14 जून, 2020

सतीश छिम्पा की कविताएँ




सतीश छिम्पा



हम ख़ूबसूरत मौत मरेंगे

()
हम ख़ूबसूरत मौत मरेंगे
क्योंकि, हमने खूबसूरत लोगों से प्यार किया है
हम मरेंगे अंततः साथी की बाहों में, ज़िंदगी के बहुत गहरे, सघन और गरिमामय हिस्सों में डूबकर
मुक्ति समर में मुक्ति के गीत गाते हुए
या किसी फ़ासिस्ट की अमानवीय आंखों में तैर रहे भेड़िया नस्ल के रोग को मिटाते हुए
या प्रेमिका या उस एक जादुई लड़की के इंतज़ार में
जिसकी आंखों में इश्क के मौसम हर वक्त हरे रहते हैं
हम ख़ूबसूरत मौत मरेंगे यारों
क्योंकि, हमने खूबसूरत लोगों से प्यार किया है

 (२)
दिमागी नहीं
ना ही जिस्मानी रोगी होकर
मैं मरूंगा सुंदर जीवन जीते हुए
बहुत सुंदर मौत
मैंने किया है
तुम जैसी गरिमामय, जीवंत
और सुंदर साथी से प्यार



दुनिया की सभी माँ....

हजार चौरासी की हो
या पावेल की
या दून्या की
या भगतसिंह
या चे गवेरा की
या हर उस क्रांतिकारी की जिसने इस दुनिया को सुंदर बनाकर जीने के लायक बनाने के सपने देखे, काम किया
उन सबकी माँ
मेरी भी माँ है.. वो उज्ज्वल, गरिमामय कोख जिससे पैदा हुए महान मुक्तिकामी, सभी के जीवन का भी उत्स हैं.....
शाम की उदास आमद के बाद
हरियल भविष्य के सपने देखती माँ का मन उचट जाता है
और सूनी उदास निगाहें भींत के लेवड़ों को बनाकर स्लेट लिखती हैं इंतज़ार.... उम्मीद.. टूटते हौसले को
चिंताएं सुलगती हैं बुझ चुके चूल्हे और बज रहे आटे के खाली पीपे को देखकर
थळियों में कबाडी खेलती भूख, गट्टारोळी खाकर पसर जाती हैं घर मे चहुंदिश
अक्सर लंबी चुपी ओढ़ लेती है
समय की दौड़ में पिछड़ने वाले बेटों के भविष्य को सोचती हुई, निराश हो जाती है
वक़्त के थपेड़ों से धूज रही माँ की गर्दन
मुझको इस सदी का सबसे बड़ा शाप लगता है
माँ, अब खिल चुकी है, फिर उदास, फिर आंसू
घर भी है उल्लास और उत्साह में
माँ का मौजूद होना ही अंत है पीड़ाओं, दुखों और  हताशाओं का
माँ, सांस की अंतिम आस है
जो टूट जाती है आस
आस, जो टूट जाती है अक्सर
आस, जो बनी रहती है आखिर तक
आस, निराशा के खोळ को उतारकर स्थापित कर देती है जीवन मूल्य
आंगन में किताब लिए बैठे बेटे को देखकर पनियायी आँखों में झिलमिला रही है आस
अपनी हथेली की धंधलायी लकीरों को देखती माँ मौन है, पसरा है सन्नाटा, निशब्द!, शब्द जो यहां अक्सर चूक जाते हैं
तब जब वे अर्थों की तलाश में फिरते हैं माँ के आस पास
माँ की दीठ हताश है, या नहीं है, या जो कुछ भी अजीब है वो सब ढल जाता है उम्मीदों को घेरे खड़ी बेबसी में
बेबसी, घर और आंगन की पीड़ाओं को लादे
खून और पसीने के घोल में डूब  समय के कंधों पर चढ़कर  चिल्लाती है
माँ की आंखे सदाबहार गीतों की उदास धुन की तरह हर समय भीगीं रहती हैं
दिन का कोई पहर, पल या मिनिट्स ऐसी नहीं होती जिसमे माँ ना हो उदास
तीस बरस का जवान मोट्यार बेटा काम ना होने से डोलता फिरता है मारा मारा
अलग अलग शहरों, गाँवो और ढाणियों में
बेमतलब, बेकाम, निरुद्देश्य... बस यूं ही और कहलाने लगा है अपने उन संगियो से आवारा, सड़कछाप यायावर जो अनेक उम्मीदों और भावनाओं और आदमियत का कत्ल करके खूबसूरत जीवन बिताने के सपनो के साथ घोंट चुके संबन्धों, विश्वासों और उत्तरदाई व्यवहार की तासीर को
मानवद्रोही पड़ोसियों ने ताना मारकर बताया अपनी संपदा के बारे में और कीकर पर बैठा तोता जैसे बोल ही पड़ा हो, "हरामी आदमी की हरामी कमाई....."
दूर देस गए जवान लाड़ले की लीरमलीर जेब और फाके के धक्के चढ़ी देह, जो अब धीरे धीरे कंकाल में बदलने लगी है जो एक पांड नुमा डाकण लगातार चूस रही है, चूसे जा रही है, लपरकों के साथ सब कुछ चूस लेने के बाद अदीठ हो भाग जाएगी
भूख के षड्यंत्र के विरुद्ध, असमानता और अन्याय और कपट के विरुद्ध गीत गाने वाला वह देशद्रोही, गद्दार, अपराधी, जासूस, नक्सली, चोर, हरामी...नराधम.... जाने कैसे कैसे अलंकार सम्हाले बैठा है। रम से स्कॉच और देसी दारु तक के सफ़र में आक्रोश, गुस्सा और असंतुष्टि के साथ रात रात भर किताबों में आंखे गड़ाए रहने वाला प्यार में असफल, बदलाव और स्थापना में असफल होकर उदास बैठा है
माँ की गर्दन झूल रही है, हाथ कांप रहे हैं और भीतर भावों का प्रचण्ड वार सह रही आत्मा रोऊँ रौंबकर रही है
उधर जो वो लालू की मां है उसको भी नहीं आती आजकल नींद
बड़बड़ाती है सारा सारा दिन
उस परले बास में किरसन की माँ को दौरे पड़ने लगे हैं
विनोद की माँ दाखिल है पागल खाने में पिछले एक साल से
शालू की माँ गिरकर मर गई सूखे कुए में
हरपाल की माँ अक्सर देखी जाती हैं उस दरखत के पास में जहां फंदा लटकाकर मर गया था हरपाल पिछले साल....
उसकी
इसकी
इसकी भी
उसकी भी
इधर वाली
उधर वाली
इधर वाली भी
उधर वाली भी........
सब की सब माएं चुप है, उदास, मुर्दा शांति से भरी, मातमी चुप्पी को ओढ़े रो रही है बेटों के भाग के लिए
सब की सब माएं
उलझ उलझ जाती है भावों की रील में और रो लेती है
दोस्त
क्या सच मे दुनिया की सभी माएं एक जैसी होती है
क्या फर्क कोई नहीं
क्या आपकी, मेरी, हमारी और उनकी माँ
सच मे एक ही है जो अलग अलग देह में कैद है.....
.....बताना साथी कभी लौटो तो...




