01 सितंबर, 2024

हूबनाथ पाण्डेय की कविताएं

  

राष्ट्रहित में जारी


ठीक समय पर

आयकर भरें!


आपके टैक्स से

देश चलता है


आपके टैक्स से

हर साल सड़कों की

मरम्मत होती है

ठेकेदार का

परिवार पलता है


आपके टैक्स से

 पुल और राजमार्ग बनते हैं

 जिसका कम से कम 

 बीस प्रतिशत 

 भाप बनकर 

 हवा में उड़ जाता है


आपके टैक्स से

उन नेताओं को

 पेंशन मिलती है

जिनमें से कई तो

पूरे मुल्क़ को

पेंशन पर रखने की

 हैसियत रखते हैं











चित्र पिकासो 


आपके टैक्स से ही 

आपका सेवक

दुनिया के सबसे कीमती

 जहाज़ में सफ़र करता है


आपके टैक्स से

अस्सी करोड़ जनता को

मुफ़्त में 

अनाज दिया जाता है


 जबकि आपके घर 

 मुश्किल से

 अनाज जुट पाता है


आप टैक्स दीजिए

इससे आपको बरसात में

सड़क पर तैरने की

मुफ़्त सुविधा 

प्रदान की जाएगी


आप ट्रेन दुर्घटना 

या बाढ़

या भूस्खलन

या तीर्थयात्रा

या धार्मिक भगदड़ में

अकाल मारे जाओगे


तो इसी टैक्स से आपको

मुआवज़ा दिया जाएगा


इसलिए

इसे टैक्स नहीं

जीवनबीमा का 

हफ़्ता ही समझकर

ठीक समय पर चुकाओ


और यह मत समझो

कि यह आख़िरी टैक्स है


जैसे पुराने समय में

देवता रूप बदलकर

परीक्षा लेते थे


 परीक्षा भी सिर्फ़ 

 सीधेसादे

 ईमानदारों की ही

तब तक

जब तक

आपके लिए साक्षात

स्वर्ग से विमान न आ जाए

हालाँकि

स्वर्गारोहण पर भी जीएसटी है


  वैसे ही है तुच्छ मानव!

