती वो दृश्य
रात दिन दिखाती कि देखो अपनी हनक और हीनता
तुम्हे गिराती ऐसे खड्डे में जहां सिर्फ तुम्हारी आवाज ही गूंजे
तुम रोते चिल्लाते
तुमसे छीन लेती भाषा
तुमसे छीन लेती तुम्हारे हिस्से की रौशनी
तुमसे छीन लेती तुम्हारे हिस्से की हंसी
और छीन लेती तुम्हारे आंसू
तुम रोओ भी तो तेजाब बहे और झुलस जाये तुम्हारा चेहरा
मेरा बस चले तो तुम्हे देती ऐसी सजा
मृत्यु नहीं
ऐसा जीवन जहां तुम जानो कि जानवर के नाम पर चूहे होते हैं
गिलहरी के नाम पर काकरोच
फर्क नहीं कर पाओ चांद और सूरज में
तुम्हारा दिमाग पिलपिला दिमाग
छीट देती उस पर चूना
इतना सड़ा देती कि तुम्हे घृणा होती खुद से
तुम अलग करना चाहते खुद को अपने शरीर से
और शरीर चिपका ही रहता तुमसे
और तुम्हारा दो इंची मांस का लोथड़ा काट के फेंक देती
और कुत्ते खाने से कर देते इंकार
मेरे पास माफी नहीं
लेकिन मेरे पास मृत्यु नहीं
मेरे पास तुम्हे देने के लिए ऐसा जीवन है
जहां अभिशप्त आदमी किलझ रहा हो प्यास से और
मेरी बेटियां थामे हो जीवन-जल जिनको देख पाने की ताब न हो तुममे
और पी न सको तुम एक बूंद भी।




उदासी

समंदर की आती जाती लहरों के
बीच लेटी है रेत पर
उठने की इच्छा नहीं
चिरनिद्रा में मानो लीन
नमक सिर्फ आंखों से नहीं बहता है उसके
वह खार खार हो गई है
हवा का कोई झोंका
चिड़िया की कोई डुबकी
धान और सुपारी के खेत-बाग
उनकी सोंधी गंध
नहीं जगा पा रहे है अब
कितने विशाल जहाजों को प्रवाह में लाने वाली लहरें
उसे पटक पटक के झिंझोडती है
वो खोई है जैसे चिरनिद्रा में लीन
मानो एक नींद की आस जगा रही हो
उदासी है तो है
गहन,गहरी,अतल
समुन्दर और आकाश की तरह
पृथ्वी को आगोश में लिए




