image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 जून, 2018

व्यंग्य: 

दंतपरीक्षा


निरूपमा नागोरी


दाँतों केडॉक्टर का नाम सुनते ही हममें से बहुतों की घिग्घी बंध जाती है। शायद डाकू वीरप्पन की झब्बेदार मूँछों का भी वह रौब नहीं होगा जो दॉंत के डॉक्टर की आरामदेह (????) कुर्सी का होता है।मुझे तो वह कुर्सी अब तक भी किसी बलिवेदी से कम नहीं लगती ।

निरुपमा नागोरी


मेरी पहली दंत परीक्षा शायद ८-१० वर्ष की उम्र में हुई होगी।
संयुक्त परिवार में जब बड़े सालों बाद कोई बच्चा होता है तो वह किसी राजकुमार से कम नहीं होता। उसके नख़रों, इच्छाएँ, शौक़ सारे मुँह खोलने से पहले ही पूरे कर दिये जाते हैं। और मैं भी इस कड़ी में कोई अपवाद नहीं था।घर भर का लाड़ला, चॉकलेट , गोलियाँ तो आँखों के इशारे भर से ही मेरे सामने आ जाती थीं।मेरे चाचा,बुआओं और दादा दादियों के भाँति -भाँति की पिपरमिंटों और मीठी गोलियों के ख़ज़ाने मेरे लिये हमेशा खुले रहते थे। मुझे हाथों हाथ लिया जाता था।

इन सबका नतीजा यह हुआ कि १० साल का होने तक मेरे अधिकतर दॉंत रंगीन हो चुके थे।आश्चर्य की बात बस यही थी अब तक कभी भी उनमें दर्द नहीं हुआ था।लेकिन कसाई का बकरा आख़िर कब तक ख़ैर मनायेगा।

एक दिन न जाने कौन सी चाशनी में रही बहुत ही स्वादिष्ट ,मधुर , सुंदर मिठाई
चाची के मायके से आयी थी ।और उसका भोग लगाने के लिये यह गणपति बाप्पा हमेशा की तरह तैयार ही था। सो नैवैद्य और आधे प्रसाद से पेट-पूजा के बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी अपनी कारस्तानियों में लग गया।

शाम को जब सबके साथ खाना खाने बैठा तो फिर से ललचायी जीभ ने नज़रों का रुख़ ऊपर पटरी पर रखी मिठाई के डिब्बे की ओर मोड़ दिया। लाड़ले होने का एक नुक़सान यह होता है कि सही ग़लत किसी भी बात खुश करने या मनाने के लिये मिठाइयों की झड़ी लगी रहती है। मॉं के समझाने या मना करने की आवाज उसी शिद्दत से नज़रअंदाज़ कर दी जाती थी जितनी कि नक्कारखाने में बजती तूती की आवाज़। अर्थात् सारांश यह कि मेरे लिये तो हर तरह से आनंद ही आनंद था।लेकिन अब मेरी मुसीबतों की फ़ेहरिस्त ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा ही  दी थी।

उस दिन रात भर मेरा दॉंत असहनीय पीड़ा से ठनकता रहा।दर्द बमुश्किल ही कम होता। तकिये से ज़रा सा सिर क्या टिकाया ,फिर पीड़ा शुरू।रो-रोकर मेरा बुरा हाल था। और मेरे रोने से घरवालों का।हर कोई अपने -अपने तरीक़े से दर्द कम करने की कोशिशें कर रहा था।

कहीं से लौंग का तेल लाकर लगाया गया।किसी ने हल्दी की गॉंठ मुँह में दबाने को कहा। छोटी बुआ तो शेर छाप बाम रुई में लगाकर ले आईं। कहने लगीं- “सूँघते रहो लल्ला। दर्द कम होकर नींद आ जायेगी।” पर उस बदबूदार बाम से तो मेरी रही- सही हिम्मत भी जाती रही।तब तक दादी ने झाड़-फूँक करवाने वाले की तैयारी करवा ली थी।”ऐसे खिलंदड़े बच्चे को इतना दर्द? ज़रूर किसी की नज़र लग गयी है।” आग में मिर्चों का छौंक देकर उसके धुंए में मुझे मोरपंख के झाड़ू से भली भाँति कूटा गया ताकि दर्द का भूत मुझसे कोसों दूर भाग जाये।लेकिन वह क्या कोई छोटी-मोटी बला थी ?सालों से चॉकलेट और मिठाई बाबा के छक कर खाये प्रसादों का प्रताप था जो इतनी आसानी से पीछा छोड़ने वाला नहीं था।अंतत: रोते रोते मैं देर रात थक कर सो गया।
सुबह ऑंख खुली तो पिताजी कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। उन्हें देखते ही मुझे रात के सारे दृश्य याद आ गये और मुझे इस हालत में छोड़कर पिताजी को बाहर जाते देख सहानुभूति के लिये मेरी ऑंखों से फिर से गंगा-जमुना बहने लगी।

मेरी इस नौटंकी ने अब पिताजी के रहे-सहे धीरज को भी ख़त्म कर दिया। वहीं से माँ को आवाज लगाकर मुझे तुरंत तैयार करवाया गया । शहर में दाँतों के डॉक्टर के सामने पेश होने का मेरा वक़्त आ गया था।
लगभग दो घंटों के सफ़र के बाद हम शहर में अपने गंतव्य पर पहुँचे।दवाखाने में कई मरीज़ अपने-अपने दुखड़े संभालते अपनी -अपनी बारियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमें भी एक घंटे का समय वहॉं बिताना था। मेरी तो उन सबको देखकर ही हालत पतली हो रही थी। उस एक घंटे में मुझे ४-५ बार प्यास लग चुकी थी और लगभग उतने ही चक्कर बाथरूम के भी हो चुके थे।बकरे को हलाल होने से पहले जो अनुभूति होती होगी लगभग वही भाव मेरे मन में भी आ रहे थे।मन कर रहा था भाग जाऊँ।पर पिताजी का भारी भरकम हाथ मेरी पीठ पर मज़बूती से आसीन था और इस अजनबी शहर की चकरघिन्नी सी गलियों और भीड़-भड़क्के ने आते समय ही मुझे डराने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी।


आख़िरकार अंदर से हमारा बुलावा आया। पिताजी ने जैसे ही मुझे इशारा किया, मेरी सिसकियाँ शुरू हो गयीं जो कि अंदर पहुँचते- पहुँचते अच्छे खासे भोंपू में बदल चुकी थीं।वहॉं पहुँच कर मेरी नज़र सबसे पहले उनकी औज़ारों से भरी ट्रे पर पड़ी। बड़े अजीब अजीब हथियारों का पूरा संग्रहालय ही लग रहा था वह।अब तक पिताजी ने मुझे ज़बरदस्ती उठा कर डॉक्टर के सामने की कुर्सी पर बिठा दिया था और ख़ुद सारी घटना व मेरी असहनीय पीड़ा का वर्णन करने लगे थे।


रोते हुए भी मेरी नज़रें आस-पास के इलाक़े का जायज़ा लेने से नहीं चूकीं। सामने ही टेबल पर ३-४ बत्तीसियॉं मेरी ओर देख कर हँस रहीं थीं।दीवार पर एक कंकाल का चित्र लगा था जो अपने मज़बूत दाँतों का प्रदर्शन कर रहा था।उसके पीछे अलमारी में भिन्न आकार-प्रकार की शीशियों में रंगीन दवाइयाँ भरी थीं।साथ ही अस्पताल की एक डरावनी सी गंध वातावरण में पसरी हुई थी।
मैं डर के मारे पिताजी से चिपक कर बैठ गया।सोच रहा था कि इस बीहड़ में आने से तो दर्द थोड़ा और सह लेता।

अब डॉक्टर ने मुझे उठकर उनकी ख़ास वाली कुर्सी (बलिवेदी) पर आने को कहा और ख़ुद मास्क(मुखौटा) और ग्लव्ज़(हाथमोजे़) पहनने लगे। अब तो मेरे लिये यह पूरा जीवंत भूत बंगला ही बन गया था। मैंने अपनी पूरी समझ लगाकर वहॉं से भाग निकलना ही उचित समझा।
लेकिन पिताजी को न जाने कैसे मेरी हरकतों की भनक लग गयी।उन्होंने मुझे उठाया , गोल -गोल ऑंखों से मुझे घूरा और उस कसाई से दिखने वाले डॉक्टर की बलिवेदी पर पटक दिया। अब तो सिनेमा में देखे क़ब्रिस्तान के दृश्य पूरे के पूरे मेरी आँखों के सामने नाच गये।

लेकिन मैं भी इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था। महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी की बहादुरी की कहानियॉं मैंने भी बहुत सुनीं थीं । जानता था कि वे अपने दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए शत्रुओं को चीर कर निकल जाते थे।

अब मैं भीअपनी पूरी ताक़त से दुश्मन की गिरफ़्त से बचने का प्रयत्न करने लगा। हाथ-पैर, लात मुक्के सारे हथियार एक साथ और साथ ही टार्जन की जैसी वाली बहादुरी भरी ललकारें भी। पिताजी ज़ोरों से डॉंट रहे थे,डॉक्टर, कंपाउंड कुछ समझा रहे थे ,लेकिन मुझे तो सब तरफ़ दुश्मन ही दुश्मन नज़र आ रहे थे। मैंने ऑंखें बंद कीं , भगवान का नाम लिया ,पूरी ताक़त से अंतिम प्रयास करते हुए जोरों से अपने हाथों से सबको बाज़ू हटाने लगा।
इस धक्कम-धक्की में औज़ारों से भरी ट्रे धड़ाम से ज़मीन पर जा गिरी और जीवन में पहली बार एक झन्नाटेदार थप्पड़ की आवाज मेरे कानों में गूँज गयी। मैंने ऑंखें खोलीं । यह तो पिताजी का हाथ था मेरे गाल से चिपका हुआ और मेरी ऑंखें के आगे चाँद- तारे झिलमिला रहे थे।

इसके बाद की सारी प्रक्रियाएँ यंत्रवत होती गयीं।मैं एक रोबोट की तरह तब तक मुँह खोल-बंद करता रहा जब तक कुर्सी से उतर जाने का डॉक्टर का आदेश  नहीं आ गया। कुर्सी का सफ़र बाक़ी के घटनाक्रमों में सबसे आसान लगा।

लेकिन उस झन्नाटेदार थप्पड़ ने हमेशा के लिये एक ऐसी जागृति पैदा कर दी कि अब दाँतों में यदि पीलापन भी झलक जाये तो मैं डॉक्टर के पास पहले भागता हूँ।

हल्दी की गॉंठ, लाल मिर्च के छौंक, झाड़ू की पिटाई और झन्नाटेदार चौके से तो कुर्सी पर बैठकर डॉक्टर का स्पेसिमेन बनना कहीं ज़्यादा आसान लगने लगा है। रही बात चॉकलेट -मिठाइयों की तो उनका उपवास तो अब भी जारी ही है।



निरुपमा नागोरी
औरंगाबाद महाराष्ट्र
विधा- कविता, संस्मरण,यात्रा-वृत्तांत
दू. ९४२२२०२६४५

2 टिप्‍पणियां:

  1. निरूपमा जी ने बढ़िया व्यंग्य लिखा है ।

    जवाब देंहटाएं
  2. इस पर एक शॉर्ट फ़िल्म बन सकती है । बोहोत बढ़ियाँ ।

    जवाब देंहटाएं