सरिता तिवारी की कविताएँ : अपने देश-काल का
जलता-धधकता दस्तावेज़
कात्यायनी
सरिता तिवारी के इस कविता संकलन के हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन हिन्दी साहित्य की दुनिया के लिए एक सुखद और लाभकारी घटना है। यह भी शायद भारतीय 'शॉवनिज़्म' से पैदा होने वाली आत्मग्रस्तता का ही एक नतीजा है कि सहस्त्राब्दियों से जारी सांस्कृतिक-सामाजिक सम्पर्क और नैकट्य के बावजूद हिन्दी-पट्टी का बुद्धिजीवी समुदाय नेपाली साहित्य के समृद्ध इतिहास और सरगर्म वर्तमान से लगभग अपरिचित है।
बीसवीं शताब्दी में नेपाली साहित्य के आधुनिक युग की शुरुआत हुई और फिर नेपाली कविता तेज़ गति से क़दम बढ़ाते हुए विकसित हुई। हिन्दी की ही तरह नेपाली में भी रहस्यवाद, छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की धाराएँ प्रवहमान रहीं। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नेपाली कविता की वाम प्रगतिशील धारा तेज़ी से विकसित हुई। इसमें कवयित्री और लेखिकापारिजात का नाम सर्वाधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। 1960 के दशक से ही, राजनीतिक दायरे में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी धारा के उद्भव और विकास के साथ नेपाल की वाम प्रगतिशील कविता की धारा अपनी विभिन्न उपधाराओं और प्रवृत्तियों के साथ निरन्तर गतिमान रही है और परिपक्व होती गयी है।
विगत लगभग तीन दशकों के दौरान नेपाल ज़बरदस्त ऐतिहासिक उथल-पुथल और परिवर्तनों से होकर गुज़रा है। 1990 में व्यापक, जुझारू जनान्दोलन के बाद राजा वीरेन्द्र द्वारा नये संविधान और बुर्जुआ जनवादी बहुदलीय संसदीय प्रणाली की बहाली की घोषणा, 1995 में ने.क.पा. (माओवादी) द्वारा जनयुद्ध की शुरुआत और फिर 2007 में पुन: जनान्दोलन के दबाव के परिणामस्वरूप राजतन्त्र की समाप्ति इस दौर की युगान्तकारी घटनाएँ थीं। इस तूफ़ानी दौर ने नेपाल में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कई महत्वपूर्ण कार्यभारों को पूरा किया, लेकिन साथ ही, इस दौरान नेपाल के सशक्त कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में ''वामपन्थी'' और दक्षिणपन्थी (मुख्यत: दक्षिणपन्थी) विचलनों के कारण नेपाली जनगण को गहन विभ्रमों और त्रासद मोहभंगों से भी गुज़रना पड़ा। यह स्थिति आज भी मौजूद है। दिसम्बर 2017 के संसदीय और प्रान्तीय चुनावों में वाम गठबन्धन की भारी सफलता दर्शाती है कि जनता की उम्मीद भरी निगाहें अभी भी वाम शक्तियों पर ही टिकी हुई हैं। दूसरी ओर, इन सभी वामपन्थी शक्तियों के विचारधारात्मक विचलनों, सांगठनिक कमजोरियों व दुष्वृत्तियों और अतीत के राजनीतिक अवसरवादी आचरण के चलते क्षितिज पर आशंकाओं के बादल भी छाये हुए हैं। इतना तय है कि अपने प्रचण्ड बहुमत के बल पर, सत्तारूढ़ होकर वाम गठबन्धन एक क्रमिक प्रक्रिया में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के बचे हुए कार्यभारों को तो पूरा कर सकता है, लेकिन संसदीय मार्ग से समाजवाद की स्थापना सम्भव नहीं। न तो सिद्धान्त और न ही इतिहास की गवाही इसके पक्ष में है। नेपाल आज इसी चौराहे पर खड़ा है और भविष्य के दिशा-संकेत एकदम स्पष्ट नहीं हैं। लेकिन वहाँ कम्युनिस्ट आन्दोलन की जड़ें जितनी गहरी और आधार जितना व्यापक है,उसे देखते हुए किसी नयी, वेगवाही शुरुआत की उम्मीद पालने के पर्याप्त आधार हैं। इतिहास इसी तरह निरन्तरता और परिवर्तन के तत्वों के द्वन्द्व से आगे विकसित होता रहा है।
