02 दिसंबर, 2018

मधु सक्सेना की कविताएँ 





मध् सक्सेना 




 अधूरे की पूर्णता 


अधूरी होती है हर कविता
हर गीत और ग़ज़ल भी

आखिरी पैरा कभी लिखा नही जाता
इंतज़ार होता है गीत के अंतिम बन्ध का
ग़ज़ल तरसती रहती अपने आखिरी शेर को

प्रेम के ये अद्भुत रूप
नही मिलते अंतिम छोर को
नही मिल पाता दूसरा किनारा

किनारे की बालू की नमी प्रेम का आरंभ
और मझधार डुबोने को आतुर
डूबने और उबरने से परे
क्षितिज पर उगा
रंगहीन चाप में एक रंग बन जाना होगा
अपूर्णता में पूर्णता को संवारना होगा

अपनी अधूरी रचना को
डबडबाई आँखों से निहार कर
भीच लेना कलेजे में
करके देखना ..
शायद यही प्रेम है ......





प्रेम का अंतिम चरण 

जो मन मे था
वो कहाँ लिख पाई
बहती नदी का वेग ही सम्हालने में लगी रही
नदी के साथ ही बह जाती तो मुक्त हो जाती

तुम्हे सोचती रही ...आँखो में भरती रही
सारी आराधनाएं रीती रही
कह ही नही पाई

धरी रह गई प्रार्थनाएं
प्रेम में रहे को कुछ दिखता भी तो नही
ईश्वर को पा चुकी थी फिर भी खोजती रही ..

प्रेम के उद्दात्त उछाल में प्रफुल्लित हुई
पर डर भी गई थोड़ा सा ..
वक़्त के हाथों कसी हमारी डोर
ये तो पता है
पर नही पता प्रेम का अंतिम चरण

क्या होता है सबसे महत्वपूर्ण ?
क्या है सत्य ....
प्रेम को खुद में रख लेना या
प्रेम में खुद को रख देना......?







प्रेम का स्वाद 

खेत से लौटते हुए
तुम्हारे पसीने से तरबतर देह की सुगंध
मुझे अलग ही लोक में ले जाती है ...

पसीने की बूंदों को
अपनी उंगलियों की पोर रख कर
कुछ बूंदें उछाल दी है समुद्र में ..

कुछ बूंदे समेट कर
धरती पर टपका दी

कुछ बूंदों ने खेतो में जगह पाई
और कुछ बूंदों को मैंने अपनी आँखों मे रख लिया .

खारा हुआ सागर ,धरती ने नमक उपजाया
आंसुओ में दुख ने पनाह ली ..

स्वाद घुल गया .. अन्न में ,पानी मे
रोटी में और रिश्तों में ..

जब तक पसीना है
प्रेम का स्वाद बना ही रहेगा .....




 खबर 

खबरों का अलग ही होता है
अपना वज़न
कभी, बिना हाथ पैर लिए
उड़ पड़ती है हवा की तरह
इतिहास बदलती, कभी भूगोल ....

सतयुग से लेकर कलयुग तक
खबरों ने लड़ी लड़ाइयां
खबरों ने ही मारा रावण को
पन्ना धाय ने उजाड़ दी अपनी कोख
मीरा पी गई विष
चिनाब की गोद मे सो गई सोहणी
क्लाइव की मुठ्ठी में आया बंगाल ....

खबरों ने ही घर तोड़े
अपनों को किया बेगाना
बच्चे बेधर हुए और
आनन्द धाम के बहे आँसूं

खबरों में ही सांई बाबा की तस्वीर रोई
गणेशजी पी गए दूध
इंसान बन गए ईश्वर
बार बार बनी बिगड़ी धर्म की परिभाषा ..

खबरों की खबर कौन ले
सच झूठ को कौन आंके
बिना जड़ के फैली इस अमरबेल का
मुश्किल है सच जानना ..


पर सच तो कुनमुनाता है
खोज रहा बाहर आने की राह ..

