30 सितंबर, 2024

भूमिका द्विवेदी अश्क की प्रेम कविताएं

 

तुम कौन हो मेरे
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लोगों के बीच आजकल
बड़ी चर्चाएं चल रहीं हैं,

योगी, मोदी, केजरीवाल, 
ज़माने भर के आते जाते बवाल,
आतंकवाद, दुनिया भर के फसाद, 
महँगाई, बेरोज़गारी और ज़ेहाद, 
विदेश नीतियों से भी बड़ा मुद्दा सुनाई देता है आजकल
बड़े विमर्श हो रहे हैं, 
बड़े कयास लगाए जा रहे हैं,
बड़े उत्सुक हैं लोग 
आजकल
बड़ा कौतूहल है उनमें,
सिर्फ ये जानने का, कि
तुम कौन हो मेरे...
एक शब्द में
तुम्हें बाँधना
कितना
दुष्कर है मेरे लिये,
ये आज जाना मैंने।




 














पिता जैसे खड़े हो मेरे सर पर हाथ रखे
हर विपत्ति,
हर संताप, हर कलेश से
मुझे बचाते हुये..
दूर से ही देख लेते हो
भाँप लेते हो
हर मुझ तक आती मुसीबत को
और मेरे कदम उठाने से पहले
मेरा रास्ता सुगम कर जाते हो
पिता की तरह ही तो हो तुम यहाँ..

किन्तु पिता तो नहीं हो मेरे
तुम्हारा वीर्य मेरे जन्म का कारण तो हर्ग़िज़ नहीं
मेरी माता आदरणीया हैं तुम्हारे लिये
चरण छूते हो तुम उनका।

कभी स्नेह से  सिंचित
करुणा वाली माता दीखते हो तुम,
भूखा सोने नहीं देते हो मुझे,
प्यासा रहने नहीं देते हो
गरम दुशाले से लपेट देते हो,
ज़रा भी सर्द मौसम देखकर
ओस में खड़ी हूँ जो मैं,
तो डाँट कर कहते हो
'बावरी हो गई हो क्या, ठंड लग जाएगी, अभी खांसती फिरोगी.. खों खों खों खों, चलो अन्दर चलो, तुरंत.. बालकनी में टहल लेना..'

किन्तु मेरी माँ भी नहीं बन सकते तुम..
तुम तो पुरुष हो,
परमात्मा ने तुम्हें
संतान को गर्भ में रखने का वर जो नहींं दिया
मेरा जन्म तुम्हारे रक्त-अस्थि-मज्जा-योनि से नहीं हुआ है
मेरी माँ नहीं हो सकते तुम
मुझे पता है।

बड़े भाई सा दयालु हो जाते हो कभी,
दीदी जैसे हमराज़ भी बने जाते हो,
किन्तु
तुम्हारा मेरा तो गोत्र भी भिन्न है
तुम्हारे मेरे तो माँ पिता भी भिन्न हैं

नहीं,
तुम मेरे बड़े भाई, बड़ी बहन भी नहीं हो सकते।

कभी हठी बालक जैसे रूठ जाते हो,
नाराज़ पुत्र जैसे कुर्सी पर बैठे
मुझे तरेरते रहते हो
जैसे
तुम्हारा कोई प्रिय खिलौना
तुम्हारी माँ ने
बुआ के लड़के को दे दिया हो,
या जैसे माँ ने बाहर खेलने जाने को रोक दिया हो तुम्हें,
और
तुम्हारी पतंग कोई लूटकर लिये जा रहा हो,
पड़ोस का लड़का, या कोई भी ऐरा-गैरा
और
तुनक कर बैठ गए हो तुम, सात कोण का मुँह बनाये हुये,
खाना भी न खाने की ज़िद लेकर।

