06 अक्तूबर, 2024

गरिमा सिंह की कविताऍं

 

एक 

इंतजार 


इंतजार करूंगी मैं तुम्हारा

पतझड़ में पेड़ की तरह 

तुम बसंत की तरह एक दिन लौटोगे

और मैं लद जाऊंगी नई कोपलों से






 







इंतजार करूंगी मै तुम्हारा सूख गई नदी की तरह

 जिसकी फटी दरारों पर  पहली बूँद से

चमक उठोगे तुम

और धीरे-धीरे वापस लौट आएंगी मछलियां


 तुम्हारे इंतजार में मुझे पेड़ हो जाना है

जिस पर लौट आएंगी शाम तक

सभी यादें

चहचहाती चिड़ियों की तरह

और कट जाएगी इंतजार की काली रात


मैं समुद्र की तरह

अमावस और पूर्णिमा को

बेचैन हो जाऊंगी पाने को

अपने हिस्से का चांद और फिर

समेट लूंगी  सारी लहरों को अपने ही भीतर


तुम्हारा इंतजार करते हुए

मैं समय का इंतजार करूंगी

तुम्हारा आना भी तय है

बसंत की तरह

बारिश की तरह


मेरे सामने अब लंबा इंतजार है

जिसे मैं  तय करूंगी

तुम्हारे कपड़े पर छूट गई उस महक से

जो हवा के साथ मेरे पास आती है

और तुम जानते हो

हवाओं का कोई तय समय नहीं है


मै तुम्हारी खूशबू की गिरफ्त में हूँ

और इंतजार के सभी अक्षर

प्रेम में मेरे सामने पहाड़ से खडे हो गए हैं।

०००

दो


उम्मीदें


मै रोज एक उम्मीद उछालती हूँ

जैसे कोई बच्चा फेंकता है पत्थर

खाली आकाश की ओर

ओझल होते हुए आंखों से

बदल जाती है पत्थर की दिशा


 समय का नायक इस  खेल में माहिर है

उसके कई हाथ हैं,हर हाथ मे उम्मीदों के पत्थर 

लिए वह फेंक रहा है अपने बनाये आकाश में 

उसे 'पत्थरबाज 'तो नहीं कह सकते

वह उछालता है आदमी की उम्मीदे उसी की ओर 


ऐसे ही रोज तमाम उम्मीदे फेंकी जा रही है

आदमी की परिधि से बाहर

जो घूम रही हैं उसके जीने की विपरीत दिशा की ओर

और उम्मीदों का उसकी ओर उछाला जाना

एक साजिश है आदमी बने रहने के खिलाफ 


एक निश्चित वेग से फेंक दिए जाने पर

पृथ्वी की परिधि से बाहर गई चीजें

वापस नहीं लौटती हैं

वह घूमती रहती है उसके ही साथ

जिसे देखा भी नहीं जा सकता है

नंगी आँखों से


सदी का नायक उछाल रहा है  रोज नई उम्मीदे 

आकाश की ओर

और आदमी गर्दन ऊपर किये ताक रहा है

ओझल होती जाती अपने हिस्से की आखिरी चीज


पूरा आकाश भर गया है

चमकदार नक्षत्रों से

कई सदी के पत्थरों का बोझ ढोता आसमान

अब लड़खड़ाने लगा है कभी कभी


ऐसे ही किसी दिन जब रौशनी के चकाचौध से

अचानक लड़खड़ाएगा आकाश

एक बच्चा उछालेगा उम्मीद का आखिरी पत्थर

और आकाश औंधे मुँह गिर जायेगा

 पटी हुई तमाम उम्मीदों के साथ धरती पर


आदमी की गर्दन के साथ

उसके रीढ़ पर पड़ा बोझ भी हल्का हो जायेगा

कोई आदमी नींद से जागेगा और 

उम्मीदों की पड़ी लाशों पर सफ़ेद चादर बिछा कर

थोड़ा सा झुक जायेगा।

०००

तीन 


देश का रोना


एक बिल्ली के रोने से

उभर आईं हैं टेढ़ी -मेढ़ी लकीरें

मुहल्ले भर की औरतों के माथे पर

होंठ बुदबुदा रहें प्रार्थना के कमजोर शब्द

आँखे टिकी है किसी साकार पर


वो बचना चाहती हैं अपशकुन से

जो पैदा होती है बिल्ली के रोने मात्र से

वह नहीं रो सकती भूख से?

