25 सितंबर, 2020

राजस्थानी :- मार्क्सवादी और समकालीन कविता स्वर

सतीश छिम्पा


         

     राजस्थानी कविता के मार्क्सवादी इंकलाबी स्वर   को ना केवल अनदेखा करके हटा दिया, मतलब इस शब्द को उपयोग में ही नही लिया जा रहा है। और इसके पूरक के रूप में जिन दो शब्दों 'जनवादी कविता' या 'प्रगतिशील कविता' को चढ़ाया गया था वे भी अब अपने पूर्ण रूपेण खुले नरोदवादी रूप में आने लगी है।

 

अक्सर जो मैं यहां कहता हूँ कि किसी भी कविता को गुस्सा और आक्रोश  होने के चलते ही मार्क्सवादी नही माना जा सकता, बल्कि उसकी भी एक दार्शनिक या कहें सैद्धांतिक पहचान होती है। हम अगर रेवंतदान चारण (समाजवादी माने जाते हैं मगर स्वर वर्ग संघर्ष को लेकर आता है तो जाहिर तौर पर उनकी कविताओं का इंकलाबी या मार्क्सवादी रूप सामने आता है। हम द्वंद्ववादी विश्लेषण करें तो यह एक नई परम्परा का उत्स होगा लेकिन समस्याएं बहुत है जैसे मार्क्सवादी विचारधारा में किसी रचना को समझने के लिए वस्तु तथा रूप के संबंध को समझना आवश्यक माना जाता है। इसके अंतर्गत लेखक क्या कहता है तथा कैसे कहता है- पर जोर दिया जाता है-- जिसमे एक तटस्थ तीसरा पक्ष भी होता है लेकिन यहां मनुज की या रेवंतदान की कविता में या कहें दर्शन में ऐसा नही मिल पाया।  अब जब ये पंक्ति सामने है इसलिए उन्होंने धोरों की जनता को जागने का आह्वान किया - धोरां आळा देस जाग रै, ऊंठा आळा देस जाग। राजस्थानी भाषा साहित्य की पहली और अद्भुत शुद्ध इंकलाबी या मार्क्सवादी कवि को आलोचकों ने वैचारिक स्तर पर क्यों नही मूल्यांकित किया ? , राजस्थानी जुझारू कविता के पहले ही कवि थे मनुज देपावत।

                                   

राजस्थान की कविता हिंदी और राजस्थानी की खासियत रही है कि आप जिस जिस काल के कवि को पढ़ रहे हैं या जिस प्रवृति या विचार या आधार की कविताओ या कवि डायरी या उपलब्ध जो भी विषयवस्तु हो या विधा हो- हर एक का कोई ना कोई आधार गांवों से जुड़ा मिलेगा। यह बुरा नही है, शायद जड़ों की तरफ लौटने की प्रक्रिया है- जरूरी भी है मगर एक हद तक, लेकिन हम इस आत्ममुग्धता से नक्को नक्क भरे हुए- भूल जाते हैं कि कविता का पहला सकारात्मक असर मानव द्रोही या जीवन को अपमानित करने वाले प्रदूषकों के इलाज से शुरू होता है। जबकि द्वंद्ववात्मक या वैज्ञानिक तर्कणा के अभाव, नासमझी या आत्मालोचना की कमी के चलते हमने कविताओं में गांवों का वो सत्यानाश किया है कि इन कविताओ को पढ़ने का मन ही नही करता है।

 

किसान (सामंतवादी कुलुक) के शोषण और जनद्रोही व्यवहार को जाने बिना, स्त्री विरोधी, श्रमिक या जीवन के द्रोही उसके वर्ग को महिमामंडित करके जिस तरह से पेश करते हैं वहां हमे सोचना पड़ेगा कि क्या हकीकतन गांव का आदमी कठोर जीवन शैली या मेहनती है- झुग्गियों में तो जीवन और संघर्ष शायद है कि नही- नरोदवाद मानवद्रोहियों के कुकर्मो से विश्व इतिहास के जनांदोलनों में कुलुक किसानी दुष्कर्मो, पाप कर्मों और गद्दारी से हर्फ डर हर्फ भरे हुए मिलते हैं। हम श्रम विभाजन के नियम जानने होंगे और फिर मूल्यांकन के माध्यम से पुनःविचार भी करना होगा कि यह कढ़ी जो घोली है, इसका समाधान कैसे करें????