लेकिन मेरे
पुत्र भी नहीं हो सकते हो
तुम.
कोई "गर्भाधान-संस्कार",जो नहीं
हुआ मेरा,
सोलह संस्कारों में पहले पहला
सोलह श्रृंगार, भले ही किया है मैंने
तुम्हें रिझाने
तुम्हारी आगोश में खो जाने के लिए।
लेकिन हाय रे
मेरी तक़दीर, 
कोरी कुँवारी तो रखी हूँ तुम्हारे आगे, कब से।
और
तुम तो वय में भी बड़े हो मुझसे, 
मेरा जन्म तुम्हारे जन्म लेने के बहुत बाद हुआ है,
मुझसे कहीं पहले जन्म हो चुका था
बरसों पहले.
नहीं, तुम मेरी संतान नहीं हो सकते।

पति जैसे भुजा-पाश
में कस लेते हो कभी,
तृप्ति का बिछौना बनने का हरसंभव प्रयास करते हो कभी,
रात-बेरात अकेले जाने नहीं देते हो
कभी भी, कहीं भी ..
बड़ी चिंता करते हो मेरी,

अन्यान्य पुरुषों से मेरा बात करना तुम्हें ज़रा नहीं सुहाता,
कभी भी, कहीं भी ..
लेकिन,
मेरा सूना आँगन, सूना पालना, सूनी पड़ी गोद कभी नही देखी तुमने,
पति कब हुये तुम, अभी तो नहीं हुए हो तुम पति मेरे।

प्रेमी भी नहीं हो तुम तो ढङ्ग के
कब आये हो फूल, जड़ने मेरी गुथी हुई
लम्बी चोटी और बेपरवाह जूड़े में.
कब लिया तुमने आकर अचानक कोई चुंबन छुपकर,
सिनेमा-हॉल, पुस्त्कालय की सीढ़ियों में, या ऑटो और लिफ्ट से उतरते-चढ़ते.
कब गाये प्रेम के वियोग गीत तुमने मुझे रुलाने के लिये,

पूरे लय, ताल, राग-रागिनियों के साथ.
कब ख़रीदे तुमने पैसे बचाकर
चाँदी के झुमके मेरे लिए
कुम्भ के रंगीन मेले से.

मेरी कक्षा के चारों ओर चक्कर भी नहीं लगाया तुमने तो सायकिल से, हसीन मफलर गले में लपेट लपेटकर.
मेरे घुंघराले घने भीगे केशों से बरसती बूँदों के लालच में, मेरी बालकनी के नीचे भी कभी नहीं मँडराए तुम तो.

मेरे पथ पर फूल भी नहीं बिछाया तुमने कभी, 
ये कहकर कि दिल बिछा रहा हूँ, 
किस्मत वाला समझूँगा ख़ुद को, जो आपका पाँव पड़ जाये.
मेरे अकड़ू पिता से आज तक डाँट भी नहीं खायी तुमने.

तुमने तो अनगिनत sms भी नहीं किये मुझे
किर भला प्रेमी कैसे हो सकते हो मेरे,

ये सब तो, अब तक सबके साथ गुज़रा था,
जो खुद को मेरा प्रेमी कहा करते थे.
तुम तो नहीं निकले उनमें से किसी के जैसे भी
और तो और तुमने अब तक मुझे
मृगनयनी, मैडोना, मेनका, मधुबाला, क्लियोपैट्रा, मैडम डोरेथी, हुस्न की मल्लिका, मेरे दिल की शहज़ादी, सौंदर्य की साम्राज्ञी, अनारकली तक नहीं कहा। 
मदहोश करने वाली जादगरनी भी नहीं कहा, ये सब तो अब तक सारे के सारे खुद को मेरा प्रेमी कहने वाले मुझे कहा करते हैं,
तुमने ये भी नहीं कहा की मैंने तुम्हें लूट लिया है
और तुम मेरी मुहब्बत में गिरफ्तार/बर्बाद/शायर/कवि बन चुके हो,
या फिर
हॉस्टल या इस शहर और मेरी गली के बदनाम आशिक़ हुए हो,
जिसकी पढ़ाई भी जाती रही. और काम भी जिसका तमाम हो चुका हो। 
तुम तो ख़ूब मन लगा के पढ़ते हो दर्शन, इतिहास, साहित्य, विज्ञान सबकुछ.
काम में तो बहुत मन लगता है हरजाई तुम्हारा। 
और तो और मुझे भी समझाते हो यदा-कदा
कभी अबोध विद्याथी जैसे 
खूब बहस होतीं हैं हमारी जमकर
ग़ज़ल/गीत/शायरी/श्लोक के मानी को लेकर।
किताब का सार भी पूछ लेते हो, कभी कभार।
नहीं नहीं मेरे प्रेमी नहीं हो सकते हो जी।

