30 जुलाई, 2020

लोकभाषाओं के साहित्य में इंकलाबी स्वर : सतीश छिम्पा

(किश्त - १)


सतीश छिम्पा

 

(लोकभाषाओं यथा - राजस्थानी और पंजाबी साहित्य में इंकलाबी स्वर का तुलनात्मक मूल्यांकन है जो इसके साथ ही ठोस आधार पर वैश्विक जन समूह के बहाने भारतीय लोक साहित्य परंपराओं पर  वर्गीय जन--आंदोलनो के प्रभाव की पड़ताल करते हुए हम  इसके अतीत के आधारभूत कारणों और आधार को अनदेखा नही कर सकते हैं-- इसलिए हम इसकी गहरी तहों तक जाकर इसका बहुत बारीकी से अध्ययन करते हुए मूल्यांकन के आधार पर चीजों को देखेंगे। इस परख से हम उस शब्द बीज को टोह सकते हैं जहां से जन सरोकारो की शुरुआत या पहली झलक मिलती हो।)

 

राजस्थानी और पंजाबी साहित्य :

 

            भारत के इतिहास को खासकर के प्राचीनकाल की एतिहासिक घटनाओं को जिस तरीके से दक्षिणपंथी और तथाकथित मध्यमार्गी (जो मार्क्सवादी  बताते हैं खुद को) जमात ने अपनी अपनी तरह से शोध करते हुए सामंती तत्वो में भी एक अलग अभिजात्य वर्ग के असामाजिक अराजक बौद्धिक तत्वों के उभार या स्थापित होने को वे लोग मार्क्सवाद मानते हैं, और इनका यह भी मानना है कि वो समय कबीलाई सभ्यता के दौरान उठे विद्रोहों की देन है जो आज तक किसी न किसी रूप में सामने आते है।  इतिहास के लिए इस तरह के दावे अक्सर दक्षिणपंथी बौद्धिक कपट की खुराफात होती हैं जिससे अधकचरे या अपरिपक्व वाम- जनवादी जो मार्क्सवादी होने का ढोंग करते हुए सही गलत को हटाते या स्थापित करते रहने का हास्यास्पद काम करते रहते हैं। इसमे कोई भी दो राय नही है कि भारत का इतिहास  जन या लोक संघर्षो  या सामाजिक संघर्षो से भरा हुआ रहा है..- लेकिन प्रवृति गत मूल्यांकन या कहें तत्कालीन लोक या जन समूह के व्यवहारगत तरलता पर निर्भर रहती है आंदोलन की मुख्य आवाज। आंदोलन की आत्मा। इसलिए इन बैद्धिक ढोर ढोल  से अलग जब हम मानव के हित में उसी के लिए बढ़ते हैं तो जरूरी हो जाता है, वहां से जहां जीवन अपने उज्ज्वल रूप में थापित होने की शुरुवात करता है। मतलब सन 1825- 26 से आगे तक कि पड़ताल ही कि जानी चाहिए।


           किसी जीन या कोशिकीय उपचार के लिए समय भीतर बहुत गहरे उतर कर समय दर स्थितियां और देशकाल और लोक व्यवहार के साथ ही सत्ता और भाषागत विरोधाभास या अन्य कुछ जरूरी या समय सीधी के भांत प्राचीन काल की खाक छानना व्यर्थ हैं। हम  सन 1826 से सन 1857 ई. के उन सभी जन उभारो को देखना, पढ़ना और समझना होगा जो निम्न किसानी या कहें खेतिहर मजदूरों के खून पसीने के शोषण और अन्याय के विरुद्ध उठे छोटे छोटे गांवों के बहुत से जिंदा और प्रतिबद्ध होकर महान दार्शनिक-सांस्कृतिक वैचारिक पधर से समृद्ध रहा है। एक बहुत लंबी जंगली सभ्यता जिसको लोग सामंतकाल कहते हैं, के अंतिम वर्षों (अंतिम वर्षो इसलिए लिखा कि चैथे दशक के बाद से यह बस मानसिक ही रह, सत्ता पर पूंजीवादी प्रवृतियां हावी थी।) बाद किस तरह से बिजोलिया किसान आंदोलन, बेंगू किसान आंदोलन, दुधवा खारा बाद में तेभागा और तेलंगाना तक के महान अतिमानवीय साहस का उद्गम माना जाता है जो इसी रूप में स्थापित भी हुआ।

 