अब नहीं आते वैसे.....

अब तानाशाह वैसे नहीं आते जैसे आते थे पहले
कपट के शोर और धूम धड़ाके के साथ
अब तानाशाह नही आते उस तरह जैसे आया था कभी
फ्रैंको या बटिस्टा आया था
होरी हितों या पिनोशे आया था
या आया था मुसोलिनी या हिटलर आया था जैसे
या किसी जनरल के रूप में
या किसी मनुष्य के रूप में पहले आया था जैसे
अब नहीं आते वैसे
अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़े व्यापारियों की देखरेख में सजाया जाता है चौपड़ पासा, गोटियां तैयार करता है मीडिया...मीडिया, पत्रकार बोला, बोलता ही गया
और फिर
खून ही खून.... खून, लाल रंग का लाल खून
हर तरफ फैला हुआ और लाशें ही लाशें, गाय की, आदमी की, नही गाय की
मच गया हल्ला....उन्माद और फिर और हल्ला, इतना हल्ला , हल्ला ही हल्ला
गोटियों से निकल कर और शेयर मार्किट के चौराहों से होते हुए मंदिर के राह से
विजय के जश्न में मदमस्त होकर, जयमालाएं पहने
बहुत से लुभावने वायदों के साथ आते हैं तानाशाह
सांस्कृतिक तस्वीर की ओट से कुछ अलग तरह के गोयबल्सों के साथ
विकास और समानता और न्याय की चासनीदार बातें करते हुए
ये आते हैं शांति के सफेद कबूतर उड़ाते हुए
स्नाइपर्स को बन्दूकें पकड़ा कर खड़े कर देते हैं साफ़ हवा, पानी और रोटी और जीवन और स्वाभिमान से जीने का हक मांगने वाले आदमी की तरफ
और झुग्गियों पर
मुर्दनी शांति के बुलडोज़र चढ़ाते हुए
अंत में अट्टहास करते हैं
हाशिए पर पड़ी मनुष्यता को रौंधने के लिए बढ़ते हैं
तब तक रौंधते हैं जीवन को
जब तक कि कोई जीवित मनुष्य आक्रोश के दावानल के साथ उठ न खड़ा हो या
गिलोटिन पर चढ़ाकर तानाशाह को
शोषण, अन्याय, असमानता की नींव पर बने राजमहल को फूंक डालने के लिए
                       