मैंने किंचित प्रसंगांतर करते हुए नेपाल के पिछले तीन दशकों के उथल-पुथल भरे इतिहास की, एक सन्दर्भ के रूप में याददिहानी का काम यहाँ इसलिए किया है क्योंकि इसी दौर में एक प्रखर विचार-सम्पन्न और सम्भावना-सम्पन्न कवि के रूप सरिता के सर्जनात्मक मानस का निर्माण हुआ है। न केवल उन्होंने एक आम निम्न मध्यवर्गीय जीवन की जद्दोज़हद के बीच नेपाली जन-जीवन की विडम्बनाओं-त्रासदियों को गहराई से देखा-भोगा है, बल्कि छात्र जीवन के दौरान छात्र युवा राजनीति की वामधारा में एक प्रखर संगठनकर्ता की भूमिका निभाते हुए नेपाली-राजनीतिक परिदृश्य की आलोचनात्मक पड़ताल का विवेक और साहस भी अर्जित किया है। और अब, विगत कई वर्षों से नेपाल के प्रगतिशील साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलन में वह एक नेतृत्वकारी संगठनकर्ता की भूमिका निभा रही हैं। विगत लगभग दो दशकों से वे कविताएँ लिख रही हैं और युवा कवियों तथा वामधारा के कवियों की अगली क़तार में उन्हें शुमार किया जाता है। समृद्ध और गहन अनुभव-सम्पदा ने उनकी कविताओं के व्यापक वर्णक्रम का निर्माण किया है। सरिता कुछ मायनों में पारिजात की परम्परा को आगे विस्तार देती प्रतीत होती हैं, लेकिन कई मायनों में उनकी कविता का एकदम अलग, अनूठा और मौलिक रंग है और नेपाली वामधारा की कविता में वे अपने ढंग की अकेली हैं - न केवल अर्न्वस्तु के वैविध्य और गहराई की दृष्टि से, बल्कि शिल्प के नवोन्मेष और नवाचार की दृष्टि से भी। हिन्दी के पाठक यदि नेपाली जन-पक्षधर कविता की समृद्ध परम्परा से और कम-से-कम गोपाल प्रसाद रिमाल,पारिजात, भूपी शेरचन, मोदनाथ प्रश्रित, आहुतिआदि कुछ चर्चित नामों के कृतित्व से भी परिचित होते,तो इस बात को आसानी से समझ सकते थे। लेकिन अफ़सोस!
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हिन्दी की ही तरह नेपाली प्रगतिशील वाम कविता में भी अलग-अलग समयों में कभी मध्यवर्गीय,रूमानी, अराजक विद्रोह के स्वर तो कभी अतिवामपन्थी नारेबाजी के स्वर उभरते रहे हैं। विगत दो दशकों के दौरान नवरूपवादी विचलन और उत्तर-आधुनिकतावादी विचार-सरणियों की प्रभाव-छायाएँ भी प्राय: देखने को मिलती रहीं। इन सबके बीच सरिता तिवारी की कविताओं में हमें ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान का विलक्षण संवाद, विचारों के गुरुत्व और भावनात्मक आवेग के बीच विरल द्वन्द्वात्मक सन्तुलन देखने को मिलता है। उनके उग्र परम्पराभंजक और विद्रोही स्वर को हमेशा सत्यान्वेषण की वैज्ञानिक दृष्टि से एक सन्तुलन मिलता है, जो उनकी कविता को शब्दस्फीति और अर्थस्फीति से बचाता है और कभी'लाउड' नहीं होने देता। प्रकृति से उनकी कविता विषयनिष्ठ ('सब्जेक्टिव') और संवादधर्मी है, जो पाठक को नसीहत देने या पाठ पढ़ाने की जगह चीज़ों से आलोचनात्मक रिश्ता बनाने को उकसाती है। उनकी कविता के गुण-धर्मों को कुछ हद तक इन शब्दों में भी बयान किया जा सकता है :
रात की काली चमड़ी में
धँसा रोशनी का पीला नुकीला खंजर।
बाहर निकलेगा
चमकते, गर्म, लाल
ख़ून के लिए
रास्ता बनाता हुआ।
(शशि प्रकाश : 'कठिन समय में विचार')
