22 अप्रैल, 2020

कुमार मंगलम की कुछ कविताएँ



कुमार मंगलम

परिचय :

इग्नू, नई दिल्ली से समकालीन हिंदी कविता पर शोधरत, 

कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।





[1]

रात के आठ बजे



मैं सो रहा था उस वक्त
बहुत बेहिसाब आदमी हूँ
सोने-जगने-खाने-पीने
का कोई नियत वक्त नहीं है
ना ही वक्त के अनुशासन में रहा हूँ कभी

मैं सो रहा था साहब उस वक्त
मेरी क्या गलती थी
मेरे पास कुछ पाँच हज़ार जमा थे गाढ़े समय के लिए
छुपा के रखे थे पाँच-पाँच सौ के दस नोट

मैं अभी अभी रिक्सा खींच कर आया था घर
सोचा थोड़ा सुस्ता लूँ
तब तक झपकी लग गयी थी
कुछ शोर सुनाई दिया था
मित्रों...लॉकडाउन...घर...बंद...बाज़ार... बंद
स्वास्थ्य...अर्थव्यवस्था... बीमारी...महामारी

मेरे घर में अगले दिन के लिए राशन नहीं था
गेहूँ मिल में दे आया था पिसाने को
सोचा था आज की रात किसी तरह काम चल जाएगा
कल सुबह दाल और सब्जी लेता आऊंगा

मैं रोज लेबर चौराहे पर बैठता हूँ साहब
बड़े लोग आते और दिन भर के काम के लिए
मोल ले जाते
मुझे तो सप्ताह में एक ही दिन काम मिलता था
शरीर झुक गया था
ऊपर से गाली पड़ती अलग
मैं कामचोर नहीं था साहब
लेकिन घर पर बैठे रहने से भोजन तो नहीं मिलता
जैसे भी कर के नून रोटी का जुगाड़ हो ही जाता था
अब यहां कोई काम ही नहीं
तो यहाँ क्यों रहना
हम कहाँ जाते साहब
हम तो ट्रेन में भी पाखाने में बैठ के आये थे
सो पैदल ही गाँव चल दिए

मैं कहाँ जाता साहब
कहाँ बंद होता
खुली सड़क ही अपना आशियाना था

साहब! हम जैसे बहुत बेचैन लोग
अन्ततः मर जाने के लिए ही होते हैं
या फिर मारे जाने के लिए
क्या फर्क पड़ता है कि
कोई महामारी हो
कोई बंदी हो
अकाल को, सूखा हो, बाढ़ हो
जब तक जिंदा हैं
शरीर का बोझ ढोते हैं
और जब मर जाते हैं
आपके लिए मुश्किल हो जाती है।



[2]


संगरोध



1
निर्वाक् हैं जन
रास्ते सूने
जनस्थान शून्य

शून्य में गूंजता अनाहत शोर



2
शोर
चिल्लाने से अधिक
चुप का

चुप्पी ऐसी
कि सामूहिक कैदी हों सब



3
एकांत
अपने को जानने के लिए

अज्ञातवास
अपने को खोजने के लिए

किंतु
यह अकेलापन
बोझिल और उबाऊ



4
खीझ
अनमने ऊब से
पैदा हुई



5
यह वक्त
महामारी का है
प्रेम का नहीं
उत्सव का नहीं

यह वक्त कविता का नहीं
गद्य का है
और गद्य के बढ़ते जाने में
कविता के अवकाश
का इंतज़ार
मनुष्य द्वारा किये गए
प्रतीक्षा की परीक्षा है।




[3]


शहर


यहाँ के मूल निवासी खो गए हैं
या वे विस्थापित हो गए हैं
न जाने कहाँ
यहाँ जो रहते हैं
वे भी विस्थापित हैं
एक अनंत यात्रा के अनथक यात्री

सराय है यह
डेरा है
यहाँ घर किसी का नहीं।



मजदूर


अपने घरों को छोड़
डेरों में रहने को अभिशप्त वह आदमी
जो पैर को पूरा फैला दे तो
दीवाल आड़े आ जाए

रोज न्यूनतम कमा लेने की जद्दोजहद
जिससे उनके परिवार की
जीने की न्यूनतम शर्त बनी रहे।



जीवन


मंदिर की सीढ़ियों पर
किसी भक्त के आने के इंतज़ार में
पेट को दबाए
बैठा है कोई

सभी अपने घरों में कैद है

और मंदिर के चिर स्थायी नागरिक
बेदखल कर दिए गए हैं
उनके लिए जीवन दो रोटी की कामना भर है।



गाँव


वह स्थान
जहाँ बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां ही शेष हों
जिसके युवजन
किसी त्योहार में अतिथि की तरह आते हैं
या किसी महामारी के बाद



