विशाल अंधारे |
(1)
वो दूसरी
औरत
अपनी
छोटी सी थैली में
बहुत
सारी चीज़ों को ज़बरन घुसाती माँ ने
रोते
-रोते मुझे गले लगाकर कह ही दिया -
"बेटा! अब कुछ नहीं बचा इस घर में
इस घर को
निगल गयी
तुम्हारे
बाप की वो दूसरी औरत"
और
अपने
पल्लू से आँसू पौंछती बिलग गयी मुझसे।
पिछले
माह, माँ की ग़ैरहाज़िरी में
मैंने
देखा था उस दूसरी औरत को
बापू के
कमरे से निकलते
माँ से
बिल्कुल अलग
चमचमाता
लिबास
काजल भरे
नयन
पैरों से
आवाज़ करती पायल
संगीत
संग रखती कदम
अपने
बालों में फूलों से सजा महकता गजरा
माँग में
बहुत सारा कुमकुम
बड़ी
सुन्दर सी हँसी चेहरे पर रख
बाहर
खड़े रिक्शा में निकल पड़ी थी।
न जाने
माँ का प्रेम था
या बेटे
का दायित्व
मुझे ले
गया उसके पीछे
गांव से
थोड़ी दूर
छोटी गली
में,
एक
पुराने मकान के सामने जाते ही
दो नंगे
बच्चों को जकड़कर
अपने संग
लायी मिठाई का डिब्बा खोल
उनकी
बहती नाक को पौंछकर
खिलाती
रही सड़क पर,
उसके
अंदर जाते ही मैं
दरवाज़े
से देखता रहा उसे
एक बेबस
बुढिया को
अपने साथ
लायी कुछ दवाइयाँ देते हुए,
अपने
पहलू में दबे नोट को
दिखाते
हुए कह रही थी
अब
बच्चों की फीस भी भर देगी वो
बहुत देर
तक खूब रोई
अपने
बच्चों से लगकर
और
बुदबुदाती रही बहुत से दु:ख।
माँ के
पहलू में होकर भी
मेरी
नज़रों से नहीं हटी
वो दूसरी
औरत!
(2)
मैं
पहाड़ होना चाहता हूँ
हाँ मैं
पहाड़ होना चाहता हूँ
मेरे शरीर से उग आएँ वो
बरगद, पीपल, सागवान
और बढ़ते रहें आसमान की ओर
मैं लदना चाहता हूँ
उन सभी वृक्षों से
जिन्हें काट दिया गया था
जंगल से शहर बनने की प्रक्रिया में
मेरे अंदर से निकले दरख़्तों को
मिल जाए थोड़ा पानी
इसलिए
तुम बनाना
इस पहाड़ पर कुछ गड्ढ़े
मैं पृथ्वी के बदलते रंग को फिर से
कुछ हरा बनाना चाहता हूँ
पीढियों से काटते ही
आये हो तुम इन्हें
कभी तुम्हारी भूख
कभी तुम्हारे भविष्य के हेतू
तुम ने बनायीं थी इन्हीं से
महाज्ञानी किताबें
इनके भविष्य को खत्म करके
तुम्हारी कंक्रीट की धरती पर
अब कहाँ बचीं जगह इन वृक्षों के लिए
तो सोचा इन्हीं को गोद ले लूं
उन अनाथ बच्चों की तरह
मैं पहाड़ हूँ, ईश्वर
नहीं हूँ
तुम मानव; मानव भी
नहीं रहे
ईश्वर बन गए हो इस पृथ्वी के
आओ बेशर्मो!
अब इन हाथों को तो रोको
जो अब वृक्षों को खत्म कर
पहाड़ों पर अपनी
ललचायी नजरें गड़ाये
खुदाई करने आये इन लालचियों को तो रोक ही लो
तभी भविष्य में
एक था पेड़ ;एक था
पहाड़
इन कहानियों से बच पायेगी
तुम्हारी अगली नस्ल
(3)
आवारा
कुत्ते
कुत्ते
आवारा
कुत्ते
गली
चौराहों पर देते हैं दिखाई
रात में
आसरे में छिपे
किसी
गिरी दीवार के.