हर अच्छे और मौलिक कवि की तरह सरिता ने कविता का अपने ढंग से आविष्कार किया है और इसलिए उनकी कविता अपने ढंग से जीवन-स्थितियों और भाव-स्थितियों का अर्थ संधान करती प्रतीत होती है। वह अन्य भाषाओं के साहित्य की भी जिज्ञासु अध्येता हैं और हिन्दी के सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,रघुवीर सहाय, धूमिल, गोरख पाण्डेय, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, आलोक धन्वा आदि से लेकर पंजाबी कवि पाश तक के कृतित्व से सुपरिचित हैं। समकालीन हिन्दी कविता पर भी उनकी गहरी नज़र है। लेकिन उनकी सर्जनात्मकता किसी की प्रभाव-छाया में,या अनुकरण करती हुई नहीं विकसित हुई है, बल्कि श्रेष्ठ कविता के संघटक तत्वों को वे निन्तर संश्लेषित करके रचाती-पचाती प्रतीत होती हैं। पाब्लो नेरुदा ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था : ''…मैं चाहता हूँ कि अपने लहज़ों को बदलता रहूँ, तमाम आवाज़ें पाऊँ,तमाम रंगों की तलाश करूँ, और जहाँ कहीं भी जीवन-शक्तियाँ रचना या विनाश में लगी हों, उन्हें देखूँ।''उत्कण्ठित आतुरता की यह प्रवृत्ति सरिता में भी कहीं-न-कहीं मौजूद है और इसीलिए वह अपने समय और समाज के यथार्थ के विविध रंगों व ध्वनियों को पकड़ने व अपनी कविता में उपस्थित करने की कोशिश करती रहती हैं। यह काम नेरुदा के ही शब्दों में, वह''जलते हुए धैर्य के साथ'' करती हैं और ''अपने रक्त और अन्धकार से'' कविताएँ लिखती रहती हैं, ऐसी सच्ची कविताएँ जिनके बारे में पाश ने कहा था कि वे''कभी भी क़लम पकड़कर धोखे से की गयी नक़्शतराशी'' नहीं होतीं और, ''हर सच्ची कविता के पीछे यह संकल्प होता है कि उसे कभी चुप नहीं होना''(पाश की डायरी)। नेरुदा ने एक बार कहा था कि हमें वैसी मलिन कविताओं की ज़रूरत है जो मानवीय स्थितियों की विह्वल मलिनता से मैली हो गयी हों। सरिता को भी उन चन्द युवा कवियों में शुमार किया जा सकता है, जो चमकदार बिम्बों और जादुई रहस्यमय,अलौकिक रूपकों के शॉपिंग मॉल में भागते-दौड़ते कवियों की भीड़ में ''मैली कविता'' के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अक्षुण्ण बचाये हुए हैं। कविता की शक्ति चमकदार बिम्बों-मुहावरों और बारीक रेशमी कतान में नहीं होती है, बल्कि जीवन की साधारणता और मलिनता को परावर्तित करती साधारणता और मलिनता में होती है। यूनानी महाकवि ओदीसियस इलाइतिस ने लोर्काको याद करते हुए अपने गद्यगीतनुमा स्मृतिलेख में यह सर्वथा उचित ही लिखा था : ''महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप चमकदार मुहावरों को ढूँढ़ते हुए किताब के पन्ने पलटें बल्कि ज़रूरी यह है कि आप अपने आपको एक ऐसी ताक़त के साथ एकात्म महसूस करें जो आपको पेड़ की जड़ों तक ले जाये, जिससे आप दर्द से भरे चेहरों का स्पर्श कर सकें और अपने लोगों की नसों में उस ताक़त का संचार कर सकें, महत्वपूर्ण यह है कि आप एक कवि के साथ अनन्त, अनगढ़ और थरथराते हुए विश्व में यात्रा कर सकें, कुछ इस तरह की अनुभूति के साथ जो आपने अपने बचपन में महसूस की होगी।''
*
शब्द के व्यापक अर्थों और निहितार्थों में सरिता तिवारी की कविताएँ राजनीतिक कविताएँ हैं। वे इन अर्थों में राजनीतिक नहीं हैं कि सिर्फ़ प्रत्यक्ष राजनीति को ही अपना विषय बनाती हों। उनका व्यापक इन्द्रधनुषी विस्तार जीवन के हर रंग और आयाम को छूता है, लेकिन हर जगह एक स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि सजग और सक्रिय रहती है जो सरिता की इस समझदारी की द्योतक है कि वर्ग संघर्ष भरे समाज में मनुष्य के भौतिक-आत्मिक जगत का कोई भी कोना राजनीति से अछूता-अप्रभावित नहीं रह सकता क्योंकि राजनीति का क्षेत्र ही वर्ग संघर्ष की केन्द्रीय रणभूमि होता है। ग़ौरतलब है कि कविताओं का विषय जहाँ सीधे राजनीति है, वहाँ भी भरपूर आवेग के बावजूद नारेबाजी, सपाटबयानी,वाचालता या अतिकथन नहीं है, यूँ कहें कि, कविता की शर्तों का परित्याग नहीं है।
