हिंदी दलित काव्य भारतीय समाज का सच है : प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव
जितेन्द्र श्रीवास्तव |
सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव से युवा समीक्षक डॉ चैनसिंह मीणा की बातचीत
इस
तथ्य से समूचा भारतीय सामाजिक परिदृश्य परिचित है कि भारतीय समाज प्राचीन काल से
ही जाति,
वर्ण, वर्ग, धर्म आदि के आधार पर विभाजित रहा है। इस विभाजन ने समूचे
भारतीय समाज के जीवन को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है। उल्लेखनीय है कि इस
विभाजित मानसिकता की प्रताड़ना का सर्वाधिक शिकार दलित समाज रहा है। यह शोषण जीवन
के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है। ऐसे में दलित समाज की पीड़ा को अभिव्यक्त करने
हेतु दलित साहित्य का आविर्भाव हुआ।
आधुनिकता और उससे भी आगे उत्तर-आधुनिकता के
साथ भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण के कोलाहल के बीच भी दलित समाज विकास की दौड़ में कहीं
पीछे छूट गया। दलित समाज के पिछड़ेपन के पीछे अनेकानेक कारण मौजूद रहे हैं। दलित
काव्यधारा के अंतर्गत शोषण के कारणों की पड़ताल करते हुए भारतीय समाज में व्याप्त
विसंगतियों और उसके यथार्थ को विविध आयामों में पाठकों के सम्मुख रखा गया है। दलित
काव्यधारा मुख्यधारा की कविता से नितांत भिन्न है। यह काव्यधारा असहमति की परंपरा
में विकसित हुई है, जो शोषण को
उजागर कर सामाजिक न्याय का स्वप्न बुनती दिखाई देती है। यह काव्यधारा स्पष्ट
उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ी है। आज इस काव्यधारा के सम्मुख अनेक चुनौतियाँ हैं। दलित
काव्यधारा से सम्बद्ध कवि-कवयित्री क्या इन चुनौतियों से संघर्ष कर समाज के लिए
कोई विकल्प दे पायेंगे? ऐसे तमाम
बिंदुओं को केंद्र में रखकर प्रतिष्ठित कवि-आलोचक प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव से
विस्तार से चर्चा हुई।
चैनसिंह मीणा |
परिचय: प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव
कविता
संग्रह: ‘इन दिनों हालचाल’, ‘अनभै कथा’, ‘असुंदर
सुंदर’,
‘बिल्कुल तुम्हारी तरह’, ‘कायांतरण’, ‘कवि
ने कहा’,
‘बेटियाँ’, ‘उजास’, ‘सूरज
को अंगूठा’। आपकी कविताएँ विविध
भाषाओँ यथा अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, उड़िया
और पंजाबी में अनुदित हैं।
आलोचनात्मक
पुस्तकें: ‘शब्दों में समय’, ‘आलोचना का मानुष-मर्म’, ‘भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद’, ‘सर्जक का स्वप्न’, विचारचारधारा, नए
विमर्श और समकालीन कविता’, ‘उपन्यास की
परिधि’
‘रचना का जीवद्रव्', ‘कहानी का क्षितिज’ आदि।
आप
अभी तक भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, देवीशंकर अवस्थी सम्मान, कृति सम्मान, रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान, परंपरा ऋतुराज सम्मान, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता का युवा सम्मान आदि
पुरस्कारों से सम्मानित किये जा चुके हैं। प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव वर्तमान में
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में हिन्दी के प्रोफेसर और पर्यटन एवं
आतिथ्य सेवा प्रबंध विद्यापीठ के निदेशक
हैं। पूर्व में इग्नू के कुलसचिव रह चुके हैं।
सर, आपका रचना संसार व्यापक है। रचना औरआलोचना के क्षेत्र
में आपको लगभग 30 वर्ष का समय हो गया है। इस यात्रा में आपने
सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को करीब से देखा है। यही कारण है कि किसी भी संदर्भ
में वंचित मनुष्य को मनुष्यता से युक्त करना आपकी रचना-प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा
रहा है। आपसे पहला सवाल यह है कि दलित कविता और मुख्यधारा की कविता में अंतर क्या
है?
चैनसिंह,
दलित कविता और मुख्यधारा की कविता में जो अंतर है दरअसल ये हिंदी आलोचना की अपनी
समस्या है। मुख्यधारा की कविता दरअसल उसको मान लिया गया है जो परंपरा से चलती चली
आ रही है। इसमें एक ख़ास वैचारिक आग्रह है ।दूसरी ओर डॉ. भीमराव अंबेडकर के जो विचार हैं उन विचारों को आत्मसात
करके जो कविताएँ लिखी गईं हैं, वो दलित कविताएँ हैं। इसमें भी, डॉ. भीमराव अंबेडकर
के विचारों को तो कोई भी आत्मसात कर सकता है लेकिन दलित कविता में एक आग्रह रहा है कि जो दलित जातियों
में पैदा हुए लोग हैं, वही दलित कविता लिख सकते हैं। इस पर बहस चल रही है, चलेगी।
एक ऐसा वर्ग भी आया है दलित चिंतकों और साहित्यकारों मेंजो यह मानता है कि गैर
दलित जातियों में पैदा हुए लोग भी जो अंबेडकर के विचारों को स्वीकार करते हैं वोदलित
साहित्य लिख सकते हैं या दलित साहित्य में उनकी गणना हो सकती है। लेकिन अभी भी
मौटे तौर पर या विशेष तौर पर कह सकते होया यह माना जाता है कि जो लोग दलित जातियों
से हैं और डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों से प्रेरित होकर कर लिख-पढ़ रहे हैं वो
दलित साहित्य सृजित करें। जबकि हिंदी की मुख्यधारा की जो कविता है वो सामान्यतः
मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित है, उसमें गाँधीवादी लोग भी हैं, उसमें लोहियावादी
लोग भी हैं। लेकिन मुख्य तौर पर मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित लोगों की संख्या
