डॉ हूबनाथ पाण्डेय की कविताएँ
कहानी रह जाएगी
अब सिर्फ़ बातें रह गईं
कब पता चला
इस जानलेवा बीमारी का
कौन से लक्षण थे
बोन मैरो टेस्ट
कितना पीड़ादायक होता है
केमोथेरेपी
और इस उम्र में
डॉक्टर ने ही मना कर दिया
कितनी कमज़ोर हो गई हैं
भूख ही नहीं लगती
कान तो पहले से ही खराब
सुनने की मशीन भी फेंक दी
दोनों हाथ बेज़ार
ख़ून चढ़ाने की सूइयों से
बदन पर जगह जगह
ख़ून जमने के धब्बे
काले काले
जब जब असह्य होती यातना
दोनों हाथ जोड़
अरज करती हैं
उस भगवान से
जिसे कभी पूछा ही नहीं
शायद ईश्वर उसी का बदला ले रहा हो
अब जितना चल जाएं
गनीमत जानो
बहुत दुख सहा
जिनगी भर
अब जाती बेला भी दुर्गत
फलाने को देखो
थे महापापी
पर मौत कितनी अच्छी मिली
रात खा पीकर सोए
बिहान उठबै न किए
अब जिसका जितना लिखा भोगदंड
सहना तो पड़ेगा ही
बस बड़की बेटी आ जाए
अमरीका से
मिल ले मां से
यही भर साध रह गई है
सुबह दोपहर शाम
इन्हीं मंत्रों का पाठ
अपने अंतिम संस्कार के खर्चे की व्यवस्था
पहले ही कर चुकी मां
बड़ी बहादुरी से कर रही
इंतज़ार यमराज का
जो फंसें हैं कहीं
भयानक ट्रैफिक के बीच
उसके बाद
उतराई बाढ़ के बाद
बचे कीचकांदों की सफ़ाई
फिंकवाई ,दान
कर्मकांडों के उत्सव में
ख़त्म हो जाएगी
एक कहानी
जो पिछले अस्सी वर्षों से
एक जीती जागती
लड़ती झगड़ती
पग पग पर हारती
एक मज़बूत मन की
कमज़ोर देंह थी
दर्द भी शक्ति देता है
डर तभी तक
जब तक
दरवाज़े के उस तरफ़ है
या झांकता है
खिड़कियों की दरारों से
या छिपा रहता
मन के किसी मनहूस कोने
डर तभी तक दर्द से
डर और दर्द दोनों
होते जब आमने सामने
लड़ाते हैं पंजे
जकड़ते हैं गिरफ़्त में
खींचते,मरोड़ते,तानते
कुचलते,मसलते,दबाते
निचोड़ते थकने लगते
तब ढीली पड़ने लगती है
पकड़,जकड़,गिरफ़्त
दर्द की
विवशता की
असहायता की
कसी हुई मुट्ठियों के बीच
होती है जगह हवा के लिए
दवा हारने लगे
उठते हैं हाथ दुआ के लिए
तब अकेले नहीं होते हम
कोई तो होता है साथ
महसूसता है दर्द
जीता है साथ साथ
यातना हमारी
हम नहीं रहते असहाय
न अकेले
न विवश
न कमज़ोर
क्योंकि
दर्द भी शक्ति देता है
जिसे हम देते हैं नाम
आस्था
प्रेम
रिश्ता
भक्ति
चाहे जो
पर वह होती है शक्ति
जीवन की
जिजिविषा की
तब खुल जाते हैं
सभी द्वार
सभी खिड़कियाँ
सभी बंधन
