कोसना
पसीना आने पर
कमीज को कोसना चाहिये
या बादल और सूरज को
मिट्टी को जिसने पेड़ नही उगाये
या उन्हें जिन्होंने छायादार पेड़ों की कटाई करी
और सड़क उगायी
क्या उन्हें कोसा जा सकता है
जिन्हें सड़कों को हरा करने का ठेका मिला
और जिसका सारा पैसा उन्होंने
अपनी तबीयत हरी करने पर खर्च दिया
छोटी ही सही
एक कुदाल तो थी
मेरे भी पास
तो क्या मुझे
कोसना चाहिये
स्वयं को....।
०००
नैराश्य
एक
सब कुछ मुझे छूकर गुज़रता रहा
जहाँ रहूँ
पूरी तरह अछूता और बेपरवाह
इस संसार में ऐसा कोई कोना नहीं
वह एकान्त जिसका ज़िक्र
कविताओं में आता है
वह संभव ही नहीं
मेरे कमरे की हवा में
सबकी हवा का मिलान है
समुद्र की हवा
थोड़ी नम है
ज़मीन की थोड़ी शुष्क
पर इससे भी कुछ नहीं बदलता।
०००
दो
बाहर का देखा
अपने भीतर बनाना चाहता हूँ
करने को तो
अपने नगर का निर्माण तक ख़ुद करना चाहता हूँ
पर देखो अकेलेपन के लिए
इस शहर में
दो सटी दीवारों के बीच की
कोई जगह तक ख़ाली नहीं
०००
तीन
माथों और हाथों पर
क़िस्मत की नहीं छटपटाहट की रेखायें हैं
हम चाहते हैं कि सारी दुनिया की छटपटाहट
किसी एक ही क्षण में एक साथ छूटे
किन्तु केवल दुनिया से जाता हुआ आदमी
छूटता है अपनी छटपटाहट से
उसकी छटपटाहट छूट जाती है
यहीं
बाक़ी लोगों के लिए
चार
कितना नैराश्य भरा है
चिड़िया के पंखों की आवाज़ को सुनते हुए
यह सोचना
कि वह उड़ नहीं,
छटपटा रही है
कहीं पंहुचने के इरादे से नहीं
कहीं से भागने की कोशिश के कारण है
इस आकाश में।
०००
हिंसा का साक्ष्य
हत्यारे और खानसामे
दोनों के हाथ में एक सा चाकू है
हिंसा हथियार मे नहीं है
चेहरे की भंगिमा में है
निरीह को आश्रय देते हुए तुम्हें जो होता है
अपने समर्थ होने का अभिमान
हिंसा उसमें है
उस क्रोध में जिसका इस्तेमाल
तुम एक बच्चे को डराने के लिए करते हो
भले अपनी सीमा से भलीभांति वाकिफ हो
कि हाथ नही उठाना है, फिर भी
हवा मे उठे तुम्हारे हाथ को नही करेगा याद
तुम्हारी भंगिमा से भय खाता रहेगा वह
जीवन पर्यन्त
उस भय से पार पाने का आसान रास्ता होगा
तुम्हारी घृणा से भी अधिक घृणा भरी
एक भंगिमा बना लेना
तुम स्वयं को विशिष्ट बनाते हो
दुर्लभ बनाते हो दूसरों के लिए
वह दूरी जो दूसरों से बनाते हो तुम
जिसमे दाखिल होते ही घिरने लगता है यह बोध
कि तुम हो
और झुकने लगती है
मिलने आये व्यक्ति की रीढ़
यह बोध ही
तुम्हारी होने की हिंसा का साक्ष्य है।
०००
पृथ्वी को हथेली मे लेकर सो गयी है वह
रंगीन मिट्टी के टुकड़ों को एक साथ
अपने नन्हे हाथों से गूंथकर
एक नन्हा गोला बना लिया है उसने
गोले मे दिख रहे हैं अलग-अलग रंग
मिट्टी का वह छोटा सा गोला
ग्लोब का आभास दे रहा है
उस छोटी सी पृथ्वी को
अपनी हथेली में लेकर
सो गयी है वह
मैं जैसे ही उसकी पृथ्वी को लेने की कोशिश करता हूँ
उसकी नींद उचट जाती है
कुछ घंटे बाद जब वह गहरी नींद मे होगी
मैं उसके हाथों से
इस पृथ्वी को आजाद कर दूंगा
तब तक पृथ्वी
अपने इन्द्रधनुषी प्रकाश पुंजों के साथ
उसके सपनो की आकाशगंगा में
स्थापित हो चुकी होगी।
०००
शहर आया है पारम्परिक परिधान पहने गांव का आदमी
शहर आया है पारम्परिक परिधान पहने गांव का आदमी
शहर के लिए वह देखकर हंस लेने की चीज़ है