अधिक है।इसे अगर आप मार्क्सवाद, गाँधीवाद या लोहियावाद से अलग पदावली में कहना
चाहें तो कह सकते हैं कि जो हिंदी की मुख्यधारा की कविता है वो जाति की बात नहीं
करती है वो वर्ग की बात करती है। जबकि दलित कविता जाति उन्मूलन की बात करती है,
जाति शोषण की बात करती है।जाति के आधार पर जो शोषण हुआ है उसकी बात करती है।
मुख्यधारा की कविता वर्ग की बात करती है और यह मानती है कि शोषक और शोषित दो वर्ग
हैं और शोषित किसी भी जाति, धर्म का हो सकता है।हिंदी की जोमुख्यधारा की कविता है वो शोषितों के पक्ष में लिखी गई कविता
है, शोषकों के विरुद्ध लिखी गई कविता है। इस अर्थ में दलित कविता भी यही है कि जो
दलित वर्ग है वो शोषित वर्ग रहा है भारत का। इसमें कोई लेकिन नहीं है।भारतीय
सामाजिक व्यवस्था में जो दलित समाज के लोग रहे हैं वो शोषित रहे हैं। मार्क्सवादी
शब्दावली में अगर सही अर्थ में सर्वहारा ढूंढेंगे तो दलित और आदिवासी ही मिलेंगेआपको,
भारतीय समाज में। सर्वहारा कीही बात करता है ना मार्क्सवाद, तो अगर सही पोलितेरियत भारत में कोई है तो वो दलित और
आदिवासी ही हैं। कुछ सवर्ण जातियों के लोग भी हैं जो गरीब
हैं, जिनके पास साधन नहीं हैं। वे भी सर्वहारा हैं। अब तो जो नया बाजार आया है ये तो नए ढंग से असमानता पैदा कर
रहा है। नए ढंग की जाति व्यवस्था पैदा कर रहा है। अमीर-गरीब वाला मामला चल रहा है । लेकिन जाति व्यवस्था भारत की एक सच्चाई है इसको हम सब जानते
हैं। तो दलित कविता और मुख्यधारा की कविता में जो मुख्य अंतर है वो वैचारिक अंतर है। दलित
कविता में अंबेडकर के विचार महत्त्वपूर्ण हैं और जो मुख्यधारा की कविता है वहाँ
अन्य जो मनुष्य धर्मी विचारक हैं वो आते
हैं। वर्ग और जाति का द्वन्द सबसे मुख्य अंतर है। लेकिन अब धीरे-धीरे जो दलित
कविता है वो भी मुख्यधारा का हिस्सा बनने लगी है। आज आप देखिये ओमप्रकाश वाल्मीकि को
सिर्फ दलित कविता के नाम पर नहीं पढाया जाता है। और मेरा तो बराबर से आग्रह रहा है
कि किसी भी कवि का मूल्यांकन अलग खाने में करने से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है कि
उसे जो पूरा दृश्य है उसमें कहीं उसकी प्लेसिंग कीजिए। क्योंकि अलग-अलग खाने बनाने
का मतलब तो अलग-अलग टोले बसाने की तरह है। जैसे जाति व्यवस्था टोले बसाती रही है,
अलग-अलग मोहल्ले बसाती रही है। तो हिंदी कविता में
अलग-अलग मोहल्ले बसाने की जरुरत नहीं है। चाहे वो
दलित समाज से आए कवि लिख रहे हों, स्त्रियाँ लिख रहीं हों, आदिवासी लिख रहे हों,
पिछड़े वर्ग के लोग लिख रहे हों यानि जो भी लिख रहा है उनकी जगह हिंदी की जो कविता
है उसमें होनी चाहिए और वो सारी कविता मुख्यधारा की कविता होनी चाहिए। क्योंकि जब
आप अलग-अलग इलाका बना देते हैं तो कुछ लोगों के मन में उसको लेकर विशेष भाव होता
है कुछ लोगों के मन में उसको लेकर अवमानना का भाव होता है। लेकिन जब आप उसे सबके
साथ मूल्यांकन में रखेंगे तो न विशेष भाव रह जायेगा ना अवमानना का भाव रह जायेगा। ऐसे
में पूरा का पूरा मामला एक जैसा हो जाएगा। आपको याद होगा, मैंने देवेंद्र कुमार पर एक लिखा था जो मेरी पुस्तक
‘विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता’ में संकलित भी है। देवेंद्र कुमार मूलतः
दलित समाज से आए प्रगतिशील कवि थे। उन पर लिखते हुए वहाँ पर मैंने इन मुद्दों पर
विस्तृत चर्चा की है।
सर, चूँकि दलित साहित्य के आविर्भाव को अब पर्याप्त समय बीत
चुका है। विविध विधाओं के अंतर्गत काफी मात्रा में साहित्य रचा जा चुका है। लेकिन
दलित साहित्य की जितनी भी विधाएँ हैं उनमें कविता विधा ने अपना विशिष्ट स्थान
बनाये रखा है। दलित काव्य के वैशिष्ट्य पर आपकी राय क्या है?
देखिये
चैनसिंह,होता क्या है कि कविता सबसे प्राचीन विधा है एक तरह से। नाटक भी कविता में
लिखे गए । कहने का मतलब यह कि हमारे यहाँ पहली जो साहित्य शास्त्र की
किताब है वो नाट्यशास्त्र है भरत मुनि की। तब नाटक भी कविता में लिखे जाते थे, गद्य तो बाद में आया
है। इसलिए कभी भी कोई भी शुरुआत जब होती है तो सामान्यतः यह देखने में आता है कि वो
कविता से शुरुआत होती है। और मैं यह मानता हूँ कि पहले के विचारक जोयह कह गए हैं ,ठीक ही कह गए हैं कि कविता मनुष्यता की
मातृभाषा है। गद्य में विस्तार होता है, गद्य में बहुत सारी चीजें आती हैं जो
अच्छी हैं लेकिन कविता सीधे आपके हृदय और मस्तिष्क - दोनों को प्रभावित कर देती है। छोटा कलेवर होता है उसका, आप
आसानी से उसे पढ़ या सुन सकते हैं। तो निश्चित तौर पर जो हिंदी में दलित साहित्य
आया है वहाँ पर भी जगह जो बनी आरंभिक तौर पर वो कविताओं से बनी। आप ओमप्रकाश
वाल्मीकि को देखें, कँवल भारती को देखें, ये सब लोग पहले अपनी कविताओं से चर्चित
हुए। बाद में ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कहानियों और अपनी आत्मकथा के नाते चर्चित
हुए। तो हिंदी में भी जो दलित साहित्य आया वो प्रथमतः कविता के माध्यम से ही आया। कुछ लोग कहानियाँ
लिख रहे थे तब भी, शुरुआत में लेकिन मुख्य रूप से कविताएँ आईं, आत्मकथाएँ
आईं और वैचारिक गद्य आया। उसके बाद कहानियाँ आईं, उपन्यास तो अब भी बहुत कम हैं
दलित साहित्य में, हिंदी के दलित साहित्य में। तो कविता का वैशिष्ट्य तो है, उसका