कविता ही पाएगी खबर का सच
कभी मासूम बनकर
कभी आक्रोशित होकर.
थाम लेगी हाथ
जकड़ लेगी पांव ..

हृदय की शिराओं में बहते हुए
दे देगी सांत्वना
अपने विस्तृत आकाश में चमक भर
उतार रही धरती तक
उम्मीद की एक सरल रेखा ...

..दोस्तों ...!!
ये मात्र खबर नही सच है ......



पता भी तो नही

मेरे अहसासों में कुलबुलाया
एक बीज था ...
अंकुरित हुआ
मन की माटी को हटा कर
कहाँ से लिया पानी ,हवा और खाद ?
किस क्षण मुझे चुना
पता भी तो नही ........

चाँद को साक्षी बनाया
नदी- नदी की छाती में उतरा
आकाश- आकाश पाँव- पाँव चला
सांसों में घुल गई सांस
कौन सी सांस मेरी ,कौन सी उसकी
पता भी तो नही ......

एक माटी का दिया जला
चौक पूरे गए
द्वार पर बजी नोबत
कंठ महक उठे
हाथ फैला दिए दुआओं और आशीषों ने ...
गदगद हुआ मन ,गर्वित भी
प्रेम के किस क्षण ने
विराट रूप पाया
पता भी तो नही .....

नही पता होने में भी
इतना सुख भरा होता है
ये बात किसी को
पता भी तो नही ...





असमंजस 

किस पेड़ की हवा से सांस ली
किस बादल के पानी ने प्यास बुझाई
सूरज की कौन सी किरण ने ऊष्मा दी
किस रात के चाँद ने कविता लिखवाई
किस खेत के अनाज से भूख मिटी
कभी जान सका है कोई ..?

अपने ज्ञानी होने का दम्भ लिए
लिंग,जाति, धर्म और देश में भटकता रहा
पानी को याद रखा, बादल को भूल गया
भूख को याद रखा, किसान का पसीना भूल गया
भूल गया धरती, आकाश और समुद्र
सिर्फ लकीर पर लकीर खींचने में लगा रहा
खिंचते रहे जबड़े ,फड़कते रहे नथुने
उभरती रही चीख ,बहता रहा खून

अपने होने को मिटा देने को आतुर
भीड़ के बीच
निर्णय की घड़ी में भी
असमंजस में खड़ा रहा कवि ......








 आधिपत्य 

मौसम गुजर गए
बहारें बह गई

रातें चिन्दी चिन्दी हो गई
दिन को थेगले लगा कर ढांप लिया खुद को
रात फिर ढीठ बालक की तरह
उधेड़ देगी यादों के धागे ..

कोई आस अधूरी सी टपकती है
मन की दरार से
कोई सांस अधूरी सी थम जाती है
जीवन की आस लिए ...

चाँद अब किस मुंह से चमके
तारे किस आकाश को थाम कर टिमतिमायें
नदी किस पांव से चले
बिना मुट्ठी रेत कहाँ से फिसले .....?

मूक रुदन का हलफनामा बना कर
ज़िन्दगी के नोटरी ने ठप्पा लगा के
पेश कर दिया न्यायालय में ..

अब तो फैसला भी हो गया
आँसू अब से मेरी निजी सम्पत्ति
और दुख पर मेरा आधिपत्य ...



 सांझ 

जब जाने की तैयारी करता सूरज
अपनी जोगिया चादर बिछा कर
सांझ को बिठा देता उस पर
झील में अपना अक्स देख
खिलखिला उठती सांझ ....

सांझ की भरी भरी हँसी
भर देती हर कोना
चुलबुला जाता मन ...

कभी दोस्तों के आने की खबर
नकली भूख मांगती पकोड़े ,चीले या गुलगुले
या बन जाती पल भर में सिनेमा की योजना
या चल पड़ते ब्रजवासी की चाट खाने ..

