18 अगस्त, 2024

ग़ज़ा की कवयित्री लुबना अहमद की कविता

 ग़ज़ा की कवयित्री लुबना अहमद की कविता -


              मेरी आँखों में ग़ज़ा 


तस्वीर: लुबना 

1


मैं समुद्र तट पर ग़ज़ा को देखती हूँ 

जहाँ रेत को हौले से छूता है समुद्र,

जहाँ बच्चों की हँसी 

लम्बे गर्म दिनों को भर देती है 

जहाँ लहरें उम्मीद के गीतों को वापस बुला लेती हैं 

मृत्यु की कहानियों से पकड़कर जीवन।


2

मैं देखती हूँ ग़ज़ा को  

सफ़ेद सीगलों में 

सुबह-सुबह 

उड़ती हुईं आज़ादी से,

दूर-दूर तक फैलाती 

प्रेम और विलाप के गीत 

बेपरवाह कि कितनी बार उन्हें

उड़ा ले जाती है तेज हवा


हाँ यह सच है 

सांझ होते ही वे लौट आती हैं 

हरहमेश 

गीत गाते हुए घर के बारे में।


3

मैं देखती हूँ ग़ज़ा को

जैतून वृक्ष की जड़ में,

अडिग खड़ा भारी तूफान के बावजूद,

प्राचीन नसें इसकी 

मजबूत बनी हुई 

कर रही सामना गरजती हवाओं का।


मैं देखती हूँ ग़ज़ा को 

एक छोटी मछली पकड़ने वाली नाव में 

साहस से बैठी 

गुस्साए समुद्र के बीचोबीच,

लड़ती हुई अँधेरे के विरुद्ध और 

समुद्र तट पर आँखें चौड़ी कर सुनती

सीपियों को बताती कहानियाँ

जीवित बचने की।


4

मैं देखती हूँ ग़ज़ा को 

उन बैंगनी फूलों में 

जो खिले हैं 

मेरे घर के मलबे के नीचे,

एक दोस्त के घर,

एक शहीद के घर।


मैं देखती हूँ ग़ज़ा को 

उन दो जोड़ों की अधूरी रह गई कहानियों में 

जिनकी सगाई हुई है हाल ही।


और कभी-कभी मैं देखती हूँ 

ग़ज़ा को एक बच्चे की आँखों में 

जो जन्मा और मर गया उसी माह।


मैं अपने अंदर ग़ज़ा को देखती हूँ।


अंग्रेजी भाषा से अनुवाद - भास्कर

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सत्यनारायण पटेल 

9826091605

5 टिप्‍पणियां:

  1. एक देश जो लहूलुहान है अपने ही नागरिकों के खून से। जहां दफ़न कर दिए जा रहे हैं बच्चे, बूढ़े और औरतें। इन कविताओं में अपनी मातृभूमि का शोक और सौंदर्य है। एक गहरी पीड़ा का भी अहसास है।
    सुंदर अनुवाद किया है भास्कर भईया ने।

    –नित्यानंद गायेन

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  2. अतिसंवेदनशील कविताएं और सुंदर अनुवाद।

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  3. गजा जीवन और संघर्ष की कथा लिख रहा है। जहां कुछ अहंकार में सिमट रहा है।वह जीवन है।उन्हें कब समझ आएगा

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