21 अप्रैल, 2019

वंदना ग्रोवर की कविताएं



वंदना ग्रोवर



एक

तार  तार कर दो 
    उधेड़ दो 
    मेरा क्या 

   ज़िन्दगी भी तुम्हारी, बखिए भी 
००


दो

आँखें बंद होती और
दुनिया के दरवाज़े खुल जाते
आम बहुत ख़ास हो जाता
अलफ़ाज़ सजे-धजे ,नए -नए
खूबसूरत लिबास में
ज़हन पर दस्तक देते
वो अधमुंदी आँखों से पकडती ,
दिल के करीब लाती
महसूस करती
साँसें रफ़्तार पकडती
ज़हन जज़्बात बेकाबू हो जाते
आँखें खुल जाती
तब
न अह्सास न अलफ़ाज़

एक औरत
बिस्तर पर दम तोड़ रही होती 
००

तीन

रगों में थे घरों में थे
लहू में थे परों में थे
पेशानी-ए -ज़मीं पे थे
फ़लक़ को छू रहे थे जो

कुछ आज़ाद से ख्याल थे
००



चार


खंजर लो 
    उतार दो 
    मेरे सीने में 

   मुझे जीने दो 
००


पांच

विधि 


एक औरत लें 
किसी भी धर्म ,जाति ,उम्र की 
पेट के नीचे 
उसे बीचों-बीच चीर दें 
चाहें तो किसी भी उपलब्ध 
तीखे पैने  औज़ार से 
उसका गर्भाशय ,अंतड़ियां बाहर निकाल दें 
बंद कमरे ,खेत ,सड़क या बस में 
सुविधानुसार 
उसमे कंकड़,पत्थर ,बजरी ,
बोतल ,मोमबत्ती,छुरी-कांटे और 
अपनी  सडांध भर दें 
कई दिन तक ,कुछ लोग 
बारी बारी से भरते रहें 
जब आप पक जाएँ 
तो उसे सड़क पर ,रेल की पटरी पर 
खेत में या पोखर में छोड़ दें 
पेड़ पर भी लटका सकते हैं 
ध्यान रहे ,उलटा लटकाएं .
उसी की साडी या दुपट्टे से 
टांग कर पेश करें 
काम तमाम न समझें 
अभिनव प्रयोगों के लिए असीम संभावनाएं हैं।
००





यादवेन्द्र




छः

 बाइक पर उचक कर
दोनों तरफ पैर लटका
बैठने ही वाली थी

वो देर तक बतिया रहे थे हम
और फिर मेरा ध्यान गया
तुम सभी तो मर्द थे
बहुत बतियाना चाहती थी

धुएं के बादल देखकर
लगी थी कसमसाने उंगलियाँ 
जेब में हाथ डाला 
निकाल लिया 
पकड़ ढीली हो गई थी 

जाती हुई सड़क पर आते हुए 
नन्ही सी हसरत जागी थी 
सामने पान की दुकान  थी
चबा लिया उस हसरत को 

सुरूर उतर रहा था आँखों में 
नशा तारी था 
देखी  जो  चंद निगाहें 
नशा काफूर हो गया 
एक और हसरत को पी लिया 

बाल्कनी में पैर लटका कर बैठ जाना
रात को बेलाग बाहर निकल जाना
एक आँख बंद कर हंस देना
पिच्च से थूक देना
दो-दो सीढ़ी फलांग कर चढ़ जाना
धौल-धप्पा कर लेना
इससे उससे हाथ मिलाना

हसरतें तो बड़ी नहीं थी
वो औरत होना आड़े आ गया
००



सात


घुटता है दम 
लरज़ता है कलेजा 
दरवाज़े खोल दो 

मेरी सुबह को अंदर आने दो 
००


आठ


एक कस्बे  में जीते हैं कई सपने रोज़ 
एक राजधानी में मरते हैं कई क़स्बे रोज़ 
कस्बे के अंदर से गुज़रती है राजधानी जब 
हर दिन सवार हो जाते हैं कुछ टुकड़े राजधानी में कस्बे के 
राजधानी पकड़ लेती है गिरेबां से 
कस्बे की अधूरी इच्छाओं को 
जब से घुसी है राजधानी सपनों में 
सपने दौड़ने लगे हैं राजधानी की गति से
राजधानी में एक अकेलापन है 
एक भीड़ अकेली है राजधानी में  
जीने की तमाम कोशिशें 
आपको मरने से नहीं रोक पाती 
राजधानी में आप जीते हैं अपनी गति से 
राजधानी आपको मारती है अपनी गति से 
कस्बे तकते रहते हैं राह 
वापसियों की.....