कुरजां के नाम
(साइबेरियन क्रेन पक्षी को राजस्थानी में कुरजां कहा जाता है।)

साइबेरिया से थार तक
धरती की ऊबड़ खाबड़ पत्थरीली देह को पार करके
मौसमों के सब्ज़ आंचल पर सवार होकर
जब तूँ देश आए
तो एक बार मेरे गाँव भी जरूर आना कुरजां
मैं तुझे चुगाऊंगा अपनी इच्छाओं की बखारी से चुग्गा
आँखों के पोखर का पानी पिलाउंगा
भावों के तूफानों में अपने बेतरह डोलती देह की शाख बनाकर बैठाउंगा तुझे
तेरे मुँह से तेरे देश की कहानियाँ सुनूंगा
और अपने गाँव मे फैलते काले दिनो की बातें बताऊंगा
मैं बताऊंगा किस तरह ज़मीर पेट की
हाट चढ़
अरमानो को धूसर उजाड़ रेगीस्तान मे दफन कर देता है
और केवलादेव घाना की खूबसूरती बड़ी जानलेवा लगती है
तुम आओगी तो बताउंगा
हवाओं का पल्लू पकड़ नज़रें जब
किसी तराशे सपने को चूमना
चाहतीं है
तो
ब्याज पर लिया उधार
आँखों का पानी सुखा जाता है और
नंगी आँखे ब्लातकारी वक्त की
गुलाम होकर
रोना भूल जाती हैं
जिन्हें माना जाता रहा सदियों का साथी
वे प्रेम की राह से विचलित होकर समय के बहाव में बहुत आगे निकल जाते हैं
कभी आओ तो आना जरूर कुरजाँ मेरे भी गांव

हमे लौटना ही होता है
अनंत यात्राओं के बाद
फिर से उसी नीरस शुरुआत के लिए
जो हम
हरबार करते हैं....ख़ुद को सम्हालने के बाद
दरक चुके विश्वास
और सम्बंधों की कमज़ोरियाँ
हमे
हमारे हिस्से के उजालों से दूर करती है
तब
तड़फ़ड़ाते मन में उठते अनेक ज्वार
ख़ुद को कविताओं में ढाल
क्लासिक होने के लिए प्रयत्नरत दिखाई देते हैं
मगर
हमारी नियति में नहीं होती क्लासिकी
दरख्तों के तनों पर खुदे कुछ
धुंधले से नाम
और अतीत की सांकल
हमारे शब्दों को रोक लेते हैं
हम विवश होते हैं
और
बहुत कुछ फिसल जाता है हमारी मुट्ठी से
यात्राएं
हाड़ी के बाद जमीन के गिर्द पसरी
मौसमी उदासी की तरह
हमे हर बार कुछ पलों के सुकून के बदले
असंख्य पीड़ाएं दे जाती है......
मगर
फिर भी तय करते हैं हम
एक के बाद एक कई सफर



सब कुछ छोड़कर चले थे वे
बीते दिनों को अलविदा कहकर
मगर
ढलती सांझ
उनकी जेबों में
अतीत की हरी पत्तियां निकलती हैं




