17 जून, 2020

पूर्णिमा मौर्या की लम्बी कविता 'पत्थर' : भाग-१



पूर्णिमा मौर्या

पत्थर

ऑन कैमरों के साथ
हम खड़े हैं उन रास्तों पर
जहां से निकलते हैं
पत्थराये पांवों से  
सड़कें नापते 
मजदूर।

लाकडाउन में जिंदा रहने की जद्दोजहद करते
आजिज हो
दूसरे राज्यों से अपने गाँवो को लौटते
मीलों सफर तय कर चुके
मजदूर।

मजदूर निकल पड़े हैं
शहरों महानगरों को छोड़
अपने गांव-घर की ओर
जैसे निकल पड़ी हो चींटियां
बारिश के अन्देशे से अपने अण्डों को सिर पर उठाए
किसी सुरक्षित ठिकाने।

पर ये चीटियां नहीं
जीते जागते इंसान हैं
जो खतरे में हैं
भूख से मर जाने के खतरे में
इसलिए
ये निकल पड़ें हैं
खतरों से जूझने
खतरों के बीच।

कुछ पूछते ही
संकोच
डर झिझक के साथ
अपनी बोली बानी में
खुश्क रुंधे गले
सुनाने लगते आपबीती।

पैदल चले जा रहें हैं
मजदूर
काली पथराई
दहशतज़दा सड़कों को पार कर
फिर उन्हीं कच्ची पक्की
जानी पहचानी
पगडंडियों की ओर
जो जाएंगी उनके गांव जवार
घर।

मुख्य मार्गों
कच्चे पक्के रास्तों
या रेलवे ट्रैक किनारे
एक कतार में चलते
प्लास्टिक की बोरियां, अटैचियां लादे
औरतों बच्चों बूढों के साथ
मजदूर चल रहे हैं।

चल रहे हैं मजदूर
छोटे सिर पर बड़े पग्गड़ बांध
बच्चों को मई की चिलचिलाती धूप से बचाते।

चल रहे हैं मजदूर
भूख से रोते बच्चे को
कभी बिस्कुट
कभी ढांढस
तो कभी यूं ही रोता लेकर
कलेजे पर पत्थर रख
सफर पर। 

चल रहें हैं मजदूर
कि अब चलने के सिवा कोई रास्ता न था।

इस मुश्किल सफर में क्या क्या बीता
या बीत रहा
लगातार
दर्ज हो रहा है कैमरों में
दुनिया में
इतिहास में
और हर उस शख्स के सीनें में
जिसका दिल अभी पत्थर नहीं हुआ।

मजदूर चल रहे हैं
लगातार
ऑन हैं कैमरें
चल रहीं हैं खबरें भी
लगातार
पर कितनी आएंगी सामने
और किस अंदाज में
कितनी दर्ज रहेंगी इतिहास में
भविष्य तक जाएंगी कितनी सबक की तरह
और कितनी रहेंगी सुरक्षित हम सबके दिलों में
चेतावनी की तरह
संघर्ष की तरह
या बस गैरजरूरी
मुर्दा चीजों की तरह
मिट जाएंगी
या सिरे से मिटा दी जाएंगी
फिर कुछ समय बाद
दर्ज होंगी
इतिहास में
किसी और ही शक्लो-सूरत में
इस भयावह मंजर की दास्तान,
इक्कीसवीं सदी में
मीलों पैदल चलते
मरते मजदूरों की दास्तान।

सब पहले से तय 
हुकूमत द्वारा
और जो तय नहीं
उसे आने वाली हूकूमत तय कर देगी
पुरानी हुकूमत के पदचिन्हों पर चल।

अपने अपने लाभ के हिसाब से
सब सेट किया गया
हुआ सब तय
देश और विदेश में बैठे खास
ऊंचे
बहुत ऊंचे लोगों द्वारा
बहुत ऊंचे पदों पर बैठे लोगों द्वारा।


इस कठिन समय में
जालसाज़ियों और हत्याओं के समय में
महामारी और उसके डर के समय में
षडयन्त्रों और अफवाहों के समय में
मेरा काम है बयान लेना
पैदल चलते मजदूरों के साथ
अपने मीडिया वाहनों में चलकर
उनके बयान लेना।

कभी उनके साथ धूप में तो कभी रात मे
कभी चलते चलते
तो कभी थोड़ा ठहरकर
सिर्फ बयान लेना।

ठीक उस तरह जिस तरह सिखाया बताया गया हमें
क्योंकि
बयान सिर्फ बयान नहीं होता
होता है उसका अपना गणित
अपना विज्ञान
होती है उसकी अपनी राजनीति
अपना समाजशास्त्र
और होती है अपनी
टेक्निक भी।

बयान लेना कोई शगल नहीं
और न ही मज़ाक
काम है या मजबूरी
तरीका है तरक्की पाने का
सच उगलवाने और छिपाने का
या जज्बा है
कत्ल हो जाने की हद तक बेबाक हो जाने का।