भय
उन्होंने हर किसी से डरना सीख लिया था
चांद जब पूरा निकलता
तो प्रेतत्मायें घेर के झांकने लगती हैं
झट उन्होंने खिड़की बंद की
और हर जतन किया झिरकी में कील ठोकने का
वट की जटायें जब अपनी प्रिया मिट्टी को चूमती
तो उन्हे लहू टपकाते बूढ़े का दृश्य नजर आता
पीपल के पत्ते ताली बजाते तो उन्हें बरसों पहले डूब मरी बहू की हंसी याद आती
बड़हल गुड़हल महुआ लिसोड़ा
सब उनके डरावने सपने में आते थे
ईमली की छांव में उनका जी मचलाता था
शमी के सिर पर लगी कनगी से उन पर बवाल उतर आता था
उन्होंने डरना सीखा था
उन्हें यूं ही बड़ा किया गया था
घूंट घूंट में डर पिला कर
नहीं पार करना संमदर
नहीं पार करना नदियां
नहीं खाना कहीं का खाना
कच्चा –खाना, पक्का-खाना
छूत खाना-अछूत खाना
नहीं पीना कहीं का पानी
उन्होंने डरना सीखा था
हर किसी से
झबरीला कुत्ता उन्हे भ्रष्ट करने के लिए काफी था
बिल्ली रास्ता काटे तो पूछो मत
रूक जाते हैं तेज पहिए
उनके डर का घेरा रोज बड़ा हो रहा था
वो डर के मारे कहते-अंधेरा कायम रहे
जुगनू देख के धौकनी चलती थी उनकी
उन्हें हर समय खतरा था
भ्रष्ट होने का
पतित होने का
वर्णसंकर होने का
नष्ट होने का
वे डरते थे हर उस आदमी से
जो डरता नहीं था
जिसके बाल नहीं कटे थे उनकी किताब के चित्र के हिसाब से
जो खाता नहीं था उनकी किताब के चित्र के हिसाब से
जो गाता नहीं था उनकी किताब के चित्र के हिसाब से
वो औरतें जो नदियों की तरह उछलती-किलकती थी
वे बहुत डरावनी थीं
वे औरतें जो प्रशान्त मैदानों में बहती, ठाठ से रहती थी
वे भी बहुत डरावनी थीं
वैसे वे औरतों से ही डरते थे
कभी भरोसा नहीं करते थे
वे रोज बनाते थे नई नियमावली
औरतों के लिए
कभी कभी उनकी मंडली में जब वे शामिल हो जाती थीं
तब वे जादू से कायान्तरण करते
रूपान्तरण करते औरतों का,
बड़ी बड़ी कलाएं इजाद की उन्होंने
डर को काबू करने के लिए
और डर बड़ा होता रहा
उन्हें हर समय डर लगता था
कोई मार देगा
कोई खा जायेगा
वे इतिहास और भूगोल से भी
डरते थे
कविता कहानी देख कर उन्हे हौल उठता था
विज्ञान के नाम पर कंपकंपी छूटती थी उन्हें
डर के मारे उन्होंने नदियों को बोतल में भर लिया
डर के मारे बेल पर आरी चलाई और पत्र गमले में उगा लिया
किताबों को कपड़ें में लपेट दिया
वो जितने जतन करते उनका डर बढ़ता जाता
वो दिन में डर जाते थे
नींद में चिहूंक जाते
वे बौखलाहट में काटने लगे पेड़ों को
पाटने लगे नदिंयो
मारने लगे लोगों को
वो रोज भेजते सूचना
हमें डर है
हमें डर है
हमें डर है
कहते हैं उनका सरगना तो
बच्चों की प्रश्नातुर आंखों से भी डरता है





कविता...

देहाती,बऊक
की तरह मुंह खोल के देखती है मेरी अन्तःचेतना
अभी उसे शहर में रहने का शऊर नहीं आया
बचपन की फेफनहीं किताब का वो चित्र
पहाड़ी घर,पहाड़ी खेत सीढ़ीनुमा
चिपका है उसकी दीवार पर भात की लेई से
कश्मीर से आया हर आदमी
उसके सपनों के रास्ते आता हुआ सा लगता है
कहां धूप से तपे-जले उसके गांव के लोग
दुपहरियां में पांव पर छौंक लगाती
पैर में खुटी चुभाती मेरी मिट्टी
कहां ये
बर्फ के फाहे से झक सफेद,सेब से सुर्ख
आंखों में तो इनकी झीले,नदियां और पहाड़ है
नीले-नीले
ये मुंह खोलते हैं मेरा देहाती मन मुंह खोल के सुनने लगता है
सिगड़ी लेके चलते हैं लम्बा सा लबादा ओढ़ते हैं
बताओ तो खुद को गरम रखने के लिए क्या क्या करते हैंं
बड़े नारे लगाये हाथ में झंडा थामे कश्मीर से कन्याकुमारी हम सब एक हैं
जाग जाती थी करेमुआ के साग से भरी गड़ही
खिल उठती थी उसमें कमलिनी
कैसे कैसे नाम प्यारे, प्यारे नाम
देस-परदेस मिला जुला जैसे संझा हो दुपहरिया की
देहाती मन उसकी तो समझ देस-परदेस की रही
आंखे फाड़-फाड़ के देखती है ऐसे में अन्तःचेतना
कई बार लुच्ची सी लगने लगती है औरों को
अब जब
वो सपनों के रास्ते आये लोग खून से लथपथ हैं
उनकी लाशों से कैसे किनारा करूं
कोई बताये..
इस देहाती मन को कोई समझाये..




