मृत्युंजय पाण्डेय |
‘पंचलाइट’ रेणु की बेहद
चर्चित और प्यारी कहानी है। कलकत्ता के निकलने वाली ‘सुप्रभात’ पत्रिका के
जनवरी-फरवरी, 1958 के अंक में
यह कहानी प्रकाशित हुई थी। विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों और
विश्वविद्यालयों में यह कहानी पढ़ी-पढ़ाई जाती है। पहली बार मैंने ‘पंचलाइट’ कहानी कब पढ़ी थी, यह ठीक-ठीक याद
नहीं, पर उसकी याद आज
भी बनी हुई है। बाजार से लेकर गाँव तक की यात्रा में रेणु हमें कहीं भी अकेला नहीं
छोड़ते। ‘पंचलाइट’ खरीदते समय भी
पाठक बाजार में उपस्थित रहता है और ‘पंचलाइट’ जलाते समय भी। बाजार में
वह भी गाँव वालों के साथ दुकानदार से तर्क करता है और उसके न जलने पर गाँव वालों
की तरह निराश भी होता है। वह सीधे-सीधे अपने आप को उस सभा से, उन लोगों से जोड़
लेता है। यह रेणु की खासियत है कि वे एक क्षण के लिए भी अपने पाठकों को अकेला नहीं
छोड़ते। वह कभी भी अपने आप को अजनबी महसूस नहीं करता। रेणु की दुनिया में विचरता
हुआ पाठक उनके किसी-न-किसी पात्र से अपने आप को जोड़कर देखता है।
‘पंचलाइट’ कहानी साहित्य की दुनिया से बाहर निकलकर फिल्म जगत
में भी प्रवेश पा चुकी है। गाँव-गाँव, घर-घर में ‘पंचलाइट’ की रोशनी पहुँच
चुकी है। सन् 1958 में इसके प्रकाश से सिर्फ पूर्णिया का ‘महतो टोली’ पुलकित हुआ था, लेकिन आज भारत के
सारे महतो या कहें महतो जैसे दबे-कुचले लोग पुलकित हो उठे हैं। आजादी के बाद रेणु
ने जो सपना देखा था, आज वह साकार होता नजर आ रहा है। सन् 1966 में रेणु की ‘तीसरी कसम’ कहानी पर पहली
फिल्म बनी थी और उसके पचास साल बाद सन् 2017 में प्रेम प्रकाश मोदी के निर्देशन
में ‘पंचलाइट’ कहानी पर ‘पंचलैट’ नामक दूसरी फिल्म
बनी। ‘पंचलैट’ प्रेम प्रकाश मोदी
की हिन्दी में निर्देशित पहली फिल्म है। अमूमन कोई भी निर्देशक इतना बड़ा खतरा नहीं
मोलता। लेकिन प्रकाश मोदी ने इस खतरे को न सिर्फ उठाया, बल्कि शहर-शहर उसे
पहुंचाया भी। प्रकाश मोदी ने अपने एक साक्षात्कार में इस बात का उल्लेख किया है कि
कक्षा नौ में उन्होंने रेणु की ‘पंचलाइट’ कहानी पढ़ी थी और तभी से वे उसके मुरीद हो
गए थे। इस कहानी से वे अपने आप को बहुत रिलेट कर पाते हैं और तब से यह कहानी उनके
मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। उन्होंने सोचा था जब कभी भी फिल्म बनाऊँगा, उसकी शुरुआत रेणु
की इसी कहानी से करूँगा।
रेणु की ‘पंचलाइट’ कहानी पर फिल्म बनना जहाँ खुशी की बात है, वहीं इस बात का
दुख भी है कि रेणु साहित्य पर दूसरी फिल्म आने में पचास वर्षों का समय लग गया। इस
दृष्टि से देखें तो न जाने अगली फिल्म आने में और कितने वर्षों का समय लगे।
चमक-दमक की इस दुनिया में साहित्यिक चीजों के प्रति लोगों का रुझान खत्म होता जा