बयान हमें लेना होता
क्योंकि लोग चाहते हैं
इन्हें देखना सुनना
देखने सुनने के सबके अपने कारण होते
कुछ लोग
यूं ही देख सुन लेते कुछ भी
क्योंकि इनके पास कुछ भी देखने सुनने का
समय होता है खूब
कुछ लोग जो बोलना नहीं चाहते
देखने सुनने में इस कदर जाते डूब
कि मान लेते हैं इसे देखकर जिन्दगी सार्थक हुई
कुछ लोग
इन्हें बोलता देख इन्सपायर होते
और बोलने लगते इनके पक्ष या विपक्ष में जोरदार
तो कुछ लोग
करते हैं इनकी पहचान
ताकि बोलने की दी जा सके उन्हें
माकूल सजा
कुछ को ये देख सुनकर आता है मजा
वे खुद को महसूसते बड़ा
कुछ देखते हैं इसलिए
कि कर सकें इनका इस्तेमाल
इनके बारे में लिखकर बोलकर
इन्हें अपनी कलाकृतियों में ढालकर
चाहते महानता के तमगे लटकाना
ये चाहते हैं कि लोग यूं ही
रोते बिलखते मरते रहें
संकट में घिरते रहे
ताकि ये जता सके संवेदना
टपका सकें दो आंसू इनके नाम पर
या इनकी मदद से कमा सके कुछ पुण्य
ताकि स्वर्ग में भी इनका बन सके दबदबा।

इन सबसे अलग
कुछ बिरले ऐसे भी हैं
जो संवेदना के दो आंसू से ज्यादा करना चाहते
ताकि बने ऐसी दुनिया
जहां यूं मरने-खपने-जूझने वाला कोई न हो
लाॅकडाउन जैसे भयावह समय में भी
दो दुनिया न बन जाए
जहां कोई तो
स्काटिश ब्रान्ड का सिंगल माल्ट पीते
इन्ज्वाय करने के नित नए तरीके खोजे
तो कोई नमक रोटी से हो बेदखल
जिन्दा रहने की जद्दोहद में
हर पल मरे।

फिलहाल
आजाद उड़ते पक्षी की तरह
उड़ती सोच को
पिंजरे में बन्द कर मैं
मुखातिब हुआ मजदूरों की ओर
कैमरे ने दर्ज किए
तमाम तमाम लोगों के बयान
जिन्दा रहने के लिए
गालियां, लाठियां खाते
तमाम तमाम मेहनतकश लोगों के बयान
पथरीला सफर तय करते
जिन्दा लोगों के बयान
मैं पूछता रहा अपने सवाल
वो सुनाते रहे अपनी जिन्दगी
मैं सुनता रहा
दर्ज करता रहा उनके बयान
मरजीवा लोगों के जिन्दा बयान।

तुम कितने बजे निकले?
कितने किलोमीटर बाकी हैं अभी?
तुम्हें इस महामारी से डर नहीं लगता?
तुमने कबसे कुछ नहीं खाया?
क्या बच्चा बीमार है?
इसे लेकर कहीं रुक क्यों नहीं जाते?
तुम गांव जाना क्यों चाहते हो?
मैं पूछता लोग बताते
बताते क्या
कलेजा चीर सामने रख देते
कि देख लो
जान लो जो भी जानना चाहो
हम बहुत छोटे लोग हैं साहब
आप से क्या छुपा

सही तो कहा
क्योंकि बड़ोंसे हम हर बार
सब पूछते ही कहां
और कई बार लाख पूछने पर भी बचा लेते हैं
सबसे जरूरी बात,
हमारे पूछने
और उनके बताने में
जो छूट जाता 
उसकी साझी समझ से चलता है
पत्थर दिल दुनिया का कारोबार
और उनकी राजनीति।

[नोट – यह लम्बी कविता ‘पत्थर’ का पहला भाग है]


                              

परिचय

पूर्णिमा मौर्या

कविता संग्रह सुगबुगाहट’ 2013 में स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित, ’कमजोर का हथियार’ (आलोचना) तथा दलित स्त्री कविता’(संपादन) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका महिला अधिकार अभियानकी कुछ दिनों तक कार्यकारी सम्पादक रहीं। विभिन्न पत्र, पत्रिकाओंपुस्तकों में लेख तथा कविताएं प्रकाशित।

सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन  

ईमेलdrpurnimacharu@gmail.com

मोबाइल नं - 9449422174

पता - 4/5,  क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान
मानसगंगोत्री, मैसूर
पिन कोड- 570006  



4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सामयिक कविता!!!

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  2. अच्छी कविता, मार्मिक अभिव्यक्ति

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति जमीनी यथार्थ को शब्द बंद किया है आपने बहुत-बहुत बधाई

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