तुम तो शत्रुता निभाते हो भरपूर मुझसे
मेरी श्वासगति, मेरा रुधिर-प्रवाह, ह्रदय स्पन्दन, दिल की धड़कनें
तुम्हें सोचकर भी, तीव्र हो उठता है
बैरी जैसे बन बैठे हो मेरे क्रूर कोई.
ना चैन से रहने देते हो, 
न सोने, न जीने
अजी मित्र भी कब हुये हो मेरे..!

और फिर
शत्रु भी नहीं हो तुम मेरे ढंग के.
क्यूँकि मैंने सिर्फ़
प्रभु से भला माना है 
तुम्हारे लिये,
अच्छा चाहा है,
अच्छा माँगा है तुम्हारी निरोग, स्वस्थ काया तुम्हारी मनोहारी छाया,
तुम्हारी सुन्दर दीर्घ आयु
मेरा अभीष्ट
रहा है,
इतना तो मैंने
कभी किसी 
मेरे मित्र के लिये भी नहीं चाहा।

मित्र नहीं, शत्रु नहीं,
पिता नहीं, पुत्र भी नहीं,
भगिनी-अग्रज/अनुज भी नहीं,
पति और प्रेमी भी नहीं,
किर भी
कितनी निश्चिंंत
कितनी आकंठ तृप्त हूँ, 
तुम्हारे आस पास। 

लेकिन
फिर भी
एक शब्द
में तुम्हें बाँधना 
कितना दुष्कर,
कितना कठिन,
कितना दुरूह,
कितना चुनौतीपूर्ण,
हो गया है मेरे लिये
सुनो मुझे समझ नहीं आता अब,
बहुत अज्ञानी हूँ
तुम्हारे विषय में,
और 
पर्याप्त भ्रमित भी.
ऐसा करो सुनो "मेरे अपने"
तुम खुद ही कह दो 
कि मैं तुम्हें क्या कहूँ,
तुम ही कहो, 
कि 

"तुम कौन हो मेरे.."
 ..................

इश्क़

इत्तिफ़ाक़न
हम मिल गये थे,
दो
मजबूत वजूद।
दो तड़पते बदन,
दो जोड़ी बेचैन बेक़रार आँँखें,
और
दो उलझे 
हुए मन लिये।
दो क़ाबिल फ़नकार। 
दो ध्रुवों की दो दुनिया। 
दुनिया भर के फसादों
के बोझ तले
दबी
हुई,
दो हस्तियाँ।
ज़िंदगी जी लेने के लिए तड़पती, दो ज़िंदगियाँ। बहुत कुछ

दो एक ही तरह के इन्सान।
दो एक ही जहान की पैदाइश। 
दुनिया से दो दो हाथ करने
वाले,
दो
लड़ाकू
और
ज़िद्दी
शख़्स।
ज़िद और शौक़ का दामन थामे, 
दो परेशाँ ज़ेहन।
ज़हनियत और खुली हवा की
तलाश में,
अदबी
मसाइल में
डूबे
एक क़ौम
और एक मज़हब से बाबस्ता,
दो
मुख़्तलिफ़
बदन।
और,
और हमने रच दी नई ज़मीन वफ़ा की मिट्टी से।
संवार दी क़ायनात। 
ख़ूबसूरत बना दी ये
धरती सारी,
जैसे कोई फुलवारी।