देह मन आत्मा के
घने गाढ़े काले
धधकते तमस के बीच
होती है एक निष्कंप लौ
शक्ति की
भक्ति की
आस्था या प्रेम की
तन्नोशक्ति:प्रचोदयात्
कबिरा पड़ा बजार में
एक जुलाहे की लाश
बीच बजार
जीते जी
जिनको गरियाया
कोसा सरापा
वे सब
रोते ज़ार ज़ार
बखानते गुन
जताते अधिकार
अपनापा प्यार
बेशुमार
कफ़न जुलाहे का
खींचते अपनी ओर
तार तार कफ़न
चार चार टुकड़ों में
अब ये नोंचेंगे मुर्दा जिस्म
गाड़ेंगे अपने मठों में
लहराएगा परचम
पूरब से पच्छम
उत्तर से दक्खिन
बचेंगे चंद फूल
चढ़ेंगे गांधी की मज़ार पर
गूंजेगी राम धुन
रावण के मुख से
जुलाहा मरता है रोज़
अर्थी पांच साल में उठती
गाजेबाजे के साथ
गिद्धों, कुत्तों, सियारों,भेड़ियों का
सजता महाभोज
महामहोच्छव
जुलाहे का
जिसकी टूट चुकी खड्डी
फुंक चुका करघा
छिन्नभिन्न तानाबाना
उलझ गए सूत
पागल रंगरेज़
उड़ेल गया रंग सारे
जुलाहे की मरी देह पर
मैंने जुलाहे कहा
आपने जम्हूरियत सुना
तो यह आपकी समस्या है
ईश्वर
बहुत कमीना है तू
हद दर्जे का सैडिस्ट
मैं मान भी लूं
कि यह जो जीवन है
तेरा ही दिया
जिया भी तेरी रहमोकरम पे
सारी सुख सुविधाएं
रहमत हैं तेरी
सारी क़ायनात
तेरी दया पर
हम सबकी उपलब्धियां
महानताएं अच्छाइयां
सब ,सब तेरी कृपादृष्टि
पर दिया हुआ तेरा जीवन
छीनने का तरीक़ा तेरा
कितना क्रूर कितना घटिया
बीमार बूढ़े की
एड़िया रगड़ती
देह घिसती घिसटती
गिड़गिड़ाती
रिरियाती
मौत की भीख मांगती
बेज़ार बेकार हताश
सिर पटक पटक
सिसकती ज़िंदगी
कितना सुकून देती है तुझे
तेरी ख़ूबसूरत दुनिया को
रौंदनेवाले जंगली सूअर
गर्व से सिर ताने
संसार का सारा सुख
भोग रहे
बटोर रहे
छींट रहें
झींक रहे तो बस
मासूम बेबस
कमज़ोर माज़ूर
तेरी सारी ताक़त
तेरा सारा क्रोध
तेरा ताप शाप पाप
सिर्फ़ और सिर्फ़
उनके लिए
जिनकी ढीली होती जाती
मुट्ठियों के बीच से
रेत से खिसकते जाते
ज़िंदगी के चिपचिपे कण
अब बचे ही कितने
पर तेरी दरिंदगी
तेरी वहशत
नहीं हो रही कम
ज़िंदगी दी है तो
दर्द भी दे
मंज़ूर
पर जानवर बनाकर नहीं
इज़्ज़त से
क्योंकि
इन सबने
तुझे सिर्फ़ इज़्ज़त और
मुहब्बत ही दी है
अपने चाहनेवालों पर
इस क़दर ज़ुल्म
तुझ जैसे
सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान को
शोभा नहीं देता
आगे तेरी मर्ज़ी!