कारण यह है कि वो जबान पर जल्दी चढ़ जाती है। वो एक आदमी याद करके दूसरे को सुना
सकता है। गद्य नहीं याद करके सुना सकता है क्योंकि उसको पूरा-पूरा बताना पढ़ेगा,
पढना पड़ेगा। कविताओं का इस्तेमाल आप पोस्टर की तरह कर सकते हैं क्योंकि दलित कविता
का एक उद्देश्य जाति उन्मूलन भी रहा है। वह एक सामाजिक उद्देश्य भी लेकर चल रही
है, सिर्फ साहित्यिक उद्देश्य नहीं है उसके पास। सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्य
में कविता अधिक सफल होती है इसमें कोई दो राय नहीं है। आप भक्ति आंदोलन को याद करिये, आप स्वाधीनता आंदोलन को याद करिये। उस पूरे कालखंड में कविताओं
का प्रभाव अधिक रहा। हालाँकि स्वाधीनता आंदोलन में प्रेमचंद की कहानियों ने भी बड़ा
रोल निभाया, प्रसाद के नाटकों ने भी निभाया। लेकिन कविताएँ ज्यादा जबान पर चढ़ीं। तो कविता की भूमिका इस अर्थ में ही विशिष्ट होती है कि वो
आसानी से अपने उद्देश्य को पूरा कर ले। हिंदी की दलित कविता व्यापक अर्थ में अपने
उद्देश्य को लेकर वैशिष्ट्य ये युक्त है।
भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में दीर्घकालीन असहमति की परंपरा
दिखाई देती है।इस असहमति की परंपरा में साहित्य का जो भी रूप (मौखिक और लिखित) आज
हमारे सम्मुख है उसे बचाए रखने के लिए भी संघर्षरत समुदायों को व्यापक स्तर पर
संघर्ष करना पड़ा। इस दृष्टि से अनेकानेक प्रेरणा-स्रोतों के नाम लिए जा सकते हैं।किसी
भी संदर्भ में मुक्ति के लिए एक विचारधारा का होना बहुत जरूरी होता है। बिना एक
दर्शन के, बिना एक वैचारिकी
के मुक्ति संभव नहीं? सर, दलित काव्यधारा किन प्रेरणा-स्रोतों
से विचारधारात्मक आधार ग्रहण करती है?
चैनसिंह,
मैंने पहले प्रश्न के उत्तर में भी ये बात की थी कि मुख्य रूप से दलित साहित्य के
केंद्रीय चिंतक हैं बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर। इसके अलावा ज्योतिबा फुले भी
हैं वहाँ पर, उनके विचारों का प्रभाव है। सावित्री बाई फुले के विचारों का भी
प्रभाव है। इसके अलावा पेरियार के भी विचारों का प्रभाव दिखेगा आपको। वो सभी लोग
जिन्होंने भारत में जाति व्यवस्था को केंद्र में रखकर चिंतन किया, वे सभी कहीं-न-कहीं
दलित साहित्य को प्रभावित करते हैं। इस दृष्टि से आप कांशीराम के प्रभाव को भी देख
सकते हैं। लेकिन मुख्य रूप से बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार सर्वाधिक
प्रभावित और प्रेरित करते हैं।
सर, भारतीय एवं वैश्विक परिदृश्य में घटित विविध साहित्यिक
एवं सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों ने दलित कविता को किस रूप में प्रभावित किया है?
देखिये,
ऐसा है कि हिंदी की जो दलित कविता है वो तो मराठी के दलित साहित्य से गहरे
प्रभावित रही है। पहले भारत में जो दलित साहित्य का आंदोलन चला वो महाराष्ट्र में
ही चला। बड़े पैमाने पर यह आंदोलन चला। वहाँ नामदेव ढसाल आए,अर्जुन डांगले आए। बड़े-बड़े नाम आपको मराठी के लेखकों में
दिखाई दे जायेंगे कथाकार के रूप में और कवि के रूप में भी। बाबूराव बागुल जैसा बड़ा
कथाकार वहाँ पर आता है, बाद में शरण कुमार लिंबाले आते हैं। मतलब एक पूरी लंबी
सूची आपको पहले से लेकर के आज तक दिखाई दे जायेगी। इन लोगों ने सत्तर के दशक में
महाराष्ट्र में बड़ा आंदोलन खड़ा किया ‘दलित पैंथर’ के रूप में। बाद में हिंदी
प्रदेश में दलित साहित्य को लाने का श्रेय पता नहीं लोग स्वीकार करते हैं या नहीं
करते हैं, ये
कांशीराम को जाता है। जो मान्यवर कांशीराम थे वो जब पंजाब से चलकर हिंदी प्रदेशों
की ओर आए और उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों को राजनैतिक स्तर पर लाने की
कोशिश की, अपना संगठन
बामसेफ बनाया, बाद में फिर बहुजन समाज पार्टी बनायी और आप जानते हैं कि बहुजन समाज
पार्टी उत्तर प्रदेश की सत्ता में भी आयी, बल्कि कई बार आयी। एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में भारत के सबसे बड़े राज्य में, उत्तर
प्रदेश में वो सफल रही। कांशीराम के उभार के बाद हिंदी प्रदेशों में मुख्य रूप से
दलित साहित्य आया। तो एक बड़ा माध्यम तो कांशीराम बनते हैं, मैं यह मानता हूँ। मैं यह
मानता हूँ कि कांशीराम यदि नहीं आए होते तो शायद हिंदी का दलित साहित्य इस रूप में
नहीं होता। इसलिए जो विचारकों वाला मामला है वहाँ पर कांशीराम का नाम उल्लेखनीय
है। अपने ढंग से उन्होंने कोई बहुत नए विचार तो नहीं दिए लेकिन पुराने विचारों को
एक्टिवेट (सक्रिय) तो किया ही। उनके कारण वो विचार पुनः सामने आए। भारत के संदर्भ
में आप देखेंगे तो महाराष्ट्र में हुए दलित साहित्य आंदोलन का गहरा प्रभाव है।
इसके अलावा जब एक तरह से चेतना आई इसको लेकर तो जो ब्लैक लिटरेचर है पश्चिम का,
उससे भी निश्चित तौर पर प्रभाव ग्रहण किया है दलित साहित्यकारों ने। जो वैचारिक
तीक्ष्णता अर्जित की है वो ब्लैक लिटरेचर से भी अर्जित की है।
इस तथ्य को कोई भी स्वीकार करेगा कि मुख्यधारा और दलित समाज
में बहुत असमानता व्याप्त है। यह असमानता कोई एक दिन में निर्मित नहीं हुई। यह
अंतर साहित्य के अंतर्गत भाव और शिल्प को लेकर भी दिखाई देता है। दलित काव्य रचना
हेतु अलग भाषा और सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता एवं उसकी प्रासंगिकता को लेकर आपके
विचार क्या हैं?