काले सूट में उजला सा कोई


चश्मे वाली लड़की वो धान के खेतों से उठे लोक गीत थे
तुम्हारे  सुतवें जिस्म पर थिरकती लय मे लिपट
जो मेरे होटों पर सज गये
जिस्म के पठारों को ढके हुए वो जो काला पैरलर सूट था
गीले मौसमों में भीगा
मेरी आँखों मे बस गया था
पारदर्शी कपड़े मे कैद तेरी बांहें
थार की बेचैनी  में सुकून भरती है
मैं दूर बैठा था
पास फिर भी बहुत था
याद की एक परछाई अतीत के आसमान पर जमी
और झुक कर सपनो ने तुम्हारे होटों की शरबतों को पी लिया है
सुन चश्मे वाली लड़की -
काले सूट मे छुपा  हुआ उजाला
मेरे सपनो की रात का हमसफ़र है



चूमना, एक जादू भरी  क्रिया है
                                         
                       
    

चुंबन मानव के सुंदर जीवन का सौंदर्यशास्त्र है                             
      
(
१)
चुंबन केवल एक चुंबन ही नही होता है
चुंबन की इच्छाओं से
हरा होकर हरियल तासीर में बदल देता है प्यार, बेशुमार
धरती के  इस एक मगर तिलिस्मी जादुई  चुंबन के लिए की है बहुत बार सैंकड़ों हजारों किलोमीटर की यात्राएं।
थार से पहाड़ और पहाड़ से मैदान और मैदान से बीहड़ और बीहड़ से समुद्र तट और जहां जहां भी बसा हो सौंदर्य, मैं गया हूँ हर बार वहां चुंबन के लिए।
जैसे गया था शिमला, गया गंगानगरहिसार और उदयरपुर भी
इलाहाबाद ने भरपूर दिया मुझे नशीला द्रव्य
चुंबन मुझे खींचता है जनाना होठों की तरफ
जाने कितने जोखिम उठाए हैं दो फांक से प्यारे होठों को गहराई से चूमने के लिए
रेल में, बस में, थिएटर में, कॉलेज, स्कूल और होटल और सराय और दीवार फांदकर, छत आदि पर असंख्य
अजमेर की श्रीराम धर्मशाला में पहली बार छुआ था मेरे किशोरवय होठों ने दो नाजुक होठों को बीस मिनिट तक अमृत पीने के बाद मैं ताउम्र इस मादक नशे का एडिक्ट हो गया था
वो लड़की जिसका नाम '' से ही शुरू होता था
जिसने मुझे प्यार करना सिखाया
बाद में सुना उसकी मौत हो गई है और यह भी कि उसके घरवालों ने ही मारा था उसको,
सच क्या है किसी को भी पता नहीं मगर मुझे पता था उसके होठों और जीभ का स्वाद,
उसकी आँखों मे तैरते सपनो की इच्छाएं.....
मुझे पता था चुंबन के असर की तासीर।
 
     
(२)
इस दुनिया मे मानव नस्ल के पैदा होने के बाद जिसने भी लिया होगा धरती पर पहली बार चुंबन वो स्त्री/पुरुष होंठों के जादुई स्वाद से अचेत, स्तब्ध हो गए होंगे
जिसने भी की होगी इस महान, पवित्र और जादुई और तिलिस्मी कारज की शुरुआत
जरूर उसकी आंखों में  धरती का समूचा नशा उतर आया होगा
जब पहली बार छुए होंगे होठों ने होंठ
जीभ ने घोला होगा असंख्य फूलों का गाढ़ा मीठा रस
कितना बड़ा शांत, मुलायम और सुंदर और जादुई भाव से भर गया होगा मन
जब भी पिया होगा धरती पर पहली बार किसी ने
स्त्री के होंठों की तिलिस्मी मीठी शराब को
उसने भुला दिया होगा जीवद्रव्य की तासीर और समुद्र मंथन से निकले अमृत के मिथक को
बिसरा दिया होगा असंख्य फलों और फूलों के रस से भी रसीली गुलकंदी तासीर की मिठास को
किसी पुरुष की जीभ
जब छूने लगी होगी स्त्री की शीत मगर दहकती सी लाल जीभ को
बहुत गहरे एक दूजे से बंटीजते हुए, रस और नए बने जीवद्रव्य को पीते हुए
आंखों में भावों के समंदर तैर गए होंगे और खुद ही बढ़ गए होंगे दो हाथ देह को आलिंगन के लिए और दैहिक नशे, आनंद की शराब का जादुई भाव बिखर कर पसर गया होगा चारों तरफ
धौंकनी सी चलती, उठती गिरती सांसों और पनियाई आंखों में जाने कब कैसे और किस तरह उतरा होगा
अपरिचित मायावी भाव
बह गए होंगे तब स्त्री और पुरुष एक दूसरे की देह में उतर कर
जिसने भी लिया होगा पहला चुंबन
संभोग का जीवंत, मादक पवित्र आनंद भी उसी के हिस्से आया होगा।
मिथकोंं के त्रिदेवों की बीमारू परिकल्पना को छोड़ो
जिसने भी इस धरती पर किया होगा पहली बार
प्यार
चुंबन
आलिंगन
संभोग
उसी ने बनाया होगा इस धरती को रहने और प्यार करने लायक