बड़ों के लिये बच्चों को दिखाने जैसी चीज़
शीशे मे खुद को देखता आदमी
सोच रहा है आखिर हंसने जैसा क्या है
उसके कपड़ों और पगड़ी में
जिन्हे सिलवाया है उसने
गांव की सबसे मंहगी दुकान से
पूरा गांव हार रहा है
शहर के आदमी की खीं-खीं के आगे
गांव से पैदा हुआ शहर, गांव पर हंस रहा है
आदमी चुप है मगर मन ही मन दर्ज कर रहा है
शहर की प्रतिक्रिया को
सोच रहा है अगली बार शहर आने से पहले
उतार आयेगा अपनी पगड़ी
लेकिन पगड़ी तो इज्ज़त है
एक हंसी पर कैसे छोड़ दे उसे भला
एक दिन यदि कोई उसके खेतों पर हंसा
क्या वह नष्ट कर देगा सारी फसल
शहर भी तो सोयेगा भूखा
सारे गांव के साथ उस दिन
गांव का आदमी हंसता है शहर की नासमझी पर
ठीक करता है एक तरफ झुक आयी अपनी पगड़ी
कपड़ों से झाड़ता है धूल और बढ़ जाता है आगे
अपनी राह पर.....।
०००
ऐसे चलो
एक नवजात को वक्ष पर लगाए पैदल चल रही स्त्री दुनिया से कहना चाहती है
ऐसे चलो कि इसको न लगे ठेस
सालों से महीने में एक बार
बैंक से अपनी पेंशन लेने आने वाला एक बुजुर्ग
कहना चाहता है लोगों से
ऐसे चलो कि टूटे नही लाठी पर झुकी मेरी रीढ़
सड़क पर पैदल चल रहा आदमी
तेज़ गाड़ियों से कहना चाहता है
पहले ही बहुत किनारे आ चुका हूँ मैं
और हटा तो गिर जाऊंगा नीचे नदी में
बहकर लुप्त हो जाऊंगा तुम्हारी सभ्यता से
ऐसे चलो कि कम से कम कुचलने से बचा रह सकूँ
दुनिया चल रही है अपनी तरह
"हटो, आगे बढ़ो, रास्ते मे रोड़ा मत बनो" जैसे उद्घोषों के साथ
कहते हुए
"समय पर न पंहुचने से कम हो जायेगा मेरा मुनाफा
तुम सब अपना बीमा करवा लो"
यह दुनिया अब सिर्फ आंकड़ा है , व्यापार है
कितने मरे से ज्यादा बड़ा प्रश्न है कितने का घाटा हुआ
व्यापार का एक ही उसूल है
ऐसे चलो कि तुम्हारा घाटा न हो.......।
०००
जब मैं तुम्हारे शहर आऊॅंगा
जब मैं तुम्हारे शहर आऊॅंगा
जाऊंगा तुम्हारे साथ उस कलादीर्घा में
जिसकी पेंटिंग्स के अर्थ मेरे अकेले के देखने से नही खुलते
उस लम्बे सपाट मैदान की बेंच पर बैठे हुए
"घास पर कैसे लिखती हो कविता" पूछूंगा
पूछूंगा उस बेंच पर बैठकर
जिस पर रोज़ खुरचे हुए मिलते हैं नये नाम
शहर के इतने विविध रूप कुछ सत्य कुछ मिथ्या
आदिम चित्रों मे वर्तमान का मेल कैसे बिठाती हो
शहर से उठती हुई भभक को, उसकी गन्ध को
कविता मे कैसे लाती हो, पूछूंगा
अवसर मिला तो कोई नाटक देखते हुए तुम्हे देखूंगा
यह सब तो ठीक है
लेकिन तुम्हे मिलने का न्यौता देते हुए
कैसे रखूंगा संयत अपना स्वर
कि तुम्हारे हृदय मे न उभरे कोई संदेह
परेशान हूँ सोचकर
कहीं संकोच न खा जाये
हमारे सम्पर्क की नींव को।
०००
झुकाव
पिता सोते हैं जिस चारपाई पर
ढीली पड़ गयी है उसकी निवाड़
आंगन में तनी कपड़े डालने की रस्सी
झूलने लगी है
बरसात के पानी मे भीगकर
झुक गयी है तरोई की बेल
चढ़ाना होगा रस्सियों के सहारे आगे
उसे याद रहता है सब
जल्द से दुरुस्त कर लेना चाहती है सब कुछ
मगर बरसों के इस
कुछ-कुछ टूटते और उसे सुधारते रहने के
निरंतर क्रम मे
माँ ने कभी नही देखे अपने कन्धे, अपनी पीठ
जो झुक गये हैं इन्हीं रस्सियों की तरह
वैसे माँ की पुरानी तस्वीरों मे भी वो दिखती हैं
एक झुकाव के साथ
पर वो झुकाव सबके लिये
स्वभाव मे शामिल सत्कार का था
मां ने गौर नही किया कभी
कि एक लम्बे कालखडं में
स्वयं के दूसरों के लिये उनके समर्पण ने
उस झुकाव मे कर दिया है
एक स्थायी इजाफा ।
०००
हम अन्त को पाना चाहते हैं
किसी चमत्कार की तरह
हम अन्त को पाना चाहते हैं
किसी चमत्कार की तरह
उस प्रक्रिया के
अन्तिम पड़ाव पर पंहुच जाना चाहते हैं
जिसके अन्त मे लिखा होता है "अन्त"
फिर भी बहुत तेज़ दौड़ने पर भी
अन्त से पहले "अन्त" को पा लेना
कहाँ मुमकिन होता है
पिक्चर के सारे भेद खुल चुके हैं
भांप लिया गया है नायक का होने वाला हश्र
फिर भी वह दि-एंड वाली स्लाइड नही आती
जीवन में उठकर बाहर चले जाने की सुविधा नही है
कभी भी बदल सकता है कथानक
इसी एक कौतुक पर देखी जानी है
नीरस से नीरस फिल्म
और लगभग
ऐसे ही कौतुक के अवलम्ब पर तो
निभाया जा सकेगा
यह जीवन भी।
०००
भगदड़
पांच हजार एक आदमी पैदल चलते हैं
उनमे से एक ले लेता है कार
बाकी पांच हजार पैदल चलते रहते हैं
कार मे बैठ सकते हैं पांच लोग
लेकिन बैठता है अकेला एक
किसी के भीतर घुस आने की संभावना को
डोर लाॅक के एक बटन से निरस्त करता हुआ
कार पांच लोगों की जगह घेरती है
जहाँ-जहाँ से गुज़रती है कार
पांच पैदल सवारों के बीच बन जाता है
भगदड़ सा माहौल
जो तंत्र देखता है यातायात की व्यवस्था
उससे कहा गया है, कार को दी जाए तरजीह
अगले साल सड़क पर उतरती है एक और कार
और बड़ी, और लम्बी, और ज्यादा तेज़ चलने वाली
और ज्यादा बढ़ता है पैदल चल रहे लोगों पर दबाव
पैदल चल रहे लोग हैरान होते हैं देखकर
कि नयी कार के पीछे भी लिखा है
पहली कार के पीछे लिखा नाम
पैदल चल रहे लोग जब सरकार से कहते हैं
चलते हुए बार-बार गिरने की बात
तो वो कहती है ,
"यह मुक्त बाज़ार का समय है,
जो जितना तेज़ दौड़ सकता है-दौड़े"
और इसके बाद शुरु होती है
असली भगदड़....।
०००
सभी चित्र संदीप राशिनकर
परिचय
जन्मतिथि- 3 सितम्बर 1983,सम्प्रति – मैरीन इंजीनियर, निवास –कानपुर,मोबाइल–9336889840,इमेल– yogeshdhyani85@gmail.com, परिचय – साहित्य मे
छात्र जीवन से रुचि,हंस, वागर्थ,आजकल, परिन्दे, कादम्बिनी, कृति बहुमत, बहुमत, प्रेरणा अंशु, वनप्रिया, देशधारा आदि पत्रिकाओं मे रचनाएं प्रकाशितहिन्दवी, पोषम पा, जानकीपुल, इन्द्रधनुष, अनुनाद, कृत्या, लिखो यहां वहां, मलोटा फोक्स, कथान्तर-अवान्तर, हमारा मोर्चा आदि साहित्यिक वेब साइट्स पर कविताएं तथा लेख प्रकाशित
प्लूटो तथा शतरूपा पत्रिकाओं मे बाल कहानियां प्रकाशित
नोशनप्रेस की कथाकार पुस्तक मे सन्दूक कहानी चयनित, एक अन्य कहानी गाथान्तर पत्रिका मे प्रकाशित
पोषम पा पर कुछ विश्व कविताओ के अनुवाद प्रकाशित कृति बहुमत तथा परिन्दे पत्रिकाओं मे विश्व कहानियों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशितक विताओं की किताब “समुद्रनामा” दिसम्बर 2022 मे प्रकाशित हुई है।
०००
पूरी कविताएं पढ़ी। बहुत बढ़िया है।घिसी -पिटी कविताओं से कुछ अलग पढ़ने को मिला जो दिल को छू गया। हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं।-भगवान वैद्य प्रखर,,मो.,9422856767,E-mail-vaidyabhagwan23@gmail.com
जवाब देंहटाएंसुंदर कविताये
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