बंद घरों
के आसपास
भौंकते
रहते है रातभर
ईमानदारी
की पगड़ी संभाले
करते हैं
सुरक्षा मुहल्लों की
इन्हें
मिली होती है
इन
मुहल्लों से बासी रोटियां
और खराब
हुए सालन
और इतवार
के दिन
बिना
माँस बची बकरियों की हड्डियां
इनके
नसीब में नहीं होते
बिस्कुट,दूध,या गोश्त
के टुकड़े
गले के
पट्टे वालों कुत्तों की तरह
नहीं
होती महंगी गाड़ियां
ना
इन्हें घुमाने ले जाती
मोटी
चमड़ी वाली औरतें
फिर भी
ये जागकर बिताते हैं रात
और
भौंकते हैं गुलाम बनाती
मानव
सभ्यता पर
और रोष
दिखाते है
अपनी सभी
पीड़ाओं का
अपने
विलाप सुर से शायद
गा देते
है अपना स्वातंत्र्यगीत
मध्यरात्रि
के बाद अपने एकांत में
गल्ली के
बच्चे इनपर करते है
छिप छिप
कर हमले
कभी कभी
इसमें टूट जाती है
इनकी
हड्डियाँ
फिर भी
ये मुहल्ले छोड़ नहीं जाते जैसे आदिवासी नहीं छोड़ते
अपनी
जमीन अपना जंगल
आवारा
कुत्ते
कभी बस
से कुचले जाते हैं
दिनभर
पथराव सहते हैं
नुकीले
दांतो से तोड़ते हैं कड़क रोटियों को
आजकल
अपनी सभ्यता का बांध तोड़े
ये काटने
लगे है
मनुष्य
के बच्चों को
और जता
रहे है रोष अपना.
जंगलों
के नियमों को
बतानें
का यही रास्ता
बचा हो
शायद उनके पास
या वो
याद करा दे रहे हैं,
वो भी
चाहते है आज़ादी
शहर की
ख़ौफ़नाक भीड़ से
इतनी
तकलीफ़ में जी रहे हैं
फिर भी
मरना चाहते हैं
एक आज़ाद
मौत
गले के
पट्टों से बंधे कुत्तों की तरह नहीं मरना चाहते हैं ये
बंधी हुई
मौत
बंधी हुई
जिंदगी की तरह
आवारा
कुत्तों को
ढूंढ
ढूंढ कर ख़त्म कर रही है
शहरी
सभ्यता
और कुछ
गिरोह बना रहे हैं
इन्हें
होटलों की मटन प्लेट
उनकी
ईमानदारी से भरी
इतिहास
की सभ्यता पर
मानव की
भूखी और लालची
भूगोली
सभ्यता का गोल
भारी पड़
रह है शायद....
(4)
स्त्री
समय समय पर आती
स्त्रियाँ
मुझे
हरदम कविताएँ लगी
कुछ मेरी
कविता के अंश बनी
तो कुछ
कविता बन के उभरी
मोहीत
करतीं रहीं मुझे
उनके
अंदर की कविताएँ
कुछ गज़लों सी ल़गी
निय़मों
में बसी
जिनके
व्याकरण भी नहीं समझ पाया मैं
कुछ समाज
को दर्पण दिखाती
कोई अपना
ही दर्पण भुली
खुद को
खोजती
कुछ उस
शायरी सी लगी
जिनको
सुनना बहुत दर्दीला था
कुछ
अपहरण हुई सीता सी लगी
तो कुछ
शबरी की मीठे बेर सी
कुछ
कैकयी सी शातीर
तो कुछ
उर्मिला सी अकेली
कुछ उस
बेबस द्रौपदी की तर्हा
जिनका
चीरहरण गावं की पंचायत ने किया
कुछ
सभ्यता की जंजीर से बंधी
कुछ
लास्ट लोकल सी खाली खाली लगी
तो कुछ
मेले में गुम हुये उस बच्चे सी रोती मिली
कुछ रात
सी गहरी लगी
इन सब ने
खोया था कुछ न कुछ
किसीने
खोया था आत्मसुख
किसीने
खोयी थी बच्चों के लिये अपनी नींद
किसींने
अपना समय
किसींने
अपना जीवन
क्या
खोना ही स्त्रीत्व है?