भारत भवन में आगे की पंक्ति बैठ
अमजद अली का सरोद सुनते करीब खिसकते जाते
या चरणदास चोर को देख हँसते
लाहौर की गलियों की सैर करते
या विभाजन की त्रासदी रुला देती ।

बारिश में बादल जब धुंए के रंग में
सुनहरी किनारी टांक कर इतराता
भुने भुट्टे का स्वाद और खुशबू
छप्पन पकवान को भी हरा देता ...


क्या हो गया इस सांझ को अब
न तुम हो ,ना इसका खिलखिलाना
उदास सी ये सांझ एक कोने में पड़ी
अपने गुज़रने का इंतज़ार करती है ...

गुज़रने का अहसास भी
कभी -कभी
सुकून बन जाता है .....




 चुप का शोर 

तुम कहना नही चाहते
मुझे ख्वाहिश है सुनने की

ऊब होती है तुम्हारी चुप से
अब तो खुद के बोलने से भी ..

ओढ़ ली ,बिछा ली ढेर सारी ऊब
इंतज़ार पसरा है .....
झरोखे से लेकर अटारी तक
चौके से लेकर गैल तक ..
चुप का शोर
धीमे धीमे बढ़ रहा ....





 पिता

पिता कभी भी नही रुकते
जाते ही है ...
जल्दी, कभी थोड़ी देर से
कभी अचानक या बहुत बीमार होकर
कभी कह देते मन की ..
या मौन को रख लेते तकिए के नीचे ...

पिता जाते जरूर है
पर मुड़कर देखते भी है

स्मृतियों को वर्तमान में
स्थापित करता समय
पिता की झलक दिखा ही देता है ..

नही जा पाता कोई भी पूरा
न पूरा रह पाता है ..
समय की झीनी चादर में से
चमक उठती है कभी वे दो आंखे
उठ जाते है हाथ
चल पड़ते है पाँव
या किसी भी कंठ से
बोल उठते है पिता ...

जाना तय है
किसी में रह जाना तय नही ....

पता नही ...
अपनी दिव्यता सहित
कब किस देह में पल भर को भी
उपस्थित हो जाए विदेह पिता ......





बहुत दिनों बाद 

बहुत दिनों बाद
स्वीकार किया तुमने मेरा होना

मैं जान रही थी सब
कह नही रही थी
तुम समझ रहे थे सब
कह नही रहे थे ..

तुम्हारे चुप के स्पर्श से भीगती रही मैं
मुस्कराते रहे तुम ..
झील के रुमाल पर
चाँद का कशीदा उभर आया

मेरी आँखों से मोती गिरे
तुम्हारे पसीने की आब से चमक गए
ज़िन्दगी ने गूंथ ली माला सपनों की

बहुत दिनों बाद
बुल्लेशाह ने लिखी हीर की मुस्कान
बैजू बावरा की तान पर
कच्चे घड़े से निकली विश्वास की थाप
मीरा के पद गूंज उठे दिशाओं में ..

सपनों की माला पहन
पूरी कायनात नाचती रही रात भर ..





सीख 


सीख लिया है बचना
चीखों से ..
रक्त सने हाथों को
साफ करने की कला आ गई हमे ..

चीख ज्यादा जोर की हो
फटने लगे कानो के पर्दे
तो फेंक देते है उसे विवादों में .....

बोलने का ,मुस्कराने का ,
आँसू बहाने का,आरोप लगाने का नाटक बखूबी कर लेते है..

और फिर चीख से बड़ी आवाज़
खुद ही के कंठ से निकाल देते है ..

तुम एक बार चीख़ कर तो देखो
बचने के लाख तरीके है हमारे पास ...




यात्रा 

ट्रेन में बैठे यात्री की मानिंद
छोड़ते जाते मन के नदी पहाड़
हरियाली और उजाड़

बेचेंन मन शांति की तलाश
कभी आएगा वो स्थान ,वो समय
अनजाने जुड़ जायेगें हाथ
बन्द हो जाएगी आँखें

होंठ बुदबुदायेगें
गूँजेगें प्रार्थना के स्वर
खुद में विलीन होते हुए

आस्था की चौखट पर
जब लहर ही किनारा बन जाये
और किनारा ही लहर ..