रहा है। बाजार के तड़क-भड़क में हम अपनी मूल चीजों को खोते जा रहे हैं। हमें वही
चीजें सही लग रही हैं, जिसे बाजार या मीडिया परोस रहा है। सरकार भी इन चीजों को
प्रोत्साहित नहीं कर रही। बल्कि कई अर्थों में बुद्धिजीवियों को वह एक खतरे के रूप
में देख रही है। हाँ ! लेकिन चुनाव के समय अपने जातीय समीकरण को ठीक करने के लिए
वह उन्हें याद जरूर करती है। कभी-कभी उनकी प्रतिमा बनवाकर उसपर फूल-माला भी चढ़ा
देती है। लेकिन उनके साहित्य से, उनके विचारों से उसका कुछ लेना-देना नहीं है।
कुछ लोग रेणु की ‘पंचलाइट’ कहानी को स्वतंत्र भारत के कल-पुर्जे से
जोड़कर देखते हैं। यानी पण्डित नेहरू के सपनों के भारत से। लेकिन मुझे लगता है कि
इस कहानी का सम्बन्ध जातीय चेतना से बहुत अधिक है। आप कह सकते हैं कि जातीय चेतना
या जातीय अस्मिता का आगमन तो सन् 1990 के आसपास होता है और रेणु इस कहानी को लिखते
हैं सन् 1958 में। आपकी बात बिल्कुल सही है। आपकी बात को न काटते हुए थोड़ा पीछे
चलते हैं। कभी-कभी लम्बी दौड़ या लम्बी छलाँग लगाने के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में ‘पीछे’ लौटने को ‘इतिहास-बोध’ या ‘इतिहास-दृष्टि’ कह सकते हैं। कई
बार वर्तमान के ताले को खोलने के लिए इतिहास की चाबी का सहारा लेना पड़ता है। कहने
का अर्थ यह है कि वर्तमान में जिस जातीय चेतना और जातीय अस्मिता को लेकर इतनी
चर्चा हो रही है, उसका एक सुदृढ़ इतिहास है, उस इतिहास में प्रवेश किए
बिना रेणु की इस कहानी को नहीं समझा जा सकता।
रेणु का साहित्य सिर्फ साहित्य भर नहीं है, बल्कि वह इतिहास
भी है। 1944-45 से लेकर 1977 तक के इतिहास को जानने के लिए रेणु से अच्छा साहित्य
और कुछ हो ही नहीं सकता। रेणु के इतिहास में एक जीता-जागता समाज है। एक जीते-जागते
और धड़कते समाज के बीच रहकर उन्होंने अपने साहित्य की रचना की है। बिहार के इतिहास
को, परम्परा को, वहाँ की संस्कृति
को, जातीय चेतना को
जानने के लिए रेणु से बेहतर और विश्वसनीय और कोई नहीं हो सकता। बिहार की आर्थिक, राजनीतिक और
सामाजिक संरचना को जानने के लिए खुद इतिहासकार उनके साहित्य को पढ़ते हैं।
रेणु ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास ‘परती : परिकथा’ में बिहार के
जातीय चेतना का इतिहास प्रस्तुत किया है। जातीय चेतना का यह इतिहास कथा के सहारे, उसमें घुल-मिलकर
चलता है। ‘परती : परिकथा’ का प्रकाशन होता
है 1957 में और रेणु की ‘पंचलाइट’ कहानी आती है 1958 में, लेकिन यह कहानी
1957 की ही है, क्योंकि 1958 के
जनवरी-फरवरी अंक में यह कहानी आ जाती है। यानी ‘लाल पान की बेगम’ की तरह इस कहानी
की समय सीमा भी वही है। घोर आश्चर्य यह कि इन दोनों कहानियों की जड़ें एक ही है— ‘परती : परिकथा’। इस उपन्यास में
1952 से लेकर 1955 तक की कथा है। सन् 1932-33 के आसपास बिहार के गाँव-समाज में