खोल दिया आसमान सारा। 
इन्द्रधनुष, फूलों, बहारों में भर
दिये सतरंगी
रंग।

एक तीली छुआ दी सूरज को,
वो रौशन हो उठा।
जगमगा दिये सितारे,
चाँद, जुगनू, फुलझड़ियाँ, चराग़ ख़ूब सारे।
नदियों में उड़ेल दी भरपूर उमंगें, 
समन्दर को बेपनाह तरंगें।
हमने खोल दिये पंख,
परवाज़ के
परिंदों के लिये,
और वो उड़ने लगे, चहचहाने लगे।
आवाज़ से सराबोर कर दिया 
ख़ामोश सादहल, सहरा, झरनों और वीरान जंगलों को भी,
देखते ही देखते हिरनी कुलांचे भरने लगी,
और मयूर नाचने लगे बेपरवाह होकर।
सुर बुन दिये हमने साज़ों के लिये।
लुटा दिया खुशबुओं का ज़खीरा
गुलाब-बेला-चन्दन-चिमेली-कस्तूरी
के बदन को भिगोने के लिये।
ताल, लय, गति, राग, रागिनियों से सजा दिया मौसिक़ी।

फैला दिया सक़ून, अम्न, राहतें, इत्मीनान 
बारिश की बूँदों की मदमस्त बाँहों के लिये,
और नामकरण किया
मिलकर
इन सबका
सिर्फ़
एक
"इश्क़"।
----------















अपराध बोध

अपराधबोध
होता है
मुझे
जब मेरे पाँव से
कोई जीव
कोई चीटा
कोई चीटी कुचल जाती है
मर जाती है
मेरी अनमभिज्ञता में..

जब कोई भी परिंदा
प्यासा लौट जाता है
मेरी देहरी 
मेरे आँगन
मेरी छत से
मेरे उस तक
पहुँचने से
पहले ही
मेरी अनभिज्ञता में..

जब कोई
फूल
मुरझा जाता है
मेरी गै़र-हाज़िरी के कारण,
जब पौधे पानी नहीं पाते
मेरे लापरवाह नौकरों के कारण
मेरी अनमभिज्ञता में..

जब उस
बूढ़ी औरत को
मेरे घर पर ताला लटका मिलता है
और वो
भूखी लौट जाती है
मेरी अनमभिज्ञता में..

जब उस कामवाली का नन्हा सा
प्यारा बच्चा
बिना टॉफी, गुब्बारे, पतंग के
उदास अपनी झोपड़ी को लौट जाता है
मेरे वीरान घर से
मेरी अनभिज्ञता में..
और
और
और
जानबूझ कर
जब
मैं अपनी कलाई खींंचती
हूँ
तुम्हारे कंधे के नीचे से
जब
सुन्दर बेला
में
तुम्हें गहरी नींंद
सोते देखती
हूँ
और
बिना पायल बजाये
बिना चूड़ी खनकाए
चुपचाप उतर जाती
हूँ
जब ये याद आता है जानबूझ कर,
कि रोगी, भोगी और योगी को
नींंद से नहींं जगाना चाहिये..
सोते
हुए
जब निहारती
हूँ
तुम्हें
देर तलक.. 
तुम जब एक साथ
तीनों ही दीखते हो
मुझे
प्रेम-रोगी, घर-गृहस्थी के भोगी और
सहवास-साधना के योगी भी
इस कारण
दबे पाँव
बिना जगाये, बिना सताये
तुम्हें,
चुपचाप उतर जाती
हूँ
तुमसे, तुम्हारी नींद से
खुद को
आहिस्ता
आहिस्ता
छुड़ाकर, बचाकर जानबूझ कर..