।।दोहे।।
चंदन जैसा दुख सजा,
मेरे तपते भाल।
पावन हो गई आत्मा,
जीवन हुआ निहाल।।
दाता दुख बरसाव तू,
तन मन भीजे आज।
उफ़ न करेगी बावरी,
मुझपे तेरी लाज।।
प्रान तुझे जो चाहिए,
एक बार हर लेय।
मरना सुबहोशाम का,
ऐसो दंड न देय।।
तुझे पुकारे आतमा,
देह पुकारे पीर।
अपने ढोएं यातना,
आंसूं आंखें चीर।।
बीती रात कराह में,
दिन की पीर पहाड़,
जेठ तपाए सांझभर,
सपना भया असाढ़।।
लड़कियाँ
दौड़ कर पकड़ती हैं
छूटती सी बस
कूदती हैं
चलती ट्रेन से
सौदा हाथ संभाले
मुस्कुराती हैं
काऊंटर के पीछे
गर्मजोशी से
करती हैं स्वागत
हर एक का
विशाल मॉल के
शोरूम्स में
लपक कर आती हैं
रुके सिग्नल पर
सुगंधित फूलों की
डलिया संभाले
भरभराकर निकलती हैं
लेडिज़ स्पेशल ट्रेन के
आखिरी स्टेशन पर
बचाती हैं
मछली की टोकरियाँ
उठाती हैं
फलों के बोरे
सब्जी की पोटली
हथेली भर शीशे में
निहारती चांद सा चेहरा
संवारती खुली लटें
बिखरे काजल
कॉलेज बैग
सीने पर साधे
भीड़भरी ट्रेन बस में
पूरी ताक़त ठुंसती हैं
प्लेटफॉर्म के वेंडिंग मशीन से
निस्संकोच निकालती
सैनिटरी नैपकीन
खोंसती जीन्स की
पिछली जेब में
बतियाती धारासार
इअरफोन ठूंसे कानों में
घर बाज़ार स्कूल कॉलेज
हर कहीं
देख रहीं सपने
खुली आंखों
और उन्हें सच करने
लड़ रहीं
झगड़ रहीं
मान रहीं मना रहीं
बन रहीं बना रहीं
अपने होने को
दे रही पहचान
अपनी पहचान
मुंबई की लड़कियाँ
शोकगीत
जो कलम तुम्हारे हाथ थी
साथी
वाल्मीकि के क्रोधश्लोक की
समिधा की लकड़ी थी
व्यास भास और कालिदास ने
अश्वघोष भवभूति
माघ ने
लहू पिलाकर सींचा इसको
हाल सरहपा नामदेव ने
बज्र बनाकर सौंप दिया अगली पीढ़ी को
मलिक मुहम्मद दास कबीरा
सूरा तुलसीदास फकीरा
की थाती है
भारतेंदु की प्रतिभा इसमें
महावीर का शौर्य मिला है
प्रेमचंद की मानवता है
पंत प्रसाद निराला देवी
मुक्तिबोध की व्याकुलता है
बड़ी साधना कड़ी तपस्या
जलते तपते मरुथल चलकर
यह आई है पास तुम्हारे
इसके अक्षर मधुर ऋचाओं से निकले हैं
क्षुद्र स्वार्थ के तुच्छ पाश में
मत बांधों तुम
तुम गायक हो मानवता के
राजनीति के भाट नहीं हो
सूअर जिसमें कीच पखारे
तुम दिल्ली के घाट नहीं हो
चापलूस भड़ुए दलाल
बिन रीढ़ के थलचर
रेंग रहे हों जिस महफ़िल में
वहाँ तुम्हारा ठाट नहीं है
दुर्योधन से भीख न मांगो
तुम हिटलर से सीख न मांगो
पछताओगे क्या पाओगे
अक्षरधर्मा कहलाते हो
नश्वर कुर्सी पा जाओगे
कलम बेचकर कंगालों को
अस्मत देकर चंडालों को
किस मुंह से गाओगे साथी
गीत सृजन के
याद बहुत आओगे साथी
हर पतझड़ में
शहर एक नज़्म
अजीब फ़ितरत है इस शहर की
अजीब रंगोमिजाज़ इसके
अजीब परवरदिगार इसके
दुकानोदर औ बज़ार इसके
हर इक खड़ा है सरे नुमाइश
बेख़्वाब आंखें न कोई ख़्वाहिश
सलीब अपनी उठाए कांधे
हरेक मसीहा के अपने वांदे
न रस्मोरिश्ते न कस्मेवादे
ख़ुदा ही जाने छिपे इरादे
इधर भी इंसां उधर भी इंसां
दबी सी नफ़रत थमी सी हिंसा
सभी अकेले खड़े हुए हैं
न जाने किसपे अड़े हुए हैं
ये जिस्म सूखे बिमार जैसे
जलाये डोली कहार जैसे
न कोई बोले न कोई चुप है
पता नहीं किस नशे में ग़ुम है
अज़ाब होनी थी ज़िंदगानी
तमाम होकर मेरी कहानी
तबाह होनी थी मेरी किस्मत