सरिता की कविता कई बार कोई सामान्य-सी बात सीधे-सादे तरीक़े से शुरू करती है और फिर उसे अप्रत्याशित मोड़ देते हुए सामयिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर चुभते हुए ज्वलन्त प्रश्न खड़े कर देती है। उदाहरण के तौर पर 'पेट'कविता को लिया जा सकता है जो शुरुआत यहाँ से करती है कि सारा विचार-मन्थन निरर्थक है यदि भूख का बुनियादी सवाल हल न हो। तब''सपनों का पिरामिड अस्थिपंजर के साथ ही धूसरित''हो जाता है ज़मीन में। वे कहती हैं :
''विचार का समुद्र लेकर चलने के बावजूद भी
ख़ाली होने के बाद पेट
मिला है भूख के उत्कर्ष में
नया बोधिसत्व।''
और अन्त में कविता एक मोड़ लेती है और उस क्रान्तिकारी वाम नेतृत्व को चुनौतिपूर्ण ढंग से कटघरे में खड़ा करती है जो जनता की रोटी और इंसाफ़ के बुनियादी मुद्दों को हाशिए पर डालकर संसदीय राजनीतिक विसात पर गोटियाँ खेलने में मशगूल है :
''प्रिय सुप्रीमो!
प्रिय कामरेड,
क्या सोच रहे हो तुम
क्या ख़त्म हो गया युद्ध का मौसम?
मैं तो अभी तक युद्धरत हूँ
जीवन के कठोर सुरंग युद्ध में
अभी तो मैंने
छोड़ा नहीं है हथियार''
('पेट')
नेपाल में राजतन्त्र का ख़ात्मा और गणतन्त्र की बहाली नेपाली क्रान्ति की एक ऐतिहासिक उपलब्धि है,पर यह गणतन्त्र एक बुर्जुआ संसदीय गणतन्त्र ही है,जनता का जनवादी गणतन्त्र नहीं है। ऐसे में, नेपाल के क्रान्तिकारी वाम नेतृत्व के पतन और विचलन ने क्रान्ति की अग्रवर्ती यात्रा को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। सरिता एक ऐसी विरल-विचार सजग कवि हैं जो इन विचलनों की अपनी तीक्ष्ण, साहसिक आलोचनात्मक दृष्टि से अनावृत्त करती हैं। गणतन्त्र की स्थापना के बाद नेपाल में कई गठबन्धनों ने शासन किया और इनमें से कई में क्रान्तिकारी वाम की भी भागीदारी रही, पर सत्ता का स्वाद चखते ही इस धारा की राजनीतिक संस्कृति में भी बुर्जुआ पतनशीलता आयी जिसे लक्षित करते हुए'हूबहू' कविता में सरिता लिखती हैं :
''पुराना जैसा
हूबहू
वैसा ही दिखता है
गणतन्त्र का नया शासक''
विचारधारात्मक भटकाव और विपथगमन के साथ राजनीतिक संस्कृति में होने वाले पतन को वह'झण्डा' कविता में और अधिक मुखर अभिव्यक्ति देती हैं :
''जब विचार होते जाते हैं हल्का-हल्का
धीरे-धीरे भारी होता जाता है झण्डा
उतरते-उतरते सारे वस्त्र
बाक़ी है केवल खाल
कुख्यात सम्राट के नये पोशाक जैसा
निकलने के बाद सीने से
निष्ठा नाम का अमूर्त पदार्थ
पहले ही खो गये थे
शौर्य और सौन्दर्य से बने हुए भूमिगत नाम
और भूमिगत हुए हैं तकिए से
वाल्युम वन,
वाल्युम टू... थ्री... फ़ोर
प्रगति प्रकाशन मास्को के महत्वपूर्ण दस्तावेज़
रहस्यमय शैली में
स्टार होटल के आँगन से ही खोया था
वहाँ तक पहुँचाया गया झोला
थे अभी तक झोले में
मानव जाति का अन्तरराष्ट्रीय गान
और सितारा-जडि़त टोपी के नीचे
आजन्म मुस्कराकर न थकने वाले
जोशीले चे की बायोग्राफ़ी
उसी के अन्दर सँजोकर रखी हुई
अवतार सिंह पाश की 'सबसे ख़तरनाक'कविता
और था 'दास कैपिटल'
अचानक ग़ायब होकर झोला
भारी-भारी चीज़ खो जाने के बाद
फूल जैसे हल्के हुए हैं कामरेड
लेकिन किस चीज़ ने दबा रखा है इन दिनों?