पुलकित हृदय भेज देगा
कुछ बूंद आँसू
और सार्थक हो जाएगी यात्रा
अगली यात्रा के लिये ..



अनन्त नींद 

न जाने कौन सी देह की लच्छी से खुली ऊन
कौन सी मन की सलाई में डले फंदे
कितने फन्दों से बुना गया कम्बल
कौन सी छींट से बनाई मग्जी.
पता भी तो नही ...
कोने को तिरछा काट- जोड़ बनाई किनार
सुनहरे धागे से उकेर दिया प्रेम


प्रेम का सपना हो लिया संग
दिल पर मांडना बन जम गया
पक्के धागे से उकेरा सपना
न उधड़ा, ना फटा
न रंग उड़ा ,न फीका पड़ा ...
सपना जागता रहा ..नींद में , सुख और दुख में

हर मौसम में ढलता रहा
हर उम्र में और चमकता रहा
धूप में छाया बन गया
ठिठुरन में आग
..
प्रेम
साथ चलता रहा
सांस सांस महकाता रहा
साज साज पर गीत गाता रहा

उम्र बीत गई
देह घिस गई
सांस टूट गई
अनन्त नींद में भी
प्रेम बचा रहा ...

प्रेम दुआ बन
पंचतत्वों में
गूँजता रहा सदा के लिए
i
फिर से ...
न जाने कौन सी देह की लच्छी से खुली ऊन
प्रेम रंग में रंगी ...




एक मुट्ठी प्रेम 

एक मुट्ठी प्रेम
अंजुरी भर साध
और बूंद भर करुणा से मिल
बन गई राह ...

नदी के बीच से निकली
पहाड़ के बगल से मुड़ी
मौसमों ने उकेरे चित्र
पेड़ रहे साक्षी
पल पल उजली होती गई ....

न बने क़दमो के निशान
न हवा ठहरी
न आकाश रुका
चल पड़े दो पांव
चार होने की आस में

कब कहाँ और कैसे मिलेगें
वो दो और पांव
कब तक बहेगा शिराओं में रक्त
कब तक हवा साथ देगी
कब तक सधे रहेगे पाँव
कुछ भी तो पता नही .....

पर ,सदा रहेगा
एक मुट्ठी प्रेम
अंजुरी भर साध
बून्द भर करुणा
ये राह और दो पांव ......




 कविता. 

कविता लिखते- लिखते
बन जाना चाहती हूँ खुद
एक कविता ...

माँ की उंगलियों की पोरों से चिपक कर
रखा जाना चाहती हूँ
नन्हे के कपाल पर डिठौना बन ..
दुआओं में बैठ कर निहारना है
माँ की आँखों का सलोनापन ....

पिता के विश्वास में रह जाऊँ
उनकी कर्मठता का सबूत बन ..
चल पडूँ क़दम से क़दम मिला कर ..

आँखों का आसमानी
सपना हो कर
ठहर जाऊँ कोमल अहसासों में
पंछी की उड़ान के संग उड़ कर
समेट लूँ जीवन का हर रंग ...

मौन की आवाज़ सुनते हुए
झुर्रियों मे लिखा जाना चाहती हूँ
आशीष बन कर ....

एकाकार हो जाना है
जीवन और कुदरत के गठबंधन में
गाँठ बन कर ..

अपने अंतिम समय को भी
शुभदिन कह कर
कविता लिखते लिखते
खो जाना चाहती हूँ
किसी कविता में ......




धैर्य -अधैर्य 

कब तक थामें
धैर्य की की रस्सी
एक दिन टूट ही जाएगी ...

