14 अक्तूबर, 2018

शैलेय  अंसभव की कविताएँ



शैलेय असंभव



या

हताश लोगों से
बस
एक सवाल

हिमालय ऊँचा
या
बछेन्द्रीपाल?




आग-पानी

हालांकि
यह एक भरा-पूरा जनसमूह है
किंतु यहां भी
हर कोई अपने-अपने में अकेला
हर किसी के हैं कई-कई फाड़

क्या करे
रात के दौरान
उसे नींद नहीं आती और
दिन में
वैसे भी कौन अपने में रहा है ...........

दरअसल
एक काली आग की चिंघाड है चारों तरफ
चारों तरफ पानी उतार पर है

क्या आपको
अभी-भी यह नहीं लगता कि
ओजोन में छेद
और कुछ नहीं
हमारे सपनों में लगी हुई सेंध है

वक्त है कि
बचे आग-पानी को बचाने की खातिर
खुद के मुकाबिल भी खड़ा होकर देखें
कि अभी सारी हरियाली निचुड़ी नहीं है
अभी भी दहक रहे हैं बुरांस ...............।

क्या है कि
जिसे देखो वही कह रहा है
समय सचमुच में बहुत खराब चल रहा है

हैरान हूं
एक खराब समय में भी
मुझे इतने अच्छे-अच्छे सपने
आखिर कैसे आ जाते हैं
क्या सचमुच में मुझे समय की कोई पहचान नहीं है?

आज ही लो
तड़के जैसे ही नींद टूटी
मुझे रोज की तरह बरबस ही
फिर से जागने का सपना हो आया

खुली आंखों का सपना था
इसलिए रूप-रस-गंध को लेकर
मैं हर तरह से इसे
खूब-खूब देख और सोच-समझ सकता था

जैसे कि
सुबह-सुबह का यह सुर्ख सूरज
किस तरह रक्त बन-बनकर
हमारी रगों में
तमाम रात भी अविरल-अविरल बहता रहा है
चिडि़याएं सुबह-शाम पंख फड़फड़ाती
हमारे दिलो-दिमाग की गर्द झाड़ती हुई
किस तरह
हमारे लिए कोई सौंध सा लोकगीत गुनती ही रहती हैं
कि गई रात जब हम तकियों में डूब रहे होते हैं
कोई तो है जो हमारे लिए धीमे-धीमे और
चुपचाप ही सही
रात की सीवन उधेड़ रहा होता है

तो क्या है जो मौसम को चारों तरफ
कहीं लू लग रही है
कहीं लकवा मार रहा है
कि हौसलों का एक-एक जोड़ पिड़ा रहा है......

क्या है कि
जब तक भी हमारी आंखों में जरा सा भी
हरी-भरी दूब रौशनाई बची हुई है
मैं यह स्वीकार नहीं कर पा रहा हूं कि
हमारा समय एक ठूंठ समय है।









दांव 

जिंदगी हर एक को बराबर प्यारी है
जिंदगी की जिम्मेदारी भी हर एक को बराबर
कुछ भी कैसे गंवाया जा सकता है

बस इसीलिए
खोया कुछ पाना हो या
नया कुछ लाना
दांव आदमी को लगाना ही पड़ता है
चौतरफा आसन्न खतरों के बावजूद
दांव ही है
जहां
संकल्प के फलों की सही उम्मीद
जहां
जिंदगी की सबसे भीनी खुशबू।




अपराध


हजारों-हजार ऋतुएं आ जाएँ
छा जाएं
बसंत तो आदमी के
अपने ही भीतर से उमग कर आता है

अब देखो न!
हर साल कलेण्डर
जिस दिन को भी नया साल कहता है
क्या हमारा जीवन
हमारे अपने मौसम की ऋतु भी
ठीक उसी दिन उसी क्षण बदल जाती है

बल्कि
कलेण्डर के हिसाब से
हर साल हम अपना जो भी लेखा-जोखा बनाते हैं
तमाम दिक्कतों और हिम्मतों के बावजूद
कदम ब कदम
ठीक उसी राह पर चलते हुए भी अंत में जैसे
हर बार ही हम खुद को ही
फिर से भटका हुआ पाते हैं
ठगा गया पाते हैं

