15 नवंबर, 2018

प्रद्युम्न कुमार की कविताएं


प्रद्युम्न कुमार



वे शब्दों के संवाहक

वे शब्दो के संवाहक
वाग्जाल उनकी ताकत
वे अपनाते हैं व
मोह माया के हथियार
धरम करम की माला उनकी
माथे पर फकीरी
झलकती
राहु़ केतु से
ढोर ढंगर
तकुए से नथुने उनके
जार जार बोली उनकी
वे शब्दों के संवाहक
शब्दजाल उनकी ताकत
भांति भांति के उनके
हथकण्डे
ध्वजा थाम लहराते
शिखा संग अलके लहराती
जैसे दीपक संग लहराता
दीप पतंगा
सहज में भी वे अचरज
भरते
नूतन की नव आहें भरते
वे शब्दो के संवाहक
वाग्जाल उनकी ताकत
खरे वक्त की उतको पहिचान
मनकों में भी सीस भरते
रंग विरंग उनके रक्षक
भाँति भांति की उनकी थाती
परिधान में शक्ल छुपाते
अपनो संग अपनी गाते
वे शब्दों के संवाहक
वाग्जाल उनकी ताकत





वर्जनाओं के विरुद्ध

तुम्हारी वर्जनाओं के
विरुद्ध
तनी हुई मुट्ठियों में
अभी भी इतनी सामर्थ्य
बची है
कि भर सके
तुम्हारे विरुद्ध
हुंकार
और दर्ज करा सके
अपना प्रतिरोध
यद्यपि तुम्हारी अकड़न को
यह स्वीकार नहीं
बावजूद इसके
भिची हुई चबुरियां और
तनी हुई मुट्ठियां
कर देगी तुम्हारे विरुद्ध
इकबाल बुलन्दी का
जयघोष
तुम्हारी क्रूरताएं भी
रोक नहीं सकती
हक के लिए बढते हुए कदम
अब फैसला तुम्हारे
हाथ में है
कि बचे हुए समय में
जमीनदोज होती
आस्मिताएं बचाने का
प्रयत्न करते हो
या फिर घुटकर
दम तोड़ने के लिए
छोड़ देना चाहते हो ।





 एक हारा हुआ व्यक्ति

एक हारा हुआ व्यक्ति
जीत के स्वप्न
देख सकता है
उन्हे पूरे करने का
प्लान बना सकता है
लोगों को भरोसा दिलाने का
पूर्णप्रयास कर सकता है
अपनी इच्छाएं आकांक्षाएं
गुप्त रख सकता है
अपनी कमजोरियां
छिपाने के सारे प्रयास
कर सकता है
लेकिन वह सुकून से
बैठ नहीं सकता है
क्योंकि हार का दंश उसे
बैठनेने नही देता
और पूर्व की खुशी
उसे जीने नही देती







पैदल चलता आदमी

पैदल चलता आदमी
मात्र पैदल नहीं चलता
उसके साथ चलते हैं
विचार
जैसे कल कल करती
नदी बहती है
दो पाटों के बीच
अपन अन्दरे समेटे
होती है
ढेर सारी खुशियां
और बहुत से अनचीन्हें
अनसुने दर्द
जो किये रहते है
उसे आडोलित
जिससे बना रहे
पैदल चलने का महत्व
और चलता रहे
विचारों का कारवां
जैसे प्रश्नों के साथ चलते रहते हैं
उनके उत्तर ?
और उत्तरों के साथ चलते हैं
अनुत्तरित प्रश्न
जिन्हे अब तक समझा
जाना बाकीं है




 घेरों के कोने में


घेरों के कोने में
प्रवेश कर चुका है
घना अंधेरा
मुश्किल हो गया है
चेहरों के भावो को
समझना
और उत्पन्न हो गई है
असमंजस की स्थिति
क्या करें क्या न करे
कैसे सोये, कैसे जागे
यह विवाद से अधिक
समझने का विषय है
हंसने और रोने
के मध्य स्थापित कर सकें
नये आयाम
क्योंकि घेरो के कोने मे
 प्रवेश कर चुका है
घना अंधेरा
किन्तु अभी भी बाकी है
जिनसे निबटना अभी