हम
लोग जो बात कर रहे हैं इस प्रश्न का उत्तर लगभग इसी में निहित है। चूँकि जो हिंदी की मुख्यधारा की कविता रही है, वो वर्ग
शोषण की बात करती रही है। तो जाहिर है कि उसमें जाति के शोषण का संदर्भ आता ही
नहीं रहा। जबकि दलित कविता में जाति का शोषण ही मुख्य संदर्भ है। वहाँ स्त्री के
शोषण में पितृसत्ता और जाति व्यवस्था दोनों शामिल हैं।तो जाहिर है कि वो टूल्स जो
वर्ग आधारित समाज को समझते रहे हैं ठीक-ठीक वही वर्ण आधारित या जाति आधारित समाज
को शायद व्याख्यायित नहीं कर पायें, यह समझ दलित साहित्यकारों की रही है। होता
क्या रहा है कि जो हमारा सौंदर्यशास्त्र है उसमें प्रेम कविताओं का भी मामला
है। प्रेम कविताओं की व्याख्या जिन औजारों से की जाती है उन औजारों से आप जाति के
आधार पर शोषित हो रहे किसी व्यक्ति के दुःख के बारे में लिखी गई कविता की व्याख्या
कैसे करेंगे? यह थोड़ा मुश्किल, थोड़ा क्या बहुत ज्यादा मुश्किल है। दूसरी चीज यह है कि प्रेम
संबंधों को देखने का भी एक नया नजरिया दलित साहित्य में रहा है और एक विवाद भी रहा
है वहाँ। डॉ. धर्मवीर अलग ढंग से प्रेम-संबंधों को देखते रहे हैं और जो अन्य दलित चिंतक, विचारक, कवि, कथाकार हैं वे इसे अलग ढंग
से देखते रहे हैं। तो एक तरह से बार-बार देखा गया लेकिन इसको कभी साहित्य में
प्रमुख ढंग से चित्रित या वर्णित नहीं किया गया। जिस यथार्थ को लेकर दलित साहित्य
आया है, पुराने औजारों से तो उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। स्त्री के दुःख का भी
मामला है।हमारे यहाँ जो दलित स्त्रीवादी हैं उनका कहना है कि जो सवर्ण स्त्रियों
के दुःख हैं उनसे अलग हैं हमारे दुःख। हम अपने पुरुषों की भी सतायी हुई हैं और हम
जाति व्यवस्था की भी सतायी हुई हैं। तो जाहिर है कि उसी टूल्स से हमारे दुःख की
व्याख्या कैसे हो जाएगी? तो चूँकि बहुत सारे पेंच हैं, बहुत सारे संघर्ष के, दुःख
के प्रसंग हैं जो पहले कभी हिंदी साहित्य में नहीं आए इस रूप में। तो इनकी व्याख्या
पुराने औजारों से कैसे होगी? जैसे जब कोई नयी मशीन बनती है तो उसके लिए बहुत सारी
चीजें भी नयी बनती हैं। उसके नट-बोल्ट भी नए बनते हैं, पेंच भी नए बनते हैं, बहुत
सारी चीजें बनती हैं। इसी तरह से साहित्य के साथ भी है कि जब नया साहित्य आता है
तो नए मनोभाव लेकर आता है, नयी मनोरचना
लेकर आता है, अपनी संश्लिष्टता लेकर आता
है। ऐसे में उम्मीद होती है कि उसको नए ढंग से समझा और व्याख्यायित किया जाये।
लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि कोई भी सौंदर्यशास्त्र एक दिन में नहीं बनता है। कुछ समय लगेगा जब दलित साहित्य 40-50 साल की यात्रा कर लेगा तब जाकर के कहीं वो सौंदर्यशास्त्र विकसित हो
पायेगा जो ठीक-ठीक इसकी व्याख्या कर पायेगा। अभी तो डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों
के आधार पर ही ये लिखा जा रहा है और उसी के आधार पर इसकी व्याख्या भी हो रही है।
सर, हिंदी दलित कविता के आविर्भाव को एक शताब्दी से अधिक समय
हो गया। दलित कविता ने संघर्ष से युक्त यात्रा तय की है। क्या अब उचित समय है कि
दलित साहित्य या दलित काव्य के मानदंड निर्धारित किए जाने चाहिए?
देखिये,
एक शताब्दी तो नहीं मान सकते। हीरा डोम की कविता जरुर पुरानी कविता है, वो एकदम
आरंभिक दौर की कविता है, भोजपुरी में लिखी गयी। ‘एक अछूत की शिकायत’ शीर्षक है
कविता का। लेकिन उसके बाद एक लंबा गैप रहा। बीच में अछूतानंद आते हैं उनकी कविताएँ
आती हैं। और भी बहुत सारे लोगों ने कविताएँ लिखीं, अब ये धीरे-धीरे पता चल रहा है
लेकिन वो दृश्य पर कभी दिखे नहीं। जो पढने-पढ़ाने की,छपने-छपाने की दुनिया थी वो उसमें शामिल नहीं हो पाये बल्कि
कहना चाहिए कि उनको शामिल नहीं किया गया। ठीक-ठीक तो जो हिंदी दलित कविता है वो 90
के बाद की ही कविता है। मतलब 80 के आस-पास इसकी शुरुआत होती है और 90 के बाद यह
व्यापक धरातल पर सामने आयी। यानि कि करीब 30-35 वर्ष की अवधि मान सकते हो आप इसकी।
अधिकतम 40 वर्ष मान सकते हो कि 40 वर्ष का समय ठीक-ठीक हिंदी में दलित कविता या
दलित साहित्य के लिए हुआ है। और अपने सक्रिय दौर में या इस अवधि में ये भी हुआ कि
इसके आलोचक भी निकल कर के आये। खुद ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस विषय पर ‘दलित साहित्य
का सौंदर्यशास्त्र किताब लिखी है। मराठी में जो शरण कुमार लिंबाले की
सौंदर्यशास्त्र पर किताब है उसका अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है। कँवल भारती ने एक
किताब लिखी थी दलित साहित्य को व्याख्यायित करने के लिए, सौंदर्यशास्त्र को केंद्र
में रख करके। और भी तमाम नए युवा आलोचक आए हैं जिन्होंनेइस पर कामकिया
है। बजरंग बिहारी तिवारी ने इस पर काम किया है जो गैर-दलित हैं, लेकिन उनका काम
महत्त्वपूर्ण है दलित साहित्य के संदर्भ में। उन्होंने मूल्यवान रिसर्च करके सिर्फ हिंदी का ही नहीं; केरल का, कर्नाटक का,
बंगाल का- बहुत सारा
काम किया है। तो सौंदर्यशास्त्र एक तरह से तैयार होने की प्रक्रिया में है बल्कि
कह सकते हो कि किसी हद तक तैयार भी हो गया है।
आज हिंदी दलित कविता लेखन में कई पीढ़ियाँ संलग्न हैं। प्रौढ़
पीढ़ी हो या युवा पीढ़ी दोनों का अपना महत्त्व है। सर जैसा आपने कहा कि युवा रचाकार
आते हैं तो उनसे एक उम्मीद होती है। आज के परिदृश्य में आप युवा पीढ़ी के योगदान को
किस रूप में देखते हैं?