जब
तुम्हारी
अधखुली आँखों में
इच्छा देखती
हूँ
और
नहाकर, लोटा हाथ में लिये, 
सूर्य को अर्घ्य देने जाती
हूँ..
तुम्हें भोग नहीं लगाने देती
खुद का
और
तुम आँखे भींच कर
दिखाते हो मुझे, 'नहींं मेरी जान, कोई बात नहीं
मैं तो सो रहा हूँ, तुम जाओ,
अपने काम
निपटा
लो इत्मीनान से…’
जानबूझ कर..

जब बच्चों को स्कूल की बस के लिये
उन्हें तैयार करना होता है,
और 
तुम्हें छोड़ना पड़ता है
जानबूझ कर..

जब जाना होता है, मुझे
किसी कहानी/कविता को बाँचने या पुस्तक-विमोचन में भाषण भाँजने।
जब किसी संस्थान से भेजी गई कार
दरवाज़े पर आ खड़ी होती है
और तुम भींच लेते हो मुझे
बस, पल दो और पल के लिये,
ड्राइवर के हॉर्न को सुनकर जब खुद से अलग करती हूँ तुम्हें जानबूझकर..
अपने और तुम्हारे, दोनों के साथ जबरदस्ती करके। 

वो जानलेवा, 
तात्कालिक विवशता
उस वेग, उस उद्दीप्त, बलवान लालसा
को मझधार में छोड़कर,
यक़ीन मानो आत्मा से महसूस करती हूँँ
अपरिमित अपराधबोध उस वक़्त..

जब तुम्हारे भाई अपनी अपनी बीवियों सहित
दूसरे अपने नये घरों को चले गए
और बड़ा बेटा होने के दायित्व को
ह्रदयतल से समझा था तुमने,
अम्मा-बाबूजी को अपने साथ
रखने का निश्चय 
किया था तुमने,
तुम्हारी अर्धांगनी होने के नाते,
जब उस निश्चय में मैं भी
साथ रही
तुम्हारे..

जब अम्मा जी के लिये पूजा की तैय्यारी
करनी होती है मुझे
पिताजी के लिये बनाना होता है, सोंठ, तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा,
और 
तुम बेचैन अकेले पड़े होते हो 
कसमसाते हुए 
ज़हरीले कड़वे बिस्तर पर..

जब हर मर्तबा
रजस्वला हुई मैं,
तुम्हें निराहार-निष्फल
बिना मुझे जूठा किये
बेजान शैय्या से उठकर जाने देती हूँ
रोक नहीं लेती तुम्हें,
लिपट नहीं जाती तुमसे
समा नहीं जाती तुममें
जानबूझ कर...

इस भरे-पूरे परिवार में,
सारे अपनों की मौजूदगी में
जेठ, ननदें, अम्मा जी, भाभियाँ
जो सब समझदार,
नहीं आतीं मेरे कमरे में,
लेकिन घर के अनेक नादान ज़िद्दी बच्चों को
शयन कक्ष से निकालना
जब संभव नहीं रह जाता,
हम दोनों के लिये,
जब महज एक आलिंंगन के बगै़र
तुम्हें ऑफिस
की ओर गतिवान देखती हूँ
जानबूझ कर
हाँ
तब,
और इस तरह के
हर एक लम्हों में,
जानबूझ कर
अपराधबोध
होता है मुझे
सच कह रही हूँ
जाओ, 
न मानो तुम..
लेकिन,
मैं सच कह रही हूँ
अपराधबोध
होता है मुझे…..
...................

चित्र निज़ार अल बद्र

.................