पहली बार जातिगत चीजें देखने को मिलती हैं। उस समय सभी पिछड़े वर्ग के लोग अपने आप
को राजपूत प्रमाणित करने पर तुले हुए थे। दो साल में ही चारों ओर नए-नए राजपूत उग
गए। सभी जनेऊधारी बनकर अपने नाम के साथ ‘सिंह’ लिखने-बोलने लगे। आज जिन
दलितों के नाम के आगे ‘सिंह’ जुड़ा हुआ है, यह उसी का फल एवं प्रमाण
है। ‘मैला आँचल’ में भी रेणु कहते
हैं— “अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने भी ज़ोर पकड़ा है। जनेऊ लेने के बाद भी
राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रिय को मान्यता नहीं दी।” लेकिन आजादी के बाद सन्
1948-49 के आसपास “जो क्षत्रिय अपने आप को खास मानसिंह के वंशज बतलाते थे अथवा
आल्हा-ऊदल की संतान बताकर दंगा-फसाद करते थे—देख लीजिये उन्हें ! उनके लड़के
शिड्यूल्ड कास्ट और एबॉरिजिनल कम्युनिटी की फहरिस्त में अपना नाम लिखवाने के लिए
धक्कम-धुक्की कर रहे हैं।” सन् 1933 में ही महात्मा गांधी ने ‘आत्म-शुद्धि’ के लिए इक्कीस
दिनों का उपवास किया था और ‘हरिजन आंदोलन’ को आगे बढ़ाने के लिए ‘एक वर्षीय अभियान’ की शुरुआत की थी।
गांधी जी इस छुआछूत को जड़ से खत्म करना चाहते थे। उन्होंने ‘हरिजन’ नामक एक
साप्ताहिक पत्र का भी प्रकाशन शुरू किया था। लेकिन दलित नेता आंबेडकर गांधी जी से
सहमत नहीं थे। आप ध्यान दें गांधी जी के हरिजन उद्धार और हरिजनों के राजपूत बनने
की समय सीमा एक ही है। क्या हम इस बात को मानें कि आंबेडकर की तरह उस समय के दलित
भी गांधी जी को अपना नहीं मानते थे ! जब गांधी जी उनके लिए आंदोलन कर रहे थे, उपवास कर रहे थे, आरक्षण और
निर्वाचन मण्डल की इच्छा जाहीर कर रहे थे, तब वे जनेऊधारी नकली
राजपूत बनने के लिए लड़ रहे थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि जो दलित अपने आप को राजपूत मान चुके थे, वे आजादी के बाद
फिर से क्यों अपने आप को दलित घोषित करने के लिए लड़ते हैं ? आखिर क्यों वे
अपनी पुरानी पहचान पाना चाहते हैं ? इस प्रश्न के दो उत्तर हैं, पहला यह कि—जो
सीधे-सीधे दिखता है—आजादी के बाद सरकार की ओर से इनके लिए कुछ सुविधाएँ उपलब्ध
कराई गईं, इन सुविधाओं को
पाने के लिए सिर्फ वे ही नहीं, बल्कि कुछ ऊँची जाति के लोग भी अपना नाम पिछड़े
वर्ग में शामिल करते-करवाते हैं। एक दूसरा कारण जो दिख रहा है, वह यह कि—और यह
कारण ज्यादा मजबूत दिख रहा है—इन लोगों ने देखा कि ‘जनेऊ’ पहनने और ‘सिंह’ लगाने के बाद भी
समाज में वे अछूत ही हैं। समाज ने उन्हें उस रूप में नहीं अपनाया, जिसकी उन्हें आशा
थी, बल्कि कई अर्थों
में वे पहले से कुछ ज्यादा ही अछूत मान लिए गए हैं। इस सच्चाई का बोध होते ही
उन्होंने अपने मूल की ओर लौटना शुरू किया। मुझे लगता है, पहले की अपेक्षा दूसरा
कारण ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