    अतीत में बहुत से ऐसे विद्रोह या जन उभार भी हुए हैं जो शोषण और अन्याय के विरुद्ध पेट के सवालों से तो खैर जुड़े हुए थे ही, धर्म, जाति, वर्ण और धार्मिक पंथों को लेकर भी हुए। पंजाब के कूका विद्रोह को हम मात्र धार्मिक या पहचान के या इसी तरह के किसी अन्य चलताऊ विषयो तक ही मानते हुए रदद् नही कर सकते हैं-- बल्कि यह अतिमानवीय साहस को स्थापित करता जन का जन के सरोकारो और अधिकारों के लिए उठा एक महान किसानी उभार भी था।  


      सन 1920 से 1925 तक जब कि पूरा  सांसर महान लेनिन के नेतृत्व में हुई महान अक्टूबर क्रांति के प्रभावों से प्रभावित हो रहा था और तीसरी दुनिया के  अधिकांश देशों में पहले तो विदेशी साम्राज्यवाद पूंजीवादी गुलामी के विरुद्ध और फिर सत्ता पर काबिज देसी जालिम पूंजीवादी लुटेरों के विरुद्ध मेहनतकशों छात्र युवाओ के दिलो में आजादी के लिए विद्रोह के दावानल उठने लगे थे। और फिर उसी समय काल मे चीन में एक महाविद्रोह और प्रजातंत्र के नाम पर फिर लुटेरे काबिज हुए और अंततः महान माओ त्से तुंग के नेतृव में क्रांति के बाद महान मुक्ति के लिए लंबी छलांग और सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत हुई जिसके साथ बहुत कुछ बदलने लग गया।

 

          भारत मे  भी यह बहुत गहराई से उभरकर मुखर होने लगा। इस समय तक इतिहास के एक और समयातीत आंदोलन के साथ अवस्थिति और कला और समय और वर्गीय अवस्थिति की शोधात्मक पड़ताल की शुरुआत हो गयी जो एक शताब्दी के दौरान (उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक) पूरी हो गयी। उपनिवेशीकरण ने भारतीय समाज की स्वायत्तता की उम्मीद को जनवादी रूप से पहले ही गुलामी की उस चासनी को चटवा दिया जिससे गुलामी कभी गुलामी दिखती नही है। आन्तरिक गति को पूरी तरह से नष्ट करके इसके ऊपर एक औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना आरोपित कर दी। इस आरोपित औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के बीच किसी बीमार से, कमजोर और नवजात एक बीच के नये वर्ग की गहराई और बीमार विचार इस देश के इतिहास की अभिशप्त उत्तराधिकारी  थे। 

 

            पुनर्जागरण बौद्धिक पक्षो के स्वभाव पर निर्भर करता है- भारत आज तक इस पक्ष से दूर ही रहा हा, यहां आज तक वे महान शुरुआत हो ही नही पाई है जबकि सन 1453 ई. में जब तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार कर लिया तो वहां विद्वानों के झुंड के झुंड इटली की तरफ पलायन कर गए और इसी पलायन का नतीजा था 'यूरोपीय पुनर्जागरण' - पुनर्जागरण को किसी हल्के स्तर पर आंकना मूर्खता होगी इसलिए स्पष्ट करना जरुरी है कि पुनर्जागरण के ही एकमात्र ठोस कारण से बहुत स्पष्ट रूप से जो सामाजिक, सांस्कृतिक और कलाओं और जीवन के बहुत स्थाई और ठोस आधार पर औद्योगिक क्रांति संभव हुई थी और फिर यही वो औद्योगिक क्रांति थी जिसने सामंतवाद को निर्णायक रूप से हराकर- एक और नए वर्ग 'पूंजीपती या कहें पूंजीवाद' को पैदा किया था।

 

       भारतीय पूँजीपति वर्ग और भारत के बुद्धिजीवी किसी पुनर्जागरण और प्रबोधन की प्रक्रिया से विकसित नहीं हुए थे। वे ऐतिहासिक जड़ों से कटे हुए सामंती अवशेषों के जूठन पर पैदा हुए छोटे छोटे उद्योगपति थे जो आज हरेक का संचालन कर रहे हैं। और औपनिवेशिक ही नही बल्कि मिश्रित होकर सामाजिक प्रदूषण से भरे सामंती बीमार सामाजिक-आर्थिक संरचना की उपज थे। यही कारण था कि भारतीय पूँजीपति वर्ग के किसी भी भाग ने स्वतंत्र पहल नही करते हुए अन्य सामाजिक गतिशील धाराओं से व्यवहारगत चीजें हासिल की और सीखी।

 