किसका ऐंठन है यह?
झण्डे का?
ठीक इसी वक़्त
सोचमग्न है कामरेड
सौ-सौ टन के बोझ से भारी
जल्दी ही बदलना पड़ेगा यह झण्डा
और अंकित करना होगा नये झण्डे में
गुलाब या लिली फूल का चित्र।''
लेकिन नेतृत्व का यह विपथगमन नेपाली क्रान्ति की सुदीर्घ, गौरवशाली यात्रा का अन्त नहीं है। नेपाली जन-गण की मुक्ति-संघर्ष-यात्रा के अग्रवर्ती विकास के प्रति कवि का आशावाद अभी भी अक्षुण्ण है। इसीलिए, 'विजेता' कविता में वह लिखती हैं :
''कुछ भी नहीं है दुनिया में
मन से बड़ा और स्वप्न से आगे
कोई छीन नहीं पायेगा तुमसे
कोई लूट नहीं पायेगा
केवल तुम्हारे हैं
तुम्हारे तय किये गये लक्ष्य
और जब तक बाक़ी है
इन्सान होकर जि़न्दा रहने का लक्ष्य
होगे तुम सदा
विजेता।''
एक लम्बे क्रान्तिकारी संघर्ष में आये गतिरोध और विघटन की साक्षी और भोक्ता होने के बावजूद निराशा में डूब जाना और किनारे बैठ जाना सरिता के कवित्व की फि़तरत नहीं। उनका आशावाद वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि और जन-संघर्षों में भागीदारी से प्रसूत है,इसीलिए उनकी कविता ''जनसंग ऊष्मा'' (मुक्तिबोध के शब्द) से आप्लावित रहती है और जिजीविषा और युयुत्सा हमेशा उसके केन्द्रीय स्वर बने रहते हैं। स्थिरता से वितृष्णा और निरन्तर गतिमान बने रहने का यह दुर्निवार आग्रह हमें उनकी 'स्थिर-एक' और 'स्थिर-दो'जैसी कविताओं में सशक्त रूप में और कलात्मक सौष्ठव के साथ अभिव्यक्त होता दीखता है।
यदि हम समकालीन हिन्दी कविता की वाम जनवादी धारा पर नज़र दौड़ायें तो वहाँ महानगरीय मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों-विडम्बनाओं-त्रासों के दृश्यचित्रों की तो बहुतायता है, लेकिन शहरी और ग्रामीण आम मेहनतकशों के जीवन, संघर्ष और स्वप्नों की उपस्थिति प्राय: सिकुड़ती चली गयी है। सामान्य जन-जीवन के चित्र यदि आते भी हैं तो वे एक'आउटसाइडर' पर्यवेक्षक द्वारा उकेरे गये खोखले सहानुभूतिपरक चित्र होते हैं, या फिर लोकवाद (पॉपुलिज़्म) की अतीतजीवी रागात्मकता में लिथड़े हुए प्रकृतिवादी (नेचुरलिस्ट) चित्र होते हैं। सरिता ने नेपाल के गाँवों-क़स्बों के आम शोषित-उत्पीडि़त मेहनतकशों के बहिर्जगत और अन्तर्जगत को नजदीक से देखा-जिया है और उनके साथ तदनुभूति की दुर्लभ समता हासिल की है। इसीलिए उनकी 'आदिवासी', 'दुखवा! तोर नाउँ कथि हलही?', 'डेली में मछली' और 'अंगोछिया'जैसी कविताओं में उत्पीडि़त सामान्य जन के जीवन की मार्मिक, प्रामाणिक, तलस्पर्शी तस्वीरों के साथ ही जिजीविषा और युयुत्सा की कौंधें भी देखने को मिलती हैं।
संघर्षों के दौरान राज्यसत्ता के उस बर्बर दमन की स्मृतियाँ सरिता के कवि-मानस को 'हॉण्ट' करती रहती हैं, जिसका शिकार होने वाले हज़ारों लोगों में उनके कई कामरेड, सहेलियाँ और परिचित भी शामिल थे। सरिता इस पीड़ा और शोक को शक्ति में बदलकर इस्पात की क़लम को रक्त में डुबोकर 'भागते-भागते नीली आँखों से' जैसी अग्निधर्मी कविताओं का सृजन करती हैं। अपराजेय प्रतिरोध और अमिट जिजीविषा की यही आग हमें उनकी 'जीभ', 'पुतला', 'कालान्तर निद्रा के बाद', 'मत गाओ कोई शोकगीत', 'युद्ध का सौन्दर्य', 'प्रतिरोध' जैसी कविताओं में अलग-अलग रूपों में दीखती है और जीवन-संघर्ष-स्वप्न-सृजन की कुण्डलाकार गति के बहुवर्णी चित्रों का एक इन्द्रधनुषी वितान रचती है।