देखिये
,ऐसा है कि
युवाओं का योगदान बराबर महत्त्वपूर्ण होता है। जब भी युवा पीढ़ी आती है वो कुछ नया
लेकर आती है। युवावस्था में आवेग होता है। उसी तरह से उनकी रचनाओं
में भी आवेग होता है। यह आवेग बहुत काम का होता है।जो पुरानी पीढ़ी होती है वो
धीरे-धीरे अपने आवेग पर नियंत्रण करना सीख जाती है और परिपक्वता आती है। दुनिया,
समाज के संदर्भ एक तरीके से कहो तो घुलने लग जाते हैं। तो वो आवेग और उन सब चीजों
को मिलाकर एक रसायन बनाते हैं, ऐसे में ज्यादा महत्त्वपूर्ण चीज निकलती है। युवा
आते हैं तो उनके वहाँ आवेग ही अधिक दिखाई देता है। वो आवेग जरुर नये ढंग का होता
है तो आवेग का तो स्वागत ही किया जाना चाहिए। मैं युवाओं के योगदान को बराबर
सकारात्मक देखता हूँ। क्योंकि जो युवा आयेंगे तो वही तो परिपक्व होंगे ना। जब युवा
आयेंगे ही नहीं तो परिपक्व कौन होगा? लेकिन हमेशा युवा लेखन की एक सीमा रही है कि
उसमें अनुभव बहुत कम होता है। आवेग होता है, आदर्श होता है, यथार्थ होता है, एक
वैचारिकी भी होती है। लेकिन अनुभव वाला हिस्सा बहुत थोड़ा-सा होता है। हम लोग खुद अपने जीवन में देखते हैं कि 30 साल
पहले जब हमने लिखना शुरू किया था तब जो हमारे अनुभव थे और आज में कितना अंतर आ गया
है। तो ये फर्क होता है कि वहाँ सब कुछ होता है अनुभव नहीं होता। लेकिन एक आकर्षण
तो युवा लेखन में बराबर रहा है, आज भी है और इसको बना रहना चाहिए।
सर, हिंदी दलित काव्यधारा के अंतर्गत किस कवि या कवयित्री
की रचनाओं ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है?
निश्चित तौर पर ओमप्रकाश वाल्मीकि, कँवल भारती, मलखान सिंह और श्योराज सिंह बेचैन ने।
सर, अब तक आपके
नौ काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनमें
अस्मितामूलक विमर्श विशेषतः दलित विमर्श को कितना स्थान मिला है?
चैनसिंह,
इस संदर्भ में मैंने बराबर कोशिश की है। हम लोग एक तरह से तो जो तथाकथित
मुख्यधारा है उसी के कवि हैं। आरंभिक दिनों में मेरी भी निगाह इस बात पर अधिक रहती
थी कि किसानों और मजदूरों के दुःख को समझा जाये, उनके संघर्ष को समझा जाये। जब मैं
युवा हुआ तो अंबेडकरवादी राजनीति हिंदी प्रदेशों में आ चुकी थी या आने
लगीथी। धीरे-धीरे हमारी चेतना पर उसका भी असर तो हुआ ही। इसी चेतना के आधार पर मैंने
कुछ ऐसी कविताएँ भी लिखीं जिनमें जाति का संदर्भ है। आप ‘सूरज को अंगूठा’ संग्रह
में भी देखेंगे तो आपको ऐसी कविताएँ वहाँ मिल जाएँगी। ‘असुंदर सुंदर’ और 'कायांतरण' में भी आपको ऐसी
कविताएँ मिल जाएँगी जहाँ जातिगत शोषण का संदर्भ और प्रसंग है, जो सामान्य वर्ग
आधारित शोषण से अलग हैं। क्योंकि अन्य जगहों पर गरीबी के बाद भी आप उस शोषण से बच
जाते हैं लेकिन जो जाति आधारित शोषण है उससे बचना थोड़ा मुश्किल होता रहा है। अब भारतीय संविधान ने जरुर ऐसी
सुविधाएँ कर दी हैं, ऐसी व्यवस्थाएँ दे दी हैं कि वो शोषण धीरे-धीरे मुश्किल हो
गया है, अब नहीं कर सकते लोग। लेकिन जब तक यह व्यवस्था नहीं थी तब तक तो ये सब होता
ही रहा है। तो मैंने कोशिश की कि अपनी कविताओं में इस यथार्थ को भी समझूँ। शोषण का
चित्रण तो है पर उस मात्रा में तो मेरे यहाँ नहीं है जिस मात्रा में किसी दलित या
आदिवासी कवि के यहाँ दिखाई देगा। मैं समझता हूँ कि इस दिशा में और लिखने की जरुरत
है। ये तथाकथित मुख्यधारा की कविता की असफलता रही है कि उसने दलित जीवन, आदिवासी
जीवन या इनके अलावा जो भी वंचित हैं उनकी वंचना को ठीक से नहीं समझा, उसको बराबर
वर्ग के खांचे में ही समझती रही। जबकि दुःख सिर्फ वर्ग का नहीं था, जाति का भी था,
उपेक्षा का भी था। आदिवासी समाज गहरी उपेक्षा में था और जो दलित समाज था वो जाति
उत्पीड़न में था। दोनों का मामला है, आदिवासियों को किनारे कर दिया
गया, उनको आप मानते ही नहीं थे नागरिकसमाज में। दलितों को आप इस लायक नहीं मानते थे
कि आप बराबरी पर लायें। तो कोशिश की हैं मैंने कि इस सत्य को मैं अपनी कविताओं में
अभिव्यक्त कर पाऊँ। मेरी 'एक ईश्वर से
अधिक विराट’ जो कविता है उसमें इसका संदर्भ
है। ‘गाँव का दक्खिन हो गया है आखिरी
आदमी’ में है। एक ‘वर्ण’ नाम की कविता है। कई कविताएँ हैं जो
प्रसंगवश याद आ रही हैं। लेकिन उस मात्रा में नहीं हैं जिस मात्रा में इसे होना
चाहिए।
सर, जैसा कि आपने कहा कि कोई नयी चीज या साहित्य आता है तो
नयी मनोरचना विकसित होती है। इस दृष्टि से यदि हम देखें तो क्या दलित कविता ने
हिंदी कविता कीजमीन को विस्तृत किया है?