किन्तु अब जबकि बच्चे बड़े हो रहे हैं
हम उन्हें जीवन का मर्म समझाना चाह रहे हैं
हमारी हथेलियों में
गट्टों के सिवा कुछ भी बचा हुआ ही नहीं है
पैर जैसे बिबाइयों के मकड़जाल में कहीं
खो से गये हैं कि पथरायी हुईं आंखें
अब आइने के सामने आना तक नहीं चाहतीं


किसी तेज अंधड़ में उलझे कलेण्डर के
बदहवाश फड़फड़ाते हुए पन्ने हैं कि
चीत्कार करती हुई हमारी ही आत्मा
आत्महत्या पाप है तो
इस तरह की जिंदगी भी तो अपराध!




तासीर

क्या सचमुच
वे दिन हवा हुए
जब खलील खां फाख्ता उड़ाया करते थे‘

आइना तो
आज भी साफ-साफ कर रहा है कि
तारीखें स्वयं में कुछ नहीं होतीं
हमीं हैं
जो अंधेरा-उजाला होते रहते हैं

इसीलिए
‘क्यों हर समय रोते रहते हो यार?‘
जरूरी नहीं कि
इसमें कोई सहानुभूति हो ही
उलाहना भी हो सकती है
जैसे क्या करूं भाई,
सूरत ही कुछ ऐसी बनी है‘ में
सदैव पलायन ही नहीं छिपा होता
हांलाकि
खलील खां के जमाने में भी
‘चलती का नाम गाड़ी‘ जरूर रहा ही होगा

आइने!
मैं भी खलील खां की ही नस्ल
कभी मेरी सूरत
मेरे दिल से जरा भी अलग दिखे
मेरे चटकने को
तू इसी तरह प्लीज संभाल लेना यार!



कि मेरे पास
अभी तेरे जैसी तासीर कहां कि
खुद को
या किसी को भी
उसकी असल सूरत दिखा सकूं!









खामख्वाह 

कभी इतिहास के अंत की बेसुमार घोषणाएं
कभी दर्शन के अंत की बेसुमार घोषणाएं
कभी कविता के अंत की बेसुमार घोषणाएं .......

सच है कि
काफी कुछ पानी जम गया है यहां
हवा जड़ हो गई है
क्लोरोफिल भी नाममात्र को ही बचा है

कि
जहां कभी थोड़ा बहुत आग थी
वहां भी
तकिये अब सीलन से गदबदा रहे हैं

न कांधे
न रीढ़
न आंखें
न सीना
जरूर इस मौसम को
कोई ने कोई फालिज मार गया है

तो भी
संसार भर की घडि़यां बांध करके भी
अनगिन खोह-खड्डों-खाइयों के बाद भी
पृथ्वी की लय कहाँ रोकी जा सकी है

आखिर कैसे कहें
कि एक मरे हुए वक्त में
हम खामख्वाह जिंदा हैं!

शिल्प
कभी-कभी किसी कागज
किसी खेत
किसी कल-करखाने में तुम
ज्यों ही अपना सा कुछ रचने को होते हो
ठीक उसी वक्त
तुम्हारी पीठ में कोई
खुजली सी आकर मचमचा उठती है

सहज हो लेने तुम
जितना ही खुजाते जाते हो
खुजली है कि
उतनी ही ज्यादा फैलती चली जाती है
फैलती ही चली जाती है

अब कहां कुछ रच पाना
तुम एकमुश्त
जैसे अपनी ही पीठ उधेड़ देने में जुट जाते हो
और तब तुम्हारी चाल?
तुम अब एक नितान्त दयनीय
निरीह और
हास्यास्पद चुटकुला मात्र बनकर रह जाते हो

क्या है यह खुजली?
तुम्हारी अपनी ही मांसपेशियों में
जब-तब उठ आता कोई खिंचाव या कि
कहीं बाहर से आ-आ लग जाती कोई गोंच?

क्या कोई कविता लिखोगे
क्या कहानी??
जब वक्त के गीत
वक्त की गोंच के सही शिल्प का वक्त ही
नहीं सूझ-बूझ पाये तो!