नव उदारवाद और भूमण्डलीकरण के दौर ने अन्धकारमय जीवन की छाती पर जिस तरह से चमक-दमक भरी बर्बर सभ्यता का निर्माण किया है, जिस तरह से उसने बाज़ार की एक नयी वर्चस्ववादी भाषा और संस्कृति को जन्म दिया है और जिस तरह से उसने यातनाओं के सागर में जग-मग ऐश्वर्य-द्वीपों का निर्माण किया है, उसे भी एक समय-सजग कवि के रूप में सरिता दृष्टि-ओझल नहीं होने देतीं। इस सन्दर्भ में उनकी'बाज़ार के विरुद्ध' और 'काठमाण्डू' जैसी कविता विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं।
कात्यायनी |
पाश की ही तरह सरिता भी कविता को शब्दों का खेल बनाने वाले दुरंगे, कैरियरवादी कवियों से दिल की गहराइयों से घृणा करती हैं ('शब्दों से खिलवाड़')। दुनियादार लोग कविता के नाम पर शब्दों की बहुरंगी,रेशमी चादर बुनते हैं, जबकि सरिता का मानना है कि सच्ची कविता लिखने के लिए परम्पराभंजक होना,परिणतियों से बेपरवाह होना और (दुनिया की निगाहों में) ''पागल' होना ज़रूरी है :
''जब मैं पागल होती हूँ
भागते हैं मुझसे सभी भय
युद्ध में निकले हुए सिपाही जैसा
जानती हूँ मैं ऐसे वक़्त
मरने और जीने की आधी-आधी सम्भावना
नहीं रहता है कुछ भी याद
लोगों की उपेक्षा,
जैसे खदेड़ा जाता है आवारा कुत्ता
वैसे ही
मुझे खेदता हुआ समाज
तख़्त से लटकाकर
फाँसी की रस्सी खींचने के लिए तैयार
जल्लाद जैसा राज्य
अभी-अभी बोलना सीखे हुए बालक जैसा
मेरे प्रत्येक शब्द में होते हैं
बहुसंख्यक लोगों की समझ न आने वाली
लेकिन मेरी समझ का सच
हाँ
ऐसे पगलाने की पराकाष्ठा में
लिख रही होती हूँ
कविता
मेरे सकुशल साथियो!
इस दुनिया में पागल होने से सुन्दर चीज़
और क्या हो सकती है?
(‘जब मैं पागल होती हूँ’)
कविता में विद्रोह की इस आग को सुनिश्चित दिशा देने में विचार की भूमिका के बारे में सरिता एक तपे-मँजे कम्युनिस्ट की तरह सदा सजग बनी रहती हैं। वे मानती हैं कि ‘'बोये जाने के बाद हृदय में विचार की जड़ें/चाहकर भी नहीं हुआ जा सकता/विचारहीन’’, और यह कि कहीं नहीं मिलती है ‘’विचार दंश की दवाई’’(‘विचार’)। ये विचार ही है जो इंसान की कनपटी (कंचट) में लगातार खौलते रहते हैं और चतुर्दिक व्याप्त अन्याय के विरुद्ध विद्रोह को दिशा देते हैं। इसीलिए,
‘’इस राज्य के लिए सबसे अराजक काम है सोचना
लेकिन देश के शासकों को मालूम है कि नहीं
इस समय सड़क में
गुत्थी पड़े हुए घने भाप के गुम्बद जैसी
ख़तरनाक चीज़ को लेकर कंचट के अन्दर
विस्फोट की तैयारी में चल रहा है
एक मामूली आदमी!
(‘ठण्ड का एक दिन’)
एक मुक्तिचेता स्त्री और एक मार्क्सवादी – दोनों ही रूपों में सरिता का यह दृढ़ संकल्प ‘पुतला’ कविता में भी म
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