किसी वेदना से?


चिड़ियाँ मडराती है किसी पेड़ के पास

चीं चीं के शोर से भर जाता है आसमान

कुछ स्त्रियां रोती हैं झुण्ड में

दुःख अलग होने पर भी

उनकी संवेदना नहीं समाती भाषा में


अकेले पार्क में बैठा बूढा आदमी

कुर्ते की बांह से पोछता है आंसू

देखते हुए दूर छोटा बच्चा


वो रोज रख लेता है सिर पर हाथ

पढ़ते हुए सुबह का अख़बार

टहलता है सुनते हुए कोई पुराना गाना

भरते हुए लम्बी सांस


पिता बगीचे में ताकते हैं

कनेर के सबसे ऊपरी शाख पर खिला फूल

माँ रोती है सर्दी के बहाने से

कवि अपनी कविता में उगा रहा झरबेरी के पेड़

जिससे उलझते हैं उसके कपड़े

चलाते हुए विचारों की कैंची

निर्धारित करता है हँसने -रोने का समीकरण


विषुवतीय वनों में सुलग रही है आग

ध्रुवों पर बर्फ धीरे -धीरे पिघल रही है

भूगोलवेत्ताओं के माथे पर उभर रही है नसें

ओजोन परत में बढ़ रहा है छिद्र


मै अक्सर रोते रोते हँस देती हूँ

देश मेरा हँसते -हँसते रो देता है कई बार

बिल्ली के रोने से परेशान मुहल्ले की औरते

क्या कभी जान पाएंगी कि

देश का रोना बिल्ली के रोने से अलग नहीं है।

०००


चार

कवि बनने से पहले


जीने की तमाम शर्तो में

शामिल नहीं है कवि होना

कवि बनने से पहले

आदमी बनने की प्रक्रिया से

अनवरत गुजरना

समय के दहकते प्रश्नों से जले

तुम्हारे पैर नहीं जा सकते है बहुत दूर

उभर आये छालों के साथ नहीं चढ़ सकते सीढ़िया


शब्दों का जाल फेंककर

भावों का शिकार करने से बचना

किसी खून से मत रंगना अपने उत्तरीय

कवि होना रंगरेज़ हो जाना नहीं है

कविता! वो तो तुम्हारे माथे पर

झलक आएगी प्रस्वेद कणों की तरह

और ढुलक जाएगी आत्मा की आग तक

जिसमें तुम जलाते हो सिगरेट

और कश खींचते हुए किसी की ओर

फेंकते हो धुआँ


अपने भीतर के आदमखोर की

भूख मिटाने के लिए मत फेकना कोई निरीह भाव

जो निचोड़ दे तुम्हारी आत्मा का बचा खुचा रस

मत छुपाना दम्भ के संदूक में

अपने पीढ़ियों के सिरजे गए चेहरे


किसी स्प्रिंग की तरह दो अंगुलियों के बीच

दब जाने के बाद

इतनी ऊँची छलांग मत लगाना कि

उतर जाओ अपने ही चित्त से


कवि बनने की अंतहीनप्रक्रिया में

शामिल होने से पहले

आदमी बनने की प्रक्रिया से गुजरना

इस जद्दोजहद में यदि मर जाये

तुम्हारे भीतर कवि होने की लालसा

तो निराश मत होना

आदमी के भीतर ही पैदा होती है

सर्जना की सारी संकल्पना

दुनिया को आज कवियों से ज्यादा 

आदमी की जरूरत है।

०००

पाॅंच


त्रासदी 


आज बुद्ध उदास है

अपनी प्रतिमा को तोड़कर निकल आये हैं बाहर

कांधे पर पड़ा उत्तरीय सभालते 

घूम रहे हैं इधर-उधर 

और देख  रहे हैं फैली भादव की अँधेरी रात


द्रविड़ शैली में बने उनके कपड़ों की सिलवटे

उभर आई है उनके चेहरे पर

आज बहुत उदास है बुद्ध 

वह नहीं हैं एलिफेंटा और भीमबेटका की गुफाओं में

 अशोक के शिलालेखों से भी बाहर

वह कहीं रुकना नहीं चाहते

आज कहीं भी इस गहराते समय में


बुद्ध उदास है

वह देख रहे हैं फेके गए तमाम सवाल

स्त्रियों के बिखरे केश निस्तेज चेहरा

बच्चों के अचानक बड़े होते जाने का समय 

कवियों के बनाए कठघरे

और उसमे खड़े बेचारे बुद्ध 