 

अब साहित्य में नरोदवादी अमानवीय अवमूल्यों के साथ आने लगा है।   क्या सच मे हमारा जुड़ाव जन से इसी भांत है ? क्या सच मे हम गावों के अतिशय महिमामंडन की धूप में उसके जीवंत रूप को मार रहे हैं ??? 

 

इसमे कोई दो राय नही कि इस विषयक कुछेक कविताएं बेहतरीन होती है, मगर एक हद तक। इनका नजरिया भी बेहतरीन है, मगर रचाव के समय जो समस्या ज्यादा उभरकर आती है- वो विचारों और स्थितियों और दीठ के साथ न्याय नही कर पाने की कमजोरी और बौद्धिक चालाकी, अक्सर हम बौद्धिक धूर्तता को कलाओं के साथ रखते हुए प्रतिबद्धता के दृष्टिकोण का गलत अंदाजा लगाकर, अमानवीय अपसंस्कृतिक अवमूल्यों को नैतिक मूल्यों के रूप में स्थापित करने के मानवद्रोही काम को जो अक्सर वैचारिक कमजोरी के चलते अनजाने में हो जाता है, और जानबूझकर भी... स्थापित करने जैसा काम कर देते हैं। 

 

यहां बात अपरंच में छपी ओम नागर की कविताओं को पढ़कर जरूर हरियल हुई है, मगर वे इस विचार के बीच नही हैं-   यहां तो पूरे समकालीन राजस्थानी युवा रचाव का बहाव ही लोक और जीवन के उज्ज्वल पक्ष के सर्वाधिक विरोधी या कहें जीवन के विपक्षी इस संक्रामक बौद्धिक कपट के शिकंजे की तरफ है- जहां नरोदवादी कुलुक किसानी सामंतवादी अवमूल्यों और प्रवृति को या किसान को सुनामी सा तेज और विध्वंसक दिखाया जाता रहा है।

 

वैचारिक कपट के इतिहास में यह एक झूठ जो इस सामंती वर्ग के 'मेहनती किसान या अन्नदाता' के झूठे किस्सों से हम लगाते है-- संसार का अब तक का सबसे घ्रणित और हास्यास्पद है(कभी भी किसानी जमात, जिससे आप, मैं और हम ज्यादातर संबंधित है - को उसके हकीकतन रूप और शब्दों के साथ मज़दूर या सिरी या भूमि हीन या सीमांत के ध्वन्यार्थ विहीन शब्दो के साथ क्यों लिया जाता है, क्या इसका कारण पता है ?? कैसे अभी भी कुछ तथाकथित मार्क्सवादी धड़ों का एजेंडा सामंतवाद को सत्ता का अंग या सामंतवादी व्यवस्था को स्वीकारते हुए पूंजीवादी व्यवस्था या पूंजीवाद की उपस्थिती से ना केवल इनकार बल्कि इसको स्थापित तक करने के प्रयासों में निरंतर लगे हैं, जो पूंजीवाद के अस्तित्व को नकारने के लिए सामंतवादी शब्द पर चढ़े हुए हैं। यह अच्छा हुआ कि कुछ जिंदा लोगों ने जनसंगठनों के माध्यम से इसको साहित्यिक वैचारिक रूप खारिज किया है.... क्योंकी लोक चेतना ने इसका नकार करके श्रम की गरिमा को स्थापित किया है।) अन्नदाता के झूठ का मतलब है कि वही श्रम साधक खेतिहर। सिरी है अन्नदाता, अन्नदाता सीमांत है।

 