धरा भी छोड़ देगी धैर्य
बेचेंन हो कम्पित होगी
डरेगा आदमी ,पक्षी और जंगल

एक दिन आसमान भी खो देगा धैर्य
तड़केगा ,गरजेगा, बरसेगा
सहम जाएंगी दिशाएं

एक दिन अधैर्य को धारण करेगी स्त्री
बदला लेगी अपमान का
द्रोपदी ,अम्बालिका या फूलन बन कर

बालक का धैर्य भी रखना याद
कहीं अपना बचपन खोकर
इतना बड़ा न हो जाये कि
सब को समझने लगे तुच्छ ..

धर्म ग्रंथों में मत लिखो
उपदेशों दे निकाल फेंको
मनुष्य को मनुष्य रहने दो
देवता या दानव होने के पन्ने फाड़ फेंको

क्योंकि ...
धैर्य की सीमा होती है
अधैर्य असीमित ...





धैर्य रखना होगा 

धैर्य रखना होता है भूख को
फसल का बोए ,काटे जाने से रोटी बनने तक
रोटी बनना भी कहाँ आसान ?
गोल होने से पलट कर सिक जाने तक
भूख को धैर्य रखना होता है ...

धैर्य रखना होता है माँ को
बच्चे के बैठने ,चलने ,बोलने से लेकर
बड़े और समझदार होने तक
समझदार होना भी कहाँ आसान उसका ?

धरती को धरती , नदी को नदी
और पेड़ को पेड़ समझने तक
माँ को रखना होता है धैर्य ....

धैर्य रखना होता है पंछी को
अपने पंख से उड़ान भरने,
दाना चुगने, शिकारी से बचने
और नया घोसला बुनने तक ..
नया घोसला भी बनाना कहाँ आसान..?

साथ हो ,साथी हो ,चहचहाहट हो,
नव सृजन में भागीदारी की समझ हो
तब तक
धैर्य रखना होता है पंछी को ..

धैर्य रखना होता है यात्री को
मंजिल का पता,भले ही न मिले
रास्ते का पता मिल जाये
क़दम चलने लगे
थकान सुकून देने लगे
यात्रा भी कहाँ आसान .?

जब तक पांव में छाले न पड़े
पहाड़ से रास्ता न गुजरे
नदी में गीलापन न मिले
छांव गहरी काली न हो
पत्तो का हरा पीला रंग
प्रकृति बिखेर न दे
यात्री को धैर्य रखना होता है ..

धैर्य रखना होता है कवि को ...
शब्दों की टिपारी को खंगालना
कविता से गुज़र कर
फिर कविता में चले जाने तक ..
कविता भी कहाँ आसान ..?

मन की कतरनों से
नया चोला सिलना होता है
आकाश का सूनापन अंदर दबा कर
बाहर से सितारे इस तरह टाँकना
कि टांके का जोगिया धागा भी ना दिखे
उधड़न भी सिला जाए ...
धैर्य रखना होता है कवि को तब तक ..

अंजुरी में दूर्वा ,अक्षत ,हल्दी और फूल लेकर
धैर्य से इंतज़ार कर रही हूँ
तुम आओ तो सौंप दूँ तुम्हे
अपने अनकहे सारे वचन
और धैर्य से एक पिंड में परिवर्तित हो जाऊं ....






सपने

माटी को
उम्मीद के पानी से गूंथ कर
आकार दे दिया
सोंधे सपनों को ...

हवा ने सुखाए
आकाश ने निहारे
धरती ने सम्हारे
आग ने पका दिए ...

वो सपने कहीं गुलदान बन गए
कहीं गुल्लक
कहीं सकोरा
कहीं कुम्भ
कहीं कुठिया
कहीं कनारी .. ..

अपने अपने हिस्से के सपने
बटोरे चल दिया पथिक ...

समय का चाक
घूम रहा अभी भी
माटी चुक गई
पानी सूख गया
हवा नम हो गई
हाथ कांप रहे

कुछ अधबने सपने
अपने अधूरेपन में सिमट गए

तुम आओ
छठवां तत्व बन
तो जी उठे पंच तत्व
इन अधूरे सपनो को
ठिकाना मिल जाय ...






