अमित कुमार मल्ल |
कविताएँ
1
जंगल लाकर सहन में बसा लिया
जानवर आकर, मेरे भीतर रहने लगा
2
पत्थर फेंकना है तो तराशिये ज़रूर,
तहज़ीब और कायदे का ये ज़माना है
3
ज़माने का नया दस्तूर है
अमन के लिए जंग लड़ी जाती है
4
हर चेहरे में, मैंने इन्सान ढूँढा है
मेरा जुर्म संगीन है मुझे सज़ा दीजिये
5
दुनिया के मसायल छोड़ने पर भी
चैन से रहने न दिया, दोस्तों की दुआओ
6
पिघलकर गम दौड़ रहा है
जिस्म के ज़र्रे-ज़र्रे में
गैरतमंद आँसू रुक न सके
ज़मीर की बेगैरत मौत पर
7
दोस्त नहीं मानते हैं तो दुश्मन भी मत मानिये
हर रिश्ते को अंजाम देना, ज़रूरी नहीं है
8
मैं मरा ही तो था, तुमने
इतने सारे फूल बिछा दिए मेरी कब्र पर
लगता है अब तुम ,
लौट के नहीं आओगे
9
है मेरे जिंदगी का अंदाज़ जुदा
मैं ईमान के साथ रहा, हस्ती बिखर गयी
10
कल मेरे घर पर कुछ पत्थर गिरे थे
एहसान उतारा है कुछ लोगों ने मेरा
11
मैं मुस्कराता बहुत मगर
सुखा डाला है मुस्कराहट को तेरी सूनी आँखों ने
मैं उड़ता आसमाँ में, मगर
तेरे बँधे पंख उड़ने से रोक देते हैं
मैं झूमना चाहता हूँ, मगर
तेरी बेबसी की लड़खड़ाहट याद आती है
लोग कहते हैं खुश हो मगर
तेरे दिल का दर्द मुझे भी रुलाता है
उँचाइयों की तमन्ना दिल में तो, मगर
अपने साथियों को भुलाऊँ कैसे
12
कुछ
प्रश्न,
दाएँ
बाएँ करते
बचते
बचाते
फिर भी टकरा जाते हैं
प्रश्नों से
मैं नज़र नहीं
मिला पाता
आँखों
की
करुणा
कमज़ोरी
तलवार निकलने
के बाद
चलने नहीं देती
प्रश्नों
से
टकराना होगा
टकराना ,
भी
कुछ प्रश्नों का हल है
13
वक़्त
समंदर बन
या सैलाब
लहरों के साथ
थपेड़े पर
उड़कर भी
नहीं डूबूँगा
तैरूँगा
तिनके की तरह
14
लड़ो
लड़ो
लड़कर जीतने के लिए
जीत
न हो
लड़ो
जमकर लड़ने के लिए
साँस न दे
साथ अंत तक
लड़ो
लड़ने की शुरुआत के लिए
प्रारंभ न
हो तो भी
लड़ो
लड़ाई के विश्वास के लिए
विश्वास
बन जाये
पिघलती बर्फ़
लड़ो
लड़ाई के सपने के लिए
15
लिखना
मेरी भी एक दास्ताँ
देना मुझे भी कागज का टुकड़ा
लिखना
वह लिखता था
जब कोई पढ़ता नहीं था
लिखना
वह बोलता था
जब लोग चीख नहीं पाते थे
ज़बाँ चिपक जाती थी
लिखना
वह तब भी विश्वास करता था
जब
संदेह किया जाता था
उसकी
इयत्ता पर
लिखना
वह
तब भी इन्सानियत देखता था
जब केवल
जाति
धर्म
वर्ग
देखा जाता था
और लिखना
वह
तब भी परिचय की
मुस्कराहट लिये खड़ा रहता था
जब
कोई किसी से मिलता नहीं
जब
कोई किसी से मिलना नहीं चाहता
किसी को जानना नहीं चाहता
16
अखबार नवीसो
लिखना
यह स्थान लिखना
यह वक्त लिखना
यह पहर लिखना
मेरा नाम लिखना
मैंने ही यह
एलान किया है
यह भी लिखना
सामने
दिख रहे
गुलाब का फूल
खुशबू वाला है
सुन्दर है
अच्छा है
लेकिन लिखना
इसकी टहनियों में
काँटे भी है
जो अक्सर गड़ते हैं
दुःख देते हैं
मैं देख रहा हूँ
स्पर्धा
स्पर्धा नहीं है
खरगोश और
भेड़िये की दौड़ है
जिन
असहाय वृद्धों को
मनुष्यो के जंगल मे
जीने को छोड़ा है
उन्हें
समाज की छतरी
वक्त की मार से
नहीं बचा पा रही है
ये असहाय
असमय हो गए
यह भी लिखना
कोई सुविधा भोग रहा है
कोई सुविधा खोज रहा है
हर कोई
भाग रहा है
खोज रहा है
17
खटखटाऊँ किस चौखट पर
आवाज़ दूँ किस चौराहे पर
इस शहर की
हवा बहरी है
चीखती, काँपती, गूँजती आवाज़ें
सहमाती है मेरे आइने को
किसको पुकारूँ,
इस शहर के आइने में,
अक्स नहीं उभरता
थरथराती आवाजों में
ज़िंदगी लड़ रही है
साथ के लिए कब तक पुकारूँ
गूँगी साँसों के शहर में
इस सन्नाटे के शहर में
मरी आत्माओं को सुनाने
हर चौखट खटखटाऊँगा
चौराहे पर पुकारूँगा
पुकारूँगा
पुकारता ही रहूँगा
आवाज़ के रहने तक
18
साफ़ सुथरा
अच्छा
चमकता
दिखने के लिये
यह केवल
जरूरी नहीं है कि
आप अच्छे हों
साफ़ हों
चमकते हों
यह भी ज़रूरी है कि
शीशा साफ़ हो
ताकि
उसमें से आप दिखें
चमकते
साफ़ सुथरे
अच्छे!
