बा और बापू
( एक )
बापू
आपको याद करे
और
'बा' को बीसर जाएँ
देह को
याद करते
कौन बिसरता है
आत्मा
' बा '
आपकी आत्मा थी बापू
महात्मा की आत्मा।
( दो )
बापू
'बा ' भी लड़ी आपके
कंधे से कंधा मिला
हाथ से हाथ जोड़
बापू
'बा 'चली
पदचिन्हों पर पग धर
सारी उम्र
अमर परछाईं -सी।
( तीन )
बापू
आपके नाम का
अग्रिम
अक्षर 'बा '
' बा ' बिन
कभी
नहीं होते
'पू ' रण।
( चार )
बापू
जगत के लिए
महात्मा
पर ' बा '
महात्मा में ढूँढ़ती
अपना
मोहनदास / पति
बुहारती
काँटों भरी राह
फूलों -सी
मुस्कराती
समक्ष आएँ।
( पॉंच )
बापू
अन्न तजा
'बा ' ने भी
तज दिया अन्न
बापू
आपके देह तजे
' बा ' ने भी तज दी
मनोकामनाएँ
तमाम उम्र
आपकी आत्मा के समीप
बैठी रहीं
सत्य की समाधी लिए।
( छह )
बापू !
बालपन
गरजोड़े जुड़े
न
आप समझते
और
न 'बा ' जानती
विवाह का कोई अर्थ
दोनों
नये वस्त्रों पर
देते रहे जीव / मन
बापू
' बा ' तो
आपके पहले ही चली गई
आज़ादी के
अधूरे सपनें
आपके हाथों में सौंप
कि
एक लंगोटी पहन भी
पूरा कर सकते थे बापू
आज़ादी का
सुनहरा स्वप्न
'बा ' का स्वप्न
जन-जन का स्वप्न।
( सात )
बापू
' बा ' यथासमय
जान गई थी शायद
कि बालपन के विवाह के वस्त्र
नहीं थे
इतने सुन्दर
जितनी सुन्दर
उम्र के तीसरे पहर की
एक लंगोटी
' बा ' भी जानती थी बापू
आपकी आत्मा के असल वस्त्र
खादी थी
सत्याग्रह
अहिंसा थी
और सत्य
जो करनी में दीखता रहा
उज्ज्वल करता
आज़ादी का संकल्प।
( आठ )
बापू !
' बा ' तो
आपके मन -कर्म
और
वचन के हवन में
सदा
समिधा -सी
होती रही हूम
बिखेरती रहीं
स्वराज की सौरम।
००००
बापू
( एक )
बापू
तुम्हारी बातें
तराजू में तोली
दुनिया ने सतोली
राई घटी
न हीं राई बढ़ी
तुम्हारी बातें
तुम रहे
कि नहीं रहे बापू
लेकिन अमर है
तुम्हारी वाणी और लिखा
हमेशा
तुम्हारी बातों के उजास से ही
उजली है बापू
मनुष्यता की राह ।
( दो )
बापू
तुम्हारा चश्मा
दुनिया भर के कूड़े से
मुक्ति का साक्षी
लेकिन तुम्हारे
चश्मा के दोनों काँचों की
दृष्टि का अंतर
कौन बाँचे
आज तो
बहुत-से चश्मों की दरकार है बापू
मनुष्य की आत्मा के आखर
बाँचने के लिए
अनमोल
तुम्हारी चश्मा के काँचो पर पड़ी
आजादी के टूटे सपनों की खरोंचें
आज भी मौजूद है
दोनों काँचो में समय की सीलन
जिन पर लगा है
तुम्हारे आँसूओं का नमक।
( तीन )
बापू
तुम्हारी लाठी की
ठक -ठक सुनकर
अंग्रेज छोड़ गए देश
रास्ते से
भटके लोगों के लिए
दो आँखें है
तुम्हारी लाठी।
( चार )
बापू
तुम्हारी धोती से
बहुत मिलता-जुलता है
मेरे पिताजी का पंज्या
उघाड़ी देह
जो सपने बोये तुमने
वे ही सपने
काट रहे आज
मेरे पिता
न तुम्हारी
न उनकी
दोनों की आत्मा ने
कब ओढ़े दुशालें
बापू तुम्हारी
आत्मा के उजास से ही