सूरज की सुनहरी किरणों से


सूरज की सुनहरी किरणों से पूर्व ही
शुरू हो जाता हैं
खगों का कोलाहल
रंभाने लगते हैं
दुधारू गायें और उनके बछड़े
खेतो में जाने को
उत्सुक होने लगता है
कृषकवीर
और खुश हो जाती हैं
बूढी मांयें
डरावनी लम्बी रात्रि के खत्म होने पर
चहकने लगते हैं
आंगन के चक्कर काटते
मासूम बच्चे
खुशी से फूलकर कुप्पा हो उठती है
कोने में दुबकी वैठी बिल्ली
सुनाई देने लगता है
एक ऐसा स्वर
जो हमेशा ही रात्रि के मौन के पश्चात
सूबह होने पर सुनाई देता
व्यक्त में अव्यक्त को समेटे हुए








 क्या था उनका उषा काल


क्या था उनका उषाकाल
उन्होने कभी नहीं सोचा
उन्हे जरूरत ही क्या था
उनके लिए तो सदा
ऊषा काल ही रहा
इसी दम्भ में
सूरज की तपती धूप
माघ महीने की
कड़कड़ाती ठंडक भी
उन्हे मात्र फ्कृति के खेल लगे
जिन्हें उन्होने टीबी स्क्रीन पर
बल्लों से निकलते रनों की तरह
महसूस किया
और खेल समाप्ति पर
पटाखे फोड़ कर
इतिश्री कर ली
और इस प्रकार वय के
सांध्य काल तक पहुंच गये
जहाँ से याद आते है
ऊषा काल के सुनहरे पल
और याद आते क्रिकेट के
बल्लों से निकलते रनों जैसे
लोग



 मुखर होने लगी हैं


मुखर होने लगी हैं
सदियों से ओढी चुप्पियां
रात के घने अंधेरे में
ओढा दी गईं थी
सुबकती सिसकियों को
अभिमान था अपने पौरुष का
जिससे ढांक सकते हैं
रसूख की चादर से
खुद के कृत्य को
जिसे किसी भी तरह
नहीं कहा जा सकता
नैतिक
उन्हे खुद से भी अधिक
भरोसा था
अपनी बलवती सभ्यता पर
जिसने आदिम काल से
बख्श रखा है
अजेय शक्ति जिसके समक्ष
हमेशा से नतमस्तक होने को
विवश हैं स्त्रियां
रोने और बिसुरने की स्थिति
में प्रयोग किया जाता रहा है
कुलटा घोषित करने का भय
जिसकी आड़ में
हमेशा से फूलता और फलता रहा
स्त्री विमर्श
गली मुहल्ले राह चलते
प्रलोभनों की खेप के सहारे
घायल की जाती रहीं देवियां
समय बदल रहा
अपनी करवट
अब जवाब देना होगा
अहिल्याओ, सरस्वतियोंं,
सीताओं के स्थान पर
इन्द्रों,चन्द्रभाओं,गौतमों,ब्रहमाओं
और रामों को
अब वे बच नहीं सकते
नशे और द्यूत के नामों से
क्योंकि मुखर होने लगी हैं
सदियों से ओढी चुप्पियां
जो तुम्हारी चुनौतियों का
जवाब देने पर आमादा हैं
उन्हे और अधिक समय तक
रोक पाना
तुम्हारे बस में अब नहीं रहा





अगर बचाई जा सके

अगर बचाई जा सके
तनिक भी नैतिकता
तो कोशिश अवश्य करना
बचाने की
इस विषम समय में
जब बेताब हो
बड़े बड़े भी
नंगे होंने के लिए
तुम्हे जरूरत होगी
ओढी दसाई नैतिकता की
यद्यपि यह आसान न होगा
फिर भी तुम्हे करना होगा
सतत प्रयास
जिससे बची रह सकें
नैतिकताएं और निष्ठाएं
समय के सापेक्ष

प्रद्युम्न कुमार सिंह आत्मज श्रीकन्हाई लाल सिंह
प्रवक्ता हिन्दी श्री जे० पी० शर्मा इण्टर कालेज बबेरू बांदा
साहित्यिक अवदान -
सम्पादित पुस्तक - युग सहचर -सुधीर सक्सेना,
समकालीन पत्र पत्रिकाएं गाथान्तर, लोक विमर्श, लो कोदय, आकण्ठ, गोलकुण्डा दर्पण, कृति ओर, स्वाधीनता , लहक, जनपथ,रस्साकस्सी, माटी, आदि एवं पहली बार ब्लाग, अक्षत, लोक विमर्श ब्लाग, आदि

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