मातमपुर्सियों का सिलसिला जारी है .. 
००

नौ

हिंसा होती   है   तोपों से, बमों से 
हिंसा होती है बंदूकों से,तलवारों से 
हिंसा होती है लाठियों से, डंडों से 
हिंसा होती है  लातों से,  घूंसों से 
हिंसा होती है  नारों से, इशारों से       
हिंसा होती है वादों से,आश्वासनों से
हिंसा होती है ख़बरों से,अफवाहों से
हिंसा होती है आवाजों से,धमाकों से  
हिंसा होती है खामोशी से भी ..
००

दस

वोरे जैसा नहीं था 
मुझमे भी कहाँ कुछ था उसके जैसा 
फिर मेरे अंदर 
एक बदलाव ने ली करवट 
और बदल दिया मुझे 
सारा का सारा 
बदलाव की एक लहर 
और आई 
उसके अंदर 
मेरे जैसा हो गया वो 
सारा का सारा 
फासला दरम्यां 
फिर उतना ही रह गया 
००

ग्यारह

एक ज़माने की बात थी जब 
अपराधों की श्रेणी में 
चोरी थी, डाका था 
क़त्ल था 
वो जो बलात्कार नमू हो 
जाया करता था 
वो भी अपराध जैसा 
मान लिया जाता था 
कभी कभी 
एक ज़माना हुआ अब 
अपराधों की तादाद में
इज़ाफ़ा हुआ जाता है
कि अब
वो लिखने लगी
कि लिख कर ज़ुबान देने लगी
कि दिमागों को मथने लगी
कि नसें फटने लगी
कि मवाद बहने लगा
कि बदबू की परतें चढ़ने लगी
कि लफ़्ज़ों के ज़रिये अस्मत पर हमले होने लगे
कि अदब की आड़ में बेअदबी होने लगी
कि वज़ूद ढहने लगे

इतने अपराधों की घोषित अभियुक्त
होने के अपराध के बावज़ूद
कितना खुश थी
कि भला हुआ
नामर्द हूँ मैं
००



यादवेन्द्र



बारह


 किशोरवय बेटियाँ
जान लेती हैं
जब मां होती है
प्रेम में
फिर भी वह करती हैं
टूट कर प्यार
माँ से
एक माँ की तरह
थाम लेती है बाहों में
सुलाती हैं अपने पास
सहलाती हैं
समेट लेती हैं उनके आंसू
त्याग करती हैं अपने सुख का
नहीं करती कोई सवाल
नहीं  करती खड़ा
रिश्तों को  कटघरे में 
अकेले जूझती हैं

अकेले रोती हैं

और

बाट जोहती हैं माँ के घर लौटने की
००




तेरह


तुम तक पहुंचू मैं
या पहुंचू खुद तक मैं
ये एक कदम आगे
और दो कदम
पीछे का सिलसिला
गोया मुसलसल चलता
ऐसा तमाशा हुआ
कि ज़िन्दगी रहे न रहे
तमाशा जारी रहे
००


चौदह

गई तो ले गई 
अपने साथ 
अँधेरा 
और उसमे सिमटे 
ख्वाब ,सितारे ..सारे 

और वो चाँद भी ..

उजाले की पोटली से 
निकल कर गिर पड़ा 
सूरज
अजनबी सा

सुबह हो गई है 
००




यादवेन्द्र


पन्द्रह

 शब्द तैरते हैं उन्मुक्त से 
     आह्लाद बन कभी सतह पर 
     अवसाद बन डूबते-उतरते हैं कभी 
     कुछ ऊपर कुछ भीतर 
     बजते हैं जलतरंग से 
     फुंफकारते हैं अर्थ जब 
     सहमे जज़्बात की मछलियां 
     दम तोड़ने लगती हैं 
     ज़हर घुलने लगता है विवेक के सागर में 
     नीला जो जीवन है 
     फैला है ज़मीं से आसमां तक 
     यकायक काला होने लगता है 
     शब्दों पर व्याप्त अर्थ की काली छाया 
     क़ैद कर उन्हें अपनी सीमा में 
     डुबो देना चाहती है 
     शब्द बेबस,बेज़ुबान,अवाक 
     असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं 
     उनका डूबना तय है 

     अर्थ ने विश्वासघात किया है 
०००



परिचय 
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 वंदना ग्रोवर 


शिक्षा :एम ए ,बीएड ,पी एच डी 
जन्मतिथि : 23 -06 -1966 
जन्म स्थान :हाथरस (उ प्र )
वर्तमान निवास :दिल्ली 
सम्प्रति :लोक सभा सचिवालय  में राजपत्रित अधिकारी 

कविता-संग्रह : मेरे पास पंख नहीं हैं (2013),मेरे पास पंख नहीं हैं (द्वितीय संस्करण ) 2017 . 

अन्य :  स्त्री होकर सवाल करती है (बोधि प्रकाशन),सुनो ,समय जो कहता है (आरोही प्रकाशन ),अपनी अपनी धरती (मांडवी प्रकाशन ) ,शतदल  (बोधि प्रकाशन ) कविता प्रसंग (अंजुमन प्रकाशन)-कविता संग्रहों में रचनाओं का प्रकाशन 
email id : groverv12@gmail.com
ब्लॉग : एक थी सोन चिरैया 

डाक पता :
डॉ वंदना ग्रोवर डावर 
फ्लैट न. 701  ,टाइप- IV 
लोक सभा सचिवालय आवासीय परिसर 
सेक्टर 2 ,आर के पुरम 
नई दिल्ली -110022 
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1 टिप्पणी:

  1. सार्थक शब्दों में पिरोये हुए भाव, सच का आइना हैं।बधाई।

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