किसान


खेत में पकी फसल को
नहीं काट पाने की
बेचैनी में
करवट बदलता जगन्नाथ

बेवस है
अबकी वह अपना भी पेट नहीं भर पायेगा।



मृत्यु


पैदल ही चला था वह
एक अनंत यात्रा पर

दुःख और दुत्तकार के अद्वैत को ढोता
जब थक गया
लोगों ने कहा
मर गया बेचारा

मैंने कहा
इसे किसने मारा

एक सांस्थानिक हत्या
जो लोकतंत्र के महाअरण्य में घटित हुआ है
इसे किसी ने दर्ज नहीं किया।



[4]


प्रलाप

निपट अकेलेपन का
एकांत
और सबके साथ
कैद हुए सबके सब
का एकाकी जीवन
कुछ चिल्लर सरीखा बचा हुआ प्रेम
कुछ जमा धन की तरह
खर्च न हुए नफ़रत
और इन सब से जूझता मैं

चाँदनी रात का इंतज़ार बहुत लंबा है
और अमावस्या से दिन काटे नहीं कटते
कहीं कोई गुल भी नहीं खिलता उम्मीद का
जैसे स्मृतियों में अक्सर आ जाती हो तुम
अब तो ऐसा लगता है कि
तुम्हारे आने का इंतज़ार एक फरेब है
फरेब का झूठ कब तक टिकता है भला

और हम अपने आप से खिन्न
लड़ते जा रहे हैं
सुलह एक समझौता भर है
दो थके हुए वादी-प्रतिवादी का
जहाँ नए झगड़े के आगाज़ का
इंतज़ार है
पर झगड़ा है कि
शुरू ही नहीं हो रहा है

तब तक सबकुछ स्थगित है
स्थगन स्थायी भाव की तरह
सबके माथे पर सवार है
बाजार की तरह प्रेम भी ठप्प पड़ा है।


[5]


चाय

खुरदुरे यथार्थ के ज़ानिब
स्मृतियाँ खुरचती हैं मुझे

स्मृतियों में मणिकर्णिका दर्ज है

और तुम्हारा साथ
चाय के कुल्हड़ से निकलते भाप की
गर्माहट लिए हुए है

तुम अब भी वहां हो
और मैं किसी उजाड़ संसार का रहवासी हूँ

पता है तुम्हें
मैं इधर चाय अधिक पीने लगा हूँ

इस उम्मीद में
कि किसी दिन उसकी गर्माहट में तुम्हें पा सकूँ
लेकिन चाय है कि लगातार ठंडी पड़ती जा रही है।



[6]

पलाश

पलाश वन सा
खिलता है मन
जब तुम साथ होती हो

पलाश फूल सा
दहकता है मन
जब तुम साथ नहीं होती हो

तुम्हारे होने और नहीं होने के बीच
पलाश के फूल हैं
और इनका होना
अपने होने को सार्थक करता है।



[7]

स्मृति के कुछ दृश्य

1.
गोया उस दिन
भूल आई थी तुम
मेरे बिस्तरे के सिरहाने
अपने झुमके

क्या मेरे चुम्बन ने झुमके की जगह को भर दिया था?

2.
एक दिन अचानक दिखी थी तुम
और देखा
चेहरे पर गुरूर
और आंखों में नमी

तुम घाट पर बैठी
अपने कंगन घूमाती कुछ सोच रही थी।

3
गीले लटों को जैसे तुम झटक देती हो
वही दृश्य दर्ज है
तुम्हें देखते जाने का।

4
सुबह-सुबह जब अधलेटा हल्के नींद में था
पलकों को चूम कर जगा देना
ऐसी क्रूरता नींद से निकलना ठीक बात तो न थी।

5
गले में जो तुमने रुद्राक्ष-माला डाल रखा है
मुझसे छीन कर
वो तुम्हारी तस्वीर में दिखी आज

आज जब तुमसे दूर हूँ
कितना करीब लगा तुम्हारे

क्या तुमने सोचा था कि
तुमसे दूर होने के बाद भी इतना नजदीक होऊंगा
कि तुम्हारी धड़कनों को सुन सकूं।

6
तुम्हारे जाने के बाद
बिस्तरों में पड़ी सिलवटें
तकिए पर कुछ लंबे बाल

सोने नहीं देते

कई बार तो बिस्तर ठीक कर चुका हूँ
तकिए भी कई बार साफ किए

लेकिन जो आँखों में कैद है

वो उनींदे ही रखते हैं।

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1 टिप्पणी:

  1. खूबसूरती से बनी हुई कविताएं हैं. लॉक डाउन पीरियड की कविताएं सारे दृश्यों को उबेरकर सामने रख देती है, और ऐसा लगता है कि हां हम भी तो यही कहने वाले हैं. बहुत मुश्किल है इस समय कुछ लिख पाना. कुमार मंगलम में वह बाधा पार की. बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं

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