 देख रहे बदल दिए गए अहिंसा के अर्थ को

वह नहीं समझा सकते अब कि 

हिंसा सबसे ज्यादा मानसिक है

और अहिंसा का भाव कोई शस्त्र नहीं

जिसे फेंका जाये अपने बचाव मात्र के लिए


सबसे ऊंचे कद का आदमी

रच रहा है सत्य की सारी परिभाषा

और धम्म वो तो गिरा है जमीन पर कहीं


सब कुछ छोड़कर जाने वाले बुद्ध

कभी नहीं गए थे अपने से दूर 

वह मुड़ मुड़ कर देखते रहे थे अतीत की ओर 

और ज्ञान प्राप्त करने के बाद

लौटे थे वहीं पहचानने खुद के भीतर का परिवर्तन


वह देख रहे हैं

आज उन तमाम भिक्षुओं को।

जिन्हें अब किसी बोधि वृक्ष की जरूरत नहीं

जो किसी लुंबिनी को छोड़कर कभी नहीं जाएंगे

नहीं जागेंगे कभी तय करने को एक दुर्गम यात्रा

यात्रा की यातना से बचे रहकर कोई

नहीं बन सकता है बुद्ध 

और बुद्ध नहीं कह पाएंगे भंते!संघ और धम्म

कोई शब्द नहीं प्रतीक है

शुरुआत है बुद्ध होने की


बुद्ध होना अपने ही भीतर घट जाना है

एक उदास शाम में शुकवा की तरह

आसमान के माथे पर उग जाना भर नहीं है

एक सदी की आदिम मानसिकता से

आदमी को बाहर फेंक देने की आकस्मिक घटना है

और चले जाना है किसी राजपथ से विपरीत एकाकी

अँधेरे में खिलने बिजली की फूल की तरह


बुद्ध की उदासी अब छाने लगी है

इतिहास के पन्नो पर

जैसे दिए के नीचे एक ओर अंधेरा छूट जाता है

हम भी उदास होते जाते समय में वही छूटी जगह

की तरह इंतजार कर रहे है किसी दूसरे दिए का

जबकि हमें पता है बुद्ध ने कहा था -

अप्पा दीपो भव "

और हम आज भी जलते दिए की कापती लौ

के सामने ठिठुरे बैठे हैं।

जिसकी उदासी बुद्ध के चेहरे से

झलक रही है आज भी।

०००














छः

सबसे जरूरी बात

तुमसे मिलने के बाद

कई बार लगा कि-

जरूरी नहीं है  तुम्हारा हाथ पकड़ कर

ये बीच की सड़क पार करना

जो आ गई है मेरे और तुम्हारे बीच

या हम खड़े कर दिए गए हैं

इसके दो समानांतर किनारों पर


बस जरूरी है  गुजरते हुए तुम्हे देखना 

पीछे मुड़कर एक स्मित के साथ

और कानो की बाली का अचानक मुड़ जाना

तुम्हारी ओर कैद करने को तस्वीर 

तुम कहते थे -हसरत से देखी गई चीजें

 कभी दूर नहीं जाती हैं 


कई बार काम की बातों में

कुछ भी काम का नहीं होता था

बस सुनना था तुम्हे 

अपने भीतर उतारने के लिए बहुत गहरे

तुम्हारे पीठ पर अंगुलियों से बना रही थी 

अपने नाम का पहला अक्षर

जो अंकित हो जाये मन की स्क्रीन पर


फोन रखते हुए अंगुलियों में उतर आते थे प्राण

गूंजते थे कानों में शब्द अनसुने संगीत की तरह 

मन दुहराता था एक बच्चे की तरह

वर्ण माला के सीखे  गए नए अक्षरों को 

जो शब्द कोश में शामिल नहीं किये जायेंगे कभी 

जिसके अर्थ बने ही नहीं 

काम की कई बातों में बहुत कुछ

तुम्हारे काम का नहीं था


फिर भी 

तुम ले आये मखमली सी एक शाम

अपनी खूबसूरत आँखों की तरह 

जहाँ नदी थी,-- रेत थी--

तुम भी थे--और ---

तुम प्रेमी भी नहीं थे तब तक , बस साथी थे शाम के

शाम जो तुम्हारी तरह थी

चुप 'इतनी शांत 


तुम चलते रहे साथ नदी के 

संगीत के सप्तस्वरों की कदमताल में

कभी कोई स्वर बहुत गहरा होकर रुक जाता था

कभी इतना धीमा स्वर की खुद से ही पूछना -

 कुछ कहा आपने?