  तुम्हें कदम-कदम पर

  दूसरे टैक्स भी

  चुकाते रहने पड़ेंगे


क्योंकि

जिनके पास बुद्धि है

वे टैक्स चुराने के 

या माफ़ कराने के

 रास्ते जानते हैं


आप अदने से

मध्यवर्गीय जीव हो

कोई तोप नहीं


इसलिए

बेहतर है कि 

सही समय पर

अपने सभी टैक्स

चुकाते रहो


क्योंकि

इसी टैक्स से

यह देश चलता है


हालाँकि 

शर्त दौड़ने की थी

०००


अनहद


उसकी ज़रूरते बहुत कम थीं

ख़्वाहिशें और भी कम


न तो दुनिया भर की दौलत

न दुनिया पर हुकूमत


ऐसा कोई ख़्वाब

देखा ही नहीं उसने


गले में पड़ी 

मज़हब की जंज़ीर

और पैरों में फँसीं

रस्मोरिवाज़ों की बेड़ियों से

ज़रा सी नजात मिले

बस इतनी ही तमन्ना थी

जो कभी पूरी नहीं हुई


हालाँकि

उसने उलीच डाली नदियाँ

फींच डाले जंगल


उधेड़ डालीं पहाड़ों की सीवनें

कई दफ़ा रफ़ू किए

ज़मीन की दराड़ों को


उसकी फुँकनी से बने बादलों ने

बुझाई प्यास धरती की

उसकी जाँतों के गीत

परिंदों के परों में बँधकर

ख़ला में खो गए


उसकी कहानियाँ सुनकर

दरिंदे भी सो गए

उसके ग़म गीतकर बनकर

पतझड़ों में रो गए


बादल की तरह

धरती की तरह

पेड़ों की तरह

नदियों की तरह


उसने सिर्फ़

और सिर्फ़ दिए


अपनी खाल उतारकर

तहज़ीब के पाँवों में पहनाए

आँखें निकालकर

अलगनी पर टाँग दिए

होठों को नोचकर

जड़ दिए शायरों के

दिलक़श दीवान के पन्नों पर


अपने वजूद के ज़र्रे ज़र्रे को

रफ़्ता रफ़्ता बिखेरती

कभी चूल्हा

कभी सेज

कभी खेत

कभी खलिहान

कभी खेल का

तो कभी युद्ध का मैदान

बनती रही मुसलसल


फिर भी

कभी 

ज़िंदा फूँक दिया जाता 

जंगल में छोड़ दिया जाता 

पत्थर बना तोड़ दिया जाता 

बच्चों समेत दफ़्न किया जाता 


आँखों में सुरमें की जगह

शीशे की किर्चियाँ भर दी जातीं

मिर्चियाँ भर दी जातीं

धमनी शिराओं में

चीख़ने तक नहीं दिया जाता


अपनी तईं तमाम कोशिशें कीं

जितनी भी अक़्ल पाई

उन सबको एक जगह समेट 

आज तक वह समझ  न पाई

कि आख़िर उसका गुनाह क्या है


तेज़ाब से उबलते सवालों को लिए

पहुँची उस ऊपरवाले के

हुज़ूर में

कि शायद यहाँ जवाब मिल सके


लेकिन वहाँ चारों ओर

वही चेहरे दिखे

जो दिन के उजाले में

उसे पूजने का ढोंग करते हैं


और अंधेरा पाते ही 

जिस्म और रूह तक 

नोचने पर आमादा हो जाते हैं


इस आख़िरी दर से

हताश लौटने के बाद

उसने तै कर लिया

कि अब किसी के आगे

न हाथ पसारेगी 

न आँचल


अब सिर्फ़ लड़ेगी

और जम कर लड़ना सिखाएगी

अपनी बेटियों को


घर में

समाज में 

जंगल में

रन में 

बन में

हर जगह

वह जियेगी

सिर्फ़ और सिर्फ़

अपने बल पर

अपने सामर्थ्य पर


न किसी की दया पर

न किसी हया पर


बेहया मौसम में

शर्मोहया से ख़तरनाक

कुछ भी नहीं

०००



गोविंदा आला रे!


