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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 अप्रैल, 2018

गरिमावाद

 संजीव जैन 


संजीव जैन 

सृष्टि में प्रत्येक मानवीय इकाई का ‘‘भौतिक जीवित अस्तित्व होने’ के बोध और सह-सम्मान की सुरक्षा और जीव्यमान होने की भौतिक परिस्थितियों को पाने का अधिकार-भाव ही  गरिमावाद की एक यथासंभव उचित प्रक्रिया और परिभाषा हो सकती है।’’

गरिमावाद मानव के  ‘भौतिक अस्तित्व’ के औचित्य को सार्थक करने के लिये उचित और आवश्यक भौतिक साधनों की उपलब्धता और समान वितरण की प्रक्रिया और पाने के अधिकार-भाव की रक्षा करने की कार्यवाही का दर्शन है। मानवीय जीवन के पतन की संस्थागत परिस्थितियों के उन्मूलन के उचित और निर्णायक संघर्ष को अंजाम देने के विचार का नाम गरिमावाद है।
मानव के ‘भौतिक अस्तित्व’ को किसी भी स्थिति और दशाओं में नकारा जाना, उसकी उपेक्षा करना, उसके अस्तित्व को खंडित करना, उसके जीव्यमान होने के प्राकृतिक और मानवीय अधिकार को अपमानित करना, उसके भौतिक अस्तित्व को बनाये रखने के लिये प्रकृति में उपलब्ध आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा करके उसे वंचित करना, उसके जीवित अस्तित्व को निर्जीव वस्तुओं के बरक्स तुच्छ महसूस कराना, व्यवस्था, सत्ता, संस्कृति, धर्म, राजनीति इत्यादि वर्चस्वगत नीतियों और कार्यवाहियों के माध्यम से उसके भौतिक अस्तित्व को संकटग्रस्त करना, उसे अपने अस्तित्व को विलोपित करने के लिये उसकी नियति पर छोड़ देना और दूसरी ओर तमाम प्राकृतिक भौतिक अस्तित्व के साधनों पर कुछ लोगों का वर्चस्व होने के कारण भूख या अभाव से मानवीय अस्तित्व का विघटित होना, अपराध और हिंसा के लिये आम मानवीय अस्तित्व कभी उत्तरदायी नहीं होता, मगर हिंसा और अपराधों का शिकार हमेशा वही होता है, यह उसकी मानवीय गरिमा का अपमान है, इनके उत्तरदायी कारणों अर्थात जीवन के भौतिक और मानवीय श्रम से उत्पन्न साधनों और औजारों पर अनाधिकार असमान वर्चस्व की स्थितियों को नेस्तेनाबूद करना और एक अधिक और उचित मानवीय व्यवस्था का बनाना ही गरिमावाद के मुख्य घटक हैं।

गरिमावाद कोई काल्पनिक या अमूर्त अवधारणा या संकल्पना नहीं है। मानवीय जीवन के संपूर्ण और स्वतंत्र विकास की दिशा में यह एक सर्वथा उचित और अब तक न की गई कार्यवाही है। यह एक ऐसी कार्यवाही बनेगी, और इसे ऐसी कार्यवाही होना ही होगा जो ‘‘समग्र और व्यापक मानवीय अस्तित्व’’ को कीड़ों-मकोड़ों से बदतर जीवन स्थितियाँ देने के लिये उत्तरदायी हैं, उन अमानवीय संबंधों और प्रदत्त परिस्थितियों का उन्मूलन और नये गरिमापूर्ण मानवीय संबंधों और दशाओं की स्थापना करने में संलग्न हो।

‘‘गरिमावाद उस प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और पुर्नस्थापना के लिये ‘मानवीय एकजुटता’ की विशाल सक्रिय और निरंतर चलने वाली गतिविधि भी बनेगा जिस पर्यावरण के बिना ‘मानव का भौतिक अस्तित्व’ संभव नहीं है और जिसे असंगत और स्वार्थपूर्ण मानवीय व्यवहार और विचारधारा ने विनाश की भयंकरतम स्थितियों तक पहुंचा दिया है।’’






गरिमावाद एक अब तक न परखी गई ऐसी संभावना बनने में सक्षम है जो मानवीय जीवन के ज्ञात इतिहास को पूरी तरह बदलकर, उत्पीड़क और उत्पीड़न के तमाम संबंधों और संरचनाओं को पुरातत्व की सामग्री में बदलकर नये समग्र मानवीय गरिमापूर्ण और उत्तरदायी (बुर्जुआ नहीं) लोकतंत्रात्मक मूल्यों, और गौरवशाली न्याय की स्थापना के लिये ‘संपूर्ण क्रांति’ की उचित, गतिशील कार्यवाही होगी।

