06 सितंबर, 2024

सुधा अरोड़ा की कविताएं

  

Poems by Sudha Arora                    

Translated by C.S.Lakshmi ‘Ambai



कम से कम एक दरवाज़ा  


चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो 

या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना 

उस पर ख़ूबसूरत हैंडल जड़ा हो 

या लोहे का कुंडा !

वह घर -- जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर  

अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से  

माता पिता कह सकें  --

'' जानते हैं -  तुमने गलत फैसला  लिया  

फिर भी हमारी यही दुआ है 

खुश रहो उसके साथ 

जिसे तुमने वरा है !

यह मत भूलना ,

कभी यह फैसला भारी पड़े

और पाँव लौटने को मुड़ें 

तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए ! ''


बेटियों को जब सारी दिशाएं 

बंद नज़र आएं 

कम से कम एक दरवाज़ा                                                                                                   

हमेशा खुला रहे उनके लिए !




चित्र 

मुकेश बिजौले






One Single Door, At Least! 


It could be a carved antique door

Or a door made of cut pieces of wood

Maybe with a ethnic handle on it

Or a metal hasp


Let the door be of a house

Where the daughter

Has eloped with her lover

Against her parents’ wishes

And the parents are able to say…

“We know you took a wrong decision

Still we pray

Be happy with him 

Whom you have chosen


Don’t  ever forget

If at any time

The decision of yours goes wrong

And your feet want to turn where you belong

This door will be open for you ! ”


When all doors seem closed

To daughters

Let there be at least one single door

Always open for them!

०००


धूप तो कब की जा चुकी है ! 

         

औरत पहचान ही नहीं पाती 

अपना अकेला होना 


घर का फर्श बुहारती है 

खिड़की दरवाजे 

झाड़न से चमकाती है 

और उन दीवारों पर 

लाड़ उँड़ेलती है 

जिसे पकड़कर बेटे ने 

पहला कदम रखना सीखा था।


औरत पहचान ही नहीं पातीं 

अपना अकेला होना 

अरसे तक 

अपने घर की 

दीवारों पर लगी 

खूँटियों पर टँगी रहती है। 

फ्रेम में जड़ी तस्वीरें बदलती है 

और निहारती है 

उन बच्चों की तस्वीरों को 

जो बड़े हो गए 

और घर छोड़कर चले गए 

और जिनके बच्चे अब 

इस उम्र पर आ गए 

पर औरत के ज़ेहन में कैद 

बच्चे कभी बड़े हुए ही नहीं 

उसने उन्हें बड़ा होने ही नहीं दिया 

अपने लिए ....


औरत पहचान ही नहीं पातीं 

अपना अकेला होना 

सोफे और कुशन के कवर 

बदरंग होने के बाद 

उसे और लुभाते हैं 

अच्छे दिनों की याद दिलाते हैं 

घिस घिस कर फट जाते हैं 

बदल देती है उन्हें 

ऐसे रंगों से 

जो बदरंग होने से पहले के 

पुराने रंगों से मिलान खाते हों

और पहले वाला समय 

उस सोफे पर पसरा बैठा हो ..... 


औरत पहचान ही नहीं पातीं 

अपना अकेला होना 

अब भी अचार और बड़ियां बनाती है 

और उन पर फफूंद लगने तक 

राह तकती है 

परदेस जाने वाले किसी दोस्त रिश्तेदार की 

जो उसके बच्चों तक उन्हें पहुँचा सके .... 


औरत पहचान ही नहीं पातीं 

अपना अकेला होना 

अब भी बाट जोहती है 

टमाटर के सस्ते होने की 

कि वह भर भर बोतलें सॉस बना सके 

कच्ची केरी के मौसम में 

मुरब्बे और चटनी जगह ढूँढते हैं 

बरामदे से धूप के 

खिसकने के साथ साथ 

मुँह पर कपड़े बँधे 

मर्तबान घूमते हैं . 

बौराई सी 

हर रोज़ मर्तबान का अचार हिलाती है 

पर बच्चों तक पहुँचा नहीं पाती ...