इसका सकारत्मक पक्ष आधार रूप स्थापित करना बेहतरीन ईमानदार रचाव के लिए जरूरी हो जाता है, जबकि कुलुक नरोदीज्म के शिकार ज्यादातर युवा इस वर्गीय आपराधिक जमात की स्थापनाओं के तमगे के साथ इसको स्थापित करने के लगातार प्रयासो के साथ आ रहे हैं, आत्मघाती है यह.... और इसके साथ वे मनुष्य के सबसे बीमारू और सड़ चुके भावबोध को लेकर आते और उसको स्थापित तक कर देते हैं, उस दयनीयता जिसको सिमपेथीजेनर अपनी कामयाब सृजना समझते हुए प्रतिक्रियाओं में सकारात्मक फीडबैक हासिल करके और भी तेज गति से लिखते हुए इस सड़ चुके अमानवीय अवमूल्य को स्थापित कर देते हैं। यह सचमुच बड़ा खतरा हैं, दयनीयता का, हम सिमपेथी मिलने को रचाव की सार्थकता मान बैठते हैं- दयनीय, गरीब, उजड़ा, सूखा हुआ आदि आदि-  और दोगलापन से भी ग्रस्त हो जाते हैं। हम आधुनिकता या अत्याधुनिकता के साथ गांव की तुलनात्मक मगर बड़ी ही बुरी, भारी और बेमेल चीज़ों को अतीत के मोहपाश में बंधकर कब तक स्थापित करते रहेंगे। सीधी सी बात है कि ओम नागर गांव को याद करने की कोशिश में उसको बीमार, अधमरा या संक्रामक सी सोच के चलते जाने किस तरह का अवसाद जनित माहौल बना देते हैं। आपको रोजगार में तरक्की चाहिए, ट्रांसफर या व्यापार या साहित्यिक ताम झाम, टिपटॉप बंदे का सेलेब्रेटी रूप भी रखना है, शहर को गरियाना भी है और गांव, गांव का तो जाने अब किस तरह का लेखकीय जुल्म सहना होगा।

 

इस बात को हवा हवाई भी समझ सकते हैं यह आपकी स्वतंत्रता है- लेकिन इसके साथ ही एक और बात की अभी भारतीय इतिहास का जो सबसे बड़ा मजदूर पलायन हुआ सड़को पर, एक साथ, एक समय मे, वे मजदूर जिनको रोजगार मिला, वे सब के सब खेतिहर, सिरी, सीमांत और भूमिहीन थे जो भारतीय अर्थव्यवस्था के कींसीयन ट्रिकल डाउन थ्योरी के शिकार बनकर सीमांत  से भूमिहीन और फिर पलायन कर गए मज़दूर में बदले. जो रोटी के टुकड़े के लिए तरसता हो उस वर्ग की अनदेखी या उसको घ्रणित समझ हाशिए से बाहर रखकर कुलुक संस्कृति के बारे में लिखना, मानवद्रोही है, जो साहित्यजगत में आपको स्थापित कर देगा मगर, विचार ..???? .... इस सिद्धांत के बिना या विचार बिंदु विहीन होकर या उसको गलत स्थापित करके हम तालियां, वाह वाह, शाबासी तो ले सकते हैं मगर..... रचाव अंतर्मन से भी तो जुड़ा होता है।

 

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मनुज देपावत तत्कालीन घोर सामंती समय मे जब पूंजीवाद और सामंतवाद का अंतिम युद्ध (युद्ध ही माना जाए, व्यवस्थागत बदलाव और नीतिगत ढांचा ध्वस्त) खत्म होने के बाद जब नवजात भारतीय पूंजीवाद और उसके आपसांस्कृतिक अवमूल्यों के विरुद्ध लोकयुद्ध की कविता गीत लिखे - प्रतिरोध का पहला आधार जो बने उन्हें ना मार्क्सवादी माना या स्थापित किया गया और  जिसे मुख्य धारा से अलग भी अलग रखा गया था। आप देखिए कि मानव समूह, समाज या वर्ग में आर्थिक, जातीय और वर्गीय और शोषण और  कुपोषण, जबर जुल्म, अन्याय के विरुद्ध जन का आह्वान करने वाली कविता जिसमे वर्ग विभेद, पक्षधरता और इंकलाब या मुक्ति का दर्शन हो वो मार्क्सवादी या इंकलाबी सृजन है।  वे कविताएं जो मध्यम मार्गीय समाजवादी या नवजनवादी कविताओ का आवरण लेकर रचाव करते हैं, कमजोर लिबर्ल्स स्थापित हो ही रहे होते हैं। 