इन दोनों स्थितियों (राजपूत और दलित) से गुजरने के बाद हमारे दलित
भाइयों ने देखा कि वे किसी भी तरह से अपने आप को समाज के अनुकूल नहीं बना पा रहे
हैं। लाख कोशिश के बाद भी वे अछूत ही हैं, उन्हें समाज अपना नहीं रहा
! तब उन्होंने एक तीसरी राह निकाली—संघर्ष की राह। अपनी पहचान की राह। उन्होंने
अपने एवं अपने समाज के लोगों के बीच जागरूकता फैलानी शुरू की। एक विशेष चेतना, जिसका सम्बन्ध
आत्मानुभूति से है। इसी चेतना और संघर्ष की कथा है ‘पंचलाइट’। रेणु इस कहानी
में जातीय चेतना के उभार को बड़े फलक पर मजबूती के साथ दिखाते हैं। देख सकते हैं
रेणु की ‘पंचलाइट’ कहानी की जड़
कितनी गहरी है।
भारतीय समाज में शुरू से ही दलित शोषित होते रहे हैं। रेणु ने
अपने साहित्य के माध्यम से उनकी स्थिति का न सिर्फ चित्रण किया है, बल्कि उनके
संघर्ष को दिखाया भी है। यहाँ रेणु प्रेमचंद से न सिर्फ अलग बल्कि विशिष्ट हो जाते
हैं। प्रेमचंद के दलित जहाँ शोषण को अपनी नियति या अपना भाग्य का लिखा मानकर संतोष
कर चुके हैं, वहीं रेणु के
दलित अपने संघर्ष द्वारा उस स्थिति को बदलने का भरपूर प्रयास करते हैं। प्रेमचंद
का दलित विजयी नहीं होता, लेकिन रेणु का होता है। यह प्रेमचंद की असफलता
नहीं है। 1932-33 तक समाज की जो चेतना थी, उसी को प्रेमचंद ने
दिखाया है। 1932-33 के बाद गांधी और आंबेडकर की जागरूकता के कारण समाज में एक नयी
चेतन आती है, यह चेतना
प्रेमचंद के ‘गोदान’ में दिखती है। दरअसल
प्रेमचंद ने जहाँ अपनी कथा का अंत किया है, वहीं से रेणु ने अपनी कथा
की शुरुआत की है। ‘गोदान’ में प्रेमचंद दलितों के जिस संघर्ष को दिखाते हैं, रेणु उसे ही लेकर
अपनी यात्रा की शुरुआत करते हैं। 1915 से लेकर 1977 तक के सामाजिक इतिहास को जानने
के लिए हमें प्रेमचंद और रेणु दोनों को साथ-साथ पढ़ना होगा।
आजादी के बाद निम्न जातियाँ अपनी पहचान और अस्मिता को लेकर जागरूक
होती हैं। ‘पंचलाइट’ कहानी के महतो
टोली के लोग भी अपनी पहचान एवं अस्मिता को लेकर सजग हैं। उन्हें यह मंजूर नहीं कि
जाती के बाहर का आदमी ‘पंचलाइट’ जलाए। “इससे तो अच्छा है कि ‘पंचलाइट’ पड़ा रहे। जिन्दगी
भर ताना कौन सहे ? बात-बात में दूसरे टोले के लोग कूट करेंगे—तुम लोगों का पंचलैट
पहली बार दूसरे के हाथ से...! पंचायत की इज्जत का सवाल है। दूसरे टोले के लोगों से
मत कहिए !” यह जातीय चेतना 1936 से पहले नहीं दिखती। ‘ताना’, ‘कूट’ और ‘इज्जत’—यही वह चीज है, जिसने उनके भीतर
स्वाभिमान को जगाया। ‘परती : परिकथा’ के खवास जाति का लुत्तो भी कहता है— “नहीं चाहिए ऐसी
जमीन, जिससे जाति की
इज्जत माटी में मिल जाए !” नयी चेतना के ही कारण लुत्तो इस बात को भली-भांति जान
चुका है कि ब्राह्मणों ने उस जैसी निम्न जाति के लोगों को गाँव के बाहर क्यों