नीलाम होनी थी मेरी अस्मत
अजीब है इस शहर की फ़ितरत
कविता
जब कुछ भी नहीं
सूझ रहा था
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
झूठ के कौआरोर के बीच
पागल हाथियों के
भारीभरकम पैरों के
ठीक नीचे से
नहीं निकाल पाया
बगीचे में खेलते बच्चों को
खौलते मौसम से
बचा नहीं पाया वसंत
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
मिट्टी की नई गागर सी
दर्द से पसीजती मां की
असह्य यातना की
एक बूंद भी
न कर सका कम
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
कल जब नहीं रहूंगा मैं
मेरी कविता में होंगे
ताक़तवर हाथियों से
रौंदे गए बच्चों के
कत्थई पड़ चुके निशान
अधमरे सूखे फूल
और धरती की वह नमी
जहाँ पसीजती रही मां
और असहाय हताश
धुंधलाए शब्द
मेरी कविता के
कविता में मां
मां सुनाती है एक सोहर
दशरथ ने मारा एक हिरन
जिसका मांस पक रहा
कौशल्या की रसोईं
चौखट पर खड़ी हिरनी
अरज कर रही कौशल्या से
मांस खा लो आप सब
बस खाल दे दो
मेरे हिरन का
मैं टांगूंगी पेड़ पर
देख देख उसे
समझाउंगी मन को
हिरन मेरा ज़िंदा है
नकारती कौशल्या
फरमाती है
खाल से हिरन की
मढ़ाउंगी खंझड़ी
खेलेंगे मेरे लाल
जब जब बजती है खंझड़ी
दौड़ी आए हिरनी
मानो पुकारे हिरन उसका
हिरनी की तरह असहाय
बीमार मां के सपनों में
आज भी मारे जाते हैं
निरपराध हिरन
अनायास
मां की कराहों में
घायल हिरनी का दर्द
कौशल्या की ऊंची चौखट
सिर पटकता आधी रात
दशरथ के बाणों के भय से
बदहवास मां
चुपके से आती है
मेरी कविताओं में
और सो जाती
अपनी कराहें ओढ़ कर
धीमी होती जा रही
खंझड़ी की आवाज़ों के बीच
000
डॉ हूबनाथ पाण्डेय के दोहे नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/1.html?m=1
डॉ हूबनाथ पाण्डेय |
कहानी रह जाएगी
अब सिर्फ़ बातें रह गईं
कब पता चला
इस जानलेवा बीमारी का
कौन से लक्षण थे
बोन मैरो टेस्ट
कितना पीड़ादायक होता है
केमोथेरेपी
और इस उम्र में
डॉक्टर ने ही मना कर दिया
कितनी कमज़ोर हो गई हैं
भूख ही नहीं लगती
कान तो पहले से ही खराब
सुनने की मशीन भी फेंक दी
दोनों हाथ बेज़ार
ख़ून चढ़ाने की सूइयों से
बदन पर जगह जगह
ख़ून जमने के धब्बे
काले काले
जब जब असह्य होती यातना
दोनों हाथ जोड़
अरज करती हैं
उस भगवान से
जिसे कभी पूछा ही नहीं
शायद ईश्वर उसी का बदला ले रहा हो
अब जितना चल जाएं
गनीमत जानो
बहुत दुख सहा
जिनगी भर
अब जाती बेला भी दुर्गत
फलाने को देखो
थे महापापी
पर मौत कितनी अच्छी मिली
रात खा पीकर सोए
बिहान उठबै न किए
अब जिसका जितना लिखा भोगदंड
सहना तो पड़ेगा ही
बस बड़की बेटी आ जाए
अमरीका से
मिल ले मां से
यही भर साध रह गई है
सुबह दोपहर शाम
इन्हीं मंत्रों का पाठ
अपने अंतिम संस्कार के खर्चे की व्यवस्था
पहले ही कर चुकी मां
बड़ी बहादुरी से कर रही
इंतज़ार यमराज का
जो फंसें हैं कहीं
भयानक ट्रैफिक के बीच
उसके बाद
उतराई बाढ़ के बाद
बचे कीचकांदों की सफ़ाई
फिंकवाई ,दान
कर्मकांडों के उत्सव में
ख़त्म हो जाएगी
एक कहानी
जो पिछले अस्सी वर्षों से
एक जीती जागती
लड़ती झगड़ती
पग पग पर हारती
एक मज़बूत मन की
कमज़ोर देंह थी
दर्द भी शक्ति देता है