(5)
मैं नहीं
जानता
मैं नहीं
जानता
कितने
दिनों तक एक्वेरियम की
मछलियों
का पानी बदला न जाय
तो वह
देती है प्राण त्याग
मुझे बस
इतना जानना है
पिछले दस
साल में
मेरे
गाँव की नदी की मछलियां
कहाँ हो
गईं गायब
मैं नहीं
जानता
नालंदा
के गौरवशाली इतिहास को
न ही
उसमें पढ़ाए गए
विश्व
स्तर के सबसे गहरे ज्ञान को
मैं
जानना चाहता हूं
पिछली
माह महादु लोहार के बेटे का
क्यों
काटा गया था
गाँव के
स्कूल से नाम
मैं नहीं
जानता
देश के
भिन्न भिन्न जगहों पर
बनाये गए
पुरातन संग्रहालयों में
क्यों
जमा कर रखी है
"अन्याय के खिलाफ लड़नेवाली तलवारें"
जब कि
खुली सड़कों पर
न्याय
माँगते लोगों पर
हो रही
है दिन दहाड़े गोलीबारी
मैं नहीं
जानता
लक्ष्मी, दुर्गा, काली,
सरस्वती
की क्यों होती है पूजा
मैं
जानना चाहता हूँ
देश में
सबसे ज्यादा
क्यों
नहलाया जा रही है स्त्री
एसिड और
केरोसिन से
मैं नहीं
जानता
सड़कों के
सौंदर्यकरन का
कितना
होगा लाभ
जब कि
बहुत छोटे और
सुनसान
होती जा रही है
मनुष्यता
की तरफ जानेवाली सड़कें
मैं नहीं
जानता हड़प्पा से
निकाले
गए पत्थरों से
हम कभी
सीख पाएंगे
प्राचीन
सभ्यताओं को
मैं बस
जानना चाहता हूं
जिंदा
इंसानों के पत्थर होने के राज
मैं
जानना चाहता हूं
एक्वेरियम
में बचाई
जा रही
मछलियों की तरह
मनुष्यता
बचाने के उपाय
मैं
जानना चाहता हूं
इस धरा
पर
सबसे
ज्यादा क्रूरता
इंसान
में है
या किसी
धर्म मैं...?
(6)
कविता
जब
पृथ्वी बंद कर दे अपनी परिक्रमा
सूरज बदल
दे अपना सूर्यमंडल
मंगल से
गायब हो जाये सारा पानी
या
प्लूटो जैसे गायब हो बुध, शुक्र ओर
शनि
सागर का
सारा खारा जल
घेर ले
पृथ्वी कि जमीन
और
पृथ्वी पर उग आयें सारे नमक के पेड़
पंछी भाग
खड़े हों इस विरान पृथ्वी से
कौवे गा
दें इस सँहार का काला गीत
पहाड़ खुद
को डूबा लें किसी स्त्री के आसुँओं में
नहरे
पानी से ज्यादा बहा रही हो रक्त
बादलों
पर जमा हों हुकूमत के पैगाम
बंदूकें
तनी हों स्वार्थ के लिए
दुनिया
के सब मनुष्य बन जाये बकरियां ओर कोई हुकुमशाह अपने हिसाब से दे उनकी बलि
तब भी
बचानी चाहिए कविता
जब सब
खत्म हो जाएगा
तब भी
कविता में बसी रहेगी दुनिया
और
जब
पृथ्वी पर फिर से बनेगी नयी दुनिया
तो उसे
अपना हाथ देगी कविता
और खड़ी
हो जाएगी दुनिया
कि
कविता
उठने के लिए ही होती है
(7)
मजदूर
औरतें
मजदूर
औरतें काम से
रोज तो
लौटती है
अपने
घरों की तरफ
कोई भूख
की आग को बुझाने
ले के
राशनपानी दौड़तीं - पहुँचतीं है घर
कोई
बच्चों की स्कूल फीस की
गांठ
बांध अपने पल्लू में पहुँचते ही घर
कोई
लोकलों में धक्के खाते
देख रही
होतीं है नये घरों के हसीन सपने।
समय के
साथ बढ़ायी ही है
इन्होंने
अपनी रफ़्तार
सवार है
अब विजय के अश्वरथ पर
बलशाली कंधों
ने उठा रखी है
समझ की
गदा
और
एकाग्र मन से
लगा रहीं
है करारे बाण
अपनी
दरिद्रता के असुर
मस्तिष्क
के बीचोंबीच
वो पार
कर रही है
दुखों के
सारे अरबी समुद्र
वो नील
बन के
बन गयी
है अपनी
छोटी
दुनिया के लिए वरदान
वो पचा
रही है नीलकंठ
के जैसे
विष के प्याले
वो बहुत
तेजी से काट रही है
मजबूत
हाथों से
जीवन की
खेती में उपजे
समस्याओं
के तने
और सींच
रही है
मजबूती
से अपने
आशादायी
सपने
इतनी
सारी हिम्मतों के बाद
जब वो
लौटती है घर तो
हो जातीं
हैं बेबस
अपनी खुद
की स्वतंत्रता के लिए
नहीं
निकाल पाती हैं
हलक़ से
एक भी शब्द
घरों की
दीवारों में आ
क्यों
बदल जाती हैं औरतें?