बसाया ! यह वर्ग उस ‘सियार पण्डित’ की चालाकी जान चुका है।
‘पंचलाइट’ कहानी में हम देखते हैं कि गाँव में सब मिलाकर आठ
जातियाँ हैं और उन आठों जातियों की आठ पंचायतें हैं। हर पंचायत का अपना अलग-अलग साजो-सामान
है। दरी, जाजिम, सतरंजी से लेकर
पेट्रोमेक्स तक। ‘पेट्रोमेक्स’ यानी ‘पंचलाइट’। जिसे गाँव वाले ‘पंचलैट’ भी कहते हैं। सिर्फ
एक महतो टोली ही ऐसी है, जिनके पास ‘पंचलाइट’ नहीं है और यह
बात उनके लिए बहुत ही शर्म एवं लज्जा की है। बाकी जातियों के बराबर आने के लिए वे
अपनी जाति में दण्ड का विधान रचते हैं, जो कोई भी जाति के बाहर काम करेगा उसे
दंडित किया जाएगा। पन्द्रह महीने बाद वे इसी दण्ड-जुर्माने के पैसे से ‘पंचलाइट’ खरीदते हैं। जाति
की इज्जत बचाने के लिए वे अपनी ही जाति के लोगों से जुर्माना वसूलते हैं। पिछले
पन्द्रह महीने में महतो टोली के लोगों के पास इतना पैसा जमा हो जाता है कि उससे ‘पंचलाइट’ खरीदने के बाद भी
दस रुपया बच जाता है। दस रुपया उस समय बहुत बड़ी राशि थी। उस दस रुपये को वे पूजा-पाठ
पर खर्च करते हैं। ऐसे लोगों का जिनके लिए ईश्वर के भी दरवाजे बन्द हैं, उनका उसपर दस
रुपया खर्च करना कितना सही है ? लेकिन हम-आप उस चीज को नहीं बदल सकते। रेणु उनसे
संघर्ष करवा सकते हैं। उनके भीतर चेतना भी जागा देते हैं, लेकिन वे उस चीज को नहीं
रोक पाते, जिसे वे अपने से
बड़ी जातियों से ले रहे थे। रेणु यहाँ उन्हें कुछ और करता हुआ दिखाते तो वह कृत्रिम
लगता। यदि बचे हुए दस रुपये से वे कुछ और खरीदते तो वह समाज का सच नहीं होता।
भारतीय समाज की एक खासियत है कि हर छोटी जाति अपने से बड़ी जातियों की नकल करती है।
महतो टोली के लोग भी अंग्रेज़ बहादुर और ऊँची जाति के लोगों की नकल करते हैं। यह जो
दण्ड-जुर्माने के पैसे से ‘पंचलाइट’ खरीदा गया है, वह उसी नकल का हिस्सा है।
समाज को उसके स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करने के कारण ही प्रेमचंद प्रेमचंद हैं
और रेणु रेणु। साहित्य में वे नकली क्रान्ति नहीं करवाते हैं। महतो टोली के पंचायत
का छड़ीदार जो ‘पंचलाइट’ का डिब्बा माथे
पर लेकर गाँव आता है, उसे इस रूप में देखें कि आज भी गाँव-समाज के लोग नकली अहंकार
को अपने माथे पर लेकर ढो रहे हैं और घोर आश्चर्य यह कि इसे ही वे अपनी इज्जत मान
रहे हैं।
‘पंचलाइट’ कहानी में रेणु
ने हँसी-हँसी में महतो टोली के लोगों की विवशता और दयनीय स्थिति का बखूबी चित्रण
किया है। वे हँसी की आड़ में गम की दास्तान कह जाते हैं। जाति के सरदार, दीवान और पंच
वगैरह ‘पंचलाइट’ लेकर पूरे उत्साह
से गाँव की ओर लौटते हैं, तभी ब्राह्मण टोली के फुटंगी झा उसे ‘लालटेन’ कहकर उनके सारे
उत्साह पर पानी फेर देता है। उनकी खुशी उसे नहीं सुहाती। ‘पंचलाइट’ के न जलने पर