 

एक जरुरी बात यह भी है कि किसी मूवमेंट के दौरान उसी के तत्वों को कविता में ढाला जाता है तो जाहिर है वे उसी विचारधारा या बिरादराना संगठन के होंगे-- लेकिन इसी तरह के मूवमेंट से प्रभावित होकर मध्यममार्गी लोग कविता रचे तो उस कविता को उसी धारा के साथ ही जोड़ा जाता है, कवि यहां गौण है।

 

भारतीय भाषाओं में छठे और सातवां दशक इंकलाबी- क्रांतिकारी कविताओं का दौर था- और अस्सी के दशक विद्रोही मगर दिशाहीन विध्वंसात्मक दृष्टिकोण को स्थापित करते हुए अंत मे बदलाव के मार्फ़त कविता को नया और श्रेष्ठ वैचारिक और द्वंद्ववादी रूप देते हैं। अगर हम वैचारिक धरातल पर ही खड़कर देखें तो जिस कविता को जनवादी कविता के मुलम्मे में गढ़कर रखा है वो हकीकतन मार्क्सवादी/ इंकलाबी कविता है। यह विडंबना ही है यहां की ज्यादातर लोग जनवाद को मार्क्सवाद समझे बैठे हैं। मार्क्सवादी अवधारणा जिस महान परिवर्तन के समांतर है जिससे इसका फलक वैश्विक होता है- जबकि जनवाद, डेमोक्रेसी- इसी की वजह से अनेक कवियों का मूल्यांकन ही गड़बड़ झाला है। यह ना ही अतिशयोक्ति है और ना ही आत्ममुग्ध बयानबाजी है कि कविताओ के सही और सटीक मूल्यांकन के लिए वैज्ञानिक तर्कणा विकसित करना बहुत जरूरी है जो वाक्यों के भीतर जमी विचारधारा को पकड़ जान सके यह बहुत सूक्ष्म और गहराई मांगता है- मगर अभी समय लगेगा आलोचनाओ में वैज्ञानिक दीठ को स्थापित करने में।

 एक बात जो मुझे बहुत बाद में आदरणीय और चर्चित आलोचक राजाराम भादू से बात चीत के दौरान ध्यान में आई और फिर थोड़ी पड़ताल और सब जच गया। कवि भपी दक्षिणपंथी हो या मध्यम मार्गी या लिबरल या न्यूटल, कुछ फर्क नही पड़ता, हाँ अगर वो एक ऐसे समय मे है जहाँ एक मुक्ति का महासंग्राम छिड़ा हुआ है और वो उस पर उसी तरह की द्वंद्वात्मक रचना लिखता है तो उस कविता को इंकलाबी कविता ही कहा जाएगा ना कि कवि को। और इसी संदर्भ में आगे बढ़ें तो पाएंगे कि सत्तर के दशक में नक्सल किसान महाउभार के दौरान रेवंतदान चारण, 'इंकलाब री आंधी'', तो बिल्कुल स्पष्ट मार्क्सवादी कविता है, इसके अलावा 'घण मूंघा मोती मत ढळका रोयां रुजगार मिलै कोनी'',, में भी वर्ग संघर्ष की धारणाओं का स्पष्ट पता लग रहा है।  क्या यह आलोचकों की चार सौ बीसी है कि जिस तरह से कालविभाजन या प्रवृत्तिमूलक दर्शन का संयुक्त आधार रूप में मार्क्सवादी कविता का मौजूदा कोई विवरण है तो बताएं कि कहां है- या वत्सलनिधि के बजट की पाण अभी उतरी नही है।

 

इसी एक छोटी मगर बहुत बड़ी और गंभीर कमी या साजिश या कपटपूर्ण मूल्यांकन या जो भी कारण रहा हो के चलते भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (भाकपा, तब जब संशोधनवादी नही थी) तेलंगाना सशस्त्र  महान  किसान उभार के दौरान या उसके थोड़ा बाद में आए बदलाव या प्रभाव जो लोक भाषाओं और कविताओं में स्पष्ट दिखता है को नकारा नही जा सकता, यहां उदाहरण देखिए:-