....जीवन मैं तुम्हारा हूँ

(गद्य कविता)               
जब भी कोई बोलती सी आंखे और ना मुस्कुराने पर भी मुस्कुराते होठों को देखता हूँ- उसमे खो जाता हूँ। आंखे बोलती सी मगर अबोली, विचलित कर देती थी मेरे संवेगों को..... इच्छओं को भड़काती......
किसी लेखक को या किसी बढ़िया किताब को पढ़ता, मैं उसमे खो जाता था, पात्र मुझ पर हावी हो जाते थे, जैसे अन्ना कैरेनिना या प्रिंस निकोलायविच या पावेल या स्पार्टकस या मैडोना या होरी या गोबर, वान्या या नताली..
बहुत बरस मैं बीमार रहा, दोस्तोवस्की के अर्धविक्षिप्त पात्र हावी रहे मुझ पर या गोर्की के भिखमंगे, मजदूर, चोर उचक्के या फटेहाल लोग
फिर ऐसा हुआ कि ऐसा होना बंद हो गया। मैं पढ़ता और छोड़ देता वे रचनाएं, पात्र घटनाएं मैं भूलने लग गया.... उन्होंने मुझे पढ़ा, मेरे भीतर को पढ़ा...  और कलाएं मुझे प्यार करने लगी, रचनाओ ने मुझे भरपूर स्नेह दिया.....  और फिर पता लगा ये लाल आंखे, दहकती सी किसी नशे से नही बल्कि.. प्यार, किताब, पीड़ाओं, बेचैनी और भय, अंधेरा संत्रास.... एक पूरा जंगल हो जैसे- मेरा भीतर.. और उन्होंने मुझे परोट लिया.....
     बहुत बरस मैं प्यार में रहा। अलग अलग समय में अलग-अलग पात्रों में मैं खोया रहा। उड़ता कल्पनाओं के आकाश में यथार्थ के परों से गहरी नीली आँखे, तीखी लम्बी नाक या काले भूरे बाल या दोलड़े हाड़ों वाली देह.... जादू भरी देह या स्त्री देह के भीतर कस्तूरी का कुछ अलौकिक... या सुलझे विचार मैं तलाशता रहा बंजर होती उम्मीदों के लिए हरियल सपने
   मेरे हिस्से में भरपूर प्यार आया, भरपूर पीड़ाएं, साथ और अकेलापन भी मगर हर बार अलग होने के बाद मैं फिर से प्यार करता हूँ, पाता हूँ, खो देता हूँ, फिर से प्यार करता हूँ, फिर....फिर.....फिर...और फिर, हर बार मुझमे और गहरा हो जाता है प्यार जैसे दूध में शहद या फूलों का गाढ़ा रस
बहुत कुछ होता, घटता है। आज भी जब मै होता हूँ नए सिरे से प्यार में जैसे बढ़ती हुई बेल या पांगरता दरख़्त
   यह कहना कि मेरा जीवन मेरा ही है और जी लेना चाहता हूँ मैं इसे बिना किन्ही वर्जनाओं के- इससे बड़ा सच दूसरा नही है कोई और इसलिए मैं जी लेना चाहता हूँ इस धरती, किताबों, प्यार, प्रेमपथ सहगामियों और अनाज और, फूलों और वनस्पती, कॉफ़ी और सहयोग और शांति और सुंदरता और स्वतंत्रता के साथ