आखिर मुस्कान को काँख में दबाए 

पड़ोसियों में अचार बाँट आती है 

और अपने कद से डेढ़ इंच 

ऊपर उठ जाती है ! 

अपनी पीठ पर 

देख नहीं पाती 

कि पड़ोसी उस पर तरस खाते से 

सॉस की बोतल और 

मुरब्बे अचार के नमूने 

घर के किसी कोने में रख लेते हैं । 

कितना बड़ा अहसान करते हैं 

उस पर कि वह अचार छोड़ जाए 

और अपने अकेले न होने के 

भरम की पोटली 

बगल में दबा कर साथ ले जाए । 


फिर एक दिन जब 

हाथ पाँव नहीं चलते 

मुँह से बुदबुदाहटें बाहर आती हैं 

ध्यान से सुनो 

तो यही कह रही होती है 

अरी रुक तो ! जरा सुन ! 

धूप उस ओर सरक गई है 

ज़रा मर्तबान का मुँह धूप की ओर तो करना ।


नहीं जानती 

कि धूप तो कब की जा चुकी है 

अब तो दूज का चाँद भी ढलने को है ......                                 



चित्र 

जोआन मिरो






The Sunlight Left a Long time Ago


Woman never realizes

When she becomes alone 

She sweeps the floor

She dusts the windows and doors

To keep them shining

And she caresses those walls

Holding which her son

Had learnt to take his first steps.


Woman never realises

When she becomes alone

For years she remains as if hung 

On the wall-pegs  

Of her house.

She changes the photographs in the frames

And looks intently at the photographs

Of  those children who have now grown up

And have left home

But children imprisoned in the minds of woman

Never grow up

She never allows them to grow up for her


Woman never realises

When she becomes alone

Discoloured sofa and cushion covers 

Still look attractive to her 

Reminding her of good old times

When they get torn after use

She changes them into colours

Close to those 

That were there before they faded

As if the past is sitting firmly

On those sofas


Woman never realises

When she becomes alone

She still makes pickles and snacks 

And waits watching endlessly

Till they catch fungus

Waiting for someone going abroad

Who can carry them for her children…


Even now she waits for

The tomato prices to go down

So that she can fill bottles with sauce

When the raw mango season comes

Murabbas and chutney have to find a place 

In the balcony as the sunlight fades

Glazed earthenware with their mouths

Covered with a piece of cloth

Can be seen around


Every morning

She stirs the pickle

But cannot send them to her children…


Finally

With a hidden smile

She distributes the pickle

Among the neighbours

And she feels as if

She has risen a few inches!


She can’t see behind her

That the neighbours take pity on her

And keep the sample bottles of 

Sauce, murabbas and pickles

In some corner of the house.

How much they oblige her!

So that she can leave the pickles 

And take with her

The tightly held bundle of her illusion

Of not being alone!


And then comes a day 

When her limbs become weak

She comes out muttering something …….


Listen to her carefully

She will be saying

Please wait! Please listen!

The sun has shifted to the other side

Please shift the pickle jars towards the sunlight.


Poor She ! ….. does not know 

The sunlight has faded a long time ago

Now it is time for the rare moon 

Of the second day of the lunar fortnight

To slowly fade away …

०००


सदियों के खिलाफ़ तैयार हो रहा है एक मोर्चा                        

बाज़ार भरा है नये से नये यंत्रचालित उपकरणो से

लेकिन कुछ भी नहीं है आधुनिक 

कुछ भी नहीं है नया 

न आय पॉड , न थ्री डी होम थिएटर , न टैब्लेट कम्प्यूटर !


सिर्फ लड़कियों का सिर उठाना है नया 

सिर्फ उनका इनकार है नया !

सदियों की चुप्पी के खिलाफ़ बोलना उनका 

जबरन कहला ली गई ''हां'' के खिलाफ़ 

उनका ''नहीं'' है नया !


तुम अपनी हिंस्त्र कामुकता को 

लपेटकर प्रेम की चासनी में 

अपनी आंखों की लिप्सा में आतुरता सजाकर 

रचते हो प्रेम का सब्जबाग़ उनके लिये !

