भरत प्रसाद |
अबोध आंसुओं की पटकथा
(प्रतिदिन हत्या और बलात्कार की शिकार बन रही बच्चियों और बच्चों के नाम)
एक न एक दिन तय है तुम्हारी पराजय
सुनिश्चित हो चुका है तुम्हारा अपूर्व दंड
आकाश –पाताल कहीं भी छिप जाओ
मेरी आँखें खोज लेती हैं –अपराधी
अमृत बीज हूँ मैं
फूट ही जाऊँगा चट्टानें तोड़कर
मेरी आँखें पहचान लेती हैं
चेहरे पर नाचती हैवानियत का ज्वार
सूंघ लेती हैं , आँखों से फूटती
हवश की बदबू
शिनाख्त कर लेती है आत्मा
तुम्हारे दर –नंगेपन की
लाख सज्जनता के बावजूद |
भूल मत करना कि अबोध हूँ मैं
मेरी मासूमियत के दमन में
तुम्हारी मृत्यु की चिंगारी छिपी है
छिपा हुआ है मेरी अकाल मौत में
तुम्हारी कायरता का इतिहास
खेल डालो सारा हत्यापन
निचोड़ लो अपनी गंदगी की एक –एक बूँद
जी भरकर नाच लो पागलपन
मेरे नन्हें दिल से उठती हुई हाय
छेद डालेगी तुम्हारी अंतरात्मा
भाग लो अपने आपसे भी
मेरी मौत की विकट हूक
काल बनकर पीछा करेगी
छिप जाओ चाहे कहीं भी
मिट्टी बन चुकी मेरी मासूम हड्डियों से
तुम्हारे पुराने अन्धकार के खिलाफ
अनहद पुकार उठेगी
सदियों तक ...सदियों तक ..... |
आठ बसंत का बचपन
(कठुवा काण्ड की आसिफा की याद में )
जिसकी अठखेलियाँ अनगढ़ संगीत थीं
धरती के आँगन में
जिसके क़दमों के निशां
पैगाम थे जीवित सृष्टि के
जिसकी कूक पक्का आश्वासन थी
खुशहाली का
जिसका बचपन दबी हुई दूब होकर भी
मिसाल था
चट्टाने तोड़कर जिन्दा रहने का |
जैसे उगने के पहले
कुचल दिया जाय अंकुर
जैसे लिखे जाने के पहले
फाड़ डाला जाय पन्ना चिन्दी-चिन्दी
जैसे खुलने के पहले ही
फोड़ दी जायं नन्हीं आँखें
वैसे ही शिकार हुई एक पंखुड़ी
दो पैर वाले जानवरों का |
नोंचा फिर खाया ,खाया फिर नोंचा
खाया,खाया और ,और खाया
नोंचा,नोंचा और,और नोंचा
एक नहीं ,दो नहीं
दस –दस दिन लगातार
दस –दस के पंजों ने बार –बार,
बार –बार|
आठ बसंत का एक बचपन
विदा हो चुका है धरती से
जैसे अलविदा कहती हैं उम्मीदें
हर मोर्चे पर मात खाने के बाद
टप-टप झर जाते हों आंसू
अपने ही दरिया से
अपमान की बाढ़ के बाद
जैसे मिट गयी हो एक सीढ़ी
मनुष्य की ऊँचाई की
ख़त्म हो गयी हो पहचान
आदमी होने की ,
जैसे नाच रही हो नियति –सिर पर
हमारे अमानव होने की बेतरह |
ईंटवाली
पेट भरने का
सपना
मृग मरीचिका
की तरह नाचता है
अधकचरी
हड्डियाँ हार खा-खाकर
असमय ही मजबूत
हो चुकी हैं
आँखों में,
न बचपन जीने
की ललक
न प्यार-दुलार
की प्यास
न ही माई-बाप,
खो देने वाले
आँसू-
बची है तो बस
भूख से लड़ने
की सनक,
आबरू बचाते
फिरने की चिन्ता,
अकेले
जीने-मरने की बेवशी
और, मार खा-खाकर भी
अभी न मरने की
भूख।
पौधे की तरह शरीर
कठपुतली की तरह नाचती है
पैर हैं कि फिरकी
थक-थककर, थकना जानते ही नहीं
हाथ हैं कि टहनियाँ
जिसने काम के आगे झुकना ही नहीं सीखा ;
जन्मी तो
बिटिया ही थी
गरीबी ने उसे
बेटा बना दिया
लड़की होकर जी
पाना उसे कहाँ नसीब ?