देश भूखा हैभटकता है सड़कों पर


काम का होना बहुत बड़ी बात है
काम का न होना भी छोटी बात नहीं है
जैसे मूंगफली खरीदने के लिए जेब में दस रूपये न होना या शाम को किसी पावणे का आना और एन वक्त पर पता चलना
आटा नहीं है
बहुत बड़ी बात है घर में दूध का न होना या चाय पत्ती का खत्म हो जाना
उस समय जब हाथ में काम न हो या जेब हो लीरम् लीर
फाके के दौर में आपका समूचा चिंतन
बौद्धिक कचरा हो जाता है जैसे चेतना शून्य मनुष्य या गूंगा देश
देश अक्सर चिथडों में लिपटा भटकता है
देश भूखा है
अध नंगा है
देश के पास करने को काम नहीं है
किताबें न होना देश की शर्मिंदगी का सबब है
शर्मिंदगी फिजूल नहीं है
ये प्रक्रिया है भूख से बेअदबी की
बेअदब होना इस सदी का एक मूक उपहार है
जैसे एक पूरी नस्ल का गूंगा होना षड्यंत्र है वाचाल राजा का
काम का न होना,ज़बान का न होना,भूख का होना बहुत बड़ा षड्यंत्र है
आदमी के खिलाफ
भूखा आदमी देश है
जैसे भूखा देश आदमी है सड़कों पर भटकता हुआ
आओ आदमी का पेट भरें
कपड़े पहनाएं
काम दें
किताबें दें
और दें महानता
ताकि कह सकें आदमी महान है
देश महान है




निर्लज्ज समय मे देश की आत्महत्या
                                        
                                        
वो जो देश है जिसका नाम भारत है
गर्व है जिस पर तुम्हे
उस अंधेरे कोने में सर झुकाए, अपमान के बोझ से दबता हुआ किसी बेइज्जत बुजुर्ग की तरह बैठा है
हाथ मे निष्ठुर रस्सी लिए
वो जो नंग, धड़ंग फटेहाल, अछूत, काला, भूखा, बेरोज़गार, दयनीय अधमरा सा भारत है
जिज़ पर तुम्हे गर्व है, जाती, धर्म और वर्ग के लिए
अपमान का रस्सा हाथों में घुमाता जांटी की तरफ बढ़ रहा है
लंगड़ी चाल में
वो जो भारत, जो तुम्हारे धर्म के लिए महान था
भूख
गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी
अपमान से हारकर रस्सी को हाथ मे लिए बढ़ रहा है
जांटी के डाल लिया फंदा
लटक गया
तदफ़ा, तड़फता रहा कुछ पल और मर गया
एक देश जो जहालत में मर गया
जिसका धर्म और जात और नस्ल और भाषा और चेहरा मोहरा और उद्देश्य
....और धारणाऐं
और...और....और....और........ उसका सब कुछ वैसा था ही नहीं जैसा तुमने उसको बनाकर छोड़ दिया
वो दर्द, और पीड़ाओं से मुक्त होने के लिए लटक गया
मर गया
बर्बाद हो गया
खत्म
मिट गया हमेशा के लिए.....
तुमने एक देश की तासीर को घिनोना बनाकर मरने पर मजबूर कर दिया
जाओ, जाओ, भाग जाओ भेड़ियों
पटरियों पर पड़ी रोटियां तुम्हारे हर उस मिथ्या अभिमान पर थूकती है जिसके कारण तुम भेड़िया जमात करते हो मनुष्यो से नफरत.....
दफा हो जाओ, अपने देश की मौत पर हरजस गाओ औ श्राद्ध करो
अपनी बदबूदार मांद में बैठकर.......

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परिचय


सतीश छिम्पा

जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई.

रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, इंद्रप्रस्थ भारती, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, मरु गुलशन, जगतिजोत, कथेसर, ओळख,युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित

संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता (राजस्थानी कविता संग्रह), लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा, आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता), वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)

शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास), विदर्भ (कहानी संग्रह)

विशेष :- ऐसे जरूरी और बेहतरीन रचनाकार जिन्हें साहित्यिक मठाधीशो या राजनीति के चलते या अन्य कारणों से हाशिए पर डाल दिया गया था उन सब अग्रजों को इस और आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजकर  संपादित कर रहा हूँ।

संपादन :- किरसा (अनियतकालीन), कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह), भूमि (संपादक, अनियतकालीन)

मोबाइल : 7378338065

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