तुमने यही सीखा सहस्त्राब्दियों तक !

ठोकर मार देना एक लड़की का 

तुम्हारे प्रस्ताव को 

एकदम नया है !


तुम पचा नहीं पाते जब इस इनकार को 

तो असलियत पर उतर आते हो 

अपने चेहरे पर नकाब बांधे 

फेंकते हो उसके मुंह पर तेजाब पीछे से 

सामने आकर लड़ने का हौसला नहीं तुममें ! 


तुम अपनी आतुरता, अपनी हिंसा,अपने प्रतिशोध के साथ खड़े रहो वहीं                                       

जहां सदियों से खड़े हो !

क्योंकि जि़न्दा इंसान ही चला करते हैं आगे                      रचा करते हैं कुछ नया ।

तुम्हारी बर्बरता के खिलाफ                                              लड़कियों का अपने लिये एक मुकाम बनाना                        है बिल्कुल नया !     

०००   



चित्र 

गूगल से साभार 







A March Against Many Centuries is Being Planned

The market is full of gadgets

But nothing is modern 

Nothing is new either 

Not iPod

Nor 3D Home theatre 

Nor tablet computer


What is new is the 

Raised heads of girls

Only their defiance is new!

Speaking against centuries of silence

Against years of “yes”

Their “no” is new!


You carry your violent lust

Covered in the syrup of love

Your eyes smeared with desire

You create a green garden of love

This is what you have learnt 

For thousands of years

A girl rejecting your proposal

Is  new to you!


When you can’t take this rejection

You become your real self

Hiding your face

You throw acid on her face from behind

You don’t have the courage to 

Fight her straight away !

 

You stand there 

With your desire,

With your violence

With your revenge

Where you have been standing

For centuries!

Only the living can 

Go forward

Do something new. 


Against your savagery

Girls for creating their space for themselves 

Is absolutely new!

०००


पीले पत्तों पर ओस की बूंदें

हरे पत्ते 

खुश किस्मत हैं 

रात की नमी में 

उन्हें दुलारती 

ओस की बूंदें 

जब उन पर गिरती हैं 

वे और निखर आते हैं ....... 


बात करें उन पीले पत्तों की 

ओस की बूंदों की नमी से भी 

जो हरिया नहीं पाते

और शाख से टूटकर गिर जाते हैं । 



Dew Drops on Yellowed Leaves

Green leaves

Are lucky

In the soft night

They are caressed 

By the dew drops

Touched by them 

They look abundant…


As for those yellowed leaves

Even the soft touch of the dew drops

Cannot  turn them green

Shocked,

They wither and fall.

०००


अकेली औरत का हँसना

 

अकेली औरत 

खुद से खुद को छिपाती है। 

होंठों के बीच कैद पड़ी हँसी को खींचकर 

जबरन हँसती है 

और हँसी बीच रास्ते ही टूट जाती है ......


अकेली औरत का हँसना, 

नहीं सुहाता लोगों को। 

कितनी बेहया है यह औरत 

सिर पर मर्द के साये के बिना भी 

तपता नहीं सिर इसका .... 

मुँह फाड़कर हँसती 

अकेली औरत 

किसी को अच्छी नहीं लगती। 

जो खुलकर लुटाने आए थे हमदर्दी, 

वापस सहेज लेते हैं उसे 

कहीं और काम आएगी यह धरोहर !


अकेली औरत 

कितनी खूबसूरत लगती है .... 

जब उसके चेहरे पर एक उजाड़ होता है 


आँखें खोयी खोयी सी कुछ ढूँढती हैं, 

एक वाक्य भी जो बिना हकलाए बोल नहीं पातीं 

बातें करते करते अचानक 

बात का सिरा पकड़ में नही आता, 

बार बार भूल जाती है - अभी अभी क्या कहा था। 


अकेली औरत 

का चेहरा कितना भला लगता है .... 