राजपूत टोली का एक नौजवान कहता है कि ‘कान पकड़कर पंचलैट के सामने पाँच बार
उठो-बैठो, तुरन्त जलने
लगेगा’। रुदल साह बनिया
भी मज़ाक उड़ाते हुए कहता है ‘पंचलैट का पम्पू जरा होशियारी से देना’। ये सभी टीका-टिप्पणियाँ
उनकी बेबसी, लाचारी, विवशता और
असमर्थता को उजागर करती हैं। वे यह कहकर अपने मन को संतोष देते हैं कि भगवान ने
उन्हें हँसने का मौका दिया है, हँसेंगे नहीं। हो सकता है इन टिप्पणियों को पढ़कर
आपको भी हँसी आए, पर आप उनके दुख का अंदाजा नहीं लगा सकते।
‘गोधन’ इस कहानी का प्रमुख पात्र है, लेकिन वह नायक
नहीं है। इस कहानी का नायक ‘पंचलाइट’ है। ‘पंचलाइट’ यहाँ दो अर्थों
में आया है। एक तो ‘पेट्रोमेक्स’ के रूप में और दूसरा, पंचायत की लाइट के रूप में।
संभवतः रेणु ने इसे ‘पंचलाइट’ इसी आधार पर कहा है। हर पंचायत का अपना ‘पेट्रोमेक्स’ है। हर पंचायत की
अपनी लाइट यानी ‘पंचलाइट’ है। गाँवों में पंचायत के सामान को, पंचायत के नाम से
ही सम्बोधित किया जाता है। जैसे— पंचायत का हंडा, पंचायत का जाजिम, पंचायत की
चौकी-कुर्सी, वैसे ही पंचायत
की लाइट। एक संभावना यह भी कि रेणु ने इस कहानी का शीर्षक ‘पंच लाइट’ रखा हो, ‘पंचलाइट’ नहीं— क्योंकि
रचनावली में ही दोनों शीर्षक देखने को मिलते हैं। कहानी के साथ ‘पंचलाइट’ है, लेकिन कहानियों
के सन्दर्भ में ‘पंच लाइट’।
‘पंचलाइट’ के कारण गाँव वालों के मन में तीन बार आशा की
रोशनी चमकती है। पहली बार तब जब पंच उसे लेकर गाँव आते हैं। दूसरी बार जब गोधन उसे
जलाने के लिए तैयार होता है और तीसरी बार जब वह जल जाता है। तीन बार की रोशनी तीन
तरह से प्रभाव डालती है। पहली बार में उन्हें लगता है कि वे ऊँची जाति के लोगों के
बराबर हो गए। दूसरी बार उनके उदास चेहरे और अँधेरे मन को रोशनी मिलती है और तीसरी
बार उसके प्रकाश में उनका आत्मस्वाभिमान और विश्वास जगमगा उठता है। यह प्रकाश
सिर्फ ‘पंचलाइट’ का प्रकाश नहीं
है, यह उनके जीत का
प्रकाश है। जिसकी रोशनी में सबके चेहरे पुलकित हो उठते हैं।
कहानी पर इतनी बात करने के बाद भी गोधन अभी छूटा हुआ है। गोधन
मूलतः इस गाँव का नहीं है। वह किसी दूसरे गाँव से आकर यहाँ बसा है। पंच चाहते हैं
कि वह उनकी कुछ सेवा भगत करे। कुछ खर्चा वगैरह। लेकिन गोधन उनकी परवाह नहीं करता।
वह अपनी दुनिया में मस्त रहता है। वह गाँव के ही मुनरी नाम की एक लड़की से प्रेम
करता है और उसे देखकर सिनेमा का गीत गाता रहता है। मुनरी की माँ गोधन के इस हरकत
की शिकायत पंचायत में कर देती है और पंच उसका हुक्का-पानी बन्द कर देते हैं। ‘अंधे को चाहिए
क्या, दो आँखें’ ! पंच तो पहले से
ही उससे चिढ़े हुए थे, अब तो मौका भी मिल गया था, सो उन्होंने उसका जाति से
हुक्का-पानी बन्द कर दिया। यहाँ तक तो सब ठीक ही लगता है, मुख्य समस्या वहाँ