डर तभी तक
जब तक
दरवाज़े के उस तरफ़ है
या झांकता है
खिड़कियों की दरारों से
या छिपा रहता
मन के किसी मनहूस कोने
डर तभी तक दर्द से
डर और दर्द दोनों
होते जब आमने सामने
लड़ाते हैं पंजे
जकड़ते हैं गिरफ़्त में
खींचते,मरोड़ते,तानते
कुचलते,मसलते,दबाते
निचोड़ते थकने लगते
तब ढीली पड़ने लगती है
पकड़,जकड़,गिरफ़्त
दर्द की
विवशता की
असहायता की
कसी हुई मुट्ठियों के बीच
होती है जगह हवा के लिए
दवा हारने लगे
उठते हैं हाथ दुआ के लिए
तब अकेले नहीं होते हम
कोई तो होता है साथ
महसूसता है दर्द
जीता है साथ साथ
यातना हमारी
हम नहीं रहते असहाय
न अकेले
न विवश
न कमज़ोर
क्योंकि
दर्द भी शक्ति देता है
जिसे हम देते हैं नाम
आस्था
प्रेम
रिश्ता
भक्ति
चाहे जो
पर वह होती है शक्ति
जीवन की
जिजिविषा की
तब खुल जाते हैं
सभी द्वार
सभी खिड़कियाँ
सभी बंधन
देह मन आत्मा के
घने गाढ़े काले
धधकते तमस के बीच
होती है एक निष्कंप लौ
शक्ति की
भक्ति की
आस्था या प्रेम की
तन्नोशक्ति:प्रचोदयात्
कबिरा पड़ा बजार में
एक जुलाहे की लाश
बीच बजार
जीते जी
जिनको गरियाया
कोसा सरापा
वे सब
रोते ज़ार ज़ार
बखानते गुन
जताते अधिकार
अपनापा प्यार
बेशुमार
कफ़न जुलाहे का
खींचते अपनी ओर
तार तार कफ़न
चार चार टुकड़ों में
अब ये नोंचेंगे मुर्दा जिस्म
गाड़ेंगे अपने मठों में
लहराएगा परचम
पूरब से पच्छम
उत्तर से दक्खिन
बचेंगे चंद फूल
चढ़ेंगे गांधी की मज़ार पर
गूंजेगी राम धुन
रावण के मुख से
जुलाहा मरता है रोज़
अर्थी पांच साल में उठती
गाजेबाजे के साथ
गिद्धों, कुत्तों, सियारों,भेड़ियों का
सजता महाभोज
महामहोच्छव
जुलाहे का
जिसकी टूट चुकी खड्डी
फुंक चुका करघा
छिन्नभिन्न तानाबाना
उलझ गए सूत
पागल रंगरेज़
उड़ेल गया रंग सारे
जुलाहे की मरी देह पर
मैंने जुलाहे कहा
आपने जम्हूरियत सुना
तो यह आपकी समस्या है
ईश्वर
बहुत कमीना है तू
हद दर्जे का सैडिस्ट
मैं मान भी लूं
कि यह जो जीवन है
तेरा ही दिया
जिया भी तेरी रहमोकरम पे
सारी सुख सुविधाएं
रहमत हैं तेरी
सारी क़ायनात
तेरी दया पर
हम सबकी उपलब्धियां
महानताएं अच्छाइयां
सब ,सब तेरी कृपादृष्टि
पर दिया हुआ तेरा जीवन
छीनने का तरीक़ा तेरा
कितना क्रूर कितना घटिया
बीमार बूढ़े की
एड़िया रगड़ती
देह घिसती घिसटती
गिड़गिड़ाती
रिरियाती
मौत की भीख मांगती
बेज़ार बेकार हताश
सिर पटक पटक
सिसकती ज़िंदगी
कितना सुकून देती है तुझे
तेरी ख़ूबसूरत दुनिया को
रौंदनेवाले जंगली सूअर
गर्व से सिर ताने
संसार का सारा सुख
भोग रहे
बटोर रहे
छींट रहें
झींक रहे तो बस
मासूम बेबस
कमज़ोर माज़ूर
तेरी सारी ताक़त
तेरा सारा क्रोध
तेरा ताप शाप पाप
सिर्फ़ और सिर्फ़
उनके लिए
जिनकी ढीली होती जाती
मुट्ठियों के बीच से
रेत से खिसकते जाते
ज़िंदगी के चिपचिपे कण
अब बचे ही कितने
पर तेरी दरिंदगी
तेरी वहशत
नहीं हो रही कम
ज़िंदगी दी है तो
दर्द भी दे
मंज़ूर
पर जानवर बनाकर नहीं
इज़्ज़त से
क्योंकि
इन सबने
तुझे सिर्फ़ इज़्ज़त और
मुहब्बत ही दी है
अपने चाहनेवालों पर
इस क़दर ज़ुल्म
तुझ जैसे
सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान को
शोभा नहीं देता
आगे तेरी मर्ज़ी!