पिकासो 



 झूठ-सच

और जब से उन्होंने जाना
सच में होती है ताकत
सच चमकता है,रौशन कर देता
सच हथियार बन जाता है और नितांत अकेले के साथ भी रहता है
उन्होंने लिख दिया सच और झूठ सिक्के के दो पहलू हैं
नजर का फेर है
अंधेर का असर है
सफेद कागज पर उकेरे स्याह वाक्य
सच पगली औरत का बयान है
सच मूर्खों का आख्यान है
जब से उन्होंने जाना सच में आग की आत्मा बसती है
वह जागती आंखों में जा घुलती है,भभक भभक के फैल जाती है
उन्होंने पट्टियां इजाद की
रंग-बिरंगी
इतनी की सच का रंग कुछ का कुछ हो जाय
उन्होंने ढ़ेरों रंगीन चित्र सजाया
आदमी मारे,उनकी जबान मारी
उनकी किताबों को मुर्दा बनाया
फिर सम्पुट में लेकर आये
पवित्र ग्रंथ की पवित्र बातें
सत्य का संधान सबके बस की बात नहीं
नरो वा कुंजरो
स्त्री पाप का मूल
ऊंच-नीच,ऊंच-नीच
जब से उन्होंने जाना सच अदम्य साहस स्रोत है
वे जोर-जोर से चिल्लाने लगे
वो जोर- जोर से रोने लगे
उनकी अदाकारी देख
असली आदमी घबरा गया
वो क्रोध में हुंकार भरने लगे
उनकी हुंकार सुन
अभी अभी क्रोधित हुआ आदमी चुप हो गया
अब वो हर पल एक दुनिया रचते हैं
झूठ सच झूठ का घोल मिला कर
ऐसे में सच को छानना..
सच को छानना अब एक काम है
अफसोस की नजर भी धुंधली हो जाती है कई बार आदमी की




आओ संवेदनाओं के डिब्बे बनायें

उम्र ,रंग, कितना-किसका
पता लगाएं
तेरा-मेरा, इसका-उसका
हमें क्या पता, किसका -किसका
थोड़ा होंठ हिलाये, थोड़ी पलकें झपकाए
ये तो ऐसे, वो तो वैसे
ऐसे को तो,ऐसे ही ऐसे
कंधे उंचकाए,तिरछे हो कुछ मुस्काऐं
कितना बोले, कितना रोयें
जाति धरम की बात खुले
तब तो कुछ बोलें
ओह!कांच की प्लेट है टूटी
माथा फोडे, टेसूऐ गिराये
आओ संवेदनाओं के डिब्बे बनाए।
रोजगार
ले डंडा लगा चुम्बक
दिन भर लोहा ढूढों
बडी कमाई है
ले लो चूहेदानी
घर घर जाके मूस पकडो
पन्नी बीनो
टाई लगा के
छिलनी बेचो
ये कर लो वो करलो
न हो कुछ तो खा पी के मर लो





एक कविता

और जब आत्मा पर धुंध छा गई है
गला भरा सा रहता है
और आंखे पनीली जलती
आत्मा मोहताज सी लगती है किसी चीज के बगैर
क्यों कि मैंने पैर में पहिए लगा लिए है
वक्त नहीं है कि आत्मा को देखूं
कि वो क्या चाहती है
मैं उसे खींच के बाहर करने की कोशिश करती हूं
वो मुझे खींच के मेरे मरने का दृश्य दिखाती है
युद्द सिर्फ सरहद पर नहीं लड़ा जाता
वो दुकानों पर,सड़को पर,अस्पतालों में
रसोई में और बिस्तर पर हर जगह कहीं ज्यादा बेहरम है
मैंने देखा है
बड़े-बड़े बुलडोजर विशालकाय
नन्हें नन्हें घरों पर चलते
एक चूल्हा चौका और वो नानी के यहां मिला छोटा गिलास
प्यार से खरीदा गया बच्चे का बस्ता
और सहेज के बुना गया छोटा सा सपना
सब कुछ कुचलते हुए
मैंने सोचा कि सट के खड़ी हो दरवाजे पर
कह दूं नहीं ऐसी निर्मम हत्या की गवाह मैं नहीं बन सकती
युद्ध चलने लगा मेरे ही भीतर
एक ब एक मैं घबरा गई
मुझे मेरे बरतन
मेरा चौका मेरे बच्चे का बस्ता
कुचला हुआ सा लगा
ठंडे हो रहे शरीर को देख कर आत्मा ने छेड़ दिया राग
युद्द लाजिम है तुम चाहो न चाहो




पिकासो 


पलकें

अड़हुल की पंखुड़ियों सी
भारी हो चली हैं
शायद बसंत आ
गया..


12

While Walking in a museum


I reached in a room full of 
All colors of turbans 
Blue,red,green,magenta,white,pink and loads of colors 
Whose name I couldn’t guess?
It was a world of turbans
Velvety, silver, golden and rusted 
Pleated molded folded decorated
Small and big and biggest
I was reading and reading
Something was reverberating in my heart
Something was twirling in my head
Turbans of goldsmith, ironsmith
Water-Fetcher, oil-Man
Worriers,superiors,inferiors
Turbans of all colors
Snake charmers, pottery workers
Garderners, drivers, hairdressers
All were different 
Paagh,Pagdhi,Saafa,Pagot,Patka,Potia and Phenta
Different names of Turban
Caste creed trade religion and sects 
Behind the glass they all were looking beautiful
I was brooding/disturbed whether color or quality of cloth
What was making them different?
What if these turbans change heads?
I knew there was no distinct turban for a woman
I started smiling to feel the power of ‘me’
Is that me who can change the heads? 
Is that me who can challenge the quality of turban of priest, warrior and so many?
Do I still roam in the world of turbans?
Where everybody is deeply keeping watch on me
Me who could be a game-changer
I was thrilled to feel the ‘mess’ in the still world
but this is museum how come it would be possible
As I came out, romancing with the idea
Oh what a horror
I was amid all…
All the turbans that was dead behind the glass
It was living world of those wearing all kinds of turbans 
Invisible but powerful
King and priest, gardener and sweeper
Worrier and moneylender
All the strata of smiths
All the strata of all the men
Roaming with turbans aspiring to get the brightest one
But why are they keeping watch on me?
Did they come to know my fancy?
But I have no turban, no wish to have it
But why are they keeping watch on me
Oh God I just wanted to spent five rupees and love to play role of game changer
But I became wager and risked everything
I could be game changer but with putting my life on stake
It thrilled me..
See I am enjoying this chaos in a live museum.



धुंआसा समय

इस धुआंसे में
सब कुछ बुझ सा गया है
आंखों में किरकरी जलन
और भीतर से आती ऊबकाई
हांफ हांफ के मुंह खोल के सांस जैसा कुछ भरने की कोशिश
कैसा होता होगा गैस चैम्बर
ऐसी घुटन इतनी गहरी घुटन क्या सिर्फ शरीर की है
जबान घुटी है वो इतनी लड़बड़ाई सी क्यों है
आंखे इतना बच बच के क्यों देखती है
और सिर जो एक सिरे से खिचता ही जाता है
वो सिराओं और धमनियों से डरा क्यों है
क्या वो संकेतों को पढ़ के न पढ़ने का नाटक कर रहा है
ओह ये धुंआसा
कोहरा होता तो इंतजार करती सूरज का
उसकी आंच को हल्के हल्के सूंघती
सोंधी आंच को तापती
लेकिन
ये वो नहीं
ये फिर क्या है क्यों है
इतनी घुटन
जैसे गर्दन पर किसी ने बांध दिया हो मोटा पट्टा
और वो कसता ही जा रहा हो
चीख भी नहीं सकती
ये कैसी घुटन है.
ये पट्टा क्यों दिख रहा है सबकी गर्दन पर