जगमग है यह धरती।
( पांच)
बापू
अपने काँधों पर
रख लाए थे जो
आजादी का सूरज
उस सूरज पर
चीलों की काली छाया
पड़ी है इन दिनों।
( छः)
बापू
तुम्हारी चरण पादुकाएँ
एक बार
ललाट से लगा
धर दी जस की तस
अभी
जनता को भरत होने में
न जाने कितनी सदियाँ लग जानी है
लेकिन तुम्हारा स्मरण कराती
तुम्हारी बातें
तुम्हारी चश्मा
तुम्हारी लाठी
तुम्हारी धोती
और यह चरणपादुकाएँ
लेकिन अभी भी
कई लोगों के लिए तो
तुम्हारी चरणपादुकाएं
जीवन के
चारधाम ही है बापू।
०००
खादी: एक विचार
बदलता रहा
चरखे के समीप बैठे व्यक्ति का चेहरा
गांधीजी ने
कितना कपास काता कौन जानता
तस्वीर में
सूत कातता दिख रहा हैं जो भला आदमी
उसको भी
सूत कातना आता कि नहीं आता
कौन जानता हैं
सूत कातना भी किसको हैं
सूत कातने से अधिक जरूरी है
सूत कातते हुए दीखना
दीखना जरूरी शर्त हैं बाजार की
बापू
जिन्दगी भर
यहीं रट लगाएँ रहें कि खादी
वस्त्र नहीं
एक विचार है
आपके पास
खादी के अलावा
कोई दूसरा वस्त्र हो तो बताओं
जिसे पहनते ही लगे
कि आज वस्त्र नहीं
विचार पहनकर निकले है घर के बाहर।
०००
बापू और नमक
( एक )
बापू !
जीवन
नमक
तेल
लकड़ी के सिवाय
हैं भी क्या ?
यह समझकर भी
कितने नासमझ हम
स्वाद जीभ में
कब रहा बापू ?
स्वाद तो
आटे में पड़ते
चिमटीभर नमक में होता है
आज़ादी के पहले
जिस एक मुट्ठी नमक के लिए
रेबारियों की तरह
साबरमती से दांडी तक
अनथक चलते
आपके कदम
कभी पीछे नहीं पड़े
नहीं तो
कितनी अलूणी रह जाती
बापू ! यह आज़ादी।
( दो )
बापू !
मैं जब -जब भी करता
भोजन
और
अलूणी भाजी में डालता
चिमटीभर नमक
हाथ में
लाठी लेकर टपर-टपर
चलते दीखते
साबरमती से
दांडी के रास्ते।
( तीन )
बापू !
जब भी जीभ चखती
नमक का स्वाद
तब स्मृत होती दांडी यात्रा
बापू !
जब भी करता
एकादशी का उपवास
तब स्मृत होता सत्याग्रह
बापू !
जब भी दीवार पर
दाना लेकर चढ़ती
पंक्तिबद्ध चींटियों को देखता
स्मृत होती अहिंसा
बापू !
जब भी सुनता
साफ़ झूठ में पसपसाते शब्द
तभी स्मृत हो आती
आपकी बातें
आपकी राह
कमजोर काया फूट पड़ता
सत का उजास।
०००
बापू : एक कवि की चितार
( एक )
मुंबई में रहकर भी
गाँव की चिंता नहीं जाती बापू
छोटे भाई से
अक्सर पूछता रहता हूँ
-" गाँव में पानी बरसा की नहीं ?
-" सोयाबीन कितनी बड़ी हुई ?
-" लहसुन का क्या भाव है ?
-" सरसों बेची है कि नहीं
बाज़ार का क्या भरोसा !!
किसानी तो सदा से
अंधी बतलायी है बापू
अब
मैं भी कितना बावला हूँ बापू
आप क्या करेंगे अब
पानी का
सोयाबीन
लहसुन
सरसों के भाव का
कवि तो
होता ही बावला है बापू
बावला हुए बिना तो कोई
कवि भी कैसे हो सकता है भला
यूँ तो कोई
बापू भी नहीं हो सकता
बिना सत्य
और साधना के...