मासूमियत का
रंग, अंग-अंग से गायब है,
मजबूरी की मार
खा-खाकर
बचपन ने कब का
दम तोड़ दिया,
प्रतिबन्धित है उसके लिए
युवती होने के सपने देखना
आकाश-पाताल के
बीच
वह किस पर
विश्वास करे,
कुछ समझ में
नहीं आता
आजाद पंक्षी
की तरह उड़ने की चाह
शरीर के
किस-किस कोने से उठती होगी,
कौन जाने ?
लोगों की
जुबान से उसका असली नाम गायब है,
मजदूर है इस
कदर कि
जिन्दा रहने
की पहचान ही गायब है
मान-सम्मान, इज्जत-आबरू छिन जाने के बावजूद
बची हैं तो
दोनों कलाइयों में
रंग-बिरंगी
चूड़ियाँ
जिसे माई ने
अपने हाथों पहनाया था।
कटी हुई डाल
अपने होने की
हकीकत
और कुछ भी न
होने की कसक के बीच
कटी हुई डाल
की तरह
काट लेती हैं
सारी उम्र
किसी चोट की
तरह टभकते हुए|
शरीर पर रोयें
ज्यादा हैं
या रात –दिन चुभती पराजय के कांटे
कौन जानता है ?
किस क्षण वे
स्त्री हैं ,किस क्षण पुरुष
किस क्षण कुछ
भी नहीं
कौन बता सकता
है ?
होगा कोई एकाध
अपनेनुमा अपना
परअपने सिवाय
अपना कोई भी नहीं
बर्फ के
मानिंद
आँखों में जमे
हुए दरिया में
असंतोष की
बिजली सोती है
वे जब खड़ी हो
जाती हैं
तो देखते ही
बनती है
हार न मानने
की अदा
रोतीहैं तो
पृथ्वी मानो थम जाती है
आधी –अधूरी ममता की आत्मग्लानि में
इतिहास के
अहम् सवालों में से एक है
उसके वजूद का
इनकार |
मानिए या न
मानिए
पर उसके बगैर
हासिल कहाँ होने वाला
मानवता की
यात्रा का शिखर?
धूसर माटी का
रौशन चेहरा
बड़ी आग है इस
माटी में
जो लहू में
हिम्मत बनकर दौड़ती है
साँसों में
बहती है जज्बे की तरह
धड़कनों में भर
देती है अड़ने की दीवानगी
यह माटी कोई
हंसी –खेल नहीं |
तुम्हारे नंगे
पाँव जब छूते थे पृथ्वी
धरती अपना
प्राण उड़ेल देती थी तुम्हारी नसों में
तुम्हारा
मस्तक जब जन्मभूमि को सलाम करने झुकता था
मंजिलें बहुत
करीब हो जाती थीं
हिमादास!
बिजली के
मानिंद तुम्हारी दौड़
आधी दुनिया के
अँधेरे में उजाले की आहट है |
तुम्हारी कभी
न मिटने वाली विजय
तुम्हारी
प्रतिभा में नहीं छिपी है हिमा!