और एक लम्बी सांस पर रुक जाना अचानक 

मेरे भीतर की नदी तोड़ देना चाहती थी एक बंध 

और भीगा देना चाहती थी तुम्हे 

हाथ पकड़ लेना चाहते थे

तुम्हारा मज़बूत हाथ 

 मन का पूरा आकाश भरभरा कर

गिर जाना चाहता था तुम्हारे कंधो पर

जिसे तुम समेट लेते और बचा लेते बिखरने से


अब तक कम समय ने तय किया था 

जन्म -जन्मांतर की दूरी को

फिर भी 

सबसे जरूरी बात अभी रह गई थी 

जिसे  कई बार दुनिया में कहा गया

बड़े अदब के साथ

सबसे कठिन समय में


मैंने कहा था उस दिन बिना प्रसंग 

फोन रखने से ठीक पहले

सुनिए--- -एक जरूरी बात कहनी है

---------

बोलो ---=

"मै प्यार करती हूँ आपसे '

और मेरा मन दुहराने लगा नई भाषा 

जिसमें प्यार का कोई विकल्प नहीं

 प्रश्न के जवाब सब एक जैसे थे 

और तुम्हे जवाब बनाने की भी आजादी थी

आज कई दिनों बाद -

तुम पुल के पास खडे मेरे साथ

देख रहे हो आधा चाँद

मेरी आँखों में देखतेहुए धीरे से कहा-

" नदी कितनी गहरी है ना--

तुम्हे तैरना आता है "--

--

--नहीं डूबना जानती हूँ --

और मै हँस पड़ी थी तुम्हारे साथ 

तुमने कोई जवाब नहीं बनाया था

चुना था मन ही मन एक विकल्प

नई सीखी भाषा का


चाँद बीच आसमान पर टंगा था 

शहर एक बेरोजगार की तरह लौट आया था

तलाश कर सारे विज्ञापन 

नदी थोड़ी उदास होने लगी थी लौटते हुए

 तुम्हे भी लौटना था इस रात में

मुझे भी जाना था सड़क पार कर अकेले 

हम नहीं कर सकते एक साथ

शहर की कोई सड़क पार 

तुम नहीं रोक सकते थे मुझे हाथ पकडकर


तुमने कहा -सुनो

एक बहुत जरूरी बात कहनी है तुमसे

मेरे भीतर नदी के किनारे धीरे से कोई आया था

वो जाग गई थी अचानक 

और मेरे पूरे वजूद ने सुना-


"मै तुमसे इश्क करने लगा हूँ"


ये बात मेरे लिए जीवन की सबसे जरूरी बात थी

इतनी जरूरी थी जैसे चाँद और नदी


अब हर भाषा के हर प्रश्न में हमारा उत्तर

एक ही है, और कोई विकल्प  नहीं

अब कहते है अक्सर -

हमें एक जरूरी बात कहनी है-

(----------)

और चाँद नदी के ठीक ऊपर

पूरा खिल जाता है।

०००

 परिचय 

गरिमा सिंह :हिंदी साहित्य में नेट /जे आर एफ , मूलतः जौनपुर जिले से हैं, वर्तमान में राज्य कर अधिकारी के पद पर अयोध्या में


कार्यरत हैं, कविताओं का संग्रह 'चाक पे माटी सा मन 'प्रकाशित है, कई साँझा संग्रहों और वागर्थ, हंस, कृति बहुमत, व अन्य प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हैं।
दूसरा कविता संग्रह अभी प्रकाशाधीन है।


5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन....... प्रथम दृष्टया... विस्तृत टिप्पणी शाम तक.... गरिमा सिंह जी साधुवाद औऱ धन्यवाद बिजूका संग सत्यनारायण जी आपको..... (बेनामी कंडवाल मोहन मदन )

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  2. भावप्रवण,हृदयस्पर्शी कविताएँ!गरिमा जी को हार्दिक बधाई!

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