 

रै उठो किसानां मज़दूरां 

थे उंटा कस ल्यो आज जीन 

इं नफा खोर अन्याय नै 

कर दयो कोडी रा तीन तीन

 

मनुज को हम किसी पार्टी या संसद गामी विचार के साथ नही जोड़ सकते हैं- यह तो उनकी कविताओं में ही साबित हो जाता है कि डेमोक्रेटिक या सोशलिज़्म या सर्वहारा अधिनायकत्व आदि में नहीं बल्कि उनका रुझान- मार्क्सवाद की तरफ ही रहा। सामंती और नव पूंजीवादी सत्ताओ का मुखर विरोध लेकिन इनकी रचनाओं में गहन चिंतन का बीज भी इसी आक्रोश और नकार के साथ आया है - इसलिए अब इसमें कोई शक की गुंजाइश ही नही कि मनुज देपावत राजस्थानी साहित्य के पहले प्रतिबद्ध मार्क्सवादी कवि थे- और यही से उस एक बेहतरीन श्रंखला का राह बनता है जो मार्क्सवादी इंकलाबी कविता का उत्स और पसराव दोनों ही है। भले ही यह कुछ जगह  गहन लोक रंजकताओं का बीमार सामंती रूढ़ हुए किसी शब्द को ले आते हैं मगर स्थापित नही करते हैं।

 

भारतीय इतिहास में राजस्थान का वर्णन अवश्यम्भावी है। इतिहास की हर एक बड़ी घटना के साथ राजस्थान का गहरा संबन्ध रहा है। और उसमें में मानवद्रोही दैत्य प्रवृतियों का बहुतायत में आंकड़ा है। मुगलों की गुलामी से लेकर अंग्रेजो की झूठी बोटी खाने वाला यहां का सामंतवादी तबका अनेक  वर्षों तक यहां की मेहनतकश जनता  के टुकड़ो पर पलता रहा था। हालांकि थोथा घमंड, जातीय  उच्चता का भाव और बहादुरी के मनगढ़ंत किस्से ही बस उनके हिस्से थे।  और इसी सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त तत्कालीन चारण कवियों का काव्य था। कुछेक को छोड़कर, जबकि मनुज देपावत राजस्थनी कविता की घोर, अमानवीय, बर्बर, झूठी सामंतशाही दरबारों की कविता परम्परा से आने के बाद भी वे एस्थेटिक सेंस का कल्चरल लेवल पर प्रयोग करते थे। कह सकते हैं कि उनका संबंध राजस्थनी सामंतवादी कविता की बीमार धारा का मुखर, रेडिकल विरोध करके खत्म करने से था। लेकिन इनकी रचनाओं में जातीय चिंतन का अभाव है इसलिए खलिस मार्क्सवादी इंकलाबी कविता का उत्स है।  सामाजिक उत्पीड़न के प्रति अदम्य विद्रोह, लोकमानस से अथाह राग, शोषणपरक सामाजिक व्यवस्था को आमूल-चूल बदलकर समतामूलक समाज निर्माण और वक नया और महान महामानव की मुक्ति गान है। क्रांति के ज़ज़्बे से ओत-प्रोत थे। उसने  साहित्य और विशेषकर लोकपखी कविता के सौंदर्यशास्त्र को गहरे से प्रभावित किया।

 

एक बात यह भी गौरतलब है कि कुछ कवि राज दरबार और सामंतों के प्रभाव या छाया में नहीं थे, इसलिए उनकी कविता में जीवन की धड़कन स्पष्ट सुनी जा सकती है। मनुज देपावत तत्कालीन घोर सामंती समय मे प्रतिरोध की मार्क्सवादी अवधारणा को कविता में ढाल कर मुक्ति के गीत गाया करते थे। उनके मन मे इस सामंती व्यवस्था का विध्वंस करके एक नया राज्य, मेहनतकशों का स्टेट सृजन की बातें यूँ ही नही आई बल्कि '1925 ई. में एम.एम. रॉय और दूजे साथियों ने मिल कर भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी का गठन कर लिया था जो सदी के तीसरे दशक के आसपास शेखावाटी के किसान समूहों को काफी प्रभावित कर ही थी। 