       आपमे से बहुत से लोगों ने मार्क्सवादी रचनाकार निरंजन का 'अविस्मरणीय'   सिरलेख से हिंदी अनुवाद हुआ उपन्यास पढा ही हुआ होगा, जिसमे उस समय के, ब्रिटिश काल मे एक जगह  पर हुए खेतिहर और भूमिहीन किसान उभार की और दमन  की कहानी है, जिसको कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार निरंजन ने तमाम तरह के शोध के साथ भावुक स्तर पर तथ्यों और कथा को मिलाकर जो रचाव दिया है  वह अद्भुत है तथा सच्चाई भी है।   कय्यूर के किसान संघर्ष की गाथा बताने वाला यह उपन्यास कन्नड़ में चिरस्मरणेय नाम से छपा था और बेहद लोकप्रिय हुआ था। चिरस्मरणनाम से मलयालम में और द स्टार्स शाइन ब्राइटलीनाम से अंग्रेज़ी में भी इसका अनुवाद हो चुका है। रामकृष्ण पांडेय ने हिंदी अनुवाद किया है। कय्यूर की कहानी--  जो  केरल राज्य के मालाबार इलाके में स्थित कसरगोद खंड का एक गाँव है। यह उस गाँव के भूमिहीन, खेत मजदूर, और सीमांत किसानों के महान  संघर्ष की कहानी है। उस समय कय्यूर मे चार जो साथी शहीद हुए थे यह उपन्यास उसका दस्तावेज है उन महान शहीदों की गाथा है -- जिन्होंने 1942- 43 ई में अत्याचारी स्थानीय सामंतवादी ज़मींदारों और ब्रिटिश गुलामी के खि़लाफ किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया था जो लोकयुद्ध में बदल गया और उन्होंने फांसी के फन्दे को चूम लिया था। यह उन भूमिपुत्र मेहनतकशों की कहानी का ही एक हिस्सा है जिन्होंने ना केवल देश की बाहरी बल्कि आंतरिक आदमखोर लोकतांत्रिक मिश्रित व्यवस्था ढो रहे इस देश की आज़ादी और सर्वहारा जनता की बेहतर और स्वस्तथ सुंदर जिंदगी के लिए संघर्ष में अपना जीवन न्योछावर कर दिया था। यह हमारे अतीत और भविष्य के शहीदों की शहादत की लम्बी शृंखला की ही एक कड़ी है। जिसको हमारे समय के आलोचक अपनी भद्दी और ओछी राजनीति को बचाने के लिए राजनीतिक आरोप लगाते आए हैं।

 

     इस तरह का यह एक ही नही बल्कि भारतीय भाषाओं में अनेक मिल जाते हैं जो लोक के गौरव गान से गरिमामयी हो जाते हैं।

 

          यहां कभी भी कोई क्रान्तिकारी संघर्ष नहीं हुआ और  सामंती वर्ग ने जब तक यह पूरा खत्म नही हुआ, तब तक यूँ ही पूँजीपति वर्ग ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध आद्यन्त `समझौता-दबाव-समझौता´ की नीति अपनाई तथा जन संघर्षो और विश्व परिस्थितियों का लाभ उठाकर सत्ता हासिल की।

 

        वर्गीय स्वभावो का अध्ययन किया जाए तो जाहिर है कि इस वर्ग की आदमखोर उच्च मध्यम वर्गीय सल्तनत को हावी करने के बाद उसके इस व्यवहार ने उसे जनता से नागरिक बन रहे गुलाम वर्ग के साथ छल करने और शासन चलाने की करिश्माई कुटिलता तो सिखाई, लेकिन दार्शनिक-वैचारिक सम्पदा के मामले में वह कंगाल ही था। भारतीय बुद्धिजीवी समुदाय का जो वर्ग उभर रहा था दरअसल वो  उस समय तक सामंती जीवाणुओं से संक्रमित था और ना उनके पास कोई जीवित प्रतिबद्धता और विद्वान समुदाय ही था और उसने भौतिकी और अदबी वैज्ञानिक और तर्कणा की वह समृद्ध ज़मीन हासिल  थी, जैसी यूरोपीय या रूसी और मध्य राष्ट्रों के बुद्धिजीवी वर्ग को थी। 

 

        एक यह भी कारण बहुत जिम्मेदार लगता है जिसमे औपनिवेशिक मानसिकता के चलते नव शोध या लौकिक रंजकीय व्यवहार और दर्शन और चिंतन  के बजाय यूरोप का अनुकरण किया या इतिहास की कूड़ा पेटी की ज़मीन पर खड़े होकर यूरोपीय ज्ञान सम्पदा का कुंठित अन्ध-विरोध भारतीय  बुद्धिजीवियों की आम प्रवृत्ति थी, आज भी है। भारत के मज़दूर वर्ग के सामने विरासत के तौर पर अपनाने के लिए बुर्जुआजी और नव मध्यमवर्गीय  पुनर्जागरण-प्रबोधन-काल की कोई सम्पदा नहीं थी। मध्यवर्गीय रैडिकल जमात बुद्धिजीवियों का जो हिस्सा वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों का कायल होकर मज़दूर आन्दोलन से जुड़ा, वह भी औपनिवेशिक सामाजिक संरचना में जन्मे होने के ऐतिहासिक अभिशाप से मुक्त नहीं था। उसके पास न तो ऐतिहासिक निरन्तरता का बोध था, न ही किसी भी देश की क्रान्ति या वर्ग-संघर्ष के विचारधारात्मक सारतत्त्व को आसवित करने और अपने देश की ठोस परिस्थितियों का अध्ययन करके उनमें उसे लागू करने का बौद्धिक विवेक एवं साहस था। 


       इसी चर्चा के बाद आगे बढ़ते हुए हम महत्वपूर्ण विभाजक को स्थापित करते हुए फिर से विषय के विस्तार के साथ ध्यान दिलाते हैं। नक्सलबाड़ी (मजदूर, खेतिहर मज़दूर उभार को किसान संघर्ष का नाम देना आत्मघाती था और बना भी) के आक्रोश के चलते पैदा हुए एक बहस और दृष्टिकोण के साथ ही ही आधार बनाता हुआ भारत का कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन या मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा के सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं के विश्लेषण-समाहार की बहुत जरूरत मानी गई। पहले संक्षेप में यह जान लेना ज़रूरी है कि भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर वे परिस्थितियाँ किस रूप में तैयार हुई कि क्रांतिकारी कतारों का एक धड़ा संशोधनवाद के कुए में जा गिरा तो दूसरा असमय  हथियारबंद संघर्ष के दुःसाहस के साथ उठा और अपने गलत बयानों, तार्किक दृष्टि या विज़न के कमजोर और संकुचित सोच की मूर्खता के कारण लाल आतंक में बदलकर महान माओ और उनकी विचारधारा को माओवाद से जोड़कर बदनाम करने की साजिशें रचने लगा।

 

        गलत लाइन का हिंसात्म हिस्सा या वाम आतंकवाद या कहें दुःसाहस और  संशोधनवाद को काटकर  फेंकने  और संशोधनवादी गुंडावाहिनियो से विद्रोह करने की स्थिति तक जा पहुँचा, नक्सलबाड़ी किसान उभार (ढाई महीने में बर्बर दमन के चलते खत्म हो गया था।)  जिसका निमित्त बना। साथ ही, नक्सलबाड़ी में विस्फोट की परिस्थितियाँ किस रूप में तैयार हुई, किसान-उभार का ज्वार किस प्रकार उठा और आगे बढ़ा, इन तथ्यों और घटनाओं से मैं पहले ही आप सबको वरवर राव वाले तीन भागों में लिखे लेख में लिख चुका हूँ आप पढ़ सकते हैं।

 

     यहां जो जन-विद्रोह शुरू हुआ (जो बमुश्किल तमाम सिर्फ़ ढाई माह तक ही चला) और उसके पक्ष-विपक्ष में पूरे देश का कम्युनिस्ट आन्दोलन बँट गया तथा वह घटना। मज़दूर आन्दोलन में द्वंद्वात्मक भौतिकी के  चलते हर निग्घी और ठोस जमीन की पड़ताल करने वाले इस समाजवादी विचारधारा को लाने वाले इन बुद्धिजीवियों ने यही विरासत यहां मध्यमार्गी और मध्यम वर्गीय संक्रामक जमात को दी मगर भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए जो इसी समयकाल में जो नेतृत्व गुण पैदा हो रहे थे सापेक्ष और के विपरीत मूल्यों के समांतर थे। उसने यहां शोषित तबके को बीमारू समझौता वादी रुख दे दिया जिससे वह आज तक मुक्त नहीं हो सका है। औपनिवेशिक मानस भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व में इस रूप में मौजूद रहा है कि सफल क्रान्तियों, उन्हें नेतृत्व देने वाली पार्टियों एवं उनके नेताओं तथा अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का अन्धानुकरण लगातार, कमोबेश इसकी एक आम प्रवृत्ति रही है।

 

 (क्रमशः)