19
मैं जानता हूँ
जून की दोपहरी में
बहती लू में
कलियाँ नहीं मुस्करातीं
जानता हूँ मैं
भागते -भागते
थककर जिस दीवार पर टेक ली
उसी के खंजरों ने
छुरा घोंपा था
लिपटते घिसटते भागते
रेत में पानी दिखने पर भी
पानी नहीं मिलता
सत्य धर्म पर
रहते
लड़ते भी
विजय नहीं मिलती
तमाम मेहनत व नेक नियत
के बाद भी
हर बार
हार जाते हो
कोई साथ नहीं देता
कोई सहारा नहीं देता
जानता हूँ मैं
नाउम्मीदी के मंज़र में
उदासी ही पलती है
मैं जानता हूँ
हार सिर्फ़ हार नहीं होती
चोट होती है
आत्म विश्वास पर
दिल पर
दिमाग पर
यह भी जानता हूँ
लहरों से लड़कर भी
किनारों से हारता है आदमी
इसीलिए तुम गुमसुम रहती हो
उदास रहती हो
रोती रहती हो
हार में हँसी भी हारती है
ताज़गी भी हारती है
प्रसन्नता भी हारती है
तुम रो लेना
मन कहे तो और रो लेना
उम्मीदों की मौत पर रो लेना
आत्मविश्वास खंडित है तो भी रो लेना
लेकिन
लड़ना
लड़ना मत रोकना
ज़िंदगी की अंतिम साँस तक
परिचय
अमित कुमार मल्ल
जन्म स्थान : देवरिया
शिक्षा : एम 0 ए 0, एल 0 एल 0 बी0
व्यवसाय : सेवारत (कानपुर नगर में)
रचनात्मक उपलब्धियाँ :
1982 से साहित्यिक क्षेत्र में
प्रथम काव्य संग्रह - 'लिखा नहीं एक शब्द' 2002 में प्रकाशित
प्रथम लोक कथा संग्रह - 'काका के कहे किस्से' 2002 में प्रकाशित
दूसरा काव्य संग्रह - 'फिर' , 2016 में प्रकाशित
2017 में ,प्रथम काव्य संग्रह - 'लिखा नही एक शब्द' का अंग्रेजी अनुवाद 'Not a word was written' प्रकाशित
काव्य संग्रह - 'फिर' की कुछ रचनाये , 2017 में ,पंजाबी में अनूदित होकर 'पंजाब टुडे' में प्रकाशित
तीसरा काव्य संग्रह - 'बोल रहा हूँ' , वर्ष 2017 में प्रकाशित
नवीन काव्य संग्रह - 'बूँद बूँद पानी' , प्रकाशन हेतु प्रेस में
कविताएँ, लघुकथाएँ एवं लेख देश के प्रमुख समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित
पुरस्कार / सम्मान :
राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश द्वारा 2017 में, डॉ शिव मंगल सिंह सुमन पुरस्कार, काव्य संग्रह 'फिर' पर दिया गया ।
सोशल मीडिया पर लिखे लेख को 28 जन 2018 को पुरस्कृत किया गया ।
अन्य :
लखनऊ आकाशवाणी केंद्र से काव्य पाठ प्रसारित
फिर काव्य संग्रह की कुछ कविताएं पंजाबी पत्रिका में अनुवादित होकर प्रकाशित
सत्र 2018-19 में दो विश्वविद्यालयों में एम0 ए0 के उत्तरार्द्ध में 2 लघु शोध प्रस्तुत
मोबाइल : 9319204423
ई मेल : amitkumar261161@gmail.com
ट्विटर : https://twitter.com/amitmall1906?s=09
ब्लॉग : https://amitkumarmall.blogspot.com/?m=1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें