22 अगस्त, 2020

लोकभाषाओं के साहित्य में इंकलाबी स्वर - 3

 

सतीश छिम्पा

लाल सिंह दिल - पंजाबी का महान इंकलाबी कवि

 

(रोटी के हक के लिए जीवन से जूझता एक जुझारू कवि की शहादत उसी भूख में हो गई थी। एक पंजाबी दलित, मज़दूर, क्रांतिकारी और कवि और एक लाल यौद्धा को जानना जरूरी है। एक क्रांतिकारी कवि जो भूख से युद्ध करता हुआ शहीद हो गया, उसी भूख में...)

 

सन 1967 ई में पश्चिम बंगाल से शुरू होने वाली नक्सल लहर जो एक महान कम्युनिष्ट लहर में बदल गई थी की देन है पंजाबी साहित्य में आमूल चूल बदलाव और जीवन और उसकी गरिमा को स्थापित करने वाली इंकलाबी कविता का उत्स जो किसी उजास की तरह से हुआ था। जबकि इससे पहले जो प्रेम और व्यक्तिगत संघर्षों के महिमा मंडन, प्यार के बीमार पक्ष मतलब निराशा, जुदाई आदि का हावी होना बहुत अश्लील था। यह अमृता प्रीतम और शिव कुमार बटालवी का दौर था।  शिव कुमार बटालवी के गीतों में प्यार के संक्रामक पक्ष, उसकी "बिरह की पीड़ाइस कदर सघन थी कि उस दौर में पंजाबी ही नही बल्कि भारतीय भाषाओं में कई बड़ी कवयित्री  अमृता प्रीतम ने उन्हें बिरह का सुल्ताननाम दे दिया था। शिव कुमार बटालवी पंजाबी का वह शायर जिसके गीत भाषाओ के बंधनों को तोड़कर आजाद हो चुके थे। पंजाब ही नही बल्कि उसकी ख्याति हर कहीं फैली थी। उसने जो गीत अपनी गुम हुई महबूबा के लिए किसी छुपे प्रेमी की तरह की इबारत की तरह लिखा था वो जब स्टेज पर होते तो अनेक फरमाइशें आती थी इस एक गीत की। 

 

इक कुड़ी जिहदा नाम मुहब्बत ग़ुम है

ओ साद मुरादी, सोहनी फब्बत
गुम है, गुम है, गुम है
ओ सूरत ओस दी, परियां वर्गी
सीरत दी ओ मरियम लगदी
हस्ती है तां फूल झडदे ने
तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी

 

शिव की लूणा से लेकर बाकी काव्य संग्रह तक लोकप्रिय तौर पर उनका कोई भी काम हिंदी भाषा में नहीं आया है। लेकिन समय के साथ शिव तेजी से हिंदी भाषी लोगों के बीच लोकप्रिय हुए हैं। उनके लिखे गीत जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की जोड़ी ने जब हाय तो वे हमेशा हमेशा के लिए लोकप्रियता के आसमान में दर्ज हो गए।। ये इस तरह के मानसिक रोग पैदा करतेबीमार से गीत क्यो छा गए थे पंजाब में, क्यों अमृता के अवसादों भरे साहित्य का इतना भरा पूरा दायरा हुआ। क्या कारण था, कारण, आर्थिक ऊंचाइयां, जहां पेट की भूख शांत हो चुकी थी।

 

पेट की भूख  शांत हुई तो जिस्म की तलब हुई और बीमार कविताओ का दौर शुरू हुआ। मगर जैसे ही पश्चिम बंगाल से इंकलाबी, कम्युनिष्ट लहर का प्रचण्ड उभार हुआ, वैसे ही उठते गए जवान मरजीवड़े क्रांतिकारी और फिर उठे भूख, अन्याय, असमानता और संसंघर्ष का दौर- पेट की और जीवन के अस्तित्व के लिए जूझ रहे वर्ग के लिए जुझारू कविता का दौर आया, जो आज तक कायम है।

 

युवा और युवतर कवियो को इस इंकलाबी की तरफ़ ज्यादा ध्यान देना चाहिए। पश्चिम बंगाल के बाद पंजाब में प्रचण्ड रूप से उठी नक्सल लहर में पंजाब के बहुत से युवा लाल झंडा उठाकर शामिल हुए थे। और शहीद बाबा बूझा सिंह जैसे वयोवृद्ध पूर्व में ग़दर लहर और पार्टी से जुड़े हुए व्यक्ति थे, वे भी शामिल हुए थे। अवतार पाश, लाल सिंह दिल, संतराम उदासी, दर्शन खटकड़ और बहुत से युवा इसमे शामिल थे। उनमें से एक लाल सिंह दिल भी थे। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि लालसिंह दिल बेहतरीन क्रांतिकारी कवि थे लेकिन जलने कुढ़ने वाले लोगों ने यहां तक बात फैला दी कि 'जब जब भी पाश, उदासी और दिल को पुलिस उठाकर ले जाती तब  दलित होने के नाते पुलिस इन्हें ज्यादा टॉर्चर करती थी।', जबकि ऐसा इसलिए संभव नहीं था क्योंकि पुलिस तो खुद कत्ल हो रही थी, वे प्रतिशोध में जलते हुए किसी भी नक्सल को बख्शना नहीं चाहते थे।

 

लाल सिंह दिल


लाल सिंह दिल मेहनतकश वर्ग के थे, सर्वहारा, मौत से कुछ ही दिन पहले तक वे चाय बेचा करते थे। घर किसी खंडहर की तरह हो गया था। इस महान क्रांतिकारी कवि को पंजाबी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में हाशिए पर डाल रखा है। इनके अब तक के संग्रह जो मैंने मूल पंजाबी में पढ़े हैं, वे निम्न है,   'सतलज की हवा', 'बहुत सारे सूरज', 'सत्थर', और आत्मकथा 'दास्तान' (दास्तान मैंने नहीं पढ़ी अभी), हालांकि वे चर्चित थे मगर उस तरह से नहीं जिस तरह से उन्हें होना चाहिए था। जबकी पाश की प्रसिद्धि उनकी शहादत के कारण भी हुई थी। यह बाद का मुद्दा है कि किसी ने सार सुध नहीं ली। महान लेनिन के राष्ट्र राज्य सिद्धांत से दोलित होना या अमेरिका जाकर भटकाव का शिकार हो जाना भी एक मुख्य कारण था।

 

दिल भारतीय समाज के थल्लड़े वर्ग के संघर्षों के कवि थे। आपने अगर उन्हें नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़ें, हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। एक कम्युनिष्ट क्रांतिकारी कवि जो भूख के विरुद्ध रोटी के लिए पहले राजसत्ता फिर आतंकवादियों से और फिर भूख से युद्ध करता हुआ शहीद हो गया, उसी भूख में।

 

भयानक गरीबी, आर्थिक सामाजिक असमानता, अन्याय, शोषण कुपोषण और राज सत्ता के बर्बर दमन और अनदेखी के विरुद्ध उठे प्रचण्ड आक्रोश की लहरों के साथ इंकलाबी लाल परचम उठाए युवा क्रांतिकारियों को उस समय ताजा उठे नक्सलबाड़ी  किसान उभार से आस बंधी और वे सभी युवा जो जीवित थे, क्रांति की महिमा से वाकिफ़ थे, इस लहर में शामिल हुए। यह अलग मुद्दा है कि कुछ स्वार्थी और मूर्ख नेतृत्व के कारण एक महान उभार कुछ ही समय मे दमन का शिकार होकर खत्म हो गया।

 

यह लहर पश्चिम बंगाल के बाद आंध्रप्रदेश और फिर पंजाब में प्रचण्ड रूप से उठी  थी। इसमें पंजाब सहित देश के बहुत से युवा लाल झंडा उठाकर शामिल हुए थे।  इस क्रांतिकारी लहर ने जब तक दुःसाहस की लाइन नहीं पकड़ी तब तक यह एक खालिस मानवीय मुक्ति का युद्ध थी जिसमे अनेक कवि, लेखक, कलाकार, रंगकर्मी आदि खुलकर शरीक हुए और शहीद बाबा बूझा सिंह जैसे वयोवृद्ध पूर्व में ग़दर लहर और पार्टी से जुड़े हुए व्यक्ति भी इसमें शामिल थे। 

 

सन 1967 से 1972 तक एक महान क्रांतिकारी उभार रहा जो हाकिम के अन्याय और अत्याचार से व्यथित होकर क्रांति की महिमा से परिचित हुए और जो मानव जीवन की गरिमा को समझते थे वे भी शामिल हुए थे। अवतार पाश, बलदेव मान, लाल सिंह दिल, संतराम उदासी आदि बेहतरीन कवियो की कविता का जन्म भी इसी समर में हुआ। दर्शन खटकड़ जैसे और बहुत से युवा इसमे शामिल थे।  इन सब में से एक लाल सिंह दिल भी थे। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि लालसिंह दिल बेहतरीन क्रांतिकारी कवि थे लेकिन जलने कुढ़ने वाले लोगों ने यहां तक कुत्सा प्रचार किया  कि 'जब जब भी पाश, उदासी और दिल को पुलिस उठाकर ले जाती तब  दलित होने के नाते पुलिस इन्हें ज्यादा टॉर्चर करती थी।जबकि ऐसा इसलिए संभव नहीं था क्योंकि पुलिस तो खुद शिकार भी बन रही थी, कत्ल हो रही थी, वे प्रतिशोध में जलते हुए किसी भी नक्सल को बख्शना नहीं चाहते थे।

 

लाल सिंह दिल मेहनतकश वर्ग के थे, सर्वहारा, मौत से कुछ ही दिन पहले तक वे चाय बेचा करते थे। घर किसी खंडहर की तरह हो गया था। इस महान क्रांतिकारी कवि को पंजाबी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में हाशिए पर डाल रखा है। इनके अब तक के संग्रह जो मैंने मूल पंजाबी में पढ़े हैं, वे निम्न है,   'सतलज की हवा', 'बहुत सारे सूरज', 'सत्थर', और आत्मकथा 'दास्तान' (दास्तान मैंने नहीं पढ़ी अभी), हालांकि वे चर्चित थे मगर उस तरह से नहीं जिस तरह से उन्हें होना चाहिए था। जबकी पाश की प्रसिद्धि उनकी शहादत के कारण भी हुई थी। यह बाद का मुद्दा है कि किसी ने सार सुध नहीं ली। आंदोलन से जुड़े कवियो के बारे में पंजाब के दक्षिणपंथी इतना ज्यादा कूड़ फैला रहे है कि अनजान व्यक्ति जिन्हें इनकी जानकारी नहीं है, वे इस फासिस्ट कूड़ झूठ को सच मान लेते हैं, दिल के बारे में भी अनेक कुत्साओं के साथ ही साथ आम लांछन  ट्रोट्स्कीवादी होने की बात या कहें झूठ फैलाया गया था।

 

दिल भारतीय समाज के थल्लड़े वर्ग के संघर्षों के कवि थे। आपने अगर उन्हें नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़ें, हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है।

 

 

लहर

 

वह साँवली औरत

जब कभी ख़ुशी में भरी कहती है--

"मैं बहुत हरामी हूँ !"

वह बहुत कुछ झोंक देती है

मेरी तरह

तारकोल के नीचे जलती आग में

तस्वीरें

क़िताबें

अपनी जुत्ती का पाँव

बन रही छत

और

ईंटें ईंटें ईंटें

 

  

 

लाल सिंह दिल की चिट्ठी

 

समराला नहीं रहता अब मैं

पता बदल गया है

नया अभी मिला नहीं

बस्ती यह भी पूछती है

पहले क्या काम करते थे

 

मर भी गया तो

मौत में मरकर भी नहीं मरा

जल भी गया तो

आग में जलकर भी नहीं जला

नहीं मिलता जब तलक नया पता

चिट्ठी-पत्री

कविता के मार्फ़त करना

 

लालसिंह दिल को लेकर अगर हिंदी की आत्मा कही भावुक होकर गळगळी होती है तो वो कुमार मुकुल के जीवित कवि के मार्फ़त आता है जो अपनी दीठ के अनुसार कहते हैं कि-- "अंतिम आदमी की ताकत को भारतीय कविता में केदारनाथ अग्रवाल और  विजेंद्र के यहां अभिव्यक्त होते देखा जा सकता है। पर उसके जैसे गहरे और बहुआयामी रंग पंजाबी कवि लाल सिंह दिल की कविताओं में दिखते हैं उसकी मिसाल और नहीं मिलती। अंतिम आदमी के साथ अंतिम औरत की पीडा और ताकत भी लाल के यहां जगह पाती दिखती है -  'तवे की ओट में छिप कर चूल्‍हे की आग की तरह ...रोती' .... और 'थिगलियों से हुस्‍न निखारती' अंतिम औरत।

 

द्रविड़ और आदिवासी समाज के पक्ष को सामने रखती लाल की कविता सहज ही आर्यों, मुगलों, अंग्रेजों और मैकाले की भारतीय संतानों की सनातनी सत्ताकामी क्रूरता को उजागर करती है। अंतिम आदमी की आजादी की चाहत को लाल से बेहतर कोई अभिव्यक्त नहीं कर पाता। इसलिए भी कि लाल खुद उसी अंतिम दलित जमात से हैं। यूं तो लाल की परंपरा  वाल्मीकि और  व्यास जैसे दलित समाज से आए आदि रचनाकारों से जुडती है पर बीच के लंबे दौर में इस अंतिम आदमी की हैसियत को भारतीय अपसंस्कृति लगातार ग्रसती रही है और लाल भी उसका शिकार हुए हैं। अपने अनुवादकीय 'दिल और हम' में  सत्यपाल सहगल दिल के बारे में सही लिखते हैं -  'उसका जीवन-अंत जिस मुफलिसी और उपेक्षा से भरा था, वह एक मायने में साहित्यिक समाज में सुपरिचित चीज है और कायदे से किसी शहादत की श्रेणी में नहीं रखी जाती है, जैसे एके 47 की गोलियों खाकर  पाश की जिंदगी के अंत की शहादत।'


लाल की खूबी यह है कि दलित के नाम पर किसी तरह का कोई 'रहम' उन्‍हें 'मंजूर' नहीं।  फैज के बाद 'सारी दुनिया मांगेंगे' वाली आकांक्षा लाल की कविता में ही पनाह पाती है। लाल की कविता उन शब्दों की वकालत करती है ..... 'जिन्‍हें ढूंढती हुई तलवारेंपागल हो जाती हैं। उनका विश्वास मिटटी और जनता पर है जो गेहूं से लेकर बारूद तक और तूफान से लेकर इंकलाब तक को अपने भीतर समेटे रहती है। लाल देखते हैं कि उनकी परंपरा के लडाका शब्द युगों से चले आ रहे हैं और चुनौती देते हैं कि संभव हो तो जो कहे जा चुके हैं और हमेशा मुकाबिल खडे चले आ रहे हैं उन शब्दों की जुबान काट कर दिखाए कोई।

 

एक साथ आदिम युग से लेकर आज के वैज्ञानिक युग और तथाकथित लोकतंत्र तक के तमाम छोरों को जोडती है लाल की कविता। इसीलिए वे अगर आर्यों का मुकाबला करने वाले 'द्रविड भीलों' को 'सूरज से भी उजला' बताते हैं तो वहीं अंधेरों में दम ना तोडने वाले 'रेडियम का गीत' भी गाते हैं। ऊर्जा के पारंपरिक प्रतीकों के मुकाबले लाल नये वैज्ञानिक प्रतीकों को खडा करते चलते हैं। इसीलिए उनकी कविता में सूर्य के मुकाबले अंधेरों में घिरकर भी लडता, चमकता रेडियम तरजीह पाता है और 'अंधेरा राकेट की चाल चलता है''' कुमार मुकुल यहां जीवन के कवि के जीवन मूल्यों के भाव समझते हुए उन्हें ससम्मान आगे ले जाते हैं। 

 

लालसिंह दिल बहुत जरूरी संघर्षों के हिरावल के कवि थे। स्वीकार करने में कोई मुश्किल नही होनी चाहिए कि अगर पंजाबी के युवा रचनाकार (सौभाग्य से मेरे दोस्त भी हैं।) अजमेर सिधु जी के ही प्रयासों, लग्न और मेहनत का नतीजा है कि आज हम पंजाबी की क्रांतिकारी विरासत के संतराम उदासी, बाबा बूझा सिंह और लाल सिंह दिल जैसे इंकलाबी कवियो से परिचित हैं।

 

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