निश्चित
तौर पर, निश्चित तौर पर किया है। मैं तो करीब पंद्रह वर्ष पहले भी लिख चुका हूँ कि
ये दलित कविता जो आयी है यह भविष्य का जीवद्रव्य है।
दलितसाहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री साहित्य - ये जो आ रहे हैं ये सब भविष्य का जीवद द्रव्य हैं भारतीय समाज के लिए। और वो दिखने लगा है
धीरे-धीरे। दलित कविता, स्त्री कविता और आदिवासी कविता (मैं तीनों को संदर्भ में
जोड़ रहा हूँ) इन तीनों ने उन नए विषयों पर कविताएँ संभव की हैं जिनके बारे में सोच
ही नहीं पाता था प्रगतिशील कवि- अपनी तमाम वैचारिक तीक्ष्णता, ईमानदारी के बावजूद भी। ऐसा
नहीं कि वो बेईमान कवि था। वो समझता था, दुःख को महसूस करता था लेकिन इस यथार्थ को
समझने से चूक जा रहा था। तो ये नए इलाकों की ओर ले गई है। उन अंधेरों की पहचान
संभव हुई है दलित कविता, आदिवासी कविता और स्त्री कविता से जिन्हें लोग अँधेरा ही
नहीं समझ रहे थे। जबकि वो गहन अँधेरा था, भयानक अँधेरा था। हिंदी दलित काव्य
भारतीय समाज का सच है।
किसी भी काव्यधारा के समक्ष समकालीन चुनौतियाँ होती हैं
जिनसे वह निरंतर जूझती रहती है साथ ही भविष्य का मार्ग भी प्रशस्त करती है। हिंदी
की दलित कविता के सम्मुख भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। सर, हिंदी दलित कविता के
सम्मुख भविष्य में आने वाली चुनौतियाँ क्या होंगी? क्या दलित काव्यधारा से सम्बद्ध रचनाकार उन चुनौतियों से
मुठभेड़ करने में सक्षम होंगे? क्या दलित मुक्ति
का स्वप्न साकार होगा?
वो
लोग सक्षम होंगे कि नहीं होंगे ये तो वही लोग ज्यादा बेहतर बताएँगे। सबसे बड़ी
चुनौती यही है कि जाति व्यवस्था की आलोचना तो बहुत जरुरी चीज है जो उन्होंने की
है। उसके उन्मूलन की बात की है ये बहुत अच्छी बात है। लेकिन कई ऐसे कवि उसी में हैं
जिन्होंने जब शुरुआत की तब भी वही कह रहे थे और आज भी वही कह रहे हैं। यानि उनके
पास कोई विकल्प है या नहीं, ये सबसे बड़ी चुनौती है। वो कैसा समाज चाहते हैं? जैसे जो मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र है वो एक वर्गहीन समाज की
कल्पना करता है। तोक्या दलित साहित्य एक जातिहीन समाज की कल्पना करता है; और करता है तो इस तरह की कविताएँ क्यों नहीं आ रही हैं ! यानी कि जिन कवियों ने 90 के आस-पास लिखना शुरू किया था वो तीस
वर्ष बाद भी अभी उसी भाषा में वही बात कर रहे हैं, बस अपने को दोहरा रहे हैं वो। अब तक तीस वर्ष के बाद होना ये
चाहिए कि यथार्थ तो उन्होंने कह दिया। अब इस यथार्थ के आगे जो नया संसार बनाना है
उसका कोई खाका है कि नहीं है उनके यहाँ। नये संसार का खाका बनाने की जरुरत है। वो
दलित साहित्य की भी जिम्मेदारी है, वो डॉ. अंबेडकर के विचारों में है लेकिन उसको
लागू करने की जरुरत है। दलित साहित्य सिर्फ साहित्य के लिए है या समाज बदलने के
लिए भी है? यह भी उन्हें तय करना होगा। व्यावहारिक धरातल पर उसको लाना होगा। जिस
तरह मार्क्सवादी साहित्यकारों पर यह आरोप लगता रहा कि वे लोग अपनी जाति नहीं भूल
पाये। वर्ग की बात करते रहे लेकिन अपनी जाति नहीं भूल पाये। क्या जो दलित
साहित्यकार हैं, जो दलित समाज की अलग-अलग जातियों से आये हैं, क्या वे अपनी जाति
भूल रहे हैं? क्या वो उसको अपने भीतर से मिटा रहे हैं? या उनके दिमाग में भी अभी
जाति की वो चीज बची और बनी रह गयी है? अगर नहीं रह गयी है तो दलित समाज के एकीकरण
के बाद जरुरी है कि सवर्ण समाज जिसको माना जाता है (तथाकथित जो है) उसके साथ संवाद
के रास्ते तलाशना सबसे बड़ी चुनौती है। उससे संवाद बनाये, उसके साथ भाईचारा या
रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करे। तभी भारतीय समाज जाति मुक्त समाज बनेगा। आधा
भारतीय समाज जाति में बंधा रहे और आधा मुक्त हो जाये तो उससे थोड़े ही कुछ होगा। जब
तक सब लोग जाति मुक्त नहीं होंगे तब तक बात कैसे बनेगी? जाति की समस्या तो आदिवासी
समाज की भी समस्या है, वहाँ भी जातियाँ हैं। सबसे बड़ी चुनौती यही है कि मुकम्मल
जाति मुक्त समाज की स्थापना करना, और उसका खाका देना। यह दलित चिंतकों को और साहित्य को देना होगा। तमाम अंतर्विरोधों को दूर करना होगा। बीते
समय में जो कहानी
संग्रह आए उनमेंएक'वाल्मीकि समाज की
कहानियाँ' भी है। अब
आप देखिये कि दलित समाज के भीतर जो वाल्मीकि लोग हैं उनकी अलग कहानियाँ होंगी,
दुसाध समाज की अलग कहानियाँ होंगी, इसी तरह जो अन्य जातियाँ हैं उनकी अलग कहानियाँ
होंगी - ,यदि ऐसी स्थिति है फिर तो कुछ हुआ ही नहीं। फिर तो यही हुआ कि
आपने जाति व्यवस्था को और गहरा बना दिया। जिसमें आप वाल्मीकि को अलग, दुसाध को
अलग, चमार को अलग, पासी को अलग अगर देख रहे हैं तो फिर तो जाति नहीं गयी। मूल
मामला तो यही है कि ये सब मिट जाना चाहिए, समाप्त होना चाहिए। निश्चित तौर पर