(8)
प्रेम
में हारे हुए लड़के
प्रेम
में हारे हुए लड़के दिखाई देते हैं
अकेले
गुमसुम चुपचाप
दिन में
चाय की दुकानों में
जलती
सिगरेट से बनातें
अपने
आसपास धुंदला आसमान
और उसमें
खोये रहते हैं ।
रात में
मुधशाला में लगाते हैं हाजरी
और पी
जाते है असफलता के घूँट
नशे में
धुत वीरान सडकों पर
चीख चीख
के निकाल देते हैं अपनी भड़ास
और
लड़खड़ाते कदम से लौटते हैं घर ।
क्या
होता हैं इनका दोष
क्या वो
जरूरत से ज्यादा करते हैं प्रेम उन प्रेमिकाओं से
जो जान
नहीं पाती इनके मन
क्या ये
होता इनका दोष
कि वह
अपनी प्रेमिकाओं को
भगा नहीं
ले जातें उन्हें उनके घर से
या वो
सम्मान देते हैं पूर्वजों के रीतरिवाजों को
या वो
जातिधर्म के चक्रव्यूह को तोड़ नहीं पाते
या
परंपरा से प्रेम करती प्रेमिकाओं को
समझा
नहीं पाते अपना प्रेम ।
प्रेम
में हारे लड़कों के मन
बोझिल हो
जाते हैं
वो आधी
जली सिगारेट से करते है बातें
आसमान की
तरफ देख बार बार रो देते हैं
वो अकेले
हो जाते हैं
समय के
अंधकार में झोक देते है अपना भविष्य
समय के
कदम से नहीं मिला पाते कदम
इतना थम
जाते हैं
कि बंद
पड़ी घड़ी की टिकटिक से खमोशी ओढ़ ले गहरे खो जाते हैं प्रेम विफ़लता की अंधियारी गुफ़ा
में ।
प्रेम
में हारे लडक़े कर लेते हैं
बहुत बार
आत्महत्या
पढ़े
मिलते हैं ट्रेनों की पटरी पर कटे
या गावँ
के चौपाल के बढ़े नीम के वृक्षों से लटके
या जहर
की बोतलों से पी जाते हैं
उनके
एकांत का विषकलश ।
जो इन सब
से बच जाते हैं
दिखाई
देते हैं
बड़े
ऑफिसों के फाइलों में गणितीय आंकड़ों से घिरे
बार बार
बांचते हैं उन फाइलों को
उनमें
अपने प्रेमपत्र होने की लालसा से
करते है
रातरात काम
अंधकार
से कर लेते हैं प्रेम।
प्रेम
में हारे लड़के
प्रेम से
कभी हारना नहीं चाहते
वो बस
प्रेम करना जानते हैं और प्रेम निभाना ।
(9)
मछली
कल मेरी
खिड़की से उड़ते देखा
मैंने
कुछ मछलियों को
नल से भी
कुछ
उतर आयी
बर्तनों में
कुछ
भगवान के शुद्ध पानी में
भी थी
पीने के
पानी में तो
बहुत
सारी थी
सभी जगह
उड़ती भागती दिखी मछलियां
सारा शहर
एक गंध से भर गया
कुछ ही
समय में
मुजे लगा
वो
शायद
साफ पानी
की तलाश में थी
मेरी
तरहा
वो नहीं
ले सकती है
शुद्ध
पानी की बोतलें
और नहीं
बुजा सकती है
खुदकी
प्यास
प्यास सब
को होती है
शुद्ध
हवा की
शुद्ध
पानी की
शायद
हमने उनका पानी गंधा किया है
तो
उन्होंने तैरना छोड़
हवा में
उड़ना सिख लिया
अब वो
हमारे पानी को गंधा करेगी
अब मुझे
भी जल्द ही भी
उड़ना
सीखना होगा....
