28 सितंबर, 2024

हूबनाथ की कविताएं

 

गुज़ारिश

औरतें सारी
बिकाऊँ नहीं होतीं
जहाँपनाह!

अगर आपको ऐसा लगता है
कि तीन हज़ार रुपए महीने देकर
आप ख़रीद सकते हो
महिलाओं के मौलिक अधिकार
तो बेवकूफ़ नहीं
बड़े मासूम हो आप

क्योंकि
मुल्क़ की महिलाएँ जानती हैं
कि जो रुपए तुम बाँट रहे हो
बड़ी बेदर्दी से
झूठी हमदर्दी से
वे तुम्हारी मेहनत के नहीं
हमारी अवाम के हैं
हराम के नहीं

और यदि आप इस ग़लतफहमी में हो
कि मुट्ठी भर अनाज फेंककर
मुल्क़ के ग़रीबो- मुफ़लिसों को
फुसला कर
दबा सकते हो
उनकी लोकतांत्रिक आवाज़

तो बराए मेहरबानी
इलाज करवाइएगा
अपने दिमाग़ का

जो मेहनत मज़दूरी से
पूरे मुल्क़ का पेट भरता आया है
वह पेट भरने के लिए
नहीं बिकेगा आलीजाह

हम सब जान गए हैं
जिल्लेइलाही
कि तुम्हारी सारी ऐय्याशियाँ
हमारी ही मेहनत का नतीजा हैं
तुम्हारे ऐशोआराम
हाकिमोहुक्काम
अमीर उमराव
हमारे ख़ून पसीने से सिंचकर
लहलहाते हैं
और आप हमारी कींमत लगाते हैं

बड़े भोले हो सनम
वक़्त रहते सँभल जाओ
हमारे सब्र को
इतना न खींचो के टूट जाए
और वक़्त से पहले
तुम्हारे पाप का घड़ा
भरने से पहले न फूट जाए
०००












आओ गणाधिराज!

आओ

गणाधिराज!
ये सड़कें आप ही के लिए
अस्थाई रूप से दुरुस्त हुई हैं

आओ
सजेधजे पंडालों की
चकाचौंध में विराजो
वही पुराने गाने और भजन
और कानफाड़ू शोर सुनो

सामान्य जन को
भीगती लंबी कतारों में
और विशेष जनों को
पिछले दरवाज़े से दर्शन दो
और अतिविशिष्टों के लिए
आपकी मर्ज़ी...

अबकी बार
बड़े अच्छे समय आए हो
चुनाव की पूर्वसंध्या पर

बड़ी आवभगत होगी
नेताओं के भक्ति सिंधु में
समय से पहले ही
डूब जाओगे

जो सत्ता में हैं
वे भक्तों के लिए
बस यात्रा मुफ़्त करवा रहे
भक्त यानी भावी मतदाता

बस कर्मचारियों के वेतन
किसानों मज़दूरों के मुआवज़े
शिक्षकों की माँगों के लिए
खज़ाना खाली है
सरकार कर्ज़ में डूबी है
पर लाडली बहनों पर
इन्वेस्ट कर रही है

इस देश की महिलाएँ
जब से अपनी मर्ज़ी से
मतदान करने लगी हैं
मतदाता के रूप में
बढ़ी है उनकी अहमियत
और वे सभी
ईमानदार  नेताओं को
लगने लगी हैं
लाडली बहन

आओ
नेताओं का
लाडलापन भी देखो
पंडाल के बाहर
दैत्याकार होर्डिंग पर
मुस्कुराते जनसेवक देखो

वे इसलिए मुस्कुरा रहे
कि चलो इस बार
भगवान को भी बना लिया

ये जीतेंगे
तो बढ़ेगी आपकी इज़्ज़त
वरना मुल्क में
देवताओं की
कोई कमी थोड़े ही है

आओ
और समझदारों को
जनसंपर्क बढ़ाने का मौका दो
बेकारों को
दो पैसे कमाने का मौका दो
ये जो जान छोड़कर
बड़े बड़े ढोल ताशे बजा रहे हैं
सालभर दुखेंगी
इनकी हड्डियाँ और कमर
मगर तुम मत घबराओ
तुम तो आओ