आपका मार्ग
जितना कठिन
उतना सरल
जितना सरल
उतना कठिन
यूँ
चलने से पता लगता है बापू
मार्ग पर पदचिन्ह उघड़ते है
जिन पर पग धर
कोई नया जातरी
चलता-चलता आगे -आगे
पगडण्डी बनाएगा
तब बनाएगा
अभी तो
आपकी बनाई मनुष्यता की पगडण्डी
एक कवि
कविता का कोमल सतरंगी
पुष्प धरता है बापू
जिनमें
शब्दों की सौरम है
सच की सौरम है बापू।
( दो )
नाम में
क्या रखा है बापू
कई धनराज
रात को भूखें करवटें बदलते
और कई कजोड़मल पाते
महलों-सा सुख
नाम में
क्या रखा है बापू
जो है सो
करनी में है
करनी
और सत्य का मार्ग
मोहनदास
करमचंद
गाँधी को
बना देता महात्मा
कहलवा देता जगत -बापू
जानता हूँ
मोहनदास के महात्मा होने की राह
बहुत लंबी थी
और बहुत कठिन भी
लेकिन
मंज़िल तो चलते मिलते
जैसे चलती है नदी
कल -कल ,छल-छल
कभी तटबंध तोड़ती
यश के समंदर
सबके हिस्से नहीं आते बापू
यूँ
समय भी क्या है बापू ?
बहती नदी के सिवाय
जिस के
निर्मल जल से
आपके-मेरे समय का आचमन करता हूँ
कविता में आप को स्मृत करता हूँ बापू
एक कवि
कविता में बापू चितारता है
ये कविताएँ
एक कवि की चितार है बापू
एक कवि
कविता में
आपका -हमारा -सबका
समय चितारता है बापू।
०००
खेती और बापू
बापू
खेती -किसानी की काया -माया
आप पहचानते भी थे
और जानते भी
तभी तो कह गए
" गाँवों देश की आत्मा
खेती -किसानी में बसती है "
जहाँ भी गये,रहे
गाँव बीसरे न खेती
लेकिन
अब क्या ही कहे बापू
आज होते तो जानते
एक अकेली खेती पर
कितने बटमारों की आँखें गड़ी है
और तो और
इसके सिवाय क्या करता बेचारा
दुनिया में महामारी ने पग पसारे
तब भी किसान ने
खेत से नाता नहीं तोड़ा
अपने बूते
लड़खड़ाते समय को बाजू थाम खड़ा किया
परन्तु
कौन समझाएँ बापू
खेत कोरा खेत नहीं
जन -जन की रोटी है
मशीन !
मशीन का क्या है बापू
गेंहूँ से आटा बना सकती है
क्षण में
बेल सकती सैंकड़ों रोटियाँ
लेकिन रोटी के लिए जो
निपजता है अन्न
वो ! मशीन में नहीं खेत में उगता है
जिसे किसान अपने
खून -पसीने से सींचता है
यूँ
अन्न का मोल कौन लगा सकता है
पर तीन मुट्ठी चावल का मोल
या तो द्वारिकाधीश जानते है
या फिर चिमटीभर नमक
और एक जोड़ी वस्त्रों का मूल्य आप
मेरा क्या है बापू
जहाँ तक साँस
वहाँ तक आस
बैठे है अभी तो
राजमार्ग पर भूखे-तसाये
कोई धर्म का दातरी
किसी दिन हमारी भी पीड़ बूझेगा ही
आप होते बापू तो
ऐसे दिन नहीं आते
धरती का बेटा
धरती देने से मनाही करें
और राज पूछे
" धरती में तेरा क्या ?
बेटी बाप की
और धरती राज की... "
यह कह
धरती कोसने को तैयार मिले
भले तो वे भी नहीं
जो बरसों आपके नाम की पतवार हाथ लें
स्वार्थ के समुद्र में
काग़ज़ की नाव खेते रहें
लेकिन
यह भी अमर बात है बापू
संसार में मनुष्यता पहले उगटेगी
खेती बाद में।
०००
मूल राजस्थानी से हिन्दी अनुवाद:- स्वयं कवि
सभी चित्र गूगल से साभार
आज गांधी जयंती के अवसर पर इन कविताओं को पढ़कर बहुत तृप्ति मिली, आत्म संतोष हुआ कि जब गांधी के हत्यारे सत्ता में बैठे हैं, हम गांधी के विविध आयामों को याद कर रहे हैं। वह कि कविता की भाषा में जो हमारे अंतर को न सिर्फ स्पर्श करती है बल्कि उद्वेदित करती है और आज के दौर में आम आदमी के पक्ष में खड़ा होने के लिए न सिर्फ खड़ा होने के लिए बल्कि सक्रिय होने के लिए समर्थ बनाती है।
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