विभिन्न राजनेताओं को

अपनी पीठ पर लादे

ईश्वर के सहारे

निकल पड़े हैं गोविंदा

मुंबई की सड़कों पर


जन्माष्टमी के दूसरे दिन

कृष्ण के बहाने

राजनीति चमकाने

सियासत भी उतर गई है

मुंबई की सड़कों पर


दैत्याकार होर्डिंग्स, बैनरों में

गर्व से मदमाती सियासत के

सहृदय सौजन्य से

लाखों रुपयों की हंडियाँ

लटक रही हैं

ऊँचे आसमान पर

मुंबई की सड़कों पर


छोटी बड़ी कई उम्र के

बच्चे, नौजवान गोविंदा

प्रायोजित गणवेश में

प्रायोजित पेट्रोल और ट्रकों में सवार

गगनभेदी नारे लगाते

लबालब उल्लास और उत्साह में

निकल पड़े हैं

मुंबई की सड़कों पर


इन गोविंदाओं में

न किसी मंत्री का सपूत है

न उद्योगपति का नौनिहाल

न पूँजीपति का लाल

न किसी राजनेता का बाल


वे सभी

सड़क किनारे 

सजे धजे पंडाल या मंच पर

अपने समय पर विराजेंगे

जहाँ उत्साहवर्धक

फ़िल्मी गीत बज रहे होंगे

और बड़े से फलक पर

रुपयों के आँकड़े छपे होंगे

और छपी होगी जनता

सड़क के चप्पे-चप्पे पर


सात,आठ,नौ,दस, ग्यारह

स्तरों के मानवी मीनार

एक के ऊपर एक

मिट्टी की उस हंडी को

फोड़ने का प्रयास करेंगे

जिसके बाद मिलेंगे

रुपए लाखों


इसी कोशिश में

गिरेंगे गोविंदा

घायल होंगे गोविंदा

हाथ पैर सिर फूटेंगे उनके

और सियासत ने

सुसज्ज रखें हैं

सरकारी अस्पताल

दिए जाएँगे मुआवज़े


कभी रिमझिम

कभी मूसलधार

बारिश के बीच

छोटे बड़े गोविंदा

चढ़ेंगे मानवी मीनार पर

यह सोचकर

कि इन पैसों से

थोड़ी ही सही

दूर होंगी 

कुछ आर्थिक तकलीफ़ें

थोड़ी मौजमस्ती हो जाएगी

थोड़ा मज़ा आ जाएगा

और हो सकता है

कि साहब की नज़र में आ जाऊँ

तो किस्मत भी सँवर सकती है


मुंबई की सड़क पर खड़ी

बेतहाशा भीड़

अपनी बालकनी से झाँकते

सुरक्षित नागरिक

हंडी फूटने से ज़्यादा

मीनार के ढहने का

 आनंद उठाते हैं


और मंच पर सवार

वर्तमान ,भावी सियासत

भीड़ को वोटर समझकर

मुदित हो जाती है

वैसे भी 

लाखों रुपए ईनाम के

सियासत की जेब से नहीं जाते


और बरसों में

धीरे-धीरे

मुंबई की पहचान

एक सांस्कृतिक पर्व

राजनीतिक इवेंट में

बदलने लगता है

०००


भूख बढ़ती जा रही है



इनके दाँत मज़बूत हैं

नाख़ून पैने धारदार

आँखों में बसे हैं गिद्ध

पैरों तली कसमसा रही धरती

इनकी भूख बढ़ती जा रही है

हालाँकि

इनकी सात पुश्तों की भूख का

पूरा इंतज़ाम हो चुका है

फिर भी...


बटोर रहे हैं पृथ्वी की निधि

भर रहे हैं नदियों के जल बोतल में

सारा ऑक्सीजन तिजोरी में

सारे अन्नधान्य कोठार में

खनिज,तेल, रसायन, धातु

 तहख़ाने में क़ैद


पाचक चूरन खाए जा रहे हैं

डकार रहे हैं वमन रहे हैं

नोंचे जा रहे हैं

चबाए जा रहे हैं

दिनोंदिन भूख बढ़ती जा रही है


पशु खा रहे हैं

पंछी खा रहे हैं

आदमी औरत ही नहीं

मासूम बच्चों को भूनकर

चबाचबाकर खाए जा रहे हैं

और भूख बढ़ती जा रही है


उनके चमचमाते

सफ़ेद दाँतों के बीच फँसे

नाज़ुक मांस के टुकड़े

मसूढ़ों को लाली दे रहे हैं

नाख़ूनों पर नेल पेंट नहीं

मासूमों के लहू लिथड़े हैं


ये बरफ़ीले पहाड़ नहीं हैं

इन्सानी अस्थियों के ढेर हैं

जो पीसे जाएँगे मँहगी मशीनों में

कहते हैं कि दिल ही नहीं है

इनके सीनों में

देखती ही देखते

एक भयावह दुनिया गढ़ती जा रही है

निरंतर भूख बढ़ती जा रही है


जंगल खा रहे हैं

पहाड़ खा रहे हैं

नदी तालाब खा रहे हैं

सड़कें पुल अस्पताल खा रहे हैं

पूरा का पूरा मुल्क़ खाए जा रहे हैं

और आश्चर्य

कि किसी को न इनकी भूख दिखती है

न नाख़ून

न दाँत

न बढ़ता हुआ विशाल पेट


अपना चबाया हुआ जिस्म तक

दिखाई नहीं पड़ रहा

न सुनाई पड़ रही अपनी ही चीख़ें


सारा दर्द सारी यातना

सारी चीख़ें दब गई हैं

धार्मिक शोरोग़ुल के नीचे

जहाँ ईश्वर सोया है आँखें मींचे


भयावह विकास की

नशीली चकाचौंध में

खो गया है सबकुछ


वैसे ही एक दिन

खो जाएँगे हम भी

खा जाएँगे हमें भी

वे

जिनकी भूख लगातार

 बढ़ती जा रही है

०००




1 टिप्पणी:

  1. सामयिक यथार्थ को रेखांकित करती ज़बरदस्त कविताएँ 👍

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