।।दोहे।।
चंदन जैसा दुख सजा,
मेरे तपते भाल।
पावन हो गई आत्मा,
जीवन हुआ निहाल।।
दाता दुख बरसाव तू,
तन मन भीजे आज।
उफ़ न करेगी बावरी,
मुझपे तेरी लाज।।
प्रान तुझे जो चाहिए,
एक बार हर लेय।
मरना सुबहोशाम का,
ऐसो दंड न देय।।
तुझे पुकारे आतमा,
देह पुकारे पीर।
अपने ढोएं यातना,
आंसूं आंखें चीर।।
बीती रात कराह में,
दिन की पीर पहाड़,
जेठ तपाए सांझभर,
सपना भया असाढ़।।
लड़कियाँ
दौड़ कर पकड़ती हैं
छूटती सी बस
कूदती हैं
चलती ट्रेन से
सौदा हाथ संभाले
मुस्कुराती हैं
काऊंटर के पीछे
गर्मजोशी से
करती हैं स्वागत
हर एक का
विशाल मॉल के
शोरूम्स में
लपक कर आती हैं
रुके सिग्नल पर
सुगंधित फूलों की
डलिया संभाले
भरभराकर निकलती हैं
लेडिज़ स्पेशल ट्रेन के
आखिरी स्टेशन पर
बचाती हैं
मछली की टोकरियाँ
उठाती हैं
फलों के बोरे
सब्जी की पोटली
हथेली भर शीशे में
निहारती चांद सा चेहरा
संवारती खुली लटें
बिखरे काजल
कॉलेज बैग
सीने पर साधे
भीड़भरी ट्रेन बस में
पूरी ताक़त ठुंसती हैं
प्लेटफॉर्म के वेंडिंग मशीन से
निस्संकोच निकालती
सैनिटरी नैपकीन
खोंसती जीन्स की
पिछली जेब में
बतियाती धारासार
इअरफोन ठूंसे कानों में
घर बाज़ार स्कूल कॉलेज
हर कहीं
देख रहीं सपने
खुली आंखों
और उन्हें सच करने
लड़ रहीं
झगड़ रहीं
मान रहीं मना रहीं
बन रहीं बना रहीं
अपने होने को
दे रही पहचान
अपनी पहचान
मुंबई की लड़कियाँ
शोकगीत
जो कलम तुम्हारे हाथ थी
साथी
वाल्मीकि के क्रोधश्लोक की
समिधा की लकड़ी थी
व्यास भास और कालिदास ने
अश्वघोष भवभूति
माघ ने
लहू पिलाकर सींचा इसको
हाल सरहपा नामदेव ने
बज्र बनाकर सौंप दिया अगली पीढ़ी को
मलिक मुहम्मद दास कबीरा
सूरा तुलसीदास फकीरा
की थाती है
भारतेंदु की प्रतिभा इसमें
महावीर का शौर्य मिला है
प्रेमचंद की मानवता है
पंत प्रसाद निराला देवी
मुक्तिबोध की व्याकुलता है
बड़ी साधना कड़ी तपस्या
जलते तपते मरुथल चलकर
यह आई है पास तुम्हारे
इसके अक्षर मधुर ऋचाओं से निकले हैं
क्षुद्र स्वार्थ के तुच्छ पाश में
मत बांधों तुम
तुम गायक हो मानवता के
राजनीति के भाट नहीं हो
सूअर जिसमें कीच पखारे
तुम दिल्ली के घाट नहीं हो
चापलूस भड़ुए दलाल
बिन रीढ़ के थलचर
रेंग रहे हों जिस महफ़िल में
वहाँ तुम्हारा ठाट नहीं है
दुर्योधन से भीख न मांगो
तुम हिटलर से सीख न मांगो
पछताओगे क्या पाओगे
अक्षरधर्मा कहलाते हो
नश्वर कुर्सी पा जाओगे
कलम बेचकर कंगालों को
अस्मत देकर चंडालों को
किस मुंह से गाओगे साथी
गीत सृजन के
याद बहुत आओगे साथी