 

...... और उधर मनुज के मन मे प्रचंड प्रलंयकारी आग धधक रही थी जो सिर्फ सृजनधर्मिता ही नहीं बल्कि आक्रोश की भी उत्प्रेरक थी। यही बात हम आगे बढ़ेंगे तब रेवंतदान चारण, और सत्तर के दशक के मुख्य कवि तेजसिंह जोधा और पारस अरोड़ा की कविता ध्वनि में देखेंगे, उसी बात के साथ कि इनकी विचारधारा यहां महत्व नही रखती बल्कि कविता का सुर बहुत महत्वपूर्ण होता है। 

 

अगर मनुज की कविताओं का द्वंद्ववादी विश्लेषण करें तो यह एक नई परम्परा का उत्स होगा लेकिन समस्याएं बहुत है जैसे मार्क्सवादी विचारधारा में किसी रचना को समझने के लिए वस्तु तथा रूप के संबंध को समझना आवश्यक माना जाता है। इसके अंतर्गत लेखक क्या कहता है तथा कैसे कहता है- पर जोर दिया जाता है-- जिसमे एक तटस्थ तीसरा पक्ष भी होता है लेकिन यहां मनुज की कविता में या कहें दर्शन में ऐसा नही मिल पाया।  अब जब ये पंक्ति सामने है इसलिए उन्होंने धोरों की जनता को जागने का आह्वान किया -

 

धोरां आळा देस जाग रै, ऊंठा आळा देस जाग।

छाती पर पैणां पड़्या नाग रै, धोरां आळा देस जाग।।

 

            बड़ा कारण सामाजिक विषमता और मानव की परतंत्रता थी। 

इन सभी स्थितियों से दुःखी होकर मनुज ने अपने काव्य में विद्रोह का स्वर गुंजाया।

मानव को कायरता से जगा कर नए युग निर्माण की प्रेरणा देने का काम मनुज की कविताएं करती हैं। उनकी दृष्टि में वे सब परम्पराएं मृतप्राय हो गयी हैं और अब उनके मोह में फंसे रहने की आवश्यकता नहीं है। शोषकों एवं उत्पीड़कों के प्रति 

 

जीवन बोध की अनुपस्थिति के या, संवेदनहीनता और शुष्कता के  यातना-शिविर में  उम्मीदों और स्वप्नों को बचाकर अपने वक्त की तमाम सरगर्मियों और जोखिम के साथ ढलना भूलते नहीं है। मंगाए सामाजिक, राजनीतिक अपरिपक्व सोच और अराजक जीवन शैली इन्हें पेशेवरों की श्रवणी में जाने नहीं देती। भूमि हीन, सीमांत किसान और सर्वहारा मुक्ति के गीत एक अस्मिता, संघर्षशील मूल्यों  और समझौता विहीन प्रतिबद्धता सबसे जरुरी है।

 

मानव खुद अपना ईश्वर है,

साहस उसका भाग्य विधाता।

प्राणों में प्रतिशोध जगाकर,

वह परिवर्तन का युग लाता।

 

स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तरात्मा की जोरदार लगन थी। इसी आवाज को बुलन्द करते हुए वे कठपुतली शासकों को सम्बोधित करते हैं-

 

वां कायर कीट कपूतां की,

कवि कथा सुणावण नै जावै

अम्बर री आंख्यां लाज मरै,

धरती लचकाणी पड़ जावै

जद झुकै शीश, नीचां व्है नैण,

 

धरती रो कण-कण सरमावै।

 

इसी तरह उन्होंने सामंतशाही  की नीतियों की भयानकता का पर्दाफाश किया तथा शोषण और अन्याय के खिलाफ मजदूर-किसानों को संघर्ष का संदेश दिया। यह संदेश आज भी जन-आंदोलनों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। व्यवस्थागत असमानता के लिए-