(10)
मैं
मैंने
कविता को सिर्फ
कविताओं
की तरह नहीं देखा
उस तरह
देखा
जैसे राम
ने देखा था
लंका से
लौटे
हनुमान
के शब्दों में सीता को
जैसे
लक्ष्मण के मूर्छित होने पर
संजीविनी
ले आते हनुमान को
देख रहा
था सारा संसार
जैसे
सामने मृत्यु है
ओर वापस
लौटना असंभव है
ये जानते
हुऐ भी
आगे बढ़ते
अभिमन्यु की तरह
मैं उस
तरह
देखता
हूं कविताओं को
जैसे
देखा था पाश ने घास को
जो हर
किये धरे पर उग आयेगी
उसी
विश्वास से
जैसे
केदारनाथ ने उसका मुलायम
हाथ ले दुनिया
को सोचा था
उतना ही
मुलायम होना
आलोकधन्वा
ने इतनी सारी ट्रेनों
को देख
अपनी तरफ
आनेवाली
ट्रेन का किया इंतज़ार
हाँ उसी
तरह मैंने भी किया है
इंतज़ार
इन कविताओं का
मैं मरने
नहीं दूंगा मेरी कविताओं
को
उदयप्रकाश की कविताओं के
उस आदमी
की तरह
जो मरने
से पहले कुछ नहीं
सोचता और
कुछ नहीं बोलने से
पहले मर
गया
मेरी
कविताओं की भूख
सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना उस तीसरे
आदमी की
भूख की तरह है
जो आलू
कहकर मरा
मैं
कविता कहकर ही मरना चाहूंगा
तब मेरी
कविताएँ मंगेश डबराल
के चुंबन
की तरह उग आये
और चूमे
सभी के जीवन को
इतनी
तरलता से
जैसे
प्रेम के
पहले चुंबन में
होती है
सरलता
दुष्यन्त
कुमार की तरह रेल सी
गुजरे और
में किसी पुल की तरह
थरथराता
रहूं जीवनभर
हाँ मैं
कविताओं को
सिर्फ
कविताओं की तरह
नहीं
देखना चाहता
मैं
कविताओं को जीने आया हूँ
मैं
कविता को बोने आया हूँ
परिचय
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मूल नाम - विशाल किशनराव अंधारे
पिता - श्री किशनराव अंधारे
माता - श्रीमती कोकिला देवी
जन्म - 1 जनवरी 1980
शिक्षा - M.A (लोकप्रशासन)
B.ed (मराठी)
व्यवसाय - होटल विश्व & विशाल
बोरवेल।
प्रकाशित - एक कविता संग्रह आठवें रंग का गुब्बारा (2019) में प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त देश की महत्त्वपूर्ण
पत्र-पत्रिकाओ में कविताएं प्रकाशित। आखिल भारतीय मराठी समेलन में कवितापाठ
सम्पर्क - ग्राम-मुरुड
पोस्ट-मुरुड,
जिला-लातुर
(महाराष्ट्र)
पिन-413510
मोबाइल-9860824868 & 8999152322
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बधाई हो... बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंआत्मिय आभार
हटाएंबेहतरीन लिखावट...दिल को छुने वाली सभी कविताएँ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जी
हटाएंबहुत प्रभावी और भावपूर्ण रचनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
हटाएंबहुत उम्दा लेख
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कविताएँ विशाल जी की । बिजूका को धन्यवाद इन कविताओं को पढ़वाने के लिए ।
जवाब देंहटाएं