न जाने कितने मूर्तिकारों
का पेट भरते हो
फूल हार सजावट
पूजा सामग्री से
न जाने कितनों का
घर चलता है
पंडाल वाले, बाँस वाले
लाइट साउन्ड वाले
अहसानमंद हैं तुम्हारे

तुम्हारी लोकतांत्रिक दृष्टि
मुझे बहुत भाती है
सबको उनकी
औकात के मुताबिक देते हो
ज़रूरत के मुताबिक नहीं
भिखारी को उसकी हैसियत से
कुबेर को उसकी
प्रोटोकॉल
कभी नहीं तोड़ते

आओ
सरकार ने तुम्हें डुबाने की
पूरी व्यवस्था कर ली है

डूबने से पहले
अपने सच्चे भक्तों को
उबार सको तो उबार लो

बुद्धि के देवता हो
महामूढ़ों को थोड़ी बुद्धि
उधार दो

वरना बेचारे
फिर से चिल्लाएँगे ही

पुढच्या वर्षी
लौकर या

और तुम आओगे
अपने समय पर ही

और हाँ!
जाने से पहले
उन मासूम गोविंदाओं से
ज़रूर मिल लेना
जो इस वर्ष घायल होकर
अस्पताल में पड़े हैं
और उनकी फिक्र
उस ईश्वर को भी नहीं
जिसके लिए इन्होंने
जान जोखिम में डाली थी

अब
आ भी जाओ
लोकतंत्र के राजा!
०००


सार्थकता

(प्रिय कवि मुक्तिबोध की 60वीं पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए)

लिखने से कुछ नहीं होता

कुछ होने के लिए

लिखा भी नहीं जाता

लिखा जाता है
सिर्फ़
अपने आपको बताने के लिए
कि मैं ज़िंदा हूँ

और कुछ लोगों को
जगाने के लिए
कि उठो!
सूरज का रथ खींचों
वह स्वार्थ के कीचड़ में
धँस गया है

एक योद्धा
फिर से महाभारत में
फँस गया है

इसके पहले
कि अधर्म के तीर से
एक और जिस्म बिंधे

उठो!
रात बीतने का इंतज़ार
मत करो

अंधेरा
अपने आप नहीं छँटता
अन्याय
अपने आप नहीं घटता

कुछ घटे
कुछ अच्छा घटे
इसके लिए घुटने की नहीं
घुटने मसलकर
उठने की ज़रूरत है

बस!
इतना भी हो सके
लिखने से

तो लिखने की सार्थकता
पर कोई सवाल नहीं
०००


बहस से बाहर


इस एक महीने में
इस धरती पर
अकारण
कितने बच्चे मरे होंगे!

अकारण मतलब
बिना किसी गंभीर बीमारी के
बिना बाढ़ के
बिना अकाल के
बिना किसी प्राकृतिक आपदा के

अकारण मतलब
न उनपर कोई वैक्सीन
टेस्ट की जा रही है
न उनके मारे जाने से
किसी शासक
किसी पूँजीपति
किसी तानाशाह को
कोई स्थाई या अस्थाई
लाभ ही पहुँच रहा है
न तमाशाइयों को
ख़ास मज़ा ही आ रहा है

अगर इन कारणों से
मर रहे होते बच्चे
तो संतोष होता कि
अकारण नहीं मर रहे बच्चे

बच्चे मर रहे हैं
अफ़गानिस्तान में
यूक्रेन,रूस में
फ़िलीस्तीन, इज़राइल में
एशिया,अफ़्रीका
योरोप में भी
लगभग
पूरी पृथ्वी पर ही
मर रहे हैं बच्चे
या मारे जा रहे हैं

न उनकी चीख़
न उनकी कराह
न उनकी वेदना
कुछ भी नहीं पहुँच रही
हमारे कानों तक
तो सिर्फ़ इसलिए
कि बहुत शोर है
हमारे चारों ओर