हर पतझड़ में
शहर एक नज़्म
अजीब फ़ितरत है इस शहर की
अजीब रंगोमिजाज़ इसके
अजीब परवरदिगार इसके
दुकानोदर औ बज़ार इसके
हर इक खड़ा है सरे नुमाइश
बेख़्वाब आंखें न कोई ख़्वाहिश
सलीब अपनी उठाए कांधे
हरेक मसीहा के अपने वांदे
न रस्मोरिश्ते न कस्मेवादे
ख़ुदा ही जाने छिपे इरादे
इधर भी इंसां उधर भी इंसां
दबी सी नफ़रत थमी सी हिंसा
सभी अकेले खड़े हुए हैं
न जाने किसपे अड़े हुए हैं
ये जिस्म सूखे बिमार जैसे
जलाये डोली कहार जैसे
न कोई बोले न कोई चुप है
पता नहीं किस नशे में ग़ुम है
अज़ाब होनी थी ज़िंदगानी
तमाम होकर मेरी कहानी
तबाह होनी थी मेरी किस्मत
नीलाम होनी थी मेरी अस्मत
अजीब है इस शहर की फ़ितरत
कविता
जब कुछ भी नहीं
सूझ रहा था
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
झूठ के कौआरोर के बीच
पागल हाथियों के
भारीभरकम पैरों के
ठीक नीचे से
नहीं निकाल पाया
बगीचे में खेलते बच्चों को
खौलते मौसम से
बचा नहीं पाया वसंत
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
मिट्टी की नई गागर सी
दर्द से पसीजती मां की
असह्य यातना की
एक बूंद भी
न कर सका कम
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
कल जब नहीं रहूंगा मैं
मेरी कविता में होंगे
ताक़तवर हाथियों से
रौंदे गए बच्चों के
कत्थई पड़ चुके निशान
अधमरे सूखे फूल
और धरती की वह नमी
जहाँ पसीजती रही मां
और असहाय हताश
धुंधलाए शब्द
मेरी कविता के
कविता में मां
मां सुनाती है एक सोहर
दशरथ ने मारा एक हिरन
जिसका मांस पक रहा
कौशल्या की रसोईं
चौखट पर खड़ी हिरनी
अरज कर रही कौशल्या से
मांस खा लो आप सब
बस खाल दे दो
मेरे हिरन का
मैं टांगूंगी पेड़ पर
देख देख उसे
समझाउंगी मन को
हिरन मेरा ज़िंदा है
नकारती कौशल्या
फरमाती है
खाल से हिरन की
मढ़ाउंगी खंझड़ी
खेलेंगे मेरे लाल
जब जब बजती है खंझड़ी
दौड़ी आए हिरनी
मानो पुकारे हिरन उसका
हिरनी की तरह असहाय
बीमार मां के सपनों में
आज भी मारे जाते हैं
निरपराध हिरन
अनायास
मां की कराहों में
घायल हिरनी का दर्द
कौशल्या की ऊंची चौखट
सिर पटकता आधी रात
दशरथ के बाणों के भय से
बदहवास मां
चुपके से आती है
मेरी कविताओं में
और सो जाती
अपनी कराहें ओढ़ कर
धीमी होती जा रही
खंझड़ी की आवाज़ों के बीच
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डॉ हूबनाथ पाण्डेय के दोहे नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/1.html?m=1
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