समस्या के मूल में अंतर्विरोध तो हैं। जो दलित स्त्रीवादी हैं वो कहती हैं कि
हमारे पुरुषों के भीतर भी पितृसत्ता के वही सारे गुण हैं जो सवर्ण पुरुषों के अंदर
होते हैं। तो यह बड़ा अंतर्विरोध है। अगर आप मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं तो मुक्ति
की लड़ाई लड़ रही स्त्रियों के बारे में आपकी राय तो अलग होनी चाहिए, जबकि वो नहीं
बन पायी। आप डॉ. धर्मवीर के सारे विचार पढ़कर देखिये, वो दलित चिंतक रहे हैं लेकिन स्त्री विरोधी के तौर पर ही सामने आते हैं वो। स्त्री
प्रसंगको लेकर, जाति को लेकर वहाँ बड़े भयानक अंतर्विरोध
हैं। और सबसे बड़ी चीज यह है कि दलित साहित्य में भी बड़े साहित्यकार और छोटे साहित्यकार की लड़ाईयाँ शुरू हो
चुकी हैं कि फलाना बड़ा कवि है फलाना छोटा कवि है। गुटबंदी, खेमेबाजी - वेसब चीजें वहाँ भी शुरू हो गयी हैंजो मुख्यधारा के साहित्य
में वर्षों-बरस से चल रही हैं। जबकि यदि कोई एजेंडे के साथ लेखन कर रहा है तो वहाँ ये सब अंतर्विरोध
नहीं आने चाहिए। हिंदी की मार्क्सवादी कविता या प्रगतिशील कविता या लोहियावादी
कविता हो- इनकी सबसे बड़ी असफलता यही रही है कि वह कभी व्यवहार के धरातल
पर घटित ही नहीं हो पायी। सबकुछ कविता में ही रह गया। एक बहुत बड़ी असफलता है कि सब
कुछ सिर्फ कविता में ही रह जाये। जीवन में अवश्य उतरना चाहिए चाहे आंशिकही उतर पाये। अगर समय और चुनौतियों से
मुठभेड़ करनी है तो तमाम अंतर्विरोध दूर करने आवश्यक हैं।
आप व्यक्ति के तौर ही देखिये कि हम अपने जितने अंतर्विरोधों को दूर कर लेते हैं उतना ही हमारा व्यक्तित्व निखर जाता है। और जब हम
अंतर्विरोधों से ग्रस्त रहते हैं तो बहुत सारी दुविधाएँ हमारे पास होती हैं। यही
चीज वैचारिकी के साथ है, यही चीज लेखन के साथ भी है। अंतर्विरोधों से मुक्त होना
ही पड़ेगा वरना कोई बड़ी सफलता अर्जित नहीं की जा सकती, मुक्ति का स्वप्न
साकार नहीं किया जा सकता।
सर, अंत में एक सवाल यह है कि क्या एक कवि और आलोचक के तौर
पर आपको हिंदी दलित कविता का भविष्य आश्वस्त करता है?
निश्चित
तौर पर, निश्चित तौर पर आश्वस्त करता है लेकिन वही कि जो कवि 1990 में जो बात कर
रहा था वही अगर 2020 में भी कह रहा है तो फिर उसे अपने साहित्य को लेकर पुनर्विचार
करना चाहिए कि नया क्या है? और जो नये लोग आ रहे हैं, वे लोग भी यदि वही बात
कहेंगे जो 80 और 90 के कवि कह चुके हैं तो फिर नयापन नहीं होगा। मान लीजिये यदि आज
मैं उसी तरह की कविताएँ लिखूँ जैसी रघुवीर
सहाय या केदारनाथ सिंह लिखते थे तो उसका कोई मतलब नहीं होगा। हम उस परंपरा में हो
सकते हैं, हम उनसे सीख सकते हैं लेकिन उन्होंने जिन समस्याओं को उठाया, अगर हम भी उन्हींसमस्याओं को उठा रहे हैं तो उसमें समकालीन संदर्भ तो जुड़ने
चाहिये ना। यानीकि दलित कविता के लिए एक चुनौती यह भी है कि भारतीय समाज
जिस मात्रा में भी बदल चुका है, कम से कम उसकी अभिव्यक्ति करे वह।एक बड़ी तादात तथाकथित
सवर्ण समुदाय के भीतर आयी है जो जाति के आधार पर नहीं सोचते हैं। जिन्होंने अपने
बेटे-बेटियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है कि तुम अपनी जाति में ही विवाह करो।
कम से कम ऐसे लोगों के बारे में स्वीकार की कविता भी तो आनी चाहिए, स्वीकार का
साहित्य भी आना चाहिए। यानी कि जितना
बदलाव हो चला, उस बदलाव के पक्ष में भी कुछ लिखना जरुरी है। और चूँकि नहीं लिखा जा
रहा है तो कुछ दुविधाएँ होंगी। इन दुविधाओं से मुक्त होना चुनौती है। जब नयी पीढ़ी
आती है तो वह आश्वस्त तो करती ही है। जैसे घर में नया बच्चा आता है तो नए स्वप्न
होते हैं उसके साथ। स्वप्न जुड़ते हैं कि यह ये करेगा वो करेगा। वैसे ही जब हर भाषा
में नया कवि आता है तो उसके साथ उस विधा के स्वप्न जुड़ जाते हैं। उसके साथ एक
वृहत्तर साहित्य परिवार है तो वह ये सोचता है कि इसकी कलम से कुछ नया बनेगा।
भविष्य को लेकर मैं बराबर उम्मीद से भरा रहता हूँ चाहे वो तथाकथित मुख्यधारा की
कविता हो या दलित कविता हो, आदिवासी कविता हो, स्त्री कविता हो। संभावनाएँ ही
संभावनाएँ हैं।हमारा समय अधिक जटिल हुआ है, अधिक संश्लिष्ट हुआ है। ऐसे में कवि के
सामने जिम्मेदारियाँ भी अधिक हैं और अवसर भी अधिक हैं।
धन्यवाद
सर! आपने अपने व्यस्ततम कार्यक्रमों के बावजूद
साक्षात्कार हेतु समय निकाला इसके लिए आपका बहुत-बहुत
आभार। इस बातचीत के माध्यम से दलित साहित्य और उसके अंतर्गत हिंदी दलित काव्य की
एक व्यापक समझ बनी, कई आयाम निकलकर सामने आए। आपका रचनात्मक लेखन इसी ऊर्जा के साथ
जारी रहे इसके लिए आपको हार्दिक शुभकामनायें।