अब तक की गई तमाम क्रांतियाँ मानवीय भौतिक अस्तित्व को गरिमापूर्ण बनाने के एक मात्र लक्ष्य से आयोजित की गईं थीं, परंतु वे अपने अंजाम तक पहुँचते पहुँचते व्यक्तिगत स्वार्थ और संस्थागत उत्पीड़न में तब्दील हो गईं।

अब तक हुए यु़द्ध मानवीय भौतिक अस्तित्व के अवमाननापूर्ण पतन और हिंसक व्यवहार के जन्मदाता रहे हैं और इस गरिमाहीनता का कोई गरिमापूर्ण लाभ भविष्य के मानवीय अस्तित्व को नहीं मिला। इसलिये युद्ध किसी भी स्थति में, उचित मानवीय कार्यवाही सिद्ध नहीं की जा सकती, युद्ध हर स्थिति में अमानवीय और गौरवहीनता को प्रतिफलित करनेवाली अमानवीय गतिविधि है। युद्ध एक संस्थागत सामूहिक मानवीय संहार है जो अन्ततः मानवीयता के खिलाफ ही गतिशील होता है। युद्ध मानवीय अस्तित्व के गौरव को भौतिक और काल्पनिक मानवीय स्वार्थ की सीमाओं की रक्षा के लिये आयोजित होते रहे हैं, अतः वे अन्तिम निष्कर्ष में विशुद्ध अमानवीय गतिविधि ही कहे जा सकते हैं।

‘गरिमा’ के साथ ‘मुक्ति’

मुक्ति एक अनिवार्य स्थिति है, मानवीय गरिमा की सुरक्षा के लिये। यदि मनुष्य स्वतंत्र नहीं है तो वह गरिमापूर्ण जीवन भी नहीं जी सकता।

वर्तमान तंत्र मनुष्य की मुक्ति को उसकी गरिमाहीनता के साथ भूमंडलीय बाजार की दासता में निरंतर धकेलता जा रहा है। इस स्थिति के खिलाफ ‘गरिमा के साथ मुक्ति’ का संघर्ष एक अनिवार्य स्थिति है। तंत्र एक सार्वभौम सत्ता के रूप में मानवीय मुक्ति को निरंतर लीलता जा रहा है, उसके अस्तित्व को निरंतर अस्तित्वहीनता में ‘न कुछ’ होने के बोध में बदलता जा रहा है। तंत्र ‘सत्ता’ और ‘ताकत’ के डायनासोरीय बुलडोजर के नीचे मानवीय मुक्ति के स्वप्न को नेस्तेनाबूद कर रहा है। यह बात समझना और अपने ‘होने की गरिमा’ और ‘मुक्त आचरण’ के लिये उतना ही अनिवार्य है जितना जीवन के लिये सांस लेना। ‘मुक्ति’ को दासता के आधुनिक संस्करण में कमतर कर देना इस तंत्र की सबसे घटिया और अमानवीय गतिविधि है। मानव समुदाय ने अपनी मुक्ति को पूर्ण और गरिमापूर्ण ढंग से जीने की स्थिति को संभव करने के लिये इस तंत्र को आत्मार्पित किया था, न कि तंत्र को कुछ लोगों की स्वार्थपूर्ति और उनके हाथ का खिलौना बन जाने के लिये। यदि हमने इसे आत्मार्पित किया था तो इससे आत्म विच्छेद करने का अधिकार भी हमारे पास है। हमें इस अधिकार का उपयोग अतिशीघ्र करना ही होगा। मानवीय गरिमा और मुक्ति की शर्त के समक्ष कोई संविधान उससे महान और श्रेष्ठ नहीं हो सकता। संविधान मानवीय गरिमा और मुक्ति को संभव न करके उसकी दासता को, अमानवीय दशाओं और निरंतर आपराधिक समाज के चरित्र को निर्मित करने लगे, कुछ व्यक्ति ईश्वरीय ताकत हासिल करके, संविधान और सत्ता को उपभोग करने लगे और शेष निन्यानवे प्रतिशत से अधिक जनता अमानवीय दासतापूर्ण दशाओं को जीने के लिये विवश हो तो उस संविधान से तलाक ले लेना ही श्रेष्ठ उपाय है।







यह तंत्र ही है जो सत्ता और ताकत के हाथों का खिलौना बनकर व्यापक मानवीय गरिमा को खंडित और अपमानित करता है। यह तंत्र ही जिस पर वर्चस्व करके वर्चस्वी वर्ग स्वयं को उत्पीड़क स्थितियों का स्वामी बना लेता है और निचले पायदान पर स्थित मनुष्यों को जीवन के सामान्य हक से, देह की गरिमा और वैचारिक स्वतंत्रता से वंचित करके कीड़ों मकोडों की तरह बिलबिलाते हुये जीने को विवश करता है। यह तंत्र ही जिसने व्यापक मनुष्यों की गरिमा और जीने के अधिकार की सुरक्षा की गारंटी दी थी जब इसे मानव समुदाय ने स्वयं के लिये आत्मार्पित किया था, पर क्या उसके बाद से निरंतर ठीक विपरीत दिशा में काम नहीं कर रहा है, क्या यह तंत्र बुलडोजर की तरह प्रयोग नहीं किया जाता है, इसे हमेशा ही गरीबों की जीवन दशाओं और सुरक्षा और गरिमा के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया गया? क्या इसने न्याय और समानता की एक भी ऐसी स्थिति निर्मित की जिसके चलते सामान्य मनुष्यों को गरिमापूर्ण ढंग से जीने की दशाओं का विकास संभव हुआ हो? बल्कि ठीक इसके उलट विषमतायें, आपराधिक व्यवस्थायें, अन्याय और असंगतियां पूर्ण दशायें निरंतर बढ़ी हैं, तो क्या यह इस तंत्र की विफलता नहीं है, यदि है और यह विफलता का चरम है तो अब इससे संबंध विच्छेद करने का समय नहीं है?



विद्यमान तंत्र ने मनुष्य के अनस्तित्व की दशाओं को निरंतर बढ़ाया है, तंत्र जब पार्टी के विचारों का वाहक और उसका दास बन जाये तो वह मानवीय हित में तो हो नहीं सकता, क्योंकि पार्टी ‘सत्ता’ और ‘ताकत’ की विचाधारा से संचालित कुछ निहित स्वार्थों को सिद्ध करने की प्रक्रिया होती है। पार्टी जनचेतना को भ्रमित करती है, पार्टी जननेता नहीं रंगरूट पैदा करती है, जननेता जनता के हित में काम करता है, वह पार्टी के ऐजेंडे को व्यापक मानवीय हितों के खिलाफ पुलिस और सेना के बल पर लागू नहीं कर सकता। वर्तमान तंत्र ने मतांकनीय लोकतंत्रीय प्रक्रिया को लागू करकेे ‘सच्चे’ और जनप्रतिबद्ध, मानवीय दायित्व को ग्रहण करने वाले और मानवीय मुक्ति और गरिमा की सुरक्षा की शपथ लेने वाले ‘नेतृत्व’ के उदय की तमाम संभावनाओं का खारिज कर दिया है। तंत्र का चरित्र सत्ता हासिल करने की प्रक्रिया भर है, जो एक कागज के टुकड़े से शपथ लेने की औपचारिकता के साथ तमाम मानवीय दायित्वों को तिलांजली देकर स्वार्थपूर्ति में सलंग्न कर देता है। तंत्र और तंत्र पर कब्जा जमाये पूंजीवादी ऐजेंट (सांसद, विधायक, प्रशासनिक अधिकारी) जनवाद की महिमा जन सभाओं में, मन की बात करते चेनलों पर गाते हुये यदाकदा दिख जाते हैं, पर वे जनता को बोलने नहीं देते, जनता बोलने लगती है तो वह देशद्रोह हो जाता है, जनवाद की महिमा गाना और जनता को बोलने नहीं देना एक ढोंग है, एक चालबाजी है, एक धोखा है। हमारे वर्तमान तंत्रीय नेता यह ढोंग बखूबी कर रहे हैं। जनता भ्रम में है, नशे में है, नशे की लत लगा दी गई है, मुुुफ्त की भीख देने की आदत डाल कर। चुने गये नेता जब कोई जनता के हित की योजना की घोषणा करते हैं, तो उनकी भाषा राजशाहीपूर्ण होती है, जैसे वे महान उपकार कर रहे हैं, जैसे भीख दे रहे हैं, उनके अपने व्यक्तिगत खजाने में से थोड़ा सा उपहार जनता को देकर जनता की सहानुभूति और वोट पाने के लिये जन चेतना को गरिमाहीन उपकार की लत लगाते हुये सत्तर साल गुजर गये। यही इस तंत्र ने किया है कि मनुष्य को भिखारी बना दिया। हर चीज भीख की तरह ही दी जाती है। गरिमापूर्ण ढंग से तो मरने भी नहीं दिया जाता। भूख से मरने वालों को भी उनकी भूख की गरिमा से वंचित कर दिया जाता है, यह कहकर कि उसने नशा किया था, या आत्महत्या का कारण भूख नहीं है, उनकी बुरी लत थी या कुछ भी इसी तरह, भूखे रहकर गरिमाहीन जीवन से बचने के लिये यदि आत्महत्या करे, अपनी ही उपज का सही मूल्य न पाने से ऋण में फंसा किसान आत्महत्या करे तो यह उसकी व्यक्तिगत समस्या है, उसे गरिमापूर्ण ढंग से मृत्यु को चुनने का भी अधिकार यह तंत्र नहीं देता, जीने के अधिकार तो छीन ही रखे हैं। ‘आत्महत्या अपराध है, जीने के अधिकार से वंचित व्यक्ति मरने का विकल्प भी स्वतंत्रता से नहीं चुन सकता। तंत्र ने मनुष्य के तमाम चुनने के अधिकार छीन रखे हैं, उसे तंत्र द्वारा प्रदत्त स्थिति में ही जीना है, वगैर संकल्प पूर्वक किये गये स्वयं के स्वतंत्र निर्णय से।







जब दांत हो तब चने खा ही लेना चाहियेेेे

‘‘जब दांत हैं तब चने नहीं और जब चने होते हैं तब दांत नहीं’’ यह कहावत एक बुर्जुआ समाज में आम इंसान की वस्तुगत सच्चाई की ओर इशारा करती है। परंतु हमें इस कहावत को उलट देना चाहिये। जब दांत हो तब चने खा ही लेना चाहिये, किसी भी तरह। क्योंकि जब दांत हैं तो चने छीने भी जा सकते हैं और उधार भी मांगे जा सकते हैं, पर जब दांत नहीं होंगे और चने आ भी गए तो दांत न छीने जा सकते हैंं और न उधार के मिलते हैं। इसलिये जब दांत हो तब चने खा ही लेना चाहिये। यह एक विपरीत स्थिति है, बुर्जुआ समाज की अपेक्षा। मजदूर, किसान, निम्नपेशेगत और बेरोजगारों की फौज पैदा करने वाली यह व्यवस्था हमेशा ही चने और दांत का संतुलन अपने वर्ग के पक्ष में रखती है। इस व्यवस्था में कुछ मुट्ठी भर विशिष्ट लोगों के पास ही यह संतुलन हर समय उपलब्ध रहता है। यह व्यवस्था कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है। यह मानवकृत शोषणमूलक व्यवस्था है जिसमें कभी चनों की कमी नहीं होती और हर इंसान को वक्त पर वे मिल सकते हैं, पर ऐसा होने नहीं दिया जाता है। ऐसा इतिहास में कभी नहीं होने दिया गया। जब भी ऐसा कहीं सभव हुआ है तो वह इस मुहावरे को उलट  देने से ही संभव हुआ है।


‘‘अभाव और बेरोजगारी का दर्शन है पूँजीवादी समाज’’

‘अभाव और बेरोजगारी’ पूँजीवादी समाज का क्रांति को हमेशा के लिए असंभव बनाने वाला दर्शन है। विज्ञान और तकनोलॉजी के विकास के साथ-साथ उत्पादन और उत्पादन के साधनों ने हजारगुना प्रगति की है। हमारी सरकारें विज्ञान और तकनीक को इसी तर्क के आधार पर अपनाती रही हैं कि इससे मानव जीवन का अभाव और बेकारी की समस्या का समाधान होगा। पर आज तक भी ऐसा नहीं हुआ। उत्पादन हजार गुना बड़ा है और जनसंख्या 25 प्रतिशत तो जनसंख्या वृद्धि का तर्क बेरोजगारी के लिये और अभावों के लिये बेमानी है। जनसंख्या वृद्धि नहीं व्यक्तिगत संपत्ति और मुनाफे की उत्पादन व्यवस्था अभाव और बेरोजगारी को जन्म देती हैं।

दर असल पूँजीवाद मार्क्स के भूत और उसके विचारों से बहुत डरता है और बहुत कुछ सीखता भी है। मार्क्स का पूँजीवाद का वैज्ञानिक विश्लेषण और उसके अंत के लिये सर्वहारा का दर्शन दोनों से ही पूँजीवाद ने अपनी उत्तरजीविता के लिये रास्ता बनाया है। पूंजीवाद की तर्कपद्धति का जितना सटीक और भविष्य में सच होने वाला विश्लेषण मार्क्स ने किया था उससे समाजवाद ने उतना नहीं सीखा जितना पूँजीवाद ने। उसने यह समझ लिया कि जिस सर्वहारा के उदय और उसके द्वारा क्रांति के माध्यम से उसे उखाड़ा जाना तय है, उसकी एकता और एकाग्रता दोनों को बेरोजगारी को निरंतर बढ़ाये रखने और समय समय पर उस फौज में से कुछ को अपने पाले में मिलाने के लिये अपने मुनाफा बढ़ानें के योग्य सर्वहाराओं को नौकरी देते रहने का नाटक करते रहने से यह फौज कभी न अपने हितों के लिये एक हो सकेगी और इसका ध्यान अपनी बेरोजगारी के असली कारण व्यक्तिगत मुनाफे के रूप में उत्पादन के साधनों और उपज पर स्वामित्व की ओर नहीं जायेगा। इस फौज के कुछ लोग हमेशा इस उम्मीद में रहेंगे कि हमें नौकरी मिल सकती है। ऐसे लोग क्रांति की स्थितियों को कभी भी संभव नहीं होने देंगे।

पूरी दुनिया में पूँजीवादी उत्पादन वाले समाज ने बेरोजगार और अभावों के जंगल उगा रखे हैं, परंतु कहीं भी इसे मूलतः उखाड़ फेंकने के संगठित प्रयास नहीं हो रहे हैं। यह इसी अभाव और बेरोजगारी की बुर्जुआ विचारधारा के कारण संभव हो रहा है। सहायता और सुधार इस दिशा में एक ओर कदम आगे बढ़ाते हैं। बुर्जुआ सरकारें हमेंशा कुछ सुधार और रोजगार पैदा करने का भ्रम फैलाती रहती हैं। यह भ्रम भी सर्वहारा को प्रदत्त स्थितियों का उलटने के लिये लामबंद नहीं होने देती। तमाम सर्वहारा समूहों को अलग अलग हितों में विभाजित रखा जाता है। धर्म, जाति, शिक्षा और वर्गीय स्थिति के विभेद और भिन्न्ताओं को हमेशा सरकारें जगाये रखती हैं। योग्यता और तकनीकी अक्षमता का रोना हमेशा नौकरशाह रोते रहते हैं। जबकि योग्यता के लिये और तकनीकी क्षमता न होने के लिये आवश्यक और अनिवार्य परिस्थितियाँ न होने के लिये यही वर्ग जिम्मेदार होते हैं। तथापि हमेशा ठीकरा बेरोजगारों की अक्षमता पर फोड़ा जाता है।








क्रांति एक सामूहिक श्रम है

क्रांति मानव जीवन का सामूहिक श्रम है। यह व्यक्तिगत संपत्ति की तरह व्यक्तिगत मुनाफा कमाने का साधन नहीं हो सकता। सच्ची क्रांति एक वर्ग का उत्पादन नहीं होती यह वर्गहीनता के विचार से पैदा होती है। अभी तक हुई क्रांतियाँ या तो वर्गीय अवधारणा के कारण असफल हो गईं या वे व्यक्तिगत मुनाफे की जगह राज्य के हक में उत्पादन के बदल जाने से असफल हो गईं। सच्ची क्रांति का नेतृत्व सर्वहारा ही संभव कर सकता है। इसका कारण है कि सर्वहारा सामूहिक श्रम के माध्यम से जीवन की स्थितियों को समझता है इसलिये किसान और अन्यवर्ग क्रांति में सहयोग कर सकते हैं, क्रांति को संभव करना और उसे पूर्णता तक पहुँचाने के लिये जिस सामूहिक श्रम के अनुभव की दरकार होती है वह सर्वहारा के पास ही होता है। 

क्रांति रक्त रंजित हो या उत्पादन के साधनों के मालिकाना हक में सामूहिक परिर्वतन शांतिपूर्ण हो। क्रांति की सफलता और उत्तरजीविता ‘बिना सामूहिक श्रम’ के अनुभवों और प्रक्रियाओं से गुजरे संभव नहीं है।

आज की परिस्थितियों में पूँजीवाद ने वर्गहीनता के विचार को बेरोजगारों को श्रेणीबद्ध करके तहस-नहस कर दिया है। इसलिये क्रांति की संभावनायें दूर दूर तक नजर नहीं आ रही हैं। पर व्यक्तिगत संपत्ति का निरंतर संकेंद्रण एक न एक दिन इस स्थिति के प्रति विकराल विद्रोहों की श्रृंखला को जन्म देगा। और यह श्रृंखला धीरे धीरे वर्गहीनता के विचारों के हक में एक सच्ची क्रांति को संभव करेगी।

पूँजी का निरंतर केंद्रीकरण और प्रकृति का लगातार विनाश अभावों और अकालों की पंक्तिबद्ध श्रृंखलाओं को  जन्म देगा। ‘बारूद’ का एक जगह लगातार एकत्र होते जाना भी विस्फोट को जन्म देने की स्थितियों को पैदा करता है। ‘पूँजी’ भी एक बारूद है, यह भी स्वयं के अंदर से ही विस्फोट को जन्म देगी। यह नियतिवाद नहीं है और न भाग्यवादी दृष्टिकोण है। यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का वह सिद्धांत है जो संपूर्ण विश्व में परिवर्तन और विकास के लिये निरंतर सक्रिय रहता है। दो विरोधियों की अन्विति और अंतर्विरोधों के बीच संघर्ष के बिना विश्व कभी बना नहीं रह सकता है। बारूद है तो आग भी होगी ही होगी। दोनों हैं तो उनके बीच द्वंद्व भी होगा। उनका आमना सामना भी होगा। एक ओर समृद्धि के एवरेस्ट बढ़ते रहें और दूसरी ओर अभावों की खाईंयाँ भी बढ़ती रहें। यह स्थिति प्राकृतिक सिद्धांत के खिलाफ है। यह असंतुलन एक हद तक ही बना रह सकता है। एक सीमा के बाद पृथ्वी के गर्भ में छिपी ताकतें अंदर ही अंदर सक्रिय होने लगती हैं और या तो वे अभावों की खाईयों में से सिर उठाने लगती हैं या बनते और बढ़ते हुए एवरेस्ट के अंदर हलचल पैदा करके उसके कंगूरों को तहस नहस कर देती हैं। यह प्रक्रिया निरंतर सक्रिय रहती है। आज भी है पर अभी दबाव और अन्तर्विरोध विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँचे हैं।   

वैयक्तिक सफलता एक धोखा है

पूंजीवाद की संचालिका व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा है। इसलिए यह व्यवस्था हमेशा व्यक्तिगत उपलब्धियों और सफलताओं को प्रश्रय देता है, इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। इसे ही जीवन का लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत करता है। व्यक्तिगत रिकार्ड बड़ी सफलता बताई जाती हैं। यह व्यक्तिगत सफलतायें ही मुनाफा कमाने के बड़े हथियार की तरह उपयोग किए जाते हैं। जनता, जिसका शोषण किया जाना है, उसकी चेतना में अफीम के नशे की तरह व्यक्तिगत सफलता के जहर को भरा जाता है ताकि उनके दिमाग को नियंत्रित किया जा सके। पूंजीवादी शोषण के पक्ष में मानसिक अनुकूलन का होना निहायत जरूरी है।

व्यक्तिगत सफलताओं वाले व्यक्तियों को आईकान बनाकर आदर्श माडल बनाकर पेश किया जाता है फिर उनकी सफलताओं को विज्ञापन की मशीन बना दिया जाता है। इन आइकन - खिलाड़ी, अभिनेता, अभिनेत्रियों- इत्यादि की जीवनशैली को बेचा जाता है। उनकी जीवनशैली को आम जनता में बेचने के लिए पूंजीवादी अपने उत्पादों का बाजार तैयार करता है। अनियंत्रित मुनाफा कमाया जाता है। आम जनता के दिमाग में व्यक्तिगत सफलता प्राप्त गुलाम की छवि उनकी सोचने विचारने की क्षमता को खत्म कर देती है। जनता में उनकी छवि को लेकर एक उन्माद पैदा किया जाता है। यह उन्माद उन छवियों के सीधे प्रर्दशन से और बढ़ा दिया जाता है। हर आईकान के पीछे मुनाफा कमाने की हार्वेस्टर मशीन चलती है आगे आगे वे अपनी छवि, पहनावे और हाव-भावों से उन्माद को बढ़ाते हैं, पीछे से विज्ञापन कंपनियां और बहुराष्ट्रीय निगमों की लूट मशीनें अपनी बारूदी सुरंगें बिछाती जाती हैं।

व्यक्तिगत सफलता किसी भी क्षेत्र में हो वह समाज के लिए किसी भी तरह उपयोगी नहीं है। हां वे कुछ चैरिटी में दान देकर एक भ्रम उत्पन्न करते हैं परंतु वे सिर्फ मुनाफा कमाऊ शोषण पद्धति के औजार भर होते हैं। वे किसी भी वैचारिक प्रक्रिया को आरंभ नहीं करते न जनपक्षधरता वाले विचारों के पक्ष में खड़े होते हैं। ये लोग हमेशा शांत और सौम्य मुद्रा में जनता के सामने आते हैं ताकि ये सत्ता और पूंजी के गठबंधन के प्रति सकारात्मक विचारों को परोस सकें। ये किसी भी विद्रोही लेखक, विचारक, सत्ता और पूंजी के खिलाफ कार्यरत व्यक्तियों, संगठनों संस्थाओं और विचारकों के पक्ष में बोलते हुए नहीं देखे जाते।

व्यक्तिगत संपत्ति के अकूत मुनाफे में इनकी भी हिस्से दारी होती है। यह हिस्से दारी जनता में इनकी महानायक वाली छवि जो पूंजीवादी मीडिया द्वारा गढ़ी जाती है, के कारण मिली होती है। जनता जिस छवि के पीछे जितनी पागल होगी उनका हिस्सा उसी अनुपात में बढ़ता जाता है जनता की लूटी गई कमाई में।

समतामूलक समाज की स्थापना में व्यक्तिगत सफलताओं को होना सबसे बड़ी बाधा है। यह सफलतायें इस वर्ग को विशिष्ट होने का दर्जा दिला देती हैं। यह विशिष्टता जनता के मूल अधिकारों के हनन की शर्त पर मिलती है। ये वास्तव में जनता को कीड़े-मकोडों से अधिक नहीं समझते हैं उसी जनता को जिसके कारण ये इस‌ स्थिति तक पहुंचे होते हैं। इनके अंदर उत्पीड़क वर्ग की चेतना बैठी होती है। इसलिए ये चालाकीपूर्ण आचरण करते हैं। दिखाते अलग हैं होते कुछ और हैं नेताओं की तरह अपने समर्थकों की समस्याओं से उनके जीवन से इनका कोई लेना देना नहीं होता है।


“औपनिवेशिक शिक्षा और शिक्षा पद्धति : मानसिक गुलामी है”

मानसिक गुलामी शारीरिक गुलामी से भयानक और खतरनाक होती है। भौतिक गुलामी को देश ने स्वीकार नहीं किया था तो अंततः उसके खिलाफ संघर्ष किया और मुक्ति पाई। यह राजनैतिक सत्ता परिवर्तन राजनैतिक गुलामी को स्वीकार न करने के विचार से मिली थी। मानसिक गुलामी को हम स्वभाविक स्थिति मान लेते हैं, इसलिए उसके खिलाफ कभी संघर्ष नहीं करते। यही कारण है कि यह अधिक खतरनाक होती है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होती रहती है। इसका सबसे सशक्त माध्यम है शिक्षा और भाषा। उत्पीड़क वर्ग उत्पीडितों की भाषा को अप्रासंगिक बनाकर अपनी भाषा उसके मस्तिष्क में खचित कर देता है। यह काम वह तीन चार साल की उम्र से ही आरंभ कर देता है। बचपन से ही बच्चों के दिमाग में अपनी भाषा और संस्कृति की पतित और गरिमाहीन स्थिति के पक्ष में वायरस इंसर्ट कर दिया जाता है। ये बच्चे अनेक पीढ़ियों तक गुलाम पैदा करते रहते हैं। उनकी शिक्षा का विषय उनके जीवन का परिवेश और जरुरतें नहीं होती, औपनिवेशिक या उत्पीड़क वर्ग का जीवन परिवेश, जीवन शैली होती है, इससे बच्चों के मन में अपने जीवन परिवेश के प्रति घृणा भर जाती है और वह अवसर मिलते ही सबसे पहले अपने भौतिक परिवेश और सामाजिक संस्कृति से भागता है। यह मानसिक गुलामी भारत में पूरी तरह शिराओं में दौड़ रही है।

औपनिवेशिक शिक्षा और भाषा हमें सामूहिक था से वंचित करती है और वैयक्तिकता के जंगल में ले जाती है। आज के तमाम मेट्रोपोलिटन शहर, माल कल्चर, मेगाप्लेक्स, और मल्टीनेशनल आफिस संस्कृति वैयक्तिकता के वैश्विक जंगल हैं। यहां एक तरह की आधुनिक पशुसंस्कृति के दिखाई देती है। यह शिक्षा और भाषा कभी भी संघर्ष करना नहीं सिखाती। इसमें एक तरह का स्वीकार भाव होता है, समझौतापरस्ती, और अपनी प्लेट लो और एक कोने में खड़े रहकर स्वादिष्ट भोजन करना सिखाती है। यह पशुसंस्कृति है। कुत्ते या सुअर को एक मास का टुकड़ा या भोजन का टुकड़ा मिलते ही वह भागकर एकांत तलाशता है ताकि चैन से खा सके। यही बात आधुनिक शिक्षा और संस्कृति हमें सिखाती है।

औपनिवेशिक शिक्षा और भाषा हमारे अंदर उत्पीड़क की दैवीय छवि बनाकर बिठा देती है। औपनिवेशिक भाषा से शिक्षा प्राप्त वर्ग सबसे पहले औपनिवेशिक जीवन शैली को अपनाता है। वह स्वयं को अपने साथ या सामाजिक परिवेश से अलग दिखाने की कोशिश करता है। यह उसके अंदर उत्पीड़क की तरह बनने की चाहत बोलती है। औपनिवेशिक भाषा और शिक्षा हमारे ही बीच से अपने प्रतिनिधि पैदा करके हमारे संघर्ष को भौंथरा करने या कुंद करने का चक्रव्यूह रचती रहती है ताकि जब देशज चेतना इसके खिलाफ लड़े तो उसके ही बीच के लोग उसके सामने हों लड़ने के लिए। इससे वास्तविक उत्पीड़क या शोषक अदृश्य होकर अपनी रक्षा कर लेता है।

भारत आजादी के सत्तर साल बाद भी  रुग्ण समाज में बदलता जा रहा है। हम मैक्सिको के जेप्तिस्ता इ़ंडीजिनियश समूह की तुलना में ज्यादा अशिक्षित और गुलाम है। जेप्तिस्ता समूह अपनी गरिमा और आजादी को बनाये रखने में सफल हुआ है। उसने विकास को अस्वीकार कर दिया अपनी स्वायत्तता और सामूहिकता के लिए। मानवीय गरिमा और स्वायत्तता, वास्तविक लोकतंत्र और मानवीय न्याय का जो संघर्ष उसने आरंभ किया उसके सामने भूमंडलीकृत पूरी दुनिया है, जिसके खिलाफ चौथा विश्व युद्ध उसने आरंभ किया है एक जनवरी 1994 से। यह युद्ध अपनी गरिमा के पक्ष में लड़ा जा रहा है और तमाम सुविधाओं और समझोतों से परे जीवन को सम्मान से जीने के लिए।






आज हमारे शिक्षित वर्ग के पास गरिमा और गौरव नाम की कोई चीज नहीं। सुविधाओं के बदले आत्मगौरव का इतना पतन इतिहास की अद्भुत घटना है। औपनिवेशिक शिक्षा और भाषा सिर्फ “ यस सर” कहना सिखाती है। “नो” या enough कहना तो इस गुलाम मानसिकता के लोग जानते ही नहीं है। यह सहज मानवीय गरिमा का घोर पतन है। नौकरशाही का यह रवैया शैक्षणिक गुलाम ही चाहता है। इन्हीं गुलामों को पैदा करने की मशीन मैकाले ने आधुनिक शिक्षा आरंभ करके लगायी थी, जो आज तक नये नये संस्करणों में चल रही है।

पूरा समाज दो वर्गों में बंटा है शिक्षित गुलाम और अशिक्षित मजदूर। बुर्जुआ वर्ग के अतिरिक्त। शिक्षित गुलाम दर असल निम्न बुर्जुआ वर्ग में शामिल हो गये हैं। वे शोषित भी हैं और शोषक भी और शोषणकारी व्यवस्था के रक्षक भी हैं और इसके प्रचारक भी हैं।


“न” या “बहुत हुआ”, “अब और नहीं

मनुष्य की सामूहिक गरिमा और स्वायत्तता पूर्ण जीवन  जीने वाले लोग ही इन शब्दों को कह सकते हैं। हम जैसे वैयक्तिकता के लौह पिंजरे में बंद एकाकी पशु कभी इन वाक्यों का ताकतवर प्रयोग नहीं कर सकते। हमारे लिए भाषा एक लिजलिजा सौंदर्य बोध है। इसमें हम अपनी गुलामी की सोच से उपजे दिखावटी और बाहरी खूबसूरती की छवियां उकेर सकते हैं। जीवन के वस्तुगत गरिमापूर्ण यथार्थ को अभिव्यक्त करने की क्षमता हमे सिखायी जानेवाली भाषा चाहे वह औपनिवेशिक भाषा हो या देशज दोनों इस तरह की गरिमापूर्ण गौरवशाली बोध और ताकत से रिक्त होती हैं।

एक खोखली गरिमाहीन भाषा पूरे मानव समूह की शिराओं में प्रवाहित कर दी गई है।

          संजीव जैन
भोपाल ,मध्य प्रदेश 

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