उपस्थित होती है, जब ‘पंचलाइट’ जलाने की बात आती है। महतो टोली में कोई ‘पंचलाइट’ जलाना जानता नहीं
और जो जानता है, उसे जाति से बाहर
किया जा चुका है। कहानी का यह प्रसंग महतो टोली के लोगों की जातीय चेतना को बहुत
मजबूती से उजागर करता है। पंच यह राय करते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, बाहर का आदमी ‘पंचलाइट’ नहीं जलाएगा। वे
सभी सर्व सम्मति से गोधन को वापस जाति में बुलाते हैं। कुछ लोग इसमें उनकी
अवसरवादिता ढूँढ सकते हैं, लेकिन यहाँ उनकी अवसरवादिता नहीं लाचारगी दिखती है।
सोचिए उस व्यक्ति को वापस बुलाने में उन्हें कितना कष्ट हुआ होगा, जो उनकी परवाह
नहीं करता, जिसे वे जाति से बाहर
निकाल चुके हैं। ऊँची जाति की नजरों में गिरने से वे खुद की नजरों में गिरना
स्वीकार करते हैं। जरा सोचिए यह शब्द कहते हुए उनके दिल पर क्या गुजरी होगी— ‘खूब गाओ सलीमा का
गाना’। सिर्फ इसीलिए न
कि उसने ‘पंचलाइट’ जलाकर जाति की
इज्जत रख ली ! दूसरी जाति के सामने उनकी नाक नहीं कटी !
जब की यह कहानी है उस समय गाँव-समाज में प्रेम अपने आप में एक अनोखी
चीज थी। इसे एक नयी चेतना के रूप में देखना चाहिए। गोधन और मुनरी दोनों एक-दूसरे
से अगाध प्रेम करते हैं। मुनरी अपने प्रेम और गोधन के स्वाभिमान का मान भी रखती है, वह गोधन से यह
कभी नहीं कहती कि वह दण्ड-जुर्माने का पैसा भर दे। ऐसा करने से पंचायत से लगा प्रतिबंध
हट जाता और वे दोनों आराम से मिल-जुल सकते थे। प्रेम में जो एक सांकेतिक भाषा का
प्रयोग होता है रेणु ने उसका भी प्रयोग किया है। मुनरी बहुत चालाकी से अपनी सहेली
के कान में गोधन का नाम कह देती है और किसी को पता भी नहीं चलता। इस भाषा को सिर्फ
कनेली जानती है। मुनरी गोधन का नाम कैसे लेती है यह जानना बहुत दिलचस्प होगा। वह
कहती है— ‘...चिगो, चिध-ss, चिन...!’ ध्यान दीजिए, इसमें गोधन के
नाम के आगे ‘चि’ जोड़ दिया गया है।
‘चि’ हटकर तीनों
शब्दों को जोड़ दीजिए—‘गोधन’ हो जाएगा। यानी रेणु को समझने के लिए आपको प्रेमी
भी होना पड़ेगा।
एक और बात पंचायत का छड़ीदार जब गोधन को बुलाने जाता है तब वह नहीं
आता। क्यों नहीं आता, इसपर भी सोचने की जरूरत है। वह इसलिए नहीं आता कि वह छड़ीदार है, बल्कि वह यह
चाहता है कि या तो उसे पंच बुलाने आएं—जिसने उस पर प्रतिबंध लगाया है या वह जिसने
उसकी शिकायत की है। उसकी यह इच्छा भी पूरी होती है। पंचायत में शिकायत करने वाली
मुनरी की माँ ही उसे बुलाने जाती है और रात्रि भोज का निमंत्रण भी देती है। गोधन
के आत्मस्वाभिमान और उसके प्यार की जीत एक नयी चेतना ही है।
रेणु का कहना है कि किसी-न-किसी रूप में वे अपनी हर रचना में
उपस्थित हैं। तो क्या रेणु इस कहानी में भी उपस्थित हैं ? जी हाँ ! वे इस कहानी में
भी उपस्थित हैं—गोधन के रूप में। गोधन का इस कहानी में तीन रूप देखने को मिलता है