यह सही है कि मुख्यधारा का साहित्य वर्ग आधारित शोषण की बात तो करता है लेकिन वर्ण आधारित शोषण की नहीं। जब तक वर्ग और वर्ण के भेद को स्पष्ट करके समाज में फैली असमानता और शोषण को आधार मुख्यधारा में काव्य नहीं लिखा जाएगा विमर्श मूलक साहित्य इससे अलग रहेगा। क्योंकि भारतीय समाज में वर्ण पर आधारित जाति व्यवस्था ही असमानता और शोषण का आधार रही है। कविता चूँकि हमारे भावों और विचारों को व्यक्त करने का सबसे पुराना माध्यम रही है इसलिए साहित्य का विकास कविता से ही हुआ है। इससे दलित साहित्य भी अछूता नहीं रहा। पहले का लिखा साहित्य अपने समूचे अर्थ में अगर साहित्यिक संदर्भों को लेकर चलता तो दलित साहित्य के अलग से आविर्भाव की आवश्यकता नहीं होती।
जवाब देंहटाएंव्यापक और तमाम परिदृश्य को समेटता हुआ एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार। जितेंद्र जी और चैन सिंह मीणा को बधाई
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सर
हटाएंइस साक्षात्कार में दलित कविता ही नहीं बल्कि समूचे दलित साहित्य को लेकर सार्थक, गंभीर और प्रासंगिक विचार प्रस्तुत हैं।
जवाब देंहटाएंदलित साहित्य और मुख्यधारा के साहित्य के बीच मौजूद अंतर और उससे उभरने की वैचारिक धरोहर को चिह्नित किया गया है। हिंदी में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित और लिखित साहित्य की वर्गविहीन समाज की परिकल्पना और डॉ. आम्बेडकर की वैचारिकी से प्रेरित एवं प्रभावित दलित साहित्य की जातिविहीन समाज की परिकल्पना को गंभीरतापूर्वक स्पष्ट किया गया है और इनके बीच साहचर्य एवं संवाद स्थापित करने का नया मौलिक विकल्प भी प्रस्तुत है। दलित साहित्य के भीतर मौजूद अंतर्विरोध, दलित कविता की पिछले 40 वर्षों की उपलब्धि और कवियों के वैचारिक स्तर में आई जड़ता को भी रेखांकित किया है। यह भी बताया है कि समय के साथ हुए बदलावों को ध्यान में रखते हुए दलित साहित्य ने किस तरह की दिशा तय करनी चाहिए। दलित साहित्य की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और उसकी भारतीयता के संदर्भ में व्याप्ति को लेकर प्रस्तुत विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है जो भाषा, क्षेत्र और वर्ण-जातीय मानसिकता के समीकरण बदलने हेतु नई भूमिका निर्धारित करते हैं। दलित साहित्य की चुनौतियों के बारे में इस साक्षात्कार में जो प्रश्न उठाये हैं उस पर गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है। आशा है कि दलित साहित्य को सृजित करने वाले रचनाकार एवं आलोचक-विचारक इस दिशा में उचित पहल करेंगे। दलित साहित्य की पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी के लेखन को लेकर कहीं बातें बिल्कुल सही है। पुरानी पीढ़ी के कई रचनाकार अभी भी आत्ममुग्ध है और युवा पीढ़ी के भीतर भी थोड़े बहुत अंतर्विरोध मौजूद है। पुराने और नये के बीच सामंजस्य बिठाने की समस्या बड़ी गंभीर है। जिसे सुलझाने के लिए नए विचार, नए बदलाव को ध्यान में रखते हुए भविष्य की वैकल्पिक वैचारिकी निश्चय ही बननी चाहिए। आपकी रचनाओं में भी कई सारी कविताएँ ऐसी है जो दलित ही नहीं बल्कि शोषित, वंचित समुदाय, आदिवासी और स्त्रियों की संवेदना और विवशता को उभारती है। जिसका जिक्र साक्षात्कार में भी आया है। मुझे डॉ. धर्मवीर को लेकर की गई आपकी प्रेम कविताओं वाली टिप्पणी समझ में नहीं आयी। शायद मैंने उनकी इस तरह की कविताएँ पढ़ी नहीं हो। समय निकालकर इसे जरूर समझना चाहूँगा। अतः आशा है कि इस साक्षात्कार में प्रस्तुत विचार दलित साहित्य के परिसर को विकसित करने का सकारात्मक पूल बनेंगे और हिंदी साहित्य की व्यापक सृजनात्मकता में इसे स्वीकृति मिलेगी। यह सही है कि विभाजन की मानसिकता में किसी भी तरह की साहित्यधारा अपना मुक्कमल पथ निर्धारित नहीं कर सकती। उसे समग्रता में विकसित होने की आवश्यकता प्रासंगिक है। यह वैचारिक दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी धरातल पर सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी सकारात्मक परिवर्तन संभव है।
सार्थक टिप्पणी के लिए आभार शिवदत्ता जी.....यह चेतन मानस आज साहित्य एवं आलोचना के लिए और भी आवश्यक हो गया है....पुनः आभार
हटाएंअपनी टिप्पणी टाइप करते समय मेरे द्वारा "मुझे डॉ. धर्मवीर को लेकर की गई आपकी प्रेम कविताओं वाली टिप्पणी समझ में नहीं आयी। शायद मैंने उनकी इस तरह की कविताएँ पढ़ी नहीं हो। समय निकालकर इसे जरूर समझना चाहूँगा।" ऐसा हुआ है। कृपया इसे इस तरह पढ़े- मुझे डॉ. धर्मवीर को लेकर की गई आपकी प्रेम संबंधी विचारों वाली टिप्पणी समझ में नहीं आयी। शायद मैंने उनकी इस तरह की वैचारिकी पढ़ी नहीं हो। समय निकालकर इसे जरूर समझना चाहूँगा।
जवाब देंहटाएंबहुपक्षीय विचार! संतुलन भी!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सर
हटाएंआप सबका हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक साक्षात्कार
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