न इंच दर इंच
की लड़ाई में
न ही कदम कदम
पर संकल्प का बीज बोते
तुम्हारेगिरते
हुए पसीने में
तुम्हारी विजय
भारतवर्ष की औरत की पुकार है
धूसर धरती के
सीने से उठी हुई |
दिशा दिशा में
चमकती शोहरत के बावजूद
तुम्हारी
खामोश निगाहों में मंजिलों की भूख बाकी है
जय जयकार में
कीर्ति उछल जाने के बावजूद
पाँव जमीन में
धंसे हुए हैं –देखता हूँ
किन्तुब्रह्मपुत्र
के तांडव में दर –ब –दर
बेवतन चेहरों
की अहक में
तुम्हारे बहते
हुए आंसू
तुम्हारी
अनोखी जीत की घोषणा करते हैं |
फूलनदेवी: एक सवाल
अधूरी
आजादी के लम्बे इतिहास में
पहली बार सन -२००१
महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित हुआ
और पिछले वर्षों , औरत की गुलामी के खिलाफ
दिल्ली में जलती हुई मशाल को
सरेआम बुझा दिया गया |
गलती की थी उसने
पुरुषों की हवस रुपी
शाश्वत पशुता के खिलाफ
और उच्च वर्ग की सदाबहार
मनमानी के खिलाफ
औरत होकर बगावत की थी
क्योंकि आजकल व्यस्था के कूड़े पर
चारों ओर फल फूल रही
अन्याय की संस्कृति का शक्तिशाली
मुखिया
घोषित होता है ईमानदार
और जमाने से खुलेआम
लड़ने वाला सच्चा पर गरीब आदमी
पूरी साजिश के साथ गलत
करार दिया जाता है |
फूलन का गाँव आज के जमाने में
किसी
प्राचीन सभ्यता के
बीते हुए जीवन जैसा था
कच्चे मकानों की बूढ़ी दीवारों
और
विधवा झोपड़ियों से भरा हुआ बुरी तरह
लगता था जैसे ,सदियों से चुपचाप
समय के थपेड़ों में धीरे –धीरे मर रहा हो
और
उजड़ा हो इतना कि बसने से डर रहा हो
पिता मल्लाह थे , नामथा देवीदीन
मिट्टी का घर था , लेकिन अपना नहीं पुस्तैनी
बस दो बीघा जमीन
जैसे निर्धन के घर में दुबले बच्चे की मुस्कान
न गाय , न बैल , न रोजी , न रोजगार
सिर्फ अपने कुछ बल पर कठिन मेहनत की आशा
इसी तरह
पैसे की लकड़ी पर
धधक रही
दुनियां में जल करके
बचे –खुचेजीवनकोकिसी
तरह काट रहे
लाचार पिता
ने
अपमान का
घूँट पीकर
भीतर से
काठ बनकर फूलन की शादी की
पति तीस
साल का क्रूर
और फूलन दस
वर्ष की बच्ची
आगे भी
बुरा हुआ –
पुरुषों की हवश ने फूलन के भविष्य को
बुरी तरह कुचलकर
कई
बार अपमानित करके लूटने के बाद
आखिर बर्बाद कर दिया
तब फूलन अपने धराशायी स्वाभिमान को
पुनः उठाने के लिए , अपनी नजरों में
खुद को पाने के लिए
चम्बल के बीहड़ों में उतर पड़ी
और बन्दूक की भाषा में खूंखार बागी बन गयी
फूलन विद्रोह के
इतिहास में
औरत
के ज्वलंत पाठ की तरह है
जिसने नारी की
स्वतन्त्रता पर
कुंडली मार कर बैठे
हाथ और पैर वाले साँपों को
ललकारा
और बीच गाँव में
निर्वस्त्र
अपनी इज्जत का नंगा तमाशा देखने वाले
इज्जतदारों को
बन्दूक की भाषा में
औरत को तमाशा न समझने की सबकसिखा दी
इसके बावजूद यदि फूलन
ने गलती की
तो हम सब दिमाग वाले पागल हो गए हैं
हमने ह्रदय और विवेक को नजरबन्द कर दिया है
और उसके सारे
रास्तों पर पाबंदी लगा दी है –
जो दूसरों तक जाते
हैं
बीत
चुकी फूलन
हमारे समाज के सामने
हमारी सभ्यता के सामने
हमारी मनुष्यता के सामने
हमारे आज और हमारे
कल के सामने
एक सवाल बनकर खड़ी है
एक जिन्दा सवाल
जो शायद वर्षों तक जीवित रहे |
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