दृष्टि

सरल हवा में ही ली सकती है
साँस

एक फूल सूखकर भी
समूची धरती में बिखर जाना चाहता है
बच्चे की कुशलता के लिए
एक माँ
सर्जरी तक आ जाती है
विहँसती हुई

लू के बावजूद
बन्द नहीं हो जाती खिड़कियाँ
एक पानीदार पर्दा टांग दिया जाता है

दृश्य से महत्वपूर्ण है
दृष्टि

एक नाक का बन्द हो जाना
समूचे आदमी का दम घुट जाना कभी नहीं होता।




तो 

मैं हर किसी पर पूरा विश्वास करके चलता हूं
और अक्सर मेरी हालत
भीगे हुए मेमने जैसी हो जाती है

मसलन-
परसों ही मुझे यकीन हो चला था कि
कम से कम
वह आदमी तो सरल इंसान है
किसी रोज घर पर बुलाऊंगा,
तभी पत्नी ने मुझे यह कह कर कँपा दिया कि
एक टांग पर खड़ा बगुला भी तो
बहुत सीधा-सरल लगता है

लेकिन
कल जब माँ ने कहा कि
गौरयों के बिना आंगन सुना हो गया है तो
लगा मैं अन्धकार में डूब रहा हूं-
लालटेन! लालटेन चिल्लाने लगा

और आज तो हद हो गयी जब
मैं पीछे-पीछे जार-जार रोता हुआ
गली-गली बह निकला कि
आसमान
बच्चों तक से क्यों छीना जा रहा है.....

फिलहाल
मुझे मनोचिकित्सक के पास ले जाया जा रहा है
पता नहीं
वह मेरा क्या इलाज करेगा
कहीं उसने मुझमें से
भरोसे का भाव ही मिटा दिया
तो!








इस उदास राग में 

जीवन खटराग का अपना महत्व है
हमारे भीतर
ओने-कोने दबे-छिपे कितने ही कितने
निजी एकांत क्यों न हो
कभी न कभी
यह उन्हें पटल पर ला ही पटकता है

अपनी सफल चालाकियों पर
हम सहसा मंद-मंद मुस्करा उठते हैं
नादानियाँ तक हमें कभी कितना कौशल लगती हैं
आ हा हा हा
जबकि
हकीकत में
समय की चालाकी हम बूझ ही नहीं पाये
परिणाम यह कि
दौड़ते-पकड़ते भी
कई बार जिंदगी हाथ से छूट गई होती है

तब दुनिया के मुकाबिल
कि खुद के मुकाबिल
यही जीवन खटराग हमें कैसे-कैसे
खड़े किये रखता है कि
आदत ही बना देता है
इसी उम्र में
पूरी उम्र के लिए

रहा भीतर के एकांत किसी कोने में
बिसूरता सिमटता हमारा यह उदास प्रेम
सो खटराग उसे अब
ठेंगा भी मुँह नहीं लगाता है
हंसता है और
मुंह चिढ़ाता ही है

इस तरह
एक बेमुख्वत वक्त का यह प्रेम
सदा चाह कर भी
न चाहा रह जाता है कि
शाप सा ताउम्र न जीने के काबिल
न पूरा ही मरता है

किंतु वक्त की तासीर कि कुछ भी यहां
ठहरता ही नहीं है कि
वक्त की ही बकझक कि जितना ही किटकिटाता है
अंतरतम में
मद्दम-मद्दम कल-कल छल-छल
इस उदास राग की गुनगुनाहट बहुत स्वाभाविक है

कि इसी जलतरंग में
यही खटराग
नित-नित नये-नये छलांगें मारता है
तो इस उदास राग के गुनगुन आलाप भी!

०००

पता- ईजायन
जी-2, मैट्रोपॉलिस सिटी 
रूद्रपुर, जिला- ऊधम सिंह नगर
उत्तराखण्ड
मो0- 9760971225





1 टिप्पणी:

  1. शैलेय सर की कविताएँ बहुत गहरे अर्थों वाली होती हैं। बड़ी बड़ी बातों को कितनी सहजता से कहा जा सकता है, यह इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है। सारी कविताएँ बहुत अच्छी हैं। बधाई

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