जब उसके चेहरे पर ऐसा शून्य पसरा होता है 

कि जो आपने कहा, उस तक पहुँचा ही नहीं। 

आप उसे देखें तो लगे ही नहीं 

कि साबुत खड़ी है वहाँ। 

पूरी की पूरी आपके सामने खड़ी होती है 

और आधी पौनी ही दिखती है। 

बाकी का हिस्सा कहाँ किसे ढूँढ रहा है, 

उसे खुद भी मालूम नहीं होता। 

कितनी मासूम लगती है ऐसी औरत !


हँसी तो उसके चेहरे पर 

थिगली सी चिपकी लगती है, 

किसी गैरजरूरी चीज़ की तरह 

हाथ लगाते ही चेहरे से झर जाती है .......



Laugh of a single woman 


A single woman

Hides herself from herself.

She yanks out the smile imprisoned between her lips and

Forcibly smiles 

And the smile gets broken midway…


People don’t like single women smiling.

How shameless this woman is,

Without a man’s protective shadow on her head

Her head is still raised…

When a single woman laughs aloud

Nobody likes it.

Those who openly want to 

pour buckets of sympathy on her

Pull themselves back

Thinking these soft words can be deposited elsewhere!


How beautiful a single woman looks…

When there is desolation on her face

And her eyes look lost 

Seeking something,

She can’t even speak a sentence without stammering

All of a sudden, while she speaks 

She loses thread of what she is saying,

She forgets very often

What she has spoken a while before.


How nice a single woman’s face looks…

When there is emptiness on her face

And what you speak never reaches her.

She can’t even seem as if she is firmly present anywhere.

She can be a complete person standing before you

But you can see half or only three fourth of her.

Where exactly the remaining parts of her are 

And searching for whom 

Is something even she does not know.

How innocent such a woman looks!


Laughter remains as a speck on her face

As if it is unnecessary

And the moment you touch it

It falls like a mask from the face… 

०००


यहीं कहीं था घर


ज्यादातर घर 

ईंट गारे से बनी दीवारों के मकान होते हैं 

घर नहीं होते ...


जड़ों समेत उखड़कर 

अपना घर छोड़कर आती है लड़की 

रोपती है अपने पाँव 

एक दूसरे आंगन की खुरदुरी मिट्टी में 

खुद ही देती है उसे हवा-पानी , खाद-खूराक 

कि पाँव जमे रहें मिट्टी पर 

जहाँ रचने-बसने के लिए 

टोरा गया था उसे !


एक दिन 

वहाँ से भी फेंक दी जाती है 

कारण की जरूरत नहीं होती 

किसी बहाने की भी नहीं 

कोई नहीं उठाता सवाल 

कोई हाथ दो बित्ता आगे नहीं बढ़ता 

उसे थामने के लिए...


वह लौटती है पुराने घर 

जहाँ से उखड़कर आई थी 

देखती है - उखड़ी हुई जगह भर दी गई है 

कहीं कोई निशान नहीं बचा 

उसके उखड़ने का...


फिर से लौटती है वहीं 

जहाँ से निकाल दी गई थी बेवजह 

ढूँढ नहीं पाती वह जगह , 

वह मिट्टी, वह नमी, वह खाद खूराक !


ताउम्र ढूँढती फिरती है 

ईंट गारे की दीवारों के बीच 

यहीं कहीं था घर ..... 


The Home Used To Be Here Somewhere 


Many homes are houses

Made of bricks and mortar

They are not homes…


Uprooted 

A girl comes

Leaving her home

She plants her feet

In the uneven soil of

Some other courtyard

She waters the soil

And gives it manure

So that her feet 

Settle there firmly

Where she has been 

Sent to make a home and live.


One day

She is thrown out of there too

No need for reasons

Not even excuses

No one questions

No one moves forward

With stretched arms

To support her…


She comes back to her old home

From where she was uprooted

She notices that the uprooted soil

Has been filled up

Leaving no trace

Of any uprooting…


She returns to the same place

From where, for no reasons,

She was thrown out

She is unable to locate the place

Its soil, its softness, its manure.