टीवी चैनलों का शोर
मोबाइल फ़ोनों का शोर
पर्व उत्सवों का शोर
सियासी हंगामों का शोर
बाज़ारू पैगामों का शोर

इध शोर-शराबों के बीच
दफ़्न हो जाती हैं
बेबस आहें
नहीं नज़र आतीं
वे मौत की राहें
जिनपर निकल पड़े हैं
दुनियाभर के बच्चे
सुबह-सुबह
जबकि हम अभी तक
नींद में हैं
०००


लोकतंत्र


याद है
जब जूते लेने गए थे
कितनी दुकानों की धूल फाँकी थी
दोनों पैरों में नाँधकर
आईने के सामने
कितने एंगल से निहारा था
हाथ में लेकर मरोड़ा था
आगे पीछे मोड़ा था
सिलाई,सोल,हील
कितनी कितनी बार परखा था
सेल्समैन से भी पूछा था-
ठीक लगता है न!

लाने के बाद
कितने जतन से रखा
जतन से पहना
पानी से बचाया
धूल से बचाया
बढ़ियावाला पॉलिश लगाया
शू रैक पर सबसे ऊपर
साथ में मुलामय मोज़े भी
कितनी कितनी देखभाल की

लेकिन
जब लोकतंत्र लेने गए
तो पहले से ही तै कर लिया
न देखा न भाला
न मोड़ा न मरोड़ा
न गारंटी पूछी
न वारंटी
पहनकर भी नहीं देखा
न किसी से पूछा ही -
ठीक तो है न!

और लाने के बाद
फेंक दिया घर के किसी कोने में
पूरे पाँच साल के लिए

और उम्मीद करते रहे
कि जिस तरह जूता
पैर की रक्षा करता है
वैसे ही लोकतंत्र
सिर की रक्षा करेगा

अब आप ही सोचो
जिसकी औकात
जूते से भी कम हो
उससे कितनी उम्मीद
की जा सकती है

अगली बार
जब लोकतंत्र लेने जाना
तब जूते जितना तो
ज़रूर सोचना

०००










भ्रमेव जयते!


एक भ्रम ही तो है

कि मैं कितना ज़रूरी हूँ
घर के लिए
परिवार के लिए
समाज के लिए
राष्ट्र के लिए

जबकि
मैं ज़रूरी हूँ
सिर्फ़ अपने लिए
अपनी सुविधाओं के लिए
अपने सुख के लिए
अपने संतोष के लिए

यह भ्रम
सिर्फ़ अकेले मुझे ही नहीं
मेरे इर्दगिर्द
सभी को है
एक-सा

भ्रम के
इस अदृश्य धागे से बँधे हम
दूसरों की ज़िंदगी में अपनी अनिवार्यता /आवश्यकता
साबित करने की
जद्दोजहद को
ज़िंदगी का नाम देते हैं

और अपना नाम
सबके बीच
केंद्र में लिखते हैं
बोल्ड लेटर्स में
और उसे बचाते हैं
हवा पानी धूप से
बदरंग या धूसर होने से

इस भ्रम को
बानाए / बचाए रखने
बनाए / बचाए जाते हैं
रिश्ते नाते संबंध
रची जाती हैं
कविताएँ
खेले जाते हैं
नाटक
दिन प्रतिदिन

और इन सबके साथ
धीरे धीरे
बीतते जाते हैं हम
इस अहसास के साथ
कि हम भी ज़रूरी हैं
किसी के लिए
किसी एक के लिए

और वह एक भी
इस भ्रम को मज़बूत करता
साथ साथ
बीतता रहता है

जैसे बीतते हैं दिन
जैसे बीतती हैं रातें
जैसे बीत जाती हैं
वे तमाम बातें
जिन्हें हमने
सचमुच माना था
शाश्वत!
०००

सभी चित्र गूगल से साभार 


1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सजग और भीतर तक धँसती और झकझोरती, बेचैन करती जरूरी कविताएँ। - दिविक रमेश

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