13

Women

Women standing outside your map 
They also have a name 
They have the age 
They are full of predilection and disliking
That rings between the shoots and the shaft 
Of and on in their eyes, 
Their moon also gets round and play hide and seek
They also cuddle their kids 
Their children also sleep with them aloof from any fear
On spring 
The red color titillates 
On their faces
They do immense love with their fire of stove, 
To their cottage, kitchen and earth.
As much as you can never do with anybody..
Their nation is not so big enough
That could burn ‘human’ and relish ‘humility’
Their Love is not so small that it could sink in a plastic box 
Their banyan roots are stronger than your iron rods
You uproot them every day every minute
Women standing outside your map 
Grow up again and again like thorn of unbending bush
         





सबसे कम खराब....

कैसा लगता है
लाल पके ताजे टमाटरों पर टिकी कांच सी चमकीली बूंदों को देखकर
यूं ही उपर की कतार में लदे हरे पीले गुलाबी फलों की सजावट को देखकर
यकीन मानो मुझे पसंद है एकदम से ताजी सब्जियों की छुवन
उनकी असली मिठास उनके भीतर भरा अमृत जल
सरसों के तेल से जो सोंधी सी गंध आती है वो मेरे भीतर तक बसी है
बंद कर दो मेरी आँखें और पूछो की ताजा पिसा आटा
रंगबिरंगी दालों को पहचानों
मसालों को देखते ही मेरा मन
महक उठता है
सच मैं छू छू के बताती हूँ तुम्हें
मलमल सिल्क तो नहीं
हां सूती के खुरदुरे बारीक कपड़े कैसे फबते हैं बता सकती हूं
क्या कहूँ कि रोपनी करना आता है और धान नहीं जानती
दूध दूहना आता है और दूध का रंग नहीं जानती
घर साफ रखना आता है और दिखती हूँ फूहड़
कुछ नहीं कह सकती
सबसे खराब सब्जियों के टोकरे से चुनती हूँ
कुछ कम खराब सब्जी
सबसे खराब सबकुछ से चुनती हूँ कुछ कम खराब
कुछ कम खराब स्कूल.
..कुछ कम खराब डाक्टर
ठीक वैसे ही जैसे नन्ही गौरैया इस शहर में भटकती है
थोड़ी सी सूखी दूब के लिए
फिर थोड़ा सा कम खराब प्लास्टिक का सूत चोंच में पकड़ उदासी से बुनती है
अपना धोंसला
इसी सब में
लिसलिसा सा कुछ हाथों में लग जाता है
और आंखों में किरकिरी की जलन भर जाती है
सबकुछ जानते हुए चुनती हूँ
कुछ कम खराब
यकीन मानों रोज अपनी आत्मा और शरीर
से यही झग़ड़ा कर के वर्षों से जी रही हूँ......




उम्मीद

नन्हा सा बच्चा
फुदक के कुछ कहने की कोशिश में खींच रहा है
मेरा आंचल
जाने क्यूं उसकी आंखों की शरारात उसके हाथ के
जुड़वे फूलों में हल्के-हल्के मुस्कुरा
कहने लगी कुछ नई बातें
पीले रंग में रंगें दो सूरज
नन्हें हाथों में जगमगा रहे
उसकी चमक धुंधला रही है आज के पूरब वाले सूरज को
गुच्छे-गुच्छे सूरज थमा दिये
बच्चों के झुण्ड ने
हैरान ढूंढ रही हूँ
किससे क्यूं मेरी आंखे चमक रही
प्यारे प्यारे बच्चे सूरज बने जा रहे हैं.....
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मैं क्यों लिखती हूं

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