और ये तीन रूप रेणु से मेल खाता है। पहला, रेणु की तरह गोधन भी रसिक
मिजाज का व्यक्ति है, वह प्रेमी हृदय है। सौन्दर्य का उपासक। दूसरा, रेणु की तरह वह
भी फिल्मों का शौकीन है। रेणु फिल्मों के बड़े शौकीन थे। तीसरा, ‘पंचलाइट’ के माध्यम से वह
भी रेणु की तरह अपनी जाति के लोगों में चेतना जगाता है। उनका मान-अभिमान रखता है।
ये सारी चीजें रेणु को गोधन से जोड़ती हैं। ‘पंचलाइट’ के प्रकाश में
प्रेम की, विश्वास की और
जातीय जीत की रोशनी फैलती है।
आखिरी बात, अब जरा उस गीत को देखा जाए, जिसे गोधन गाता
है, जिसकी वजह से वह
जाति से बाहर हुआ है। गोधन ‘आवारा’ फिल्म का गीत गाता है। 1951 में यह फिल्म
आई थी। इस फिल्म के निर्देशक और हीरो राज कपूर हैं और राज कपूर रेणु की सबसे बड़ी
कमजोरी थे। ‘तीसरी कसम’ फिल्म में भी
रेणु ने उन्हें ही चुना था। गोधन जो गीत गाता है उसके बोल हैं— ‘हम तुमसे मोहब्बत
कर के सनम/ रोते भी रहे, हसते भी रहे/ खुश हो के सहे उल्फत के सितम/ रोते
भी रहे, हसते भी रहे/ हैं
दिल की लगी क्या तुझ को खबर/ एक दर्द उठा, थर्रायी नजर!/ थर्रायी
नजर.../ खामोश थे हम.../ खामोश थे हम इस गम की कसम/ रोते भी रहे.../ ये दिल जो जला
एक आग लगी/ आँसू जो बहे बरसात हुई/ ये दिल जो जला एक आग लगी/ आँसू जो बहे बरसात
हुई/ बरसात हुई.../ बादल की तरह.../ बादल की तरह, आवारा थे हम/ रोते भी
रहे.../ हम तुम से मोहब्बत....’ इस गीत के आलोक में रेणु के प्रेमी मन को टटोला जा
सकता है।
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मृत्युंजय पाण्डेय
जन्म : 20 जुलाई, 1982
मूल निवासी : दिघवा दुबौली, गोपालगंज (बिहार)
शिक्षा : एम. ए., एम. फिल., पीएच. डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
आलोचनात्मक पुस्तकें : कवि जितेन्द्र
श्रीवास्तव
कहानी से संवाद
कहानी का अलक्षित प्रदेश
रेणु का भारत
कविता के सम्मुख
साहित्य, समय और आलोचना
केदारनाथ सिंह का दूसरा घर
सम्पादन : नयी सदी : नयी कहानियाँ (तीन
खंडों में)
प्रेमचंद : निर्वाचित कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद : निर्वाचित कहानियाँ
सम्मान : देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2018)
जीविका : अध्यापन, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
24/2, महात्मा
गाँधी रोड, कोलकाता – 700009
सम्पर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101
(पश्चिम
बंगाल)
मोबाइल : 9681510596
अद्भुत आलेख है। पच लाइट के माध्यम से इस कहानी को ही नहीं, उस काल और रेणू को चरित्र को भी भली भांति समझा जा सकता है। मेधावी मित्र को बहुत सारा स्नेह और आशीष।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन विश्लेषण...साधुवाद!!!
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