साहित्यकार परिचय
आम तौर से उपन्यासकार और कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित भूमिका जी की स्त्री सम्वेदनाओं में पगी और प्रेम के दर्पण जैसी, तीन लम्बी कविताएँ, पहली बार किसी ब्लॉग में प्रकाशित की जा रहीं हैं।
अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत साहित्य की गहन अध्येता, हिन्दी
साहित्य रचना-जगत में एक बहुचर्चित, प्रशंसनीय और सुप्रतिष्ठित नाम है। 
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार स्वर्गीय नीलाभ अश्क की पत्नी भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं

जन्मस्थान/तिथि - इलाहाबाद उ प्र, 23 दिसम्बर.
निवास - राजधानी दिल्ली, भारत

शैक्षिक योग्यता –
एम.फ़िल. दिल्ली विश्वविद्यालय
एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य), इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
एम.ए. (तुलनात्मक साहित्य- हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी), इलाहाबाद विश्वविद्यालय.

प्रकाशित पुस्तकें -
उपन्यास
~ अखाड़ा (इंक प्रकाशन, इलाहाबाद एवं नई दिल्ली, 2024) 
~ सोनाली एक कमज़ोर पटकथा (अनुज्ञा प्रकाशन, नई दिल्ली, 2023)
~ माणिक कौल, कहानी एक कश्मीरी की  (प्रभाकर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021)
~ नौशाद, (2021, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली)
~ शिकारी और शिकारा (इण्डिया नेट बुक्स, दिल्ली अमेरिका, 2022)
~ स्मैक (सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020)
~ किराये का मकान, (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2019)
~ आसमानी चादर, (2018, साहित्य भंडार, इलाहाबाद)
~ शिवाला, (2022, दिल्ली)
कहानी संग्रह
~ दाँव एवं अन्य राजनैतिक कहानियाँ,  (इंक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2024)
~ पितृपक्ष, (इण्डिया नेट बुक्स, दिल्ली अमेरिका, 2021)
~ ख़ाली तमंचा, (हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 2020)
~ बोहनी, (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2017)
संस्मरण
~ दीये जलते हैं, (प्रलेक प्रकाशन, 2022)
~ The Last Truth (2012, अनुवाद अज्ञेय के उपन्यास "अपने अपने अजनबी" का अनुवाद, दिल्ली वि.वि.)

साहित्यिक उपलब्धि –
~ प्रथम कथासंग्रह *“बोहनी’*, *भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन अनुशंसा* सम्मान 2017 से पुरस्कृत.
~ प्रथम उपन्यास *“आसमानी चादर", मीरा स्मृति सम्मान 2018 साहित्य भंडार से पुरस्कृत.
~ लगातार साहित्यिक सेवा के लिए तिलका माँझी राष्ट्रीय सम्मान 2022 प्राप्त
~लेखिका का इलाहाबाद और लखनऊ दूरदर्शन केन्द्र सहित आकाशवाणी इलाहाबाद में अतिथि कलाकार के रूप में लगभग 10 वर्षों का जुड़ाव रहा है।
~ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रवास के दौरान थियेटर जगत में सक्रिय भागीदारी.

वर्तमान–
विगत डेढ़ दशक से दिल्ली में रहते हुए स्वयं का मुक्त लेखन/चिंतन. हिंदी साहित्य जगत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार, स्त्री-विमर्श समेत विविध विषयों पर निरन्तर लेखन..
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ साहित्यकार नीलाभ अश्क की पत्नी भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं. 

सम्पर्क
bhumikadwivedi1990@gmail.com
भूमिका द्विवेदी
9910172903
(नई दिल्ली)

2 टिप्‍पणियां:

  1. भूमिका जी की कविताओं में रोजमर्रा जिंदगी की धड़कन है।
    नवीनता के साथ प्रतिकार की भी बात है.
    पठनीय और आकर्षक प्रस्तुति.
    बिजूका का फिर से सक्रियता ऐसी रचनाओं से मिलवाती रहेगी. साधुवाद!

    - अनिता रश्मि

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  2. जी हार्दिक शुक्रिया। सभी रचनाकार साथियो के रचनात्मक सहयोग से ही अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलती रहेगी। साथी सहयोग कर रहे हैं, तो रचनाएं मिल रही है।

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