संचित

मन का पूरा बिखर जाने कर भी
रह जाता है एक कोना
यादों का
उम्मीद का ..

थोड़े से विश्वास की ज़मीन पर
संचित बीज में कभी कभार
हो जाता अंकुरण ....

सिलसिला चलता रहता
बिखरने ,बंधने का ..
हरियाया रिश्ता
बसन्त हो जाता

सूख कर भी
धर देता धरती में अपनी नमी
अपना जीवन सत्व ..

जीवन तो कोमल है
लगा लेता गले से
सुख और दुख दौनो को .

आँसू और विश्वास
जीवन की जमीन पर
पीठ फेर कर खड़े
दो भाई ही तो हैं ना ....





अकुलाहट 

ये कैसी अकुलाहट है
क्या चाहता है मन ?
कौन सा पत्थर है
पिघलता ही नही ..

तारे बदल लेते चाल
चहलकदमी करती ओस
कभी तपने लगता सूरज
टिटहरी चीख उठती

उठते गिरते रहेते ज्वार भाटा
फेरियो पर निकलते रहेते मौसम

दिन की जेब खाली होते ही
रात भर लेती अपना घर
मन रीत रीत कर आस बटोरता रहता

सब बदलता पर
ये नही जाती
अंगद का पांव बनी है
अमर होने का वरदान ले कर आई है ..

कोई तो जप, तप हो
कालेजादू का मंत्र मिले
या टोना टोटका कर के
मूठ दे मारूं ...

ये तड़प बढ़ती जाती ।





आविष्कार 

कोई नाम नही उनके
अविष्कारको की सूची में

गेहूं को पीस सान कर गोल रोटी बनाने के लिए
खमीर उठा कर बनाये
इडली दोसे के लिए
जाना जिसने ,ज़रूरी है नमक खाने में

देह को ढंकने बुने कपड़े
छोटी सी सूई और कैंची से
बन गए पहनावे
तुरपाई ,बखिया और कशीदा कर
पहन कर खुश हुआ मानव,....


कहीं नाम नही लिखा इनका भी
बताया जिसने
आँख में चोट लगे तो
मुँह की भाप से सिकाई कर लो
प्यार की छोटी से झप्पी से मिलता है ढेर सारा सुकून
फूंक कर आग को जला, बुझा लो
और मिटा दो दर्द भी ....

माटी को आकार दिया किस आविष्कारक ने
जिस पर भरोसा लिख गई सोहणी
सबसे पहले घर को लीप पोत कर
मांडने से सजा कर ..एक दिया जला कर
रखने वाला कौन था ?

खनखनाते सिक्कों और बर्तन के साथ
सजा दिए जेवर ,देह पर
उसी धातु के हथियार बनाये किसने

किसकी खोज होगी
प्रेम में मिट जाना
और नफरत में मिटा देना ..



परिचय 

श्रीमती मधु सक्सेना 
जन्म- खांचरोद जिला उज्जैन (म.प्र.)
कला , विधि और पत्रकारिता में स्नातक ।
हिंदी साहित्य में विशारद ।

प्रकाशन (1) मन माटी के अंकुर (2) तुम्हारे जाने के बाद - काव्य सन्ग्रह प्रकाशित 
आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण 
मंचो पर काव्य पाठ ,कई साझा सग्रह में कविताएँ ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन ।सरगुजा और बस्तर में साहित्य समितियों की स्थापना । हिंदी कार्यक्रमों में कई देशों की यात्रायें ।
सम्मान..(1).नव लेखन ..(2)..शब्द माधुरी (3).रंजन कलश शिव सम्मान (4) सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान ।
पता .. सचिन सक्सेना 
H -3 ,व्ही आई पी सिटी 
उरकुरा रोड ,सड्डू 
रायपुर (छत्तीसगढ़ )
पिन -492-007 
मेल - saxenamadhu24@gmail. Com
फोन .9516085171

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