 

रै देख मिनख मुरझाय रह्यो, मरणै सूं मुसकल है जीणो

ऐ खड़ी हवेल्यां हंसै आज, पण झूंपड़ल्यां रो दुःख दूणो

ऐ धनआळा थारी काया रा, भक्षक बणता जावै है

रै जाग खेत रा रखवाळा, आ बाड़ खेत नै खावै है

ऐ जका उजाड़ै झूंपड़ल्यां, उण महलां रै लगा आग।

 

यही प्रबल भावना उनके सामाजिक एवं साहित्यिक कार्यों से फूट-फूटकर निकल पड़ती दिखाई देती है। उनकी लेखनी समाज के शोषित जीवन को चित्रित करना अपना उद्देश्य घोषित करती है। 

 

सभी स्थितियों से दुःखी होकर मनुज ने अपने काव्य में विद्रोह का स्वर गुंजाया।

 

मानव को कायरता से जगा कर नए युग निर्माण की प्रेरणा देने का काम मनुज की कविताएं करती हैं। उनकी दृष्टि में वे सब परम्पराएं मृतप्राय हो गयी हैं और अब उनके मोह में फंसे रहने की आवश्यकता नहीं है। शोषकों एवं उत्पीड़कों के प्रति । बहुत बुरा है कि एक महान इंकलाबी कविता और कवि को मार्क्सवाद के तौर पर नोटिस ही नही किया गया..... जबकि वे वाम राजनीति में इतने पारंगत थे कि सामंतशाही की हर उस मानवद्रोही शय को पकड़ लेते थे जो हुक्काम की नफरत का कारण बना है।  उनकी रचना भावनात्मक अंधी में उठते हर एक भाव का उपयोग करती है। हालांकि उस समय हिंदी में   नई कविता का दौर आया नहीं था मगर मनुज की भाषा और शैली नई कविता की परछाई का आभास देती थो। उनकी भाषा कलवाद और छायावाद की बीमार शाश्वत मगर अनैतिक सॉफ्ट फ़ासिस्ट वैल्यूज़ और उसके  अमूल्य के अलौकिक स्वरूप का विरोध करती है। यह कितनी बड़ी और समृद्ध राजनीतिक समझ का नतीजा है कि जन विरोध वहां हिमायत में उपस्थित रहता है। यथा :-

 

वह राग बेबसी का उठता, महफ़िल के मधुर निनादों में ! हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में ।

 

तभी तो समाज, राजनीति और लोक की स्थितियों को पकड़नेे में सफल रहें। उस कला विरोधी दौर में भी वे जिस ठोस जमीन पर खड़े होकर विप्लव के गौरव गान थे उस कविता विरोधी मानव द्रोही दौर में एक विद्रोही स्वर और मुक्त आवाज के नाते एक मुक्तिकामी युवा रूप में इनकी पहचान रही हैं। इनकी कविताओं में प्रतिबद्धता के मूल्यों का सभज, सरल समावेश होता है।

 

दरअसल जब काव्य भाषा का प्रश्न आता है तब।  साहित्यिक भाषा नामक शब्द मुखरित होता जाता है। केवल व्यंजना ही नहीं बल्कि रंजकीय गुणों के साथ लौकिक भाषा पक्ष। सहज, जायज प्रतिरोध उच्च स्तरीय भाषा अभिज्ञान के कारण ही टिकत है।

 

आम  बोलचाल में राजस्थान का सामंती परिवेश बाहरो बाहरी ही फलत चलत है बाकी पोलिटिकल प्रतिबद्धता को कभी समझा ही नहीं गया है। वह अलौकिक साधन बन चुके भावों का नकार बन कर जन स्वीकार रुपक बन गया है।

 

            "फिर भी वे अपनी सत्ता का, कुछ सार जमाने वाले हैं !

कंगलों के झूठे टुकड़ों पर, अधिकार जमाने वाले हैं !

यह मानव की दुनिया कठोर, यह मानव का संसार विषम !

दुर्बल के निर्बल कन्धों पर, दुस्साह जीवन का भार विषम !"


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