She searches for it all her life

Amidst the walls of bricks and mortar

The home used to be here somewhere ! …

०००


परिचय

सातवें दशक में सामने आईं कथाकार और कवयित्री सुधा अरोड़ा का जन्म 4 अक्टूबर, 1946 को अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ।

उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की, फिर बतौर प्राध्यापक कार्यरत हुईं। बाद में स्वयंसेवी संस्था ‘हेल्प’ के साथ संबद्धता रही और फिर स्वतंत्र लेखन की ओर उन्मुख हुईं।

‘रचेंगे हम साझा इतिहास’ और ‘कम से कम एक दरवाज़ा’ उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने कथा-लेखन अधिक किया है जिस क्रम में उनके एक दर्जन से अधिक कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें ‘महानगर की मैथिली’, ‘काला शुक्रवार’, ‘रहोगी तुम वही’ आदि चर्चित रहे हैं। उनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ शीर्षक से प्रकाशित है। ‘आम औरत ज़िंदा सवाल’ और ‘एक औरत की नोटबुक’ में उनके स्त्री-विमर्श-संबंधी आलेखों का संकलन हुआ है। ‘औरत की कहानी’, ‘मन्नू भंडारी सृजन के शिखर’, ‘मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान’ आदि उनके संपादन में प्रकाशित कृतियाँ हैं। उनके संपादन में तैयार ‘दहलीज को लाँघते हुए’ और ‘पंखों की उड़ान’ कृतियों में भारतीय महिला कलाकारों के आत्म-कथ्यों का संकलन किया गया है। 

उनकी कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। 

उन्होंने स्तंभ-लेखन भी किया है और इस क्रम में सारिका में 'आम आदमीः ज़िंदा सवाल', जनसत्ता में 'वामा' कथादेश में ‘औरत की दुनिया’ और फिर ‘राख में दबी चिनगारी’ चर्चित स्तंभ रहे हैं।

उनका योगदान रेडियो नाटक, टी.वी। धारावाहिक तथा फ़िल्म पटकथाओं में भी रहा है जिनमें भँवरी देवी के जीवन पर आधारित 'बवंडर' फ़िल्म का पटकथा-लेखन उल्लेखनीय है। इसके साथ ही वह विभिन्न महिला संगठनों और महिला सलाहकार केंद्रों के सामाजिक कार्यों से जुड़ी रही हैं। 

उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के विशेष पुरस्कार, भारत निर्माण सम्मान, प्रियदर्शिनी पुरस्कार, वीमेन्स अचीवर अवॉर्ड, महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी सम्मान, वाग्मणि सम्मान आदि से सम्मानित किया गया है।

०००



Translater 

C.S.Lakshmi ‘Ambai’ (Lakshmi Chitoor Subramaniam ‘Ambai’) Born in 1944, in Coimbatore, C S Lakshmi has been an independent researcher in Women's Studies for

the last more than forty years. She has a Ph.D from Jawaharlal Nehru University, New Delhi. She writes under the pseudonym Ambai in Tamil about love, relationships, quests and journeys and her short story collections have been published in Tamil and also translated into English.  She was given the Sahitya Akademi Award in 2021 for her book Sivappuk Kazhuththudan Oru Pachaip Paravai.She is currently the Director of SPARROW (Sound & Picture Archives for Research on Women)

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविताएं

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  2. कमाल की कविताएं , औरत के भीतरी और बाहरी वजूद को पूर्णता में सामने रखने वाली। आपका कथा संसार और कविता संसार दोनों ही लाजवाब हैं।

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  3. उम्दा कविताएं सुधा जी की , उनकी कविताएं उनकी कहानियों की तरह ही मारक और प्रभावशाली हैं ।

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  4. कमाल की कविताएँ हैं. कुछ पंक्तियाँ जहाँ मन के कोने को सहलाती हैं तो कुछ इतनी मार्मिक की भीतर तक धंस जाती हैं.

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  5. उफ़! अंतर्मन को स्पर्श कर गईं आपकी रचनाऍं! कभी ऑंख भर आई तो कभी मौन रहकर स्वयं को सबसे विलग पाया! मन के एकांत में एक नई आहट महसूस हुई! आपकी सशक्त लेखनी को नमन! लाजवाब रचनाकार को सैल्यूट!

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  6. Beautiful poems! Introducing women once again and making them realise the actual situations. Enjoyed thank you!

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