30 अक्तूबर, 2024

जयश्री सी. कंबार की कविताऍं

  

चौथी कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

०००

कविताऍं

नखरे का मौन


अरे! क्या मौन?

शब्दों के गांभिर्य मिटाकर

निःशब्द के झंझटों का दमन 

पत्थरनुमा पड़े घन हे मौन;


वर देने के लिए हाथ उठाए देवताओं को 

उठे हाथ को वैसे ही मौन में मिलाकर

कारणिक के मूँह को बंद कर

गर्व से दिखावा करते हो।


असहायकता के धुन को निगल के

कराल अंधकार से बी बढ़कर

उभरते अहम् को मन में पोसते

आकाश तक पालते लबक करते हो।


उभरते निर्धारों को छिपाकर

गुस्सा, रूठन, परिहास, दया

और नजाने कितने तुम्हारे अंदर

छिपाकर सभी शोरगुल के

गर्वभंग कर मौन होकर ही रहते हो।


मौन होकर ही रहते हो

जैसे कुछ भी न हुआ हो

हे नखरे का मौन, वह

तुम्हारे गहरे कंदरों में

क्या कभी कभी प्यार को भी छिप के रखना है? 

*****


रूबरू विज्ञापन जैसे


सोच लिया था-

रात के अंधकार मात्र अपने

गर्भ में न जाने क्या

छिपा के रख लेता है;

माया को पापों को

मगर सूर्य के प्रखर उजाला भी 

वही कर लेता है।


आलीशन बंगला खड़ा है

शांत, गंभीर होके मार्ग के बगल में

मोहक कांच, सुंदर बगीचा

पानी की बुदबुदापन आदि....

रूबरू विज्ञापन जैसे।

दीवार का मोहक रंग

कलाकार की आकर्षक कलाकारी।

मार्ग के छोर जाकर

कौतुहलवश, पैर के 

अंगुष्ठों पर खड़े होते लंगडाते

अंदर देखा क्या हो सकता है?

बाहर प्काशमान सूर्य

न प्रकाशित मकान के भीतर

एक रात वहाँ चलते समय

उस घर के सामने, फिर एक बार

पैर के अंगुष्ठों पर मेरा सर्कस।

घर के चारों तरफ एवं अंदर-बाहर

फूल की कलीनुमा लाइट

विशाल भवन, कमरे

आकर्षक पीठोपकरण, ठंडक 

महसूस करती दीवारों में रंग

रूबरू विज्ञापन में जैसे थे।

ताज्जुब हो के देखते समय

भवन के अंदर घुसे, सुशिक्षित

दिखते स्त्री और एक पुरुष

एक बालक को घसीटकर 

ले आके लात मारे, उसकी चिल्लाहट

सुनाई नहीं दिया वहीं खड़े मुझे।

कुंदर कीवाड की कांच

शोरगुल को बाहर न किए

अंदर जा नहीं सकते

सात फेरी का किला।

अंगुष्ठों पर खड़े ताकरहा था मूक प्रेक्षक।

पीठोपकरण, ठंडक रंग, लाइट 

आदि, आदि....

रूबरू विज्ञापन जैसे।

*****

 

अवस्था


ठोकर खाते संघर्ष करते देखा

सपने सारे मुट्ठी में

कहती बातें सारी बने सपने

या उन्हीं से कही हुई बातें बनी।


मुझे निगलने आए गुम्म को 

माँ के आँचल में बंधे थे।

पिता की कहानी की चिड़िया

कीवाड पर बैठ की गई बातें

मात्र कहानी नहीं बनी, सपने बनकर न रहीं

सपने ही बात, बातें ही सपने

गोलियाँ जिसतरह लुढ़कती हैं।


वैसे एक-एक सपने धीरे से

चल बसे लुढ़क-लुढ़कते

बचपना मुड़कर आयी थी,

रंगीन बिहु फसल त्योहार।


मात्र गड़बड़ के रंगारंग

रंगीनता ही सपने,भविष्य।

घने पत्थर के गोद में सुनाई देता

सभी, औ सभी के सपने

अंतरहित सागर में

बिनथकी तैराकी, मस्ती

अर्थव्यर्थ सभी सपने

देखते देखते ही जलती

सिगरेट के जैसे गये

धुँआ बनकर घटती गटती

बुढ़ापे की बुजुर्ग गोद में 

तभी गिर गया था फिसलकर।


आँखें थक गई हैं

पलकों समा नहीं सकती सपनों को,

दिवा में जलाए उजाले जैसे

पास में पड़े थे बेहोश 

किशोरी भूली ओढ़नी 

फिसलगई अंचल पल्लू

पास ही में थे सपने

दिनों को भी पलों को भी

निगलकर भरपेट गिरे थे

न हिलते, न डुलते, बिन किसी आवाज।

*****


सपने अभी भी हैं


मात्र दिन-रातों के 

दिवा तम का खेल

निरंतर चलनशील।

इधर कोंपल भी निकले

सूखे भी नहीं खोखले

गर्भ में झूठे सपने 

संघर्षरत हैं अस्तित्व हेतु।

सपने अभी भी हैं।


बाजार में बिछेरखे रंगारंग

तम की छांव की आँखों में

चारों तरफ शोरगुल, बात नहीं

बिखरे शब्दों की ध्वनि

कंपित मनों के 

एकला प्रेत है ये जनता

चलन नहीं, सबकुछ स्थिर है।

सपने अभी भी हैं। 


अप्रवासित पंछी को 

फिर से नहीं मिली नीड़

पेड़ गिरें जड़ें उनकी

तल से चाहती हैं फिर कोंपलित होने

बोये नींव सारी आकाश सी ऊँची।

गरीब बने आलीशन भवनें।

बहती नदियाँ नहर

पाताल में पुराणों में।

सपने अभी भी हैं।


सृष्टि के मर्म को खोदकर

फटे बिखरे गर्भ से

निकाल फेंके भ्रूणों।

कोंपल को भूली भूमि

सोई है तन बिछाकर

बिनलगाम के घोड़े नुमा

नरुकनेवाली यात्रा है यह....

सपने अभी भी हैं.....

*****

अंधेरा मत बनो


पु में निःश्वास की आग

धधकाती जलती रही।

मैं रानी, ढूँढ रही हूँ

दुःख का मूल कहाँ है।


यकीनन के स्वच्छ झील में

लहरें पागल बनके हिल रही हैं।

भावनाओं को हृदयांतराल में।

मन में चांद को समाये

आय़ी हूँ यहाँ दुल्हन बन के 

तुम ही मेरी संपदा मान के

आश्रय मांगती आयी मुझे

झूठे बन गए सारे सपने

धोखा हुआ प्यार को

षड्यंत्र के जाल में फंसकर।


तुम्हारी आँखों की उजाली रोशनी में

अधरमधु में अंकुरित

हँसी में देख ली आशा।

शंकाकुल कभी नहीं हुआ

एक बार भी मन में

कितने दिनों की योजना है यह?

अनजाने में हार गया क्या?

फिर बसंत के आगमन सा

आयेगा तुम मानके इंतजार

सीमा पार कर आए रवि

ना निकले बाहर कभी

अंतःपुर में कभी अंधकार न छाए

ना लगे तम की छाँव बच्चे को

बच्चे को ना बने पर सब को बने पिता तुम।


बुद्ध बनने उठकर

क्या जाना चाहिए छुपके

घर बार तजकर?

क्या नहीं कहना है मनोभिलाषा एक बार?

बिन किसी आतंक से साथ में आती।

सभी बुद्ध है अपनी अपनी प्रज्ञा के

सच जानने अवलंबित मन त्याग

क्या जाना चाहिए बोधी की छाँव में?

हर टहनियाँ मुझे 

निःश्वास करती थी क्या मैंने नहीं समझा?

यहीं रह कर क्यों बुद्ध नहीं बन जाते?

*****


कहाँ ढूँढ़ लूँ मुझे


आप के देखे सपने में 

 आदेशों में आशाओँ में

खो गई हूँ मैं।


आप के रखे नाम में न हूँ मैं

मात्र अक्षर बन गई,

आप के देखे सपनों में

सिकुडती छाँव बनी।

सूर्य के तरल प्रकाश में

गलगई हूँ क्या?

तिमिरांध के गर्भ में

डूब चुकी हूँ क्या?

कहाँ ढूँढ़लूँ मुझे?


न ढ़ोनेवाली यादगारों को 

बंधित सर्प बेड़ियों को 

फेंकदूँगी युगयगों से पार।

मैं क्यों अपने को आप की

आँखों में दिखा दूँ?

मैं दिखलाती

अपने सपनों 

बहा करती अपनी ओर

मेरी करती हुई बातों में

मेरी गाती रागों में

मेरे अपने सपनों में

मुझे ढूँढ़ लेती...

मुझे ही देख लेती।

*****


विशाल जगत


यह विशाल जगत 

मेरे सिर में न भरने 

और मुझे न पकड़ने जैसी छोटी है।


सपनों की जड़ें

हिलती रही भूकंपन से

तो भी बाजुओं से भद्र आलिंगन करती।


रूठे प्रवाहों में 

बहाव करती ध्वनियों को

पकड़ के रोक सकती


तूफानों में बहते 

शब्दों को खिसककर

कविता रचा सकती।


तमाध की बाहों में 

हिलडुल करते प्रकाश को 

फिर से अंकुरित कराती।


विशाल आकाश बन

आप नक्षत्रों को 

पकड़ टिमटिमाने देती।


अनचाही बिंबों को 

कामयाबी से चाँद को 

बिंबित करनेवाली आईना बन जाती।


अब कहिए,

मेरे लिए आप क्या बनेंगे?


यह विशाल जगत

मु....झ....को

ना पकड़ पाने जैसा

ना मानने जैसा

छो...टा...